पुरुष सूक्त तथा रुद्रसूक्त

 Purusha Suktam


ॐ सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र पात्। 

स भूमिम् सर्वत स्पृत्वा ऽत्यतिष्ठद् दशांगुलम्॥1॥ 

पुरुषऽ एव इदम् सर्वम् यद भूतम् यच्च भाव्यम्। 

उत अमृत त्वस्य ईशानो यद् अन्नेन अतिरोहति॥2॥ 

एतावानस्य महिमातो ज्यायान्श्र्च पुरुषः। 

पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्य अमृतम् दिवि॥3॥ 

त्रिपाद् उर्ध्व उदैत् पुरूषः पादोस्य इहा भवत् पुनः। 

ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशनेऽ अभि॥4॥ 

ततो विराड् अजायत विराजोऽ अधि पुरुषः। 

स जातोऽ अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिम् अथो पुरः॥5॥ 

तस्मात् यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतम् पृषदाज्यम्। 

पशूँस्ताँश् चक्रे वायव्यान् आरण्या ग्राम्याश्च ये॥6॥ 

तस्मात् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे॥ 

छन्दाँसि जज्ञिरे तस्मात् यजुस तस्माद् अजायत117॥ 

तस्मात् अश्वाऽ अजायन्त ये के चोभयादतः। 

गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्मात् जाता अजावयः॥8॥ 

तम् यज्ञम् बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषम् जातम अग्रतः। 

तेन देवाऽ अयजन्त साध्याऽ ऋषयश्च ये॥9॥ 

यत् पुरुषम् व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्॥ 

मुखम् किमस्य आसीत् किम् बाहू किम् ऊरू पादाऽ उच्येते॥10॥ 

ब्राह्मणो ऽस्य मुखम् आसीद् बाहू राजन्यः कृतः। 

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रो अजायत॥11॥ 

चन्द्रमा मनसो जातः चक्षोः सूर्यो अजायत। 

श्रोत्राद् वायुश्च प्राणश्च मुखाद् ऽग्निर अजायत॥12॥ 

नाभ्याऽ आसीद् अन्तरिक्षम् शीर्ष्णो द्यौः सम-वर्तत। 

पद्भ्याम् भूमिर दिशः श्रोत्रात् तथा लोकान्ऽ अकल्पयन्॥13॥ 

यत् पुरुषेण हविषा देवा यज्ञम् ऽतन्वत। 

वसन्तो अस्य आसीद् आज्यम् ग्रीष्मऽ इध्मः शरद्धविः॥14॥ 

सप्तास्या आसन् परिधय त्रिः सप्त समिधः कृताः। 

देवा यद् यज्ञम् तन्वानाः अबध्नन् पुरुषम् पशुम्॥15॥ 

यज्ञेन यज्ञम ऽयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्य आसन्। 

ते ह नाकम् महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥16॥ 




Rudrasuktam  ॥ रूद्र-सूक्तम् ॥ 


नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतो तऽ इषवे नमः। 

बाहुभ्याम् उत ते नमः॥1॥ 

या ते रुद्र शिवा तनूर-घोरा ऽपाप-काशिनी। 

तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशंताभि चाकशीहि ॥2॥ 

यामिषुं गिरिशंत हस्ते बिभर्ष्यस्तवे । 

शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिन्सीः पुरुषं जगत् ॥3॥ 

शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छा वदामसि । 

यथा नः सर्वमिज् जगद-यक्ष्मम् सुमनाऽ असत् ॥4॥ 

अध्य वोचद-धिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् । 

अहींश्च सर्वान जम्भयन्त् सर्वांश्च यातु-धान्यो ऽधराचीः परा सुव ॥5॥ 

असौ यस्ताम्रोऽ अरुणऽ उत बभ्रुः सुमंगलः। 

ये चैनम् रुद्राऽ अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशो ऽवैषाम् हेड ऽईमहे ॥6॥ 

असौ यो ऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः। 

उतैनं गोपाऽ अदृश्रन्न् दृश्रन्नु-दहारयः स दृष्टो मृडयाति नः ॥7॥ 

नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे। 

अथो येऽ अस्य सत्वानो ऽहं तेभ्यो ऽकरम् नमः ॥8॥ 

प्रमुंच धन्वनः त्वम् उभयोर आरत्न्योर ज्याम्। 

याश्च ते हस्तऽ इषवः परा ता भगवो वप ॥9॥ 

विज्यं धनुः कपर्द्दिनो विशल्यो बाणवान्ऽ उत। 

अनेशन्नस्य याऽ इषवऽ आभुरस्य निषंगधिः॥10॥ 

या ते हेतिर मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः । 

तया अस्मान् विश्वतः त्वम् अयक्ष्मया परि भुज ॥11॥ 

परि ते धन्वनो हेतिर अस्मान् वृणक्तु विश्वतः। 

अथो यऽ इषुधिः तवारेऽ अस्मन् नि-धेहि तम् ॥12॥ 

अवतत्य धनुष्ट्वम् सहस्राक्ष शतेषुधे। 

निशीर्य्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव ॥13॥ 

नमस्तऽ आयुधाय अनातताय धृष्णवे। 

उभाभ्याम् उत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने ॥14॥ 

मा नो महान्तम् उत मा नोऽ अर्भकं मा नऽ उक्षन्तम् उत मा नऽ उक्षितम्। 

मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास् तन्वो रूद्र रीरिषः॥15॥ 

मा नस्तोके तनये मा नऽ आयुषि मा नो गोषु मा नोऽ अश्वेषु रीरिषः। 

मा नो वीरान् रूद्र भामिनो वधिर हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे॥16॥ 

विवाह मुहुर्त निर्धारण संपुर्ण विवरण, त्याज्य मास तिथि वार नक्षत्र

 

विवाह मुहुर्त निर्धारण करने की संपुर्ण विधि का विवरण देने का प्रयास किया जा रहा है। विवाह मे क्या त्याग व ग्रहण करना हैइसकी भी जानकारी दी जा रही है।

विवाह मुहूर्त का निर्धारण करते समय निम्न नियमों का पालन किया जाना चाहिए :

मास शुद्धि - माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ व मार्गशीर्ष विवाह के लिए शुभ मास हैं। विवाह के समय  देव शयन (आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी) उत्तम नहीं होता। यदि मकर संक्रांति पौष में हो तो पौष में तथा मेष संक्रांति के बाद चैत्र में विवाह हो सकता है। अर्थात धनु व मीन की संक्रांति (सौर मास पौष व चैत्र) विवाह के लिए शुभ नहीं है। पुत्र के विवाह के बाद 6 मासों तक कन्या का विवाह वर्जित है। पुत्री विवाह के बाद 6 मासों में पुत्र का विवाह हो सकता है। परिवार में विवाह के बाद 6 मास

तक छोटे मंगल कार्य  (मुंडन आदि) नहीं किए जाते।

जन्म मासादि निषेध

पहले गर्भ से उत्पन्न संतान के विवाह में उसका जन्म और मास, जन्मतिथि तथा जन्म नक्षत्र का त्याग करे। शेष के लिए जन्म नक्षत्र छोड़ कर मास व तिथि में विवाह किया जा सकता है।


ज्येष्ठादि विचार

ज्येष्ठ मास में उत्पन्न व्यक्ति का ज्येष्ठा नक्षत्र हो तो ज्येष्ठ मास में विवाह वर्जित होता है। वर और कन्या दोनों का जन्म ज्येष्ठ मास में हुआ हो, तो इस स्थिति में भी ज्येष्ठ मास में विवाह वर्जित है। विवाह के समय तीन ज्येष्ठों का एक साथ होना वर्जित है। दो या चार या छह ज्येष्ठा होने से विवाह हो सकता है।

ज्येष्ठ वर ज्येष्ठ कन्या का विवाह सौर ज्येष्ठ मास में न करें, यदि दोनों में से कोई एक ही ज्येष्ठ हो तो ज्येष्ठ मास में विवाह हो सकता हे

ग्राह्य तिथि : अमावस्या तथा कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी, त्रयोदशी और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को छोड़ कर सभी तिथियां।

ग्राह्य नक्षत्र : अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, मघा, उ.फा., हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, मूल, ऊ.षा.,श्रवण धनिष्ठा, उ.भा. रेवती।

योग विचार : भुजंगपात व विषकुंभादि योग विचार लिया जाना चाहिए।

करण शुद्धि : विष्टि करण (भद्रा) को छोड़ कर सभी पर करण शुभ तथा स्थिर करण मध्यम है।

वार शुद्धि : मंगलवार व शनिवार मध्यम है अन्य शेष शुभ वार है।

वर्जित काल : होलाष्टक, पितृपक्ष, मलमास, धनुस्थ और मीनस्थ सूर्य।

गुरु-शुक्र अस्त : गुरु शुक्र के अस्त होने के 2 दिन पूर्व और उदय होने के 2 दिन पश्चात तक का समय।

ग्रहण काल : पूर्ण ग्रहण दोष के समय एक दिन पहले व 3 दिन पश्चात का समय अर्थात कुल 5 दिन।

विशेष त्याज्य : संक्रांति, मासांत, अयन प्रवेश, गोल प्रवेश, युति दोष, पंचशलाका वैद्य दोष, मृत्यु बाण दोष, सूक्ष्म क्रांतिसाम्य, सिंहस्थ गुरु, सिंह नवांश में तथा नक्षत्र गंडांत।

योग : प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, सुकर्मा, धृति, वृद्धि, ध्रुव, सिद्धि, वरीयान, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, हर्षण, इंद्र एवं ब्रह्म योग विवाह के लिए प्रशस्त है। अर्थात सभी शुभ योग विवाह के लिए प्रशस्त हैं।

विवाह के शुभ लग्र

विवाह में लग्र शोधन को प्राथमिकता दी गई है। अतएव दूसरे विचारों के साथ ही साथ लग्र शुद्धि का विशेष रूप से विचार करना चाहिए।


मिथुन, कन्या और तुला लग्र सर्वोत्तम लग्र है, वृषभ, धनु लग्र उत्तम है।, कर्क और मीन मध्यम लग्र है।



लतादि दोष: विवाह मुहूर्त में निम्रलिखित 10 लतादि दोषों का विचार विशेष रूप से किया जाता है। प्रत्येक दोष मुक्त होने पर एक रेखा शुद्ध मानी जाती है और सभी लतादि दोष मुक्त हो तो अधिकतम 10 शुद्ध रेखाएं संभव होती हैं। किसी भी शुभ विवाह मुहूर्त के लिए 10 में से कम से कम 6 दोष मुक्त अर्थात 6 शुद्ध रेखाएं प्राप्त होनी चाहिएं। अन्यथा 6 से कम शुद्ध रेखा होने पर विवाह मुहूर्त त्याग दिया जाता है।  


10 लतादि दोष निम्रांकित हैं: 1. लता, 2. पात, 3. युति, 4. वैध, 5.यामित्र, 6.  बाण, 7 एकर्गल, 8. उपग्रह, 9. क्रांतिसाम्य, 10. दग्धा तिथि।



1 लत्ता :  लत्ता शब्द का आशय लात मारना है।  यह दोष नक्षत्रो और ग्रहो से निर्धारित किया जाता है। सूर्य जिस नक्षत्र पर होता है उससे आगे के बारहवे नक्षत्र पर, मंगल तीसरे पर, शनि आठवे पर एवं गुरु छठवे नक्षत्र पर लात मारता है। ठीक इसी प्रकार कुछ ग्रह अपने से पिछले नक्षत्र पर लात मारते है जैसे बुध सातवे, राहु नौवे, चन्द्र बाईसवे, शुक्र पांचवे नक्षत्र पर लात मारता है।

राहु केतु वक्री होने के कारण इसकी गणना अगले नक्षत्र को मानकर ही की जाती है। लत्तादोष मे विवाह के नक्षत्र से गणना कर नक्षत्रो मे स्थित ग्रहो का विवेचन कर उनकी लत्ता का निर्धारण किया जाता है। वैसे तो सभी ग्रहो की लत्ता को अशुभ माना जाता है किन्तु कुछ विद्वान केवल पाप व क्रूर ग्रहो की लत्ता को ही त्याज़्य मानते है। अत: विवाह का मुहूर्त निकालते समय लत्तादोष का विवेचन अवश्य करे।  तालिकानुसार फल इस प्रकार है।

                               लतादोषविचार

ग्रह                    लता  नक्षत्र                           प्रभाव               

सूर्य                   आगे 12 वा                           धननाश 

चन्द्र                  पीछे 22 वा                           सुखनाश 

मंगल                आगे 3 रा                              प्राणहानि 

बुध                   पीछे 7 वा                             बुद्धिहानि 

गुरु                   आगे 6 ठे                             बंधुहानि 

शुक्र                  पीछे 5 वे                             सुखबाधा 

शनि                 आगे 8 वा                             कुलक्षय 

राहु                   पीछे 9 वे                             नित्यदुःख 


2 पातदोष :  यह दोष सूर्य और चन्द्रमा की गति के कारण बनता है। शूल, गण्ड, वैघृति, साध्य, व्यतिपात और हर्षण इन योगो का जिस नक्षत्र मे अंत हो उस नक्षत्र मे पात दोष लगता है। यह पात दोष वंग और कलिंग देश मे वर्जित है। अतः पात दोष का आकलन के लिए विवाह वाले दिन के नक्षत्र और सूर्य नक्षत्र की तुलना की जाती है।

 १. चंद्र रोहिणी नक्षत्र मे हो और सूर्य आर्द्रा, पुनर्वसु, शतभिषा, पूर्वाफाल्गुनी,  चित्रा  और मूल नक्षत्र मे हो तो पात दोष लगता है। 

२. चन्द्र अगर मृगशिरा नक्षत्र मे हो और सूर्य भी मृगशिरा अथवा आर्दा, ज्येष्ठा, घनिष्ठा, मघा अथवा हस्त नक्षत्र मे हो तो पात दोष बनता है।

३. चन्द्र अगर मघा नक्षत्र मे हो और सूर्य अश्विनी, मृगशिरा, ज्येष्ठा, पुष्य, हस्त अथवा रेवती नक्षत्र मे हो तो पात दोष लगता है।

४. उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र मे चन्द्रमा हो और कृतिका, आर्द्रा, विशाखा, पू. फा., उ. फा. अथवा पूर्वाभाद्रपद मे सूर्य हो तो पात दोष बनता है जिससे विवाह संस्कार नही किया जाना चाहिए।

५. हस्त नक्षत्र मे चन्द्रमा हो सूर्य नक्षत्र मे भरणी, मृगशिरा, शतभिषा, पूर्वाभाद्र, स्वाती या मघा हो तो पात दोष उत्पन्न होता है।

६. स्वाति नक्षत्र मे चन्द्र विराजमान हो और कृतिका, श्रवण, घनिष्ठा, पुष्य, हस्त या रेवती नक्षत्र मे सूर्य विराजमान हो तो पात दोष बनता है।

७. अनुराधा नक्षत्र मे चन्द्रमा हो और सूर्य नक्षत्र मे अश्विनी, आर्दा, उ.षा. पूर्वाफाल्गुनी, पू.षा., पूर्वाभाद्रपद हो तो विवाह मुहुर्त पात दोष से पीड़ित होता है।

८. चन्द्रमा अगर शादी वाले दिन मूल नक्षत्र मे हो और सूर्य उस दिन रोहिणी, ज्येष्ठा, घनिष्ठा, आश्लेषा, मूल, उत्तराभाद्रपद मे हो तो यह विवाह का शुभ मुहुर्त नही होता है क्योकि इसमे पात दोष लगता है।

९. विवाह के दिन चन्द्रमा अगर उत्तराषाढ़ा नक्षत्र मे हो और सूर्य भरणी, पुनर्वसु, शतभिषा, विशाखा, अनुराधा अथवा उ.षा. नक्षत्र मे  हो तो विवाह मुहुर्त में पात दोष पैदा करता है

१०. विवाह के दिन अगर चन्द्रमा उत्तराभाद्रपद मे हो और सूर्य भरणी, शतभिषा, विशाखा, उ.फा., मूल या पूर्वा फा. नक्षत्र में हो तो विवाह मुहुर्त पात दोष से पीड़ित होता है।

११, विवाह के दिन चन्द्रमा रेवती नक्षत्र मे स्थित हो और सूर्य अश्वनी, मघा, घनिष्ठा, ज्येष्ठा, स्वाति या पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र मे हो तो इस मुहुर्त के पात दोष से पीड़ित होने के कारण विवाह नही करने की सलाह दी जाती है।

3 युतिदोष : जिस भाव या घर मे चन्द्रमा हो उस भाव मे यदि कोई गृह है तो युतिदोष होता है। शुक्र से युति शुभ होती है।  सूर्य संयुक्त हो तो हानि, मंगल युक्त हो तो मृत्यु और राहु, केतु, शनि युत हो तो सर्वनाशप्रद होती है। चन्द्रमा वर्गोत्तम, उच्च या मित्रक्षेत्री हो तो  युति दोष नही होता है, दम्पत्ति को कल्याणकारी होता है अर्थात स्त्री-पुरुष सुखी होते है।  अशुभ ग्रहो की युति विशेष अशुभ होती है।  चन्द्रमा के नक्षत्र मे तो युति नही होना चाहिए। 

4 जामित्र-दोष :  ज्योतिष शास्त्र मे सप्तम भाव से दाम्पत्यसुख और जीवनसाथी का विचार किया जाता है। इसे जाया या जामित्र भाव कहा जाता है इसे यामित्र भाव भी कहते है इससे सम्बन्धित दोष को जामित्र दोष कहते है। विवाह मुहूर्त निर्धारित करते समय लग्न या चन्द्रमा से सातवे स्थान पर कोई ग्रह होने पर जामित्र दोष होता है।  चाहे वह ग्रह चन्द्रमा ही क्यो न हो। या विवाह के नक्षत्र से 14 वे नक्षत्र पर कोई ग्रह हो तो जामित्रदोष होता है। यह सर्वथा धातक है।  यह जामित्रदोष निन्द्य है यानि वर्जित है। 55 वे नवांश मे यह यह विशेषकर नही हो।

5 पञ्चकदोष (मृत्युबाण दोष) इसे बाण दोष भी कहते है, बाण पांच होते है इनमे मृत्यु बाण विवाह मे वर्जित है। सूर्य के गतान्श 1, 10, 19, 28 हो तो मृत्युबाण होता है यह विवाह मे वर्जित होता है। 

सूर्य के गतांश और पंद्रह व बारह व दश व आठ व चार इनको अलग अलग रखकर जोड़ना, उन अंको मे नौ का भाग देना, शेष पांच बचे तो क्रमशः पांचो स्थान मे पांच पञ्चक १ रोग, २ अग्नि, ३ राज, ४ चोर, ५ मृत्यु होते है। यह पंचक विवाह मे वर्जित है। 

 संक्रांति के व्यतीत दिनो (लगभग 16 दिन) मे चार  जोड़कर नौ का भाग देने पर शेष पांच बचे तो मृत्यु पंचक होता है। उपरोक्त विधि मे और इसमें कोई अंतर नही है परन्तु यह विधि स्थूल है। 

रात्रि को चोर और रोग पंचक वर्जित है, दिन मे नृप पञ्चक, अग्नि पञ्चक हमेशा और मृत्यु पंचक संध्याओ मे वर्जित है। वार परक परिहार - शनिवार को नृप, बुधवार को मृत्यु, मंगलवार को अग्नि व चोर, रविवार को रोग पञ्चक वर्जित है। कार्य भेद से विवाह मे मृत्यु  पंचक वर्जित है।

6. एकार्गलदोष : इसे खर्जूर दोष भी कहते है। यह विष्कुम्भ, वज्र, परिध, व्यतिपात, शूल, व्याघात, वैघृति, गण्ड और अतिगण्ड इन योगो से एकार्गल होता है। सूर्य नक्षत्र से चंद्र नक्षत्र अभिजीत सहित गिने। जो नक्षत्र विषम संज्ञक हो और पूर्वोक्त योग भी हो तो एकार्गल नामक दोष होता है। यह विवाह मे ताज्य है। यह दोष भंग हो जाता है यदि चन्द्रमा सम संख्यक नक्षत्र मे  पडे़. अर्थ यह है कि सूर्य के नक्षत्र से चन्द्रमा का नक्षत्र विषम स्थानो मे पड़ने तथा उपरोक्त लिखे अशुभ योग भी उसी समय हो तो एकार्गल दोष बनता है।  

अन्य प्रकार एकार्गल की गणना थोड़ी जटिल है।  निम्न चक्र मे 01 से 28 तक संख्या मे अभिजीत की गणना की गई है। आमने सामने जो अंक दिए है उन नक्षत्रो पर सूर्य चंद्र नही होना चाहिए।  यदि ऐसा हो तो एकार्गल दोष बनता है।  जैसे दूसरा नक्षत्र भरणी है और इस पर सूर्य है, इसके सामने अट्ठाईस यानि रेवती नक्षत्र पर चन्द्रमा हो तो यह एकार्गल दोष होगा। यह विवाह मे वर्जित है। 

7. उपग्रह दोष : सूर्य नक्षत्र से चंद्र नक्षत्र यानि विवाह नक्षत्र तक गिने, यदि पांच, सात, आठ, दस, चौदह, पंद्रह, उन्नीस, इक्कीस, बाईस, तेवीस, चौवीस, पच्चीस वा हो तो उपग्रह दोष होता है। यह विवाह मे     त्याज्य है।                                                                                                                                                                                                           

8. वेध दोष : वेधदोष  निर्धारण पंचशलाका या सप्तशलाका चक्र से किया जाता है। 

सात रेखा खड़ी और 


सप्तशलाका चक्र 

सात रेखा आड़ी खीचकर सप्तशलाका चक्र बनावे। इसमे ईशान दिशा से कृतिका आदि अट्ठाईस नक्षत्र लिखे। शास्त्रानुसार एक लाइन मे आने वाले नक्षत्रो का परस्पर वेध माना गया है। विवाह नक्षत्र का जिस नक्षत्र से भी वेध हो, यदि उसमे कोई भी ग्रह हो तो वेध माना जायगा। जैसे सप्तशलाका चक्र मे उत्तराफाल्गुनी का रेवती से वेध है।  अब यदि विवाह नक्षत्र रेवती है और उत्तराफाल्गुनी मे कोई ग्रह है तो वेध माना जायगा और वेधदोष होगा।  विवाह मे यह दोष सर्वत्र वर्जित है।  यह वरन और वधु प्रवेश मे भी विचारणीय और त्याज्य माना जाता है। 

इसमे भी यदि चन्द्रमा नक्षत्र के प्रथम चरण मे है तो सामने वाले वेध नक्षत्र का चौथा चरण ज्यादा अनिष्टकारी होगा।  इसी प्रकार चन्द्रमा का दूसरा चरण हो तो वेध वाले नक्षत्र का तीसरा चरण या चन्द्र का तीसरा चरण हो तो वेध वाले नक्षत्र का    दूसरा चरण ज्यादा अनिष्टकारक होगा।




9. क्रांतिसाम्य दोष :  इस दोष को महापात दोष भी कहते है। सूर्य,  चंद्रमा की क्रांति सामान होने पर यह दोष होता है। शुभ कार्यो मे इस दोष की बड़ी निंदा की गई है और इसमे विवाह करना सर्वत्र वर्जित है।  सिंह और मेष, वृषभ और मकर, तुला और कुम्भ, कन्या और मीन, कर्क और वृश्चिक, धनु और मिथुन इन दो-दो राशियो मे एक मे सूर्य और दूसरी मे चन्द्रमा हो तो क्रांतिसाम्य दोष होता है। 


10. दग्धातिथि दोष : सूर्य निम्न राशियो पर निम्न तिथियो पर हो तो दग्धा तिथि होती है।  इनमे समस्त शुभ कार्य और विवाह  त्याज्य है। धनु और मीन के सूर्य में द्वितीया, वृषभ और कुम्भ के सूर्य मे चतुर्थी, मेष और कर्क के सूर्य मे षष्ठी, कन्या और मिथुन के सूर्य मे अष्टमी, वृश्चिक और सिंह के सूर्य मे दशमी दग्धा है। ये विवाह लग्न मे त्याज्य है। 

त्याज्य तिथियॉ - कृष्ण पक्ष की दशमी से लेकर अमावस्या, शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनो पक्ष की 4, 6, 8, 9, 14 त्याज्य है। विद्जन रिक्ता तिथि 4, 9, 14 पूर्णा और अमावस को भी त्याज्य मानते है। 


विवाह मे सूर्य, गुरु, चंद्र  (त्रिबल) शुद्धि विचार 

विवाह लग्न मे वर के लिए सूर्य का बल, वधु के लिए गुरु का बल और दोनो के लिए चंद्र का बल आवश्यक है। इसके लिए जन्म राशि से ही विचार करे। 

विवाह मे गुरुबल विचार- वधु की जन्म चंद्र राशि से गुरु नवम, पंचम, एकादश, द्वितीय, सप्तम राशि मे शुभ, दशम, तृतीय, षष्ठ, प्रथम राशि मे दान और पूजा से  शुभ और चतुर्थ, अष्टम, द्वादश राशि मे नेष्ट  या अशुभ है। गुरु की पूजा को पीली पूजा कहते है। 

 विवाह मे सूर्यबल विचार - वर की जन्म चंद्र राशि से सूर्य तृतीय, षष्ठ, दशम, एकादश राशि मे शुभ, प्रथम, द्वितीय, सप्तम, नवम राशि मे दान व पूजा से शुभ तथा चार, आठ, बारह राशि में अशुभ या नेष्ट होता है।  सूर्य की पूजा को धोली पूजा कहते है।  

विवाह मे चन्द्रबल विचार - वर-वधु दोनो की जन्म चन्द्र राशि से चन्द्रमा तीसरा, छठा, सातवा, दसवा, ग्यारहवा शुभ, पहला, दूसरा, पांचवा, नवमा  दान पूजा से शुभ, और चौथा, आठवा बारहवा अशुभ/नेष्ट होता है।   


जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...