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पुरुष सूक्त तथा रुद्रसूक्त

  Purusha Suktam ॐ सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र पात्।  स भूमिम् सर्वत स्पृत्वा ऽत्यतिष्ठद् दशांगुलम्॥1॥  पुरुषऽ एव इदम् सर्वम् यद भूतम् यच्च भाव्यम्।  उत अमृत त्वस्य ईशानो यद् अन्नेन अतिरोहति॥2॥  एतावानस्य महिमातो ज्यायान्श्र्च पुरुषः।  पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्य अमृतम् दिवि॥3॥  त्रिपाद् उर्ध्व उदैत् पुरूषः पादोस्य इहा भवत् पुनः।  ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशनेऽ अभि॥4॥  ततो विराड् अजायत विराजोऽ अधि पुरुषः।  स जातोऽ अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिम् अथो पुरः॥5॥  तस्मात् यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतम् पृषदाज्यम्।  पशूँस्ताँश् चक्रे वायव्यान् आरण्या ग्राम्याश्च ये॥6॥  तस्मात् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे॥  छन्दाँसि जज्ञिरे तस्मात् यजुस तस्माद् अजायत117॥  तस्मात् अश्वाऽ अजायन्त ये के चोभयादतः।  गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्मात् जाता अजावयः॥8॥  तम् यज्ञम् बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषम् जातम अग्रतः।  तेन देवाऽ अयजन्त साध्याऽ ऋषयश्च ये॥9॥  यत् पुरुषम् व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्॥  मुखम् किमस्य आसी...

विवाह मुहुर्त निर्धारण संपुर्ण विवरण, त्याज्य मास तिथि वार नक्षत्र

  विवाह मुहुर्त निर्धारण करने की संपुर्ण विधि का विवरण देने का प्रयास किया जा रहा है। विवाह मे क्या त्याग व ग्रहण करना हैइसकी भी जानकारी दी जा रही है। विवाह मुहूर्त का निर्धारण करते समय निम्न नियमों का पालन किया जाना चाहिए : मास शुद्धि - माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ व मार्गशीर्ष विवाह के लिए शुभ मास हैं। विवाह के समय  देव शयन (आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी) उत्तम नहीं होता। यदि मकर संक्रांति पौष में हो तो पौष में तथा मेष संक्रांति के बाद चैत्र में विवाह हो सकता है। अर्थात धनु व मीन की संक्रांति (सौर मास पौष व चैत्र) विवाह के लिए शुभ नहीं है। पुत्र के विवाह के बाद 6 मासों तक कन्या का विवाह वर्जित है। पुत्री विवाह के बाद 6 मासों में पुत्र का विवाह हो सकता है। परिवार में विवाह के बाद 6 मास तक छोटे मंगल कार्य  (मुंडन आदि) नहीं किए जाते। जन्म मासादि निषेध पहले गर्भ से उत्पन्न संतान के विवाह में उसका जन्म और मास, जन्मतिथि तथा जन्म नक्षत्र का त्याग करे। शेष के लिए जन्म नक्षत्र छोड़ कर मास व तिथि में विवाह किया जा सकता है। ज्येष्ठादि विचार ज्येष्ठ मास में उत्प...

Yogni dasha योगनी दशा क्या है योगनी दशा के स्वामी कौन है योगनी दशा का निर्धारण कैसे करते है

 श्रीराम । जन्मकुंडली मे फलादेश के लिए विंशोत्तरी दशा, चर दशा व योगनी दशा का प्रयोग होता है। विंशोत्चरी की तरह २७ नक्षत्र के अनुसार ही योगनी दशा का भी निर्धारण किया जाता है। अलग अलग नक्षत्र की अलग अलग योगनी दशा है। जन्मकाल मे जो नक्षत्र होता है। उस नक्षत्र की स्वामी जो योगनी है वही योगनी दशा का आरंभ माना जायेगा। कुल आठ योगिनी दशाएं हैं मंगला, पिंगला, धान्या, भ्रामरी, भद्रिका, उल्का, सिद्धा और संकटा। इनकी समयावधि क्रमश: 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8 वर्ष होती है। इन सबका कुल योग 36 वर्ष होता है। योगनी दशा का निर्धारण व उनके नक्षत्र तथा स्वामी मंगला : योगिनी दशा की पहली दशा है मंगला। यह एक वर्ष की होती है। इसके स्वामी चंद्र हैं और जिन जातकों का जन्म आद्र्रा, चित्रा, श्रवण नक्षत्र में होता है, उन्हें मंगला दशा होती है। यह दशा अच्छी मानी जाती है। मंगला योगिनी की कृपा जिस जातक पर हो जाती है उसे हर प्रकार के सुख-संपन्नता प्राप्त होती है। उसके संपूर्ण जीवन में मंगल ही मंगल होता है। पिंगला : क्रमानुसार दूसरी योगिनी दशा पिंगला की होती है। यह दो वर्ष की होती है। इसके स्वामी सूर्य हैं। जिनका जन्म पु...

जाति वर्ण व ब्राह्मण की शाशत्रीय प्रमाणिक विवेचना

हारीत ऋषि ने सृष्टिकर्म का वर्णन करते हुए हारीत स्मृति मे पुरुषसूक्त के श्लोक को स्पष्ट करते हुए कहा है कि- *यज्ञ सिद्धयर्थमनवान्ब्राह्मणान्मुखतो सृजत।। सृजत्क्षत्रियान्वार्हो वैश्यानप्यरुदेशतः।। शूद्रांश्च पादयोसृष्टा तेषां चैवानुपुर्वशः।*( १अ० १२/१३) *यज्ञ की सिद्धि के लिये ब्राह्मणो को मुख से उत्पन्न किया। इसके बाद क्षत्रियो को भुजाओ से वैश्य को जंघाओ से, और शूद्र को चरणो से रचा।* वशिष्ठ स्मृति चतुर्थ अध्याय मे सृष्टिक्रम का उल्लेख करते हुए वशिष्ठ जी कहते है। - *ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत:। उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्भया ्ँ शूद्रो अजायत।।*  *गायत्रा छंदसा ब्राह्मणमसृजत। त्रिस्टुभा राजन्यं जगत्या वैश्यं न केनाचिच्छंदसा शूद्रमित्य संस्कार्यो विज्ञायते।।* गायत्री छंद से ब्राह्मण की सृष्टि है। त्रिष्टुभ छंद से क्षत्रिय की सृष्टि है। और जगती छंद से वैश्य की सृष्टि ईश्वर ने की है। इसलिये उपरोक्त वेदमंत्र से इनका संस्कार होता है।  तत्र मित्र न वस्तव्यं यत्र नास्ति चतुष्टयं । ऋणदाता च वैद्यश्च श्रोत्रियः सजला नदी ॥ मित्रो , जिस स्थान पर ऋणदाता, वैद्य, वेद पारंगत श्रोत्रिय ...

श्रीराम ने लक्ष्मण जी को सहोदर भ्राता क्यो कहा

सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥ ७ ॥ अस बिचारि जिय जागहु ताता मिलै न जगत सहोदर भ्राता॥   इस पर अनावश्यक रुप से तूल दिया जा रहा है। यह कोई नया प्रश्न नही , वर्षो से इसके उत्तर मे तरह तरह के तर्क जोडे जाते रहे है। विविध विद्वानो ने अपना अपना पक्ष रखा है, जिसमे- पायस से उत्पत्ति के कारण, कौशल्या के गर्भ मे आठ मास रहने की बात, एक पिता से उत्पन्न होने के कारण आदि तरह तरह की बाते कही जाती रही है। किन्तु जब इन कथित प्रमाणो को शब्दार्थ की कसौटी पर कसते है, तो ये सभी कथन स्वतः ही निर्मूल हो जाते है।   अतैव जिज्ञासुगण से निवेदन है कि इस लेख को ध्यान पुर्वक मनन करते हुए शान्तचित्त से पढ़े।      तुलसी जी ने प्रसंग आरंभ करने के पहले ही एक संकेत स्पष्टरुप से किया है, जिसपर ध्यान देना आवश्यक है। उहाँ राम लछिमनहि निहारी बोले बचन मनुज अनुसारी ।। शब्दार्थ- अनुसारी-सदृश, समान अनुसरण करते हुए। अर्थ-उधर लक्ष्मणजीको देखकर श्रीरामजी प्राकृत मनुष्योंके समान वचन बोले ॥   नोट-१ इस स्थानपर 'उहाँ' पद देकर जनाया कि कवि इस समय श्रीहनुमानजी के साथ हैं। जहाँका चर...

संपुर्ण बजरंग बाण

 पवित्र होकर हनुमानजी का पूजन करे। ध्यान करे। हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् सकल गुण निधानं वानराणामधीशं, रघुपति प्रियभक्त वातजातं नमामि ।।  बंजरंगबाण निश्चय प्रेम प्रतीत ते. विनय करें सनमान तेहि के कारज सकल शुभ सिद्ध करें हनुमान।। जय हनुमंत संत हितकारी सुन लीजै प्रभु अरज हमारी जन के काज विलंब न कीजें आतुर दौर महासुख दीजै ।। जैसे कूदि सिंधु के पारा , सुरसा बदन पैठि विस्तारा।  आगे जाय लंकिनी रोका मारेहु लात गई सुरलोका।।  जाय विभीषण को सुख दीन्हा सीता निरखि परम पद लीन्हा। बाग उजारि सिंधु मह बोरा अति आतुर यमकातर तोरा ।। अक्षय कुमार मार संहारा , लुमि लपेटि लंक को जारा।।  लाह समान लंक जरि गई , जय-जय धुनि सुरपुर नभ भई। अब बिलंब केहि कारण स्वामी कृपा करहु प्रभु अन्तरयामी,  जय-जय लक्ष्मण प्राण के दाता आतुर होइ दुःख करहू निपाता। जय गिरधर जय-जय सुख सागर सुर समूह समरथ भटनागर ।। ॐ हनु हनु हनुमंत हठीले बैरिहिं मारू वज्र के कीले ।। गदा व्रज लै बैरहिं मारौ महाराज निज दास उबारौ।। सुनि हुंकार हुंकार दै धावो वज्र गदा हनु विलंब न लावौ।। ॐ ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपी...

घर का द्वार मुख्यद्वार कहॉ किस दिशा मे होना चाहिए

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 मुख्य द्वार (१) वास्तुचक्रको चारों दिशाओं में कुल बत्तीस देवता स्थित हैं। किस देवता के स्थान में मुख्य द्वार बनानेसे क्या शुभाशुभ फल होता है, इसे बताया जाता है पूर्व १. शिखी- इस स्थानपर द्वार बनाने दुःख, हानि और असे भय होता है।  २. पर्जन्य- इस स्थानपर द्वार बनानेसे परिवार में कन्याओंकी वृद्धि, निर्धनता तथा शोक होता है। ३. जयन्त- इस स्थानपर द्वार बनानेसे धनको प्राप्ति होती है। ४. इन्द्र-इस स्थानपर द्वार बनाने राज-सम्मान प्राप्त होता है।  ५. सूर्य इस स्थानपर द्वार बनानेसे धन प्राप्त होता है। (मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनानेसे क्रोधको अधिकता ६. सत्य- इस स्थानपर द्वार बनानेसे चोरी कन्याओ की वृद्धि तथा असत्यभाषणकी अधिकता होती है।  ७भृश- इस स्थानपर द्वार बनाने से क्रूरता अति क्रोध तथा अपुत्रता होती है।  ८. अन्तरिक्ष- इस स्थानपर द्वार बनानेसे चोरीका भय तथा हानि होती है। दक्षिण ९. अनिल- इस स्थानपर द्वार बनानेसे सन्तानकी कमी तथा मृत्यु होती है। १०. पूषा - इस स्थानपर द्वार बनानेसे दासत्व तथा बन्धनकी प्राप्ति होती है। ११. वितथ- इस स्थानपर द्वार बनानेसे नीचता तथा भयकी प्र...