ज्वालामुखी योग, मुहुर्त व ज्योतिष्य

श्रीराम!
भारतीय ज्योतिष्य मे अनेक शुभ अशुभ मुहुर्त है किन्तु इन सबमे सबसे भयानक योग है "ज्वालामुखी योग"। कहा जाता है कि-
*" जन्मे तो जीवे नही बसै तो ऊजड होय।"
कामनी पहने चूडियॉ, निश्चय विधवा होय।।""*
*"कुऐ नीर झॉके नही, खाट पडो न उठन्त।
ज्योतिषी जो जाने नही, ज्योतिष कहता ग्रंथ।।"*
 इसमे जन्म ले तो जीवे नही, घर मे बसे तो उजड जाय, सुहगिन चुडी पहने तो विधवा होय, कुऑ, बोरिंग आरंभ करे तो पानी न आये, बीमार पडे तो बीमारी ठीक न हो।
 
 यदि भूलवश भी इस योग में कोई कार्य आरंभ हो जाए तब वह सफल नहीं होता या बार-बार विघ्न-बाधाएँ व्यक्ति के समक्ष आती रहती हैं जिससे वह कार्य पूरी तरह से सिद्ध नहीं हो पाता. इसलिए इस योग में कोई भी शुभ कार्य आरंभ नहीं करना चाहिए ।

यह योग, तिथि और नक्षत्र के संयोग से बनता है, जैसे – प्रतिपदा तिथि के दिन मूल नक्षत्र हो, पंचमी तिथि को भरणी नक्षत्र हो, अष्टमी तिथि के दिन कृतिका नक्षत्र, नवमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र और दशमी तिथि को आश्लेषा नक्षत्र पड़ रहा हो तब ज्वालामुखी योग बनता है. 



2020 में बनने वाले अगामी ज्वालामुखी योग

  प्रारंभ काल          समाप्ति काल

तिथि  समय             तिथि   समय

6 जून 15:12,           6 जून 22:33,
11 अगस्त 24:57,      12 अगस्त 11:17,
 13 अगस्त 3:26,      13 अगस्त 12:59,
 7 सितंबर 05:24,       7 सितंबर 21:39,
 12 अक्तूबर 01:19,     12 अक्तूबर 16:39
 14 दिसंबर 23:26,       15 दिसंबर 19:07


पं. राजेश मिश्र "कण"
  भास्कर ज्योतिष्य व तंत्र मंत्र अनुसंधान केन्द्र, आजमगढ़।

छुआछूत व जातिवाद का जन्म

श्रीराम!!
शंका-सनातन धर्म मे जो चार वर्ण, ब्राह्मण 'क्षत्रिय, वैश्य, और शुद्र उनके सभी के जनक ब्रह्मा जी है फिर यह जातिवाद की परम्परा और छुवा छूत का जन्म कैसे हुआ है ?? यह सब वेद शास्त्र मे वर्णित है या फिर इंसान के दिमाग की उपज है "इस सत्यता पर प्रकाश डाले"
समाधान-
श्रीमद्भागवत गीता मे श्रीकृष्ण जी ने कहा है- चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
 कुछ लोग इसका शाब्दिक अर्थ अल्पबुद्धि से करते है, कि चारो वर्ण की उत्पत्ति गुण कर्म के अनुसार मैने ही की है। उत्पति और निश्चित करना दोनो मे भेद है कि नही? श्रीकृष्ण ने यह नही कहा- चातुवर्ण्यं त्वं निश्चिनु गुणकर्मविभागश: ।
बल्कि यह कहा है कि- चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश; ।
अर्थात- प्रत्येक व्यक्ति को उसके पूर्वजन्मके गुणो व कर्मो के अनुसार जिस वर्ण मे अगले जन्म मे उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त होती है, उसी मे श्रीभगवान उस् अगला जन्म दिया करते है। और इस प्रकार जन्म से ही अर्थात माता पिता के रक्त से ही जाति का निर्धारण किया गया है।
* पुरुष सूक्त* मे- *ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत:। उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्भया ्ँ शूद्रो अजायत।।*
इस श्लोक का भी अल्पबुद्धि लोग सही अर्थ नही निकालते। और कल्पित अर्थ कर लोगो मे भ्रम फैलाते रहे है। अतः इसके सत्यार्थ को ऋषिगण इस प्रकार स्पष्ट करते है।
 इसकी पुष्टि मे हारीत ऋषि ने सृष्टिकर्म का वर्णन करते हुए हारीत स्मृति मे पुरुषसूक्त के श्लोक को स्पष्ट करते हुए कहा है कि-
*यज्ञ सिद्धयर्थमनवान्ब्राह्मणान्मुखतो सृजत।। सृजत्क्षत्रियान्वार्हो वैश्यानप्यरुदेशतः।। शूद्रांश्च पादयोसृष्टा तेषां चैवानुपुर्वशः।*( १अ० १२/१३)
*यज्ञ की सिद्धि के लिये ब्राह्मणो को मुख से उत्पन्न किया। इसके बाद क्षत्रियो को भुजाओ से वैश्य को जंघाओ से, और शूद्र को चरणो से रचा।*
वशिष्ठ स्मृति चतुर्थ अध्याय मे सृष्टिक्रम का उल्लेख करते हुए वशिष्ठ जी कहते है।
- *ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत:। उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्भया ्ँ शूद्रो अजायत।।*
 *गायत्रा छंदसा ब्राह्मणमसृजत। त्रिस्टुभा राजन्यं जगत्या वैश्यं न केनाचिच्छंदसा शूद्रमित्य संस्कार्यो विज्ञायते।।*
गायत्री छंद से ब्राह्मण की सृष्टि है। त्रिष्टुभ छंद से क्षत्रिय की सृष्टि है। और जगती छंद से वैश्य की सृष्टि ईश्वर ने की है। इसलिये उपरोक्त वेदमंत्र से इनका संस्कार होता है। शूद्र की सृष्टि किसी छंदयोग से नही की इससे ही शूद्र संस्कार के हीन जाना जाता है।
 शाश्त्रो मे स्पष्ट रुप से वर्ण विभाजन ईश्वरकृत जन्माधारित ही है।
 जहॉ तक छूआछूत की बात है, तो इसे तनिक ध्यान से समझना होगा। शूद्रो को दो भाग मे बाटा गया है, सत्शूद्र व असत्शूद्र। जो कूरकर्म, निंदनीयकर्म चाण्डाल व गंदगीयुक्त कार्य करते है, तथा जो अपने वर्णाणुसार निश्चित कर्म का त्यागकर अन्य के कर्मो को करते है, परनिंदा,कलहकारी,अभक्ष्यभक्षी, म्लेच्छादि का स्पर्श वर्जित है। इनसे अलग को सत्शूद्र जाने। इनका स्पर्श वर्जित नही। स्कंद पुराण मे पैंजवन शूद्र व महर्षि गालव संवाद व शूद्र द्वारा महर्षि गालव का आतिथ्य सत्कार, प्रभु श्रीराम द्वारा शबरी के बेर खाना आदि प्रसंग। सत्शूद्र के संदर्भ मे ही है।
छूआछूत तो एक ही शरीर मे भी करना पड़ता है। हाथ की उंगली मुह मे डाल सकते है, पैर की नही। जिस हाथ से मल साफ करते है, उस हाथ से भोजन नही करते। जब एक ही शरीर मे भेद करना पड़ता है, तब ईश्वरीय विधान मे क्यो नही। जिसके पूर्वजन्म मे जैसे कर्म रहे, उसी अनुसार तो इस जन्म मे उसको वर्ण मिला है। अब तो उत्तम यही होगा कि अपने अपने वर्ण के अनुसार निश्चित कर्म करते हुए अपने अगले जन्म को सुधारने का प्रयास करे।
पं. राजेश मिश्र " कण"

जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...