श्रीराम ने लक्ष्मण जी को सहोदर भ्राता क्यो कहा


सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥ ७ ॥ अस बिचारि जिय जागहु ताता मिलै न जगत सहोदर भ्राता॥

  इस पर अनावश्यक रुप से तूल दिया जा रहा है। यह कोई नया प्रश्न नही , वर्षो से इसके उत्तर मे तरह तरह के तर्क जोडे जाते रहे है। विविध विद्वानो ने अपना अपना पक्ष रखा है, जिसमे- पायस से उत्पत्ति के कारण, कौशल्या के गर्भ मे आठ मास रहने की बात, एक पिता से उत्पन्न होने के कारण आदि तरह तरह की बाते कही जाती रही है। किन्तु जब इन कथित प्रमाणो को शब्दार्थ की कसौटी पर कसते है, तो ये सभी कथन स्वतः ही निर्मूल हो जाते है।

  अतैव जिज्ञासुगण से निवेदन है कि इस लेख को ध्यान पुर्वक मनन करते हुए शान्तचित्त से पढ़े।

     तुलसी जी ने प्रसंग आरंभ करने के पहले ही एक संकेत स्पष्टरुप से किया है, जिसपर ध्यान देना आवश्यक है।

उहाँ राम लछिमनहि निहारी बोले बचन मनुज अनुसारी ।।

शब्दार्थ- अनुसारी-सदृश, समान अनुसरण करते हुए।


अर्थ-उधर लक्ष्मणजीको देखकर श्रीरामजी प्राकृत मनुष्योंके समान वचन बोले ॥ 

 नोट-१ इस स्थानपर 'उहाँ' पद देकर जनाया कि कवि इस समय श्रीहनुमानजी के साथ हैं। जहाँका चरित अब लिखते हैं, वहाँसे वे बहुत दूर हैं।


नोट-२ आगे उत्पन्न होनेवाली शङ्काओंकी निवृत्तिके लिये यहाँ प्रसङ्ग आदिमें ही 'मनुज अनुसारी' पद देकर जनाया कि 'जस काछिय तस चाहिय नाचा'; अतः शङ्काएँ न करना दोहा ६० देखिये। 

नोट-३ 'निहारी' से जनाया कि आधी रात्रितक सावधान रहे कि पवनसुत शीघ्र ही ओषधि लेकर आते हैं। आधी रात बीतनेपर चिन्ता हुई भाईकी ओर देखा तो शोकका उद्दीपन हो आया


नोट-४ यहाँ भाईको देखकर दुःखके वचन बोलने में 'लछिमन' नाम दिया

 यहॉ मुख्यबिन्दु जो ध्यान देने योग्य है वह है कि *बोले बचन मनुज अनुसारी*

 अब आते है मूल प्रसंग पर

सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥ ७ ॥ अस बिचारि जिय जागहु ताता मिलै न जगत सहोदर भ्राता॥


अर्थ- पुत्र, धन, स्त्री परिवार (कुटुम्ब) संसारमें आरंवार होते और जाते हैं ॥ ७॥

 जगत्‌में सहोदर भ्राता (बार-बार) नहीं मिलते, ऐसा जीसे विचारकर होशमें आ जाओ ॥ ८॥ 


नोट-१ 'सहोदर' का अर्थ है एक पेट से , एक मातासे उत्पन्न यथा-समानोदर्यसोदयंसगसहजा समाः इति (अमरकोश)- (पु०रा० फु०) वाल्मीकीयमें इन चौपाइयोंका समानार्थक श्लोक है। उसमें भी 'सहोदर' शब्द आया है। यथा-'देशे देशे कलत्राणि देशे देशे च बान्धवाः तं तु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदरः ॥ (१०१।१४)

जो एक ही गर्भ से उत्पन्न है वही सहोदर है।


   'सहोदर भ्राता का प्रश्न उठाकर जमीन आसमानके कुलाबे मिलाये जाते हैं। श्रीरामजी यह नहीं कहते कि तुम मेरे सहोदर भ्राता हो' या 'हे सहोदर भ्राता।

 प्रत्युत वे कहते हैं- 'सो अपलोक सोक सुत तोरा।' इसमें स्पष्टरूपसे वे 'सुत' सम्बोधन कर रहे हैं तो क्या श्रीलक्ष्मणजी श्रीरामजी के पुत्र थे? वस्तुतः उस पूरे प्रसङ्गपर विचार करनेसे यही निश्चित होता है कि यह सब विलाप प्रलाप नर-गति है।


'मर्यादापुरुषोत्तमका वचन है 'पूषा न कहउँ मोर यह बाना' तब वे असत्य कैसे कहेंगे?" ऐसा तर्क लोग करते हैं पर वे यह नहीं विचारते कि मर्यादापुरुषोत्तमता है क्या चीज? सुष्टधारम्भ कालसे जगत्के लिये लोक वेद के अनुसार बँधे नियमका नाम मर्यादा है। उन सामयिक नियमोंक ठीक-ठीक पालन करनेका नाम मर्यादापुरुषोत्तमता है। अनेक नियमोंमें एक यह भी प्रख्यात नियम है कि 'विषादे विस्मये कोपे हास्ये दैन्यमेव च गोब्राह्मणरक्षायां वृत्यर्थे प्राणसंकटे स्त्रीषु नर्मविवाहेषु नानृतं स्याजुगुप्सितम्॥ (धर्मविवेकमाला) विषादकी दशामें मनुष्य मूर्छित तो कम होते हैं, परन्तु विक्षिप्त प्रायः हो जाते हैं और


कविने आदिमें कह दिया है कि बोले वचन मनुज अनुसारी और अन्तमें 'नरगति भगत कृपालु देखाई' कहकर तब प्रभुके इन वचनोंको 'प्रलाप' विशेषण दिया है- *'प्रभु प्रलाप सुनि कान विकल भए बानर निकर।* ' 'प्रलाप ' का अर्थ है- 'निरर्थक बात, अनाप शनाप प्रलापोऽनर्थकं वचः' (अमरकोश)। ज्वर आदिके वेगमें लोग कभी-कभी प्रलाप करते हैं। वियोगियोंकी दस दशाओंमेंसे एक यह भी है। इति (हिन्दी- -शब्द-सागर)


 'विद्वानोंकी राय है कि देवता मनुष्यका आदर्श नहीं हो सकता। मनुष्योंका अनुकरणीय होनेके लिये देवता और ईश्वरको भी अपना देवत्व एक ओर रखकर मनुष्य सदृश बर्ताव करना पड़ता है। इसीके अनुसार तुलसीदासजीके श्रीरामचन्द्र ईश्वर होते हुए भी मनुष्योचित कार्य करते हैं। उनका देवत्व उनके मनुष्यत्वको दवा नहीं देता। यही चित्रण चातुरी है। 


यहाँ रघुनाथजीने जो कुछ कहा है वह नरत्व और प्रलाप दशामें कहा है। इसलिये पाठकोंको विषयकी सचाईपर ध्यान नहीं देना चाहिये, वरन् रघुनाथजीको नरलीला और काव्यके रसाङ्गपर ध्यान देना चाहिये। फिर किसी प्रकारकी शङ्काकी गुंजाइश ही नहीं रह जाती।' 'यहाँ मानुषीय प्रकृतिके अनुसार रामचन्द्रजीकी व्याकुलता और शोक प्रदर्शित करना कविको अभीष्ट है, इसीसे उन्होंने जान-बूझकर कुछ ऐसी असङ्गत बातें कहलायी हैं, जिनका ठीक-ठीक अर्थ करना असम्भव सा प्रतीत होता है।'


ईश्वरमें प्रलाप नहीं हो सकता। इसीसे 'मनुज' और 'नर' पद दिया है, जिसका भाव ही है कि मनुष्य ऐसा प्रलाप करते हैं। रावणकी मृत्यु नरके हाथ है। ब्रह्माके वचन सत्य करनेके लिये यहाँ नरवत् प्रलाप दिखाया है।

 और इसलिए ही आरंभ मे ही  *मनुज अनुसारी* व अन्त मे *नरगति भगत कृपालु देखाई* *प्रभु प्रलाप* कहकर सभी भ्रान्ति का उन्मूलन कर दिया है।

     जय जय सीताराम

     पं़ राजेश मिश्र कण

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