हनुमान बाहुक

 

श्रीगणेशाय नमः

श्रीजानकीवल्लभो विजयते

श्रीमद्-गोस्वामी-तुलसीदास-कृत

 

 

छप्पय

सिंधु-तरन, सिय-सोच-हरन, रबि-बाल-बरन तनु ।

भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको काल जनु ।।

गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव ।

जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवनसुव ।।

कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट ।

गुन-गनत, नमत, सुमिरत, जपत समन सकल-संकट-विकट ।।१।।

 

 

स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रबि-तरुन-तेज-घन ।

उर बिसाल भुज-दंड चंड नख-बज्र बज्र-तन ।।

पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन ।

कपिस केस, करकस लँगूर, खल-दल बल भानन ।।

कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति बिकट ।

संताप पाप तेहि पुरुष पहिं सपनेहुँ नहिं आवत निकट ।।२।।

 

 

झूलना

पंचमुख-छमुख-भृगु मुख्य भट असुर सुर, सर्व-सरि-समर समरत्थ सूरो ।

बाँकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैजपूरो ।।

जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासुबल, बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो ।

दुवन-दल-दमनको कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रुरो ।।३।।

 

घनाक्षरी

भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन-अनुमानि सिसु-केलि कियो फेरफार सो ।

पाछिले पगनि गम गगन मगन-मन, क्रम को न भ्रम, कपि बालक बिहार सो ।।

कौतुक बिलोकि लोकपाल हरि हर बिधि, लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो।

बल कैंधौं बीर-रस धीरज कै, साहस कै, तुलसी सरीर धरे सबनि को सार सो ।।४।।

 

भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज, गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो ।

कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर, बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो ।।

बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि, फलँग फलाँग हूँतें घाटि नभतल भो ।

नाई-नाई माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जोहैं, हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ।।५

 

 

गो-पद पयोधि करि होलिका ज्यों लाई लंक, निपट निसंक परपुर गलबल भो ।

द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ।।

संकट समाज असमंजस भो रामराज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।

साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बाँह, लोकपाल पालन को फिर थिर थल भो ।।६

 

 

कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो, नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो ।

जातुधान-दावन परावन को दुर्ग भयो, महामीन बास तिमि तोमनि को थल भो ।।

कुम्भकरन-रावन पयोद-नाद-ईंधन को, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो ।

भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान, सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ।।७

 

 

दूत रामराय को, सपूत पूत पौनको, तू अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो ।

सीय-सोच-समन, दुरित दोष दमन, सरन आये अवन, लखन प्रिय प्रान सो ।।

दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो, प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो ।

ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान, साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ।।८

 

 

दवन-दुवन-दल भुवन-बिदित बल, बेद जस गावत बिबुध बंदीछोर को ।

पाप-ताप-तिमिर तुहिन-विघटन-पटु, सेवक-सरोरुह सुखद भानु भोर को ।।

लोक-परलोक तें बिसोक सपने न सोक, तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को ।

राम को दुलारो दास बामदेव को निवास, नाम कलि-कामतरु केसरी-किसोर को ।।९।।

 

महाबल-सीम महाभीम महाबान इत, महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को ।

कुलिस-कठोर तनु जोरपरै रोर रन, करुना-कलित मन धारमिक धीर को ।।

दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को, सुमिरे हरनहार तुलसी की पीर को ।

सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को, सेवक सहायक है साहसी समीर को ।।१०।।

 

रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि, हर मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो ।


धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को, सोखिबे कृसानु, पोषिबे को हिम-भानु भो ।।

खल-दुःख दोषिबे को, जन-परितोषिबे को, माँगिबो मलीनता को मोदक सुदान भो ।

आरत की आरति निवारिबे को तिहुँ पुर, तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो ।।११।।

 

 

सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि, सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को ।

देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ, बापुरे बराक कहा और राजा राँक को ।।

जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद, ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को ।

सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ-तहाँ ताहि, जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को ।।१२।।

 

 

सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि, लोकपाल सकल लखन राम जानकी ।

लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि, तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ।।

केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब, कीरति बिमल कपि करुनानिधान की ।

बालक-ज्यों पालिहैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको, जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की ।।१३।।

 

 

करुनानिधान, बलबुद्धि के निधान मोद-महिमा निधान, गुन-ज्ञान के निधान हौ ।

बामदेव-रुप भूप राम के सनेही, नाम लेत-देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ।।

आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील, लोक-बेद-बिधि के बिदूष हनुमान हौ ।

मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार, तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ।।१४।।

 

 

मन को अगम, तन सुगम किये कपीस, काज महाराज के समाज साज साजे हैं ।

देव-बंदी छोर रनरोर केसरी किसोर, जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं ।

बीर बरजोर, घटि जोर तुलसी की ओर, सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे हैं ।

बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं, जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं ।।१५।।

 

 

सवैया

जान सिरोमनि हौ हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो ।

ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो ।।

साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहाँ तुलसी को न चारो ।

दोष सुनाये तें आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तौ हिय हारो ।।१६।।

 

 

तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे घर घाले ।

तेरे निवाजे गरीब निवाज बिराजत बैरिन के उर साले ।।

संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले ।

बूढ़ भये, बलि, मेरिहि बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ।।१७।।

 

सिंधु तरे, बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवा से ।

तैं रनि-केहरि केहरि के बिदले अरि-कुंजर छैल छवा से ।।

तोसों समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से ।

बानर बाज ! बढ़े खल-खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवा-से ।।१८।।

 

अच्छ-विमर्दन कानन-भानि दसानन आनन भा न निहारो ।

बारिदनाद अकंपन कुंभकरन्न-से कुंजर केहरि-बारो ।।

राम-प्रताप-हुतासन, कच्छ, बिपच्छ, समीर समीर-दुलारो ।

पाप-तें साप-तें ताप तिहूँ-तें सदा तुलसी कहँ सो रखवारो ।।१९।।

 

घनाक्षरी

जानत जहान हनुमान को निवाज्यौ जन, मन अनुमानि बलि, बोल न बिसारिये ।

सेवा-जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी, साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये ।।

अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति, मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये ।

साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के, बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये ।।२०।।

 

 

बालक बिलोकि, बलि बारेतें आपनो कियो, दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये ।

रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल, आस रावरीयै दास रावरो बिचारिये ।।

बड़ो बिकराल कलि, काको न बिहाल कियो, माथे पगु बलि को, निहारि सो निवारिये ।

केसरी किसोर, रनरोर, बरजोर बीर, बाँहुपीर राहुमातु ज्यौं पछारि मारिये ।।२१।।

 

 

उथपे थपनथिर थपे उथपनहार, केसरी कुमार बल आपनो सँभारिये ।

राम के गुलामनि को कामतरु रामदूत, मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये ।।

साहेब समर्थ तोसों तुलसी के माथे पर, सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये ।

पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर, मकरी ज्यौं पकरि कै बदन बिदारिये ।।२२।।

 

राम को सनेह, राम साहस लखन सिय, राम की भगति, सोच संकट निवारिये ।

मुद-मरकट रोग-बारिनिधि हेरि हारे, जीव-जामवंत को भरोसो तेरो भारिये ।।

कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम-पब्बयतें, सुथल सुबेल भालू बैठि कै बिचारिये ।

महाबीर बाँकुरे बराकी बाँह-पीर क्यों न, लंकिनी ज्यों लात-घात ही मरोरि मारिये ।।२३।।

 

 

लोक-परलोकहुँ तिलोक न बिलोकियत, तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये ।

कर्म, काल, लोकपाल, अग-जग जीवजाल, नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये ।।

खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर, तुलसी सो देव दुखी देखियत भारिये ।

बात तरुमूल बाँहुसूल कपिकच्छु-बेलि, उपजी सकेलि कपिकेलि ही उखारिये ।।२४।।

 

करम-कराल-कंस भूमिपाल के भरोसे, बकी बकभगिनी काहू तें कहा डरैगी ।

बड़ी बिकराल बाल घातिनी न जात कहि, बाँहूबल बालक छबीले छोटे छरैगी ।।

आई है बनाइ बेष आप ही बिचारि देख, पाप जाय सबको गुनी के पाले परैगी ।

पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपिकान्ह तुलसी की, बाँहपीर महाबीर तेरे मारे मरैगी ।।२५।।

 

 

भालकी कि कालकी कि रोष की त्रिदोष की है, बेदन बिषम पाप ताप छल छाँह की ।

करमन कूट की कि जन्त्र मन्त्र बूट की, पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँह की ।।

पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि, बाबरी न होहि बानि जानि कपि नाँह की ।

आन हनुमान की दुहाई बलवान की, सपथ महाबीर की जो रहै पीर बाँह की ।।२६।।

 

 

सिंहिका सँहारि बल, सुरसा सुधारि छल, लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है ।

लंक परजारि मकरी बिदारि बारबार, जातुधान धारि धूरिधानी करि डारी है ।।

तोरि जमकातरि मंदोदरी कढ़ोरि आनी, रावन की रानी मेघनाद महँतारी है ।

भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर, कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है ।।२७।।

 

तेरो बालि केलि बीर सुनि सहमत धीर, भूलत सरीर सुधि सक्र-रबि-राहु की ।

तेरी बाँह बसत बिसोक लोकपाल सब, तेरो नाम लेत रहै आरति न काहु की ।।

साम दान भेद बिधि बेदहू लबेद सिधि, हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की ।

आलस अनख परिहास कै सिखावन है, एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की ।।२८।।

 

 

टूकनि को घर-घर डोलत कँगाल बोलि, बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है ।

कीन्ही है सँभार सार अँजनी कुमार बीर, आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है ।।

इतनो परेखो सब भाँति समरथ आजु, कपिराज साँची कहौं को तिलोक तोसो है ।

सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास, चीरी को मरन खेल बालकनि को सो है ।।२९।।

 

 

आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें, बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है ।

औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये, बादि भये देवता मनाये अधिकाति है ।।

करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल, को है जगजाल जो न मानत इताति है ।

चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत, ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ।।३०।।

 

 

दूत राम राय को, सपूत पूत बाय को, समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को ।

बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत, रावन सो भट भयो मुठिका के घाय को ।।

एते बड़े साहेब समर्थ को निवाजो आज, सीदत सुसेवक बचन मन काय को ।

थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को, कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को ।।३१।।

 

 

देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग, छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं ।

पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाम, राम दूत की रजाइ माथे मानि लेत हैं ।।

घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग, हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं ।


क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को, सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं ।।३२।।

 

 

तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों, तेरे घाले जातुधान भये घर-घर के ।

तेरे बल रामराज किये सब सुरकाज, सकल समाज साज साजे रघुबर के ।।

तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत, सजल बिलोचन बिरंचि हरि हर के ।

तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीसनाथ, देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के ।।३३।।

 

पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये न, कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये ।

भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष, पोषि तोषि थापि आपनी न अवडेरिये ।।

अँबु तू हौं अँबुचर, अँबु तू हौं डिंभ सो न, बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये ।

बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि, तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये ।।३४।।

 

 

घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है ।

बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष धूम-मूल मलिनाई है ।।

करुनानिधान हनुमान महा बलवान, हेरि हँसि हाँकि फूँकि फौजैं ते उड़ाई है ।

खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है ।।३५।।

 

सवैया

राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो ।

पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ।।

बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो ।

श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो ।।३६।।

 

घनाक्षरी

काल की करालता करम कठिनाई कीधौं, पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे ।

बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन, सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे ।।

लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि, सींचिये मलीन भो तयो है तिहुँ तावरे ।

भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान, जानियत सबही की रीति राम रावरे ।।३७।।

 

 

पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुँह पीर, जरजर सकल पीर मई है ।

देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहि पर दवरि दमानक सी दई है ।।

हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारेही तें, ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है ।

कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि, हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है ।।३८।।

 

 

बाहुक-सुबाहु नीच लीचर-मरीच मिलि, मुँहपीर केतुजा कुरोग जातुधान हैं ।

राम नाम जगजाप कियो चहों सानुराग, काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान हैं ।।

सुमिरे सहाय राम लखन आखर दोऊ, जिनके समूह साके जागत जहान हैं ।

तुलसी सँभारि ताड़का सँहारि भारि भट, बेधे बरगद से बनाइ बानवान हैं ।।३९।।

 

 

बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो, राम नाम लेत माँगि खात टूकटाक हौं ।

परयो लोक-रीति में पुनीत प्रीति राम राय, मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हौं ।।

खोटे-खोटे आचरन आचरत अपनायो, अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं ।

तुलसी गुसाँई भयो भोंडे दिन भूल गयो, ताको फल पावत निदान परिपाक हौं ।।४०।।

 

 

असन-बसन-हीन बिषम-बिषाद-लीन, देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को ।

तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो, दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को ।।

नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो, बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को ।

ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस, फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को ।।४१।।

 

 

जीओं जग जानकी जीवन को कहाइ जन, मरिबे को बारानसी बारि सुरसरि को ।

तुलसी के दुहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँउ, जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को ।।

मोको झूटो साँचो लोग राम को कहत सब, मेरे मन मान है न हर को न हरि को ।

भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत, सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को ।।४२।।


सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित, हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै ।

मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय, तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै ।।

ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की, समाधि कीजे तुलसी को जानि जन फुर कै ।

कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ, रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कै ।।४३।।

 

कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों, कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये ।

हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई, बिरची बिरञ्ची सब देखियत दुनिये ।।

माया जीव काल के करम के सुभाय के, करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये ।

तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहि, हौं हूँ रहों मौनही बयो सो जानि लुनिये ।।४४।।


    विस्तृत जानकारी विधि व लाभ के लिए संपर्क करे नि:शुल्क



भास्कर ज्योतिष्य व तंत्र अनुसंधान केन्द्र pandit ji

090449 36925

https://maps.app.goo.gl/Tq6C9u8eorU2Je3S8

सुवर्चला कौन थी ?


संपुर्ण बजरंग बाण


 मंत्र दीक्षा की संपुर्णज जानकारी के लिए एक विस्तृत व शाशत्रोक्त विवेचन

पूजा व मंत्र जप का सही तरीका

मंत्र सिद्धादि शोधन 

मंत्र शोधन के अपवाद 

 मंत्र ऋण धन शोधन विधि 

आयु व मंत्र के प्रकार किस आयु मे कौन सा मंत्र जपना चाहिए  

पूजा पाठ तरने वाले दुखी क्यो रहते है?

मंत्र सिद्धि के उपाय व लक्षण

क्या यज्ञोपवीत के बाद दुसरू शिक्षा लेनी चाहिये







यज्ञोपवीत दीक्षा के बाद भी गुरु दीक्षा आवश्यक है

 श्रीराम ।

एक जिज्ञासा:-विप्र को यज्ञोपवित संस्कार के समय गुरुदीक्षा हो जाती है।तो क्या बाद में भी वैष्णव परंपरा आदि संतों से दीक्षित होना चाहिए??कृपया शास्त्र सम्वत आज्ञा से जिज्ञासा शांत करने की कृपा करें। एक जिज्ञासु🙏🏻🙏🏻


पं.राजेश मिश्र 'कण' का उत्तर

*यथा सिंहम द्रष्टवा भीतो याति वने गजः अधिक्षीतो अर्चये लिंग तथा भीतो महेश्वरी ।।*


जिस प्रकार हाथी  वन में सिंह को देखकर भय भीत होता है। उसी प्रकार अदिक्षित व्यक्ति भवअरण्य में भय से

कांपता है यानि गुरु के बगैर शिष्य का भव भय मुक्त होना

असंभव है।

  


दीयते च शिव ज्ञानम क्षीयते पाश बंधनम स्मादातः समाख्याता दिक्षेतियंम विचक्षणैः । 


दीक्षा का अर्थ है :-


दीयते लिंग समधः क्षीयते मलत्रयम दीयते क्षीयते तस्मात् सा दिक्षेती निगद्यते ।।


 अगर हम दीक्षा शब्द को देखें तो इसमें दो व्यंजन और दो स्वर मिले हुए हैं। -

 "द'

'ई'


"क्ष"


"आ"


द का अर्थ-


"द" का अर्थ है दमन है।  इन्द्रियों का निग्रह मन का निग्रह का नाम दमन है।


ई का अर्थ-


"ई" का अर्थ ईश्वर उपासना है। विषयातीत मानसिक बुद्धि को गुरु और शास्त्र के द्वारा बतायी हुई विधि के अनुसार परमात्मा में एक ही भाव से स्थिर रखने का नाम ईश्वर उपासना है।


"क्ष" का अर्थ-


"क्ष" का अर्थ क्षय करना है। उपासना करते करते जब हमारी मनोस्थिति परमात्मा में लीन होने लगती है उस क्षण में जो वासना जलकर नष्ट होती है, उसे क्षय कहते हैं।


आ का अर्थ-


"आ" का अर्थ आनंद है। मन, बुद्धि, चित्त आदि के विषय काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, इन सभी विकारों का अवकाश जब हमारे जीवन में होने लगता है और अंतःकरण में दिव्य चेतना का प्रकाश होते ही प्रसन्नता, समता, प्रेम प्रकट होने लगता है, उस क्षण का नाम आनंद है। जब हमारा जीव भाव, परमात्मा भाव में परिणित होता है, उस अवस्था का नाम आनंद है, जो शब्द का नहीं अनुभव का विषय होता है।


*उपनयनसंस्कार में गुरुदीक्षा हो जाती है, तो क्या पुन: किसी दीक्षा की आवश्यकता है?*

*शाश्त्रो में चौसठ प्रकार की दीक्षा का वर्णन है। 

*जबकि मूलरुप से तीन प्रकार की दीक्षा कही गई है।

*इस का प्रमाण सिद्धांत शिखामणि में  श्लोक स्पष्ट है-

*सादीक्षा त्रिविधाप्रोक्ता शिवागम विशारदैः वैधारूपा क्रियारूपा मंत्ररूपा च तापस ।।*

मलत्रय (अशुद्ध से जीव ) को नाश (बंधन मुक्त ) करके लिंगय (शुद्ध शिव) सम्बन्ध बनना ही दीक्षा है। दीक्षा तिन प्रकार है १) वेध दीक्षा- सिद्ध गुरु द्वारा समर्थ शिष्य में शक्तिपात द्वारा षटचक्रो का वेधन किया जाता है।

 २) मंत्र दीक्षा - गुरु द्वारा  शिष्य के कल्याण के लिए योग्य मंत्र का अभ्यास कराना मंत्र दीक्षा है।

 ३) क्रिया दीक्षा -योगादि 

इस प्रकार ये मूल तीन दीक्षा है, इसके अतिरिक्त संप्रदाय बिशेष से भिन्नता मिलती है। जन्मसे मृत्युपर्यन्त तकदीक्षा का विधान है ।

यथा-

वीरशैवस्थितानाम च स्त्रीणानं गर्भाष्टमे गुरुः पंचसूत्रकत लिंगं धारयेत विधि वच्छुभम ।।


स्वयंभू अागम में जन्म दीक्षा के विषय पर य श्लोक है-


इति बध्वा चेष्टलिंग प्रतिक्षेत शिशोर्जनिम संस्कुर्यत्तनयम जातकर्मणा जननात्परम ।।


जात कर्म करते समय यह लिंग दीक्षा जन्म दीक्षा कहलाता है। शिशु के जन्म होते ही जब तक जन्म दीक्षा धारण नही किया जाता है तब तक शिशु को माँ में अपना दूध नहीं पिलाती। इस कारण जन्म के पश्यात २ घंटे के अंदर शिशु को जन्म दीक्षा धारण कराया जाता है।


*उपनयन मे प्राप्त दीक्षा गायत्री , यज्ञ,पूजन व शिक्षा की अधिकारी बनाती है। किन्तु सैकडो प्रकार की कामनाओ के लिए, कुल परंपरा के निर्वाह के लिए, अध्यात्मिक व सामाजिक उन्नति के लिए सद्गति की प्राप्ति के लिए अलग से दीक्षा का विधान है ।* इन बिषयो का बिस्तृत अध्ययन करने के उपरांत पं.राजेश मिश्र 'कण' का यह विचार है कि

*अपने कुलगुरु के कुल से ही, योग्य ब्राह्मण  गुरु हेतु निवेदन करे ।किन्तु यदि योग्य व सदाचारी न मिलने पर अन्य किसी योग्य विद्वान सदाचारी ब्राह्मण से दीक्षा का विनम्र निवेदन करना चाहिए।

 जय जय सीताराम ।

 

 मंत्र दीक्षा की संपुर्णज जानकारी के लिए एक विस्तृत व शाशत्रोक्त विवेचन

पूजा व मंत्र जप का सही तरीका

मंत्र सिद्धादि शोधन 

मंत्र शोधन के अपवाद 

 मंत्र ऋण धन शोधन विधि 

आयु व मंत्र के प्रकार किस आयु मे कौन सा मंत्र जपना चाहिए  

पूजा पाठ तरने वाले दुखी क्यो रहते है?

मंत्र सिद्धि के उपाय व लक्षण

क्या यज्ञोपवीत के बाद दुसरू शिक्षा लेनी चाहिये






नाड़ी दोष संपुर्ण शास्त्रीय चिन्तन



नाड़ी दोष संपुर्ण शास्त्रीय चिन्तन

पं.राजेश मिश्र "कण" भास्कर ज्योतिष्य अनुसंधान केन्द्र बरईपुर आजमगढ़।

भारतीय सनातन परम्परामे विवाह चतुर्पुरुषार्थ सिद्धि के लिए अनिवार्य व्यवस्था है।

 विवाह पूर्व वर एवं बधू के जन्मनक्षत्रों का ज्योतिषीय विधि से विविध प्रकार का परीक्षण किया जाता है जिसे हम मेलापक, आनुकूल्य या प्रीति कहते हैं। विवाह मेलापक में विविध स्थानो पर क्षेत्रिय व्यवस्था के अनुसार  विविध प्रकार के कूटों का अनुप्रयोग किया जाता है जिनकी संख्या 8, 10, 12, 18, 20, 23 अब तक के व्यक्तिगत शोध अध्ययन से यह ज्ञात हुआ है कि विवाह में समवेत रूप से अधिकतम 23 प्रकार के मेलापक का विचार विवाह पूर्व वर एवं वधू में किया जाता है किन्तु इन सबका प्रयोग सम्बन्धित क्षेत्रों तक ही सीमित है तथा विशेष परिस्थितियों में इनका प्रयोग किया जाता है। जिसमे 4 मेलापक राशि से, 1 मेलापक ग्रह से, 16 मेलापक नक्षत्रों से, तथा आयु एवं शक्ति (प्रेम मेलापक से करते हैं। प्रश्नमार्ग में है -



*चत्वारिभिर्भपेनैकं सक्त्या च वयसोडुभिः ।

शोडषेत्यनुकूलानां त्रयोविंशतिरीरिता ।।*


इन विविध कूटों के होते हुये भी सम्पूर्ण ज्योतिष वाङ्मय में अष्ट कूटों की ही प्राधानता स्वीकार है। इन सभी कूटों में भी नाडी कूट का विशेष महत्व है क्योंकि ब्रह्मा ने इस स्त्रियों के मंगलसूत्र की तरह बनाया है जिस प्रकार स्त्रियों के कण्ठ में आजीवन पर्यन्त सर्वदा मंलगसूत्र विराजमान रहता है उसी प्रकार विविध कूटों में प्रधान रूप से नाडी कूट विराजमान रहता है -


*नाडीकूटं तु संग्राह्यं कूटानां तु शिरोमणिः ।

ब्रह्मणा कन्यकाकण्ठसूत्रत्वेन विनिर्मितम् ।।*


अतः सभी कूटों में नाडी कूट का अवश्य ही विचार करना चाहिये। प्रायः सभी ग्रन्थों में अश्विन्यादि क्रम से आदि मध्य एवं अन्त्य नाडी का ही उल्लेख प्राप्त होता है तथा दैवज्ञ लोग भी इसी त्रिनाडी का प्रयोग विवाह मेलापक में करते हैं किन्तु शास्त्रीय गन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि इसके अतिरिक्त भी और दो प्रकार का नाडी कूट होता है । जिसका सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करना चाहिये। प्रथम है त्रिनाडी, द्वितीय है चतुर्नाडी तथा तृतीय है पंचनाड़ी। इस सभी प्रकार के नाडी कूटों का हम विशेष रूप से वर्णन क्रमशः करेंगे।


त्रिनाड़ी कूट -

त्रिनाडी कूट का ही सर्वत्र प्रचार एवं प्रसार दिखाई देता है। क्योंकि यह ज्ञान विधि में अत्यन्त सरल एवं सहज है समाज में यह देखा जाता है कि जो वस्तु सरल है उसी का प्रयोग प्रायः सभी लोग करते हैं जैसे विंशोत्तरी दशा। दशायें तो बहुविध है किन्तु सरल एवं सहज होने के कारण प्रायः सर्वत्र इसी का प्रयोग लोग करते हैं। वराहमिहिर ने भी विंशोत्तरी दशा का उल्लेख नहीं किया है। उन्होनें ग्रहानीत आयु को ही ग्रह दशा प्रमाण स्वीकार्य किया है। त्रिनाडी कूट का सम्बन्ध जीवन दायी श्वास एवं प्रश्वास से है । आयुर्वेद शास्त्र में प्रतिपादित इडा पिंगला सुषुम्ना नाडी का प्रयोग किया जाता है जिसके प्रतिकूल होने पर शरीर में विभिन्न प्रकार की व्याधियां उत्पन्न होती है। अतः यदि वरवधू के जन्म नक्षत्र जन्य नाडीयों में भी प्रतिकूलता होती है तो विवाह अशुभ होता है। त्रिनाडी कूट में आदि मध्य एवं अन्त्य तीन प्रकार के नक्षत्रों का विभाजन क्रमशः अश्विन्यादि क्रम से सर्पाकार स्वरूप में किया जाता है। जैसा कि अधोलिखित चक्र से स्पष्ट है।


त्रिनाडी चक्र -

आदि अश्विनी आद्र्रा पुनर्वसु उ0 फा0 हस्त ज्येष्ठा मूल शतभिषा पू0भा0

मध्य भरणी मृगशिरा पुष्य पू0 फा0 चित्रा अनुराधा पू0 षा0 धनिष्ठा उ0 भा0

अन्त्य कृत्तिका रोहिणी आश्लेषा मघा स्वाती विशाखा उ0 षा0 श्रवण रेवती

उपर्युक्त चक्र के आधार पर किसी की भी नाडी सरलता से जानी जा सकती है यदि किसी का जन्म नक्षत्र आद्र्रा है तो उसकी नाडी आदि होगी। इसी प्रकार अन्य का भी जानना चाहिये। नाडी कूट मिलान में यदि वर एवं वधू की एक ही नाडी हो जाये तो अनिष्ट करने वाली होती है यदि दोनों का जन्मनक्षत्र आदि नाडी में पडे तो पति पत्नी का परस्पर वियोग होता है। यदि दोनों की मध्य नाडी हो तो वर एवं वधू दोनों को मृत्यु तुल्य कष्ट या मृत्यु होती है तथा यदि दोनों की अन्त्यैक नाडी हो जाये तो वैधव्य एवं दुःख करने वाली नाडी होती है। इसी प्रकार मेलापक में नाडी कूट का विचार किया जाता है। यदि दोनों की नाडी भिन्न हो जाये तो किसी प्रकार का दोष नही होता है और वैवाहिक जीवन सुखमय व्यतीत होता है। जैसे पुरूष की नाडी आदि तथा स्त्री की नाडी अन्त्य या मध्य या पुरूष की नाडी मध्य कन्या की अन्त्य या आदि हो । वराह वचन है -


आद्यैकनाडी कुरूते वियोगं मध्याख्यनाड्यमुभयोर्विनाशः ।

अन्त्या च वैधव्यमतीवदुःखं तस्माच्च तिस्रः परिवर्जनीयाः ।।


इसी प्रकार त्रिनाडी कूट का विचार विवाह में किया जाता है किन्तु सूक्ष्म अध्ययन से यह पता चलता है कि जिस पुरुष या स्त्री का जन्म नक्षत्र के चारों चरण एक ही राशि में हो केवल उसी के लिये त्रिनाडी चक्र का विचार करना चाहिये । जैसे अश्विनी एवं भरणी नक्षत्र का चारों चरण मेष राशि में होता है। इसी प्रकार रोहिणी, आद्र्रा, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पू.फा. हस्त, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, श्रवण, शतभिषा, उ.भा., रेवती नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातकों का ही त्रिनाडी चक्र से विचार किया जाता है अन्य नक्षत्रोत्पन्न जातकों का नहीं क्योंकि इन नक्षत्रों के चारों चरण एक ही राशि में पडते हैं। प्रमाण है कि -


चतुस्त्रिद्वयङ्घ्रिभोत्थायाः कन्यायाः क्रमशोऽश्विभात् ।

वह्निभादिन्दुभान्नाडी त्रिचतुःपंचपर्वसु ।।


चतुर्नाडी कूट -

जिस प्रकार विवाह मेलापक में त्रिनाडी कूट का विचार किया जाता है उसी प्रकार भिन्न नक्षत्रों में उत्पन्न जातकों के लिये चतुर्नाडी का प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार त्रिनाडी कूट से तीन प्रकार के नक्षत्रों का विभाजन होता है ठीक उसी प्रकार चतुर्नाडी में 28 नक्षत्रों का विभाजन चार प्रकार से किया जाता है। उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि जिस जातक का जन्म तीन चरणों वाले नक्षत्रों में हो उसी के लिये चतुर्नाडी कूट का विचार करना चाहिये। चतुर्नाडी कूट का चक्र इस प्रकार बनता है। जैसे अश्विनी नक्षत्र के चारों चरण मेष राशि में होने से त्रिनाडी कूट का प्रारम्भ अश्विनी से होता है ठीक उसी प्रकार नक्षत्रमाला में जिस प्रथम नक्षत्र का तीनों चरण एक ही राशि में पड़ता हो उससे ही चतुर्नाडी कूट का प्रारम्भ होता है। जैसे सर्वप्रथम कृत्तिका नक्षत्र का तीनों चरण वृष राशि में होने से चतुर्नाडी कूट का प्रारम्भ कृत्तिका से होता है। चक्र इस प्रकार है


-कृत्तिका मघा पू. फा. ज्येष्ठा मूल श्रवण धनिष्ठा

रोहिणी आश्लेषा उ.फा. अनुराधा पूर्वाषाढा उ.भाद्रपद रेवती

मृगशिरा पुष्य हस्त विशाखा उत्तराषाढा पूर्वा भाद्रपद अश्विनी

आद्र्रा पुनर्वसु चित्रा स्वाती अभिजित् शतभिषा भरणी

जिस प्रकार त्रिनाडी चक्र में वर एवं वधू दोनों का जन्म नक्षत्र एक नाडी में पड़ने से अनिष्ट कारक होता है उसी प्रकार चतुर्नाडी कूट में भी वर एवं वधू दोनों का जन्म नक्षत्र एक नाडी में हो तो अनिष्ट कारक होता है। यह चतुर्नाडी विचार सूक्ष्म रूप से उन जातकों के लिये किया जाता है जिन जातकों का जन्म नक्षत्र तीन चरणों वाला हो अर्थात् जिन नक्षत्रों का तीनों चरण एक ही राशि में पड़ता हो। इस प्रकार कृत्तिका, पुनर्वसु, उ.फा., विशाखा, उत्तराषाढा, पूर्वा भाद्रपद नक्षत्रों में जन्मे जातकों के लिये ही चतुर्नाडी कूट का प्रयोग किया जाता है। पुनश्च देश भेद से अहल्या क्षेत्रों में (दिल्ली के आस पास स्थित कुरूदेश का समवर्ती प्रदेश उत्पन्न हुये वर एवं वधू के लिये विशेष रूप से चतुर्नाडी का प्रयोग करना चाहिये ऐसा शास्त्रवचन प्रमाण है क्योकि ज्योतिष शास्त्र को बिना शास्त्रप्रमाण से कहने वाले लोगों को ब्रह्म हत्या का दोष लगता है। अतः उपरोक्त दोनों विधि से जन्म लेने वाले पुरूष एवं स्त्री के लिये चतुर्नाडी का प्रयोग करना चाहिये। एक नाडी से भिन्न नाडी में विवाह शुभ होता है ।


*चतुर्नाडी त्वहल्यायां पांचाले पंचनाडीका ।

त्रिनाडी सर्वदेशेषु वर्जनीया प्रयत्नतः ।।*


पंचनाडी कूट -

त्रिनाडी कूट एवं चतुर्नाडी कूट की तरह ही पंच नाडी कूट का प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार त्रिनाडी कूट में नक्षत्रों को तीन भागों मे बांटा गया था और चतुर्नाडी कूट में चार भागों में बाटा गया था ठीक उसी प्रकार पंचनाडी कूट में नक्षत्रों का पांच भागों में बांटकर वर्गीकरण किया गया है। पूर्वोक्त श्लोक से स्पष्ट है कि जिस नक्षत्र को दो चरण एक ही राशि में पडते हो उसी नक्षत्र से पंच नाड़ी की गणना प्रारम्भ की जाती है। जैसे नक्षत्रमाला में सर्वप्रथम मृगशिरा नक्षत्र का दो चरण एक ही राशि में पडता है अतः पंच नाडी कूट का गणना भी मृगशिरा से प्रारम्भ किया जाता है । पंचनाड़ी कूट का चक्र इस प्रकार है -


>> >>

मृगशिरा हस्त चित्रा श्रवण धनिष्ठा रोहिणी

आद्र्रा उ.फा. स्वाती उ. षा. शतभिषा कृत्तिका

पुनर्वसु पू.फा. विशाखा पू. षाढा पूर्वाभाद्रपद भरणी

पुष्य मघा अनुराधा मूल उत्तराभाद्रपद अश्विनी

आश्लेषा > ज्येष्ठा > रेवती >

इस प्रकार से पंचनाड़ी कूट का विभाजन किया जाता है जिस प्रकार त्रिनाड़ी एवं चतुर्नाड़ी में एक ही नाड़ी में वर एवं वधू के जन्म नक्षत्र होने से अनिष्टकर होता है ठीक उसी प्रकार पंचनाड़ी में भी एक ही नाड़ी में दोनों के जन्म नक्षत्र होने से नाडी कूट अनिष्टकर होता है भिन्न नक्षत्र होने से विवाह शुभ होता है। जिस वर एवं वधू का जन्म दो चरणों वाले नक्षत्रों में हो केवल उन्हीं के लिये पंच नाडी कूट का प्रयोग करना चाहिये जैसे मृगशिरा, चित्रा, एवं धनिष्ठा में जन्म लेने वाले जातको के लिये पंच नाड़ी कूट का प्रयोग करना चाहिये तथा चश्देश भेद से भी पंच नाडी का प्रयोग क्षेत्र विशेष में करना चाहिये उपर्युक्त वचन से स्पष्ट है कि पंचनाडी का प्रयोग केवल पांचाल देश (आधुनिक रूहेलखण्ड में उत्पन्न वर एवं वधू के लिये करना चाहिये अन्य देशोत्पन्न जातकों के लिये नहीं करना चाहिये। केवल इन दोनों परिस्थितियों में ही पंच नाड़ी का प्रयोग करना चाहिये। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्रीय शोध विश्लेषण के आधार पर विभिन्न परिस्थितियों विभिन्न नाडी कूट का प्रयोग करना चाहिये ऐसा ज्योतिष शास्त्र का निर्देश है ।


सर्वनाडी कूट परिहार -

विवाह मेलापक मे नाड़ी कूट की महत्ता को स्वीकार्य करते हुये अनुकूल मिलान होने पर इसे सर्वोत्तम अंक 8 प्रदान किया गया है तथा यदि वर एवं वधू दोनों का प्रतिकूल नाड़ी कूट मिलान होने पर 0 अंक प्रदान किया जाता है। ऐसी परिस्थिति में नाडी कूट के दोष से बचने के लिये हमें विविध प्रकार के परिहारों की आवश्यकता पड़ती है जिससे नाडी कूट के दोषों से तो नहीं बचा जा सकता किन्तु उसके गुण धर्म में विशेष प्रकार की अल्पता अनुभव प्रयोग में दिखाई पडती है। अतः नाडी कूट के कतिपय परिहार यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं जिनके आधार पर नाड़ी कूट जन्य दोषों का निवारण शास्त्रीय आधार पर सुलभ हो जाता है। वर एवं वधू दोनों का एक ही नक्षत्र नाड़ी विभाग में जन्म नक्षत्र होने पर नाडी दोष होता है अतः उसका सर्वप्रथम परिहार नक्षत्र एवं राशि द्वारा ही किया जाता है।


यदि दोनों का जन्म नक्षत्र एक पाश्र्व नाडी गत (भिन्न नक्षत्र हो तथा एक राशि हो तो नाडी दोष का परिहार हो जाता है जैसे कृत्तिका एवं रोहिणी की अन्त्य नाडी है किन्तु राशि मिथुन हो जाने से इसका परिहार हो जाता है ।

यदि दोनों का नक्षत्र एक हो किन्तु राशि भिन्न हो तो नाडी दोष का परिहार हो जाता है जैस कृत्तिका नक्षत्र में दोनों का जन्म होने से अन्त्य नाडी है किन्तु राशि मिथुन एवं कर्क भिन्न हो जाने से परिहार हो जाता है। ये दोनों परिस्थिति केवल पास के नक्षत्रों मे ही संभव दूर के नक्षत्रों मे नही जैसे भरणी एव मृगशिरा नक्षत्र।

यदि पूर्वोक्त प्रकार से दूर का नक्षत्र हो तो अर्थात् दोनों का जन्म नक्षत्र एक हो (चारों चरण एक राशि में हो तो चरण भेद से नाडी कूट का परिहार हो जाता है। जैसे अश्विनी नक्षत्र मे जन्म होने पर दोनों की आदि नाड़ी होती है। पूर्वोक्त दोनों प्रकार से उसका परिहार नहीं हो पाता है अतः यदि दोनों का चरण भिन्न हो तो नाडी कूट का परिहार हो जाता है जैसा कि मुहूत्र्तचिन्तामणि में कहा है -

*राश्यैक्ये चेद् भिन्नमृक्षं द्वयोः नक्षत्रैक्ये राशीयुग्मं तथैव ।

नाडी दोषो न गणानां च दोषः नक्षत्रैक्ये पादभेदे शुभं स्यात् ।।*


कुछ नक्षत्र ऐसे होते हैं जो पूर्णतः नाडी दोष से मुक्त होते हैं इन नक्षत्रों मे नाडी दोष प्रभावी नही होता है। जैसे रोहिणी आद्र्रा, मृगशिरा, कृत्तिका, पुष्य, ज्येष्ठा, श्रवण, उत्तरा भाद्रपद, रेवती, नक्षत्रों मे जन्मे पुरूष एवं स्त्री के लिये नाडी दोष प्रभावी नहीं होता है ।


रोहिण्याद्र्रा मृगेन्द्राग्नी पुष्यश्रवणपौष्णभम् ।

अहिर्बुध्न्यक्र्षमेतेषां नाडी दोषो न जायते ।।


इस प्रकार शास्त्रीय वचनों को प्रमाण मान कर के यदि नाड़ी कूट का परिहार किया जाये तो नाड़ी दोष से पूर्णतः मुक्ति मिल सकती है। अतः हमें ज्योतिष शास्त्रीय प्रामाणिक ग्रन्थों का विशेष अध्ययन करने के पश्चात् ही किसी निष्कर्ष पर निर्णय देना चाहिये। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो न जाने कितने ही वैवाहिक दम्पती का जीवन अन्धेरे में डाल देते हैं नाड़ी दोष समाज में सभी जनमानस में समान रूप से विराजमान है किन्तु तथा कथित ज्योतिषीयों द्वारा गलत निर्णय देने से समाज में इस ज्योतिष शास्त्र की प्रतिष्ठा धूमिल होती है। अतः यह हमारा परम दायित्व है कि हम शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन करें तथा उसका व्यवहारिक प्रयोग करके ही उसे लागु करें। क्योंकि ज्योतिष शास्त्र को भास्कराचार्य ने आदेश शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित किया है यदि आदेश गलत होगा तो ज्योतिष शास्त्र के वास्तविक स्वरूप में विकृति आयेगी ।


।।ज्योतिः शास्त्रफलं पुराणगणकैरादेश इत्युच्यते।।


 मंत्र दीक्षा की संपुर्णज जानकारी के लिए एक विस्तृत व शाशत्रोक्त विवेचन

पूजा व मंत्र जप का सही तरीका

मंत्र सिद्धादि शोधन 

मंत्र शोधन के अपवाद 

 मंत्र ऋण धन शोधन विधि 

आयु व मंत्र के प्रकार किस आयु मे कौन सा मंत्र जपना चाहिए  

पूजा पाठ तरने वाले दुखी क्यो रहते है?

मंत्र सिद्धि के उपाय व लक्षण

क्या यज्ञोपवीत के बाद दुसरू शिक्षा लेनी चाहिये














जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...