राधा कृष्ण का संबंध क्या है

 

श्रीराम ।
बहुत से लोग राधा को काल्पनिक कहते है। कुछ राधाजी को श्रीकृष्ण की पत्नी मानने से इंकार करते है। कुछ लोग राधा का वृंदावन से संबंध होने पर सशंकित है।

इसलिये अब हम यथापूर्व वेदादि शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा राधाकृष्ण की जुगल जोड़ी का निरूपण करते हैं :-

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वैदिक-स्वरूप

(क) राधे ! विशाखे ! सुहवानु राधा (ख) इन्द्रं वयमनुराधं हवामहे | ( १२/१५२)

(अथर्व० ११७३)

अर्थात् (क) हे राधे ! हे विशाले! श्री राधाजी हमारे लिये सुखदाविती हों। (ख) हम सब भक्तजन राचासहित श्रीकृष्ण भगवान की स्तुति करते हैं।

पौराणिक - स्वरूप

- (ख) तद्वामांशसमुद्भूतं गौरं तेजः स्फुरत्प्रभम् । लीला ह्यतिप्रिया तस्य तां राधां तु विदुः परे ॥

(क) त्वं ब्रह्म चेयं प्रकृतिस्तटस्था, कालो यदेमां च विदुः प्रधानम् । महान्यदा त्वं जगदङ्करोऽसि, राधा तदेयं सगुणा च माया ॥

(गर्गसंहिता गो० १६ । २५ )

(गर्गसंहिता गो० ९ । २३ )

(ग) परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् । असंख्य ब्रह्माण्डपतिर्गोलोकेशः परात्परः ।।

(गर्गसंहिता गो० १५ ५२-५३ )

(घ) श्रीकृष्णपटराज्ञी या गोलोके राधिकाऽभिघा । त्वद्गृहे सापि संजाता त्वं न जानासि तां पराम् ।।

( गगं० गो० १५ ५६ )

(ङ) राधाकृष्णेति हे गोपा ये जपन्ति पुनः पुनः । चतुष्पदार्थः किं तेषाँ साक्षात्कृष्णोऽपि लभ्यते ॥

( गगं० गो० १५। ७१ )

(च) ये राधिकायां मयि केशवे मनाक्, भेदन पश्यन्ति हि दुग्धशौक्लवत् ।

त एव मे ब्रह्मपदं प्रयान्ति त दहेतु कस्फूर्जितभक्तिलक्षणाः ॥

( ० वृ० १२ । ३२ ) पर्थ - ( क ) [ देवगण स्तुति करते हुए कहते हैं कि ] हे भगवन् !" आप साक्षात् ब्रह्म हैं और श्री राधाजी आपकी तटस्थ प्रकृति हैं। आप काल है यह प्रधान माया है। जब भाप महदादिक गुण होकर जगत् के अंकुर (बीज) होते हो तब यह सगुण माया है । (ख) भगवान् के वाम भाग से उत्पन्न होने वाला जो प्रभायुक्त गौर तेज है वह भगवान् को aata प्रियतमा सीला है जिसे भक्तजन श्रीराधा कहते हैं। (ग) श्रीकृष्ण जी परिपूर्णतम स्वयं भगवान् हैं और अगणित ब्रह्माण्डों के पति एवं गोलोक के सर्वोपरि अधिष्ठाता है। (घ) [ नारदजी कहते हैं, कि है वृषभानो ! ] गोलोक में श्रीकृष्ण भगवान् की 'राधा' नामक जो पटरानी है वही तुम्हारे घर में उत्पन्न हुई है तुम उसका भेद नहीं जानते। (ङ) हे गोपगण ! जो लोग 'राधाकृष्ण' ऐसा जाप करते हैं चार पदार्थों का तो कहना ही क्या है साक्षात् कृष्ण भगवान् भी उनको प्राप्त हो जाते हैं। (च) दूध और उसकी सफेद कान्ति की तरह जो लोग मुझ कृष्ण में और श्री राधिका जी में भेद नहीं देखते हैं अर्थात् एक ही समझते हैं वे ही ज्ञानीजन ब्रह्मपद को प्राप्त होते हैं ।

इस प्रकार वेदादि ग्रन्थों में श्रीकृष्ण भगवान् को ब्रह्म और श्री राधिका जी को विशुद्ध प्रकृति के नाम से स्मरण किया गया है। उपर्युक्त सिद्धान्त के समर्थक सहस्रों प्रमाण आर्ष ग्रन्थों में भरे पड़े पड़े हैं, जो इस लघु कलेवर लेख में उध्दृत करना न केवल असम्भव हैं, अपितु अनावश्यक भी हैं

प्राचीन भाष्यों में राधा और कृष्ण

हमारी पूर्वोक्त स्थापना को पढ़कर कदाचित् किसी महाशय को 'कोरी कल्पना' कहने का अवसर न मिले एतदर्थं हम 'गोपालसहस्रनाम' नामक प्रसिद्ध स्तोत्र के पं० दुर्गादत्त कृत प्राचीनतम संस्कृत भाष्य के कुछ उद्धरण यहां उद्धृत करते हैं जिससे पाठक यह अनुमान कर सकेंगे कि राधा और कृष्ण का प्रकृति और पुरुष के रूप में अनादि काल से उल्लेख विद्यमान है, यथा-

राधयति साधयति — उत्पादनरूपेण सृष्टिकार्याणीति

राधा प्रकृतिः" । कृषिर्भवाचकः शब्दो पश्च निवृति- वाचकः तयोरेवयं परब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ॥

अर्थात् उत्पादन रूप से सृष्टि कार्यों के सम्पादन करने वाली होने से श्रीराधा प्रकृति रूपा हैं तथा 'कृष्' शब्द सत्ता का वाचक है और 'ए' शब्द आनन्द वाचक है। इन दोनों की एकता सत् आनन्द-रूप परब्रह्म 'कृष्ण' शब्द का अर्थ है। इन्ही ब्रह्म और पाक्तिरूपा प्रकृति के रूप में श्रीराधा-कृष्ण के सहस्रनाम 'गोपालसहस्रनाम' में लिखे हैं। गया-

राधारतिसुखोपेतो राधामोहनतत्परः ।

राधावशीकरो राधाहृदयाम्भोजषट्पदः ॥

( दौगिभाष्य) राधाया- उपादानभूतायाः प्रकृत्या: ( प्रकृति- माधित्येति व्यव लोपे पञ्चमी) या रतिः सृष्टिक्रियारूपाक्रीडा तंत्र स्वरूप भूतेनानन्ताख्येनोपेतः । श्रत्र रतिशब्दः सृष्टिक्रियावचनः "स के ने रेमे" इत्यादि बृहदारण्यकश्रुत्या सृष्टि-क्रियाया ब्रह्मणः क्रोडारूपेण प्रतिपादितत्वात् । राधायाः प्रकृत्या यो मोहनो मोहोत्पादको गुणस्तत्र तस्मात् परस्तत्परः । राधायाः प्रकृतेबंशी-करस्तदपोश्वर इत्यर्थ । राधायाः प्रकृतेपद हृदयं हृदयाजित महदहङ्कारादिकार्यं तदेवाम्भोजं कारणसलिलोत्पन्नत्वात् षट्पदो भ्रमर इव तद्रहस्य रूपरसज्ञ इत्यर्थः ।

अर्थात् — श्री गोपाल ( कृष्ण ) जो राधा अर्थात् उत्पादन रूप प्रकृति का आश्रय लेकर जो सृष्टि-क्रिया रूप ( पति) क्रीड़ा उसमें स्वरूपभूत सुख से मुक्त है। अर्थात सांसारिक पदार्थों में जो कुछ सुख है वह परमात्मा का ही है। यहां रति शब्द क्रीडारूप सुष्टिवाचक है, क्योंकि "स वै नैव रेमे इत्यादि वृहदारण्यकश्रुति द्वारा सृष्टिनिया को ब्रह्म की क्रीड़ारूप से प्रतिपादन किया है। राधा प्रकृति का जो मोहन जीवों को मोह में डालने वाला गुण है उससे वे पर है अर्थात् प्राकृतिक पदार्थ उनको मोह में नहीं डाल सकते। वे राधा अर्थात् प्रकृति को वश में रखने वाले है। अर्थात् उसके अधीश्वर हैं।

अब अधिक विस्तार न करते हुए आगे राधा और कृष्ण के संबंध को अधिक स्पष्ट करते है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण सृष्टि खण्ड में इस प्रकार वर्णन है कि
आविभूव कन्येका कृष्णस्य वामपार्श्वतः । धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्षं प्रभोः पदे ॥ तेन राधा समाख्याता पुराविद्भिर्द्विजोत्तम । प्राणाधिष्ठात्री सा देवी कृष्णस्य परमात्मनः ।।

( २५ । २६ । २६ )

अर्थात् परमात्मा कृष्ण से बाएं ब्रज से एक कमनीया स्त्री उत्पन्न

हुई। उसने भगवान् कृष्ण के चरणों को धोकर फूल लाकर अर्घ्य दिया,

विद्वानों ने उसका नाम ( आराधनात् ) राधा कहा है। वह कृष्ण की प्राणादिष्ठात्री देवी थी। प्रत्यत्र कहा है- योगेनात्मा सृष्टिविध द्विधारूपो बभूव सः । पुमांश्च दक्षिणार्द्धाङ्गो वामाङ्गः प्रकृतिः स्मृतः ॥

( ब्रह्म वे० प्रकृ० [सं० आ० १२ श्लो० ६) अर्थात् परमात्मा श्रीकृष्ण सृष्टि रचना के समय दो रूप वाले हो गये । दाहिना आधा अङ्ग पुरुष और बांया अंग प्रकृति रूपा स्त्री हुई। ब्रहावर्त पुराण का यह वर्णन वेद एवं उपनिषदों के द्वारा प्रति- पादित है। जैसे-

स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीय- मैच्छत् स तावानास यथा स्त्रीपुमा सौ संपरिष्वक्तौ
स इममेवात्मानं द्वेधापातयत् ततः पतिश्च पत्नी

चाभवताम् ।

( बृहदारण्यक १।४३ ) अर्थात् उस ब्रह्म ने रमण (सृष्टि उत्पादन रूप खेल) नहीं किया या इस कारण कि वह प्रकेला रमण नहीं करता। उसने दूसरे की इच्छा की। जिस प्रकार परस्पर बालङ्गित स्त्री पुरुष होते हैं, बेसा उसका स्वरूप हो गया। उसने अपने को ही दो भागों में विभक्त कर डाला। वे पति और पत्नी हुवे भगवान् श्रीकृष्ण के वामाङ्ग से श्रीराधा की उत्पत्ति का भाव है कि वे एक से दो अर्थात् पति-पत्नी रूप में हो गये।

मागे प्रकरण को देखिये-

वृषभानोश्च वैश्यस्य सा च कन्या बभूव ह । योनिसम्भवा देवी वायुगर्भा कलावती ॥ सुषुवे मायया वायुं स तत्राविर्बभूव ह । अती द्वादशाब्दे तु दृष्ट्वा तां नवयौवनाम् ॥ सार्धं रायणवैश्येन तत्सम्बन्धं चकार सः । छायां संस्थाप्य तद्गेहे सान्तर्धानमवाप ह || बभूव तस्य वैश्यस्य विवाहश्छायया सह । कृष्ण माता यशोदा या रायणस्तत् सहोदरः ॥ गोलो के गोपकृष्णांशः सम्बन्धात्कृष्णमातुलः ॥ कृष्णेन सह राधायाः पुण्ये वृन्दावने वने । विवाहं कारयामास विधिना जगतां विधिः ॥ ( ब्रह्म बं० [सं० २० ४६ श्लो० ३२ से ४२ )

अर्थात् ब्रजभूमि में अवतार लेने पर वह राधा वषभानु वैश्य की कन्या हुई || २६ ॥ वृषभानु की स्त्री कलावती वायुगर्भा ( जिसके गर्भ में केवल बाबु मात्र थी ) थी उसने वायु प्रसव किया। प्रसव होते ही श्री राधा देवी प्रयोनिजा (गर्भ से उत्पन्न न होने वाली ) प्रकट हो गई। ||३७|| बारह वर्ष व्यतीत होने पर उसके पिता ने उसे नवयुवती होने वाली देख कर रामण वैश्य के साथ उसका सम्बन्ध - सगाई कर  दी ॥ ३८ ॥ किन्तु राधा जी अपने प्रभाव से अपने ही अनुरूप एक 'छाया' नाम की कन्या को उत्पन्न कर और उसे घर में स्थापित कर स्वयं अन्तर्धान हो गई, रायण वैश्य का विवाह उसी 'छाया' नाम की कन्या के साथ हुआ ||३०|| श्रीकृष्ण की धायस्य माता को यशोदा थीं, रागण उनका भाई था। वह गोलोक में गोप कृष्ण का अंश (अर्थात्--- उन कृष्ण के अंश से गोलोक के सृष्टि प्रकरण में जिस प्रकार अन्य अनेक व्यक्तियों की उत्पत्ति हुई थी उसी प्रकार उत्पन्न होने वाला) सखा था। ब्रज में उनकी घाव रूप माता यशोदा का भाई होने के नाते श्रीकृष्ण जी का वह मामा हुधा पवित्र वृन्दावन में श्री ब्रह्मा जी ने कृष्ण जी के साथ श्री राधा जी का विधिपूर्वक दिव्य विवाह कराया ||४०|

उपर के ब्रह्म० पुराण प्रकरण से स्पष्ट है कि रायण वैश्य के साथ दिव्य 'छाया' का विवाह हुआ था और श्रीकृष्ण जी के साथ श्री राधा जी का दिव्य विवाह हुआ। अतः आक्षेपकर्ताओं को राधा जी की श्रीकृष्ण जी की पुत्री, पुत्र वधू व मामी कहना सरासर झूठ है ।

जय जय सीताराम।
माधवाचार्य कृति
पं. राजेश मिश्र "कण"

जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

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