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दुर्गासप्तशती के सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का बृहद स्वरुप, पुर्ण कुंजिका स्तोत्र

 दुर्गाशप्तशती मे दी गई कुंजिका स्तोत्र लघुरुप मे है। रुद्रामल के गौरीतंत्र मे इसका पुरा विवरण दिया गया है। यह परम दुर्लभ व गोपनीय है। विनियोग :   ॐ  अस्य श्री कुन्जिका स्त्रोत्र मंत्रस्य  सदाशिव ऋषि: । अनुष्टुपूछंदः । श्रीत्रिगुणात्मिका  देवता । ॐ ऐं बीजं । ॐ ह्रीं शक्ति: । ॐ क्लीं कीलकं । मम सर्वाभीष्टसिध्यर्थे जपे विनयोग: ।   ऋष्यादि न्यास:   श्री सदाशिव ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे । त्रिगुणात्मक देवतायै नमः हृदि । ऐं बीजं नमः नाभौ । ह्रीं शक्तयो नमः पादौ । क्लीं कीलकं नमः सर्वांगे । सर्वाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः नमः अंजलौ। करन्यास:   ऐं अंगुष्ठाभ्यां नमः । ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा । क्लीं मध्यमाभ्यां वषट । चामुण्डायै अनामिकाभ्यां हुं । विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां वौषट । ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकर प्रष्ठाभ्यां फट । हृदयादिन्यास:   ऐं हृदयाय नमः । ह्रीं शिरसे स्वाहा । क्लीं शिखायै वषट । चामुण्डायै कवचाय हुं । विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट । ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरप्रष्ठाभ्यां फट ।   ध्यानं: सिंहवाहिन...

राहु का भावफल, दशाफल, गोचर फल

  राहु का भाव फल- जन्म कुंडली में राहु का विभिन्न भावों में स्थित होने का फल इस प्रकार है: - लग्न में स्थित राहु से जातक शत्रु विजयी, अपना काम निकाल लेने वाला, कामी, शिरो वेदना से युक्त, आलसी, क्रूर, दयाहीन, साहसी, अपने सम्बन्धियों को ही ठगने वाला, राक्षस स्वभाव का, वातरोगी होता है। द्वितीय धन भाव में स्थित राहु से जातक असत्य बोलने वाला, नष्ट कुटुंब वाला, अप्रिय भाषण कर्ता, निर्धन, परदेस में धनी, कार्यों में बाधाएं, मुख्य व नेत्र रोगी, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करने वाला होता है। तृतीय पराक्रम भाव में स्थित राहु से जातक स्रक्रमी, सब से मैत्री पाने वाला, शत्रु को दबा कर रखने वाला, कीर्तिमान, धनी, निरोग होता है | निर्बल और पाप योजनाओं से युक्त या दृष्ट होने पर छोटे भाई के सुख में कमी करता है | चतुर्थ सुख भाव में स्थित राहु से जातक की माता को कष्ट रहता है | मानसिक चिंता बनी हुई है | प्रवासी और अपने ही लोगों से झगड़ता रहता है | पंचम संतान भाव में स्थित राहु से संतान चिंता, उदर रोग, शिक्षा में बाधा, वहम का शिकार होता है छठवे शत्रु भाव में स्थित राहु से जातक रोग और शत्रु को नष्ट करने वा...

नवरात्रि 2020 संपुर्ण जानकारी, Navratri puja vidhi

नवीन शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि से नवरात्र आरंभ है। १७ अक्टूबर- मां शैलपुत्री पूजा, घटस्थापना, चंदन लेप व त्रिफला और कंघीप्रिंट। १ अक्टूबर- मां ब्रह्मचारिणी पूजन, रेशमी वस्त्रपंदन १ ९ अक्टूबर- मां चंद्रघंटा पूजा, दर्पण सिन्दूर और आलताप्रदर्शन २० अक्टूबर- मां कुष्मांडा पूजा, मधुपर्क, तिलक और काजल काप्रिंटन २१ अक्टूबर- मां स्कंदमाता पूजा, अंगराग (शरीर मे वगने सोग्य द्रव्य) और शक्ति उपदर्शन २२ अक्टूबर- षष्ठी मां कात्यायनी पूजा, सायकाल मे बेलवृक्ष पर देवी का आवाहन पूजन २३ अक्टूबर- मां कालरात्रि पूजा, प्रातःकाल घर पर बेल लाकर पूजन करना चाहिए, बलि और सरस्वती पूजन, निशीथकाल मे महानिशापुजन और बलिदान  २४ अक्टूबर- मां महागौरी दुर्गा पूजा, यथाशक्ति विविध हर्ष से पूजन,  २५ अक्टूबर- मां सिद्धिदात्री पूजा, हवन, व्रतपारण २६ अक्टूबर - विजयादशमी १-१०-२०२० को, काशी समय के अनुसार, ११: ३ १ से १२:२३ तक अभिजित मुहुर्त मे कलश स्थापन होगा। आप अपने स्थानीय समय को इस समय के अनुसार संशोधित कर ले। २५ अक्टूबर को नवमी मे हवन, तुपुरांत नवरात व्रत पारणा व दुर्गा विसर्जन।  देवी आगमन निर्णय के लिए दो विधि...

राहु के चमत्कारी सिद्ध उपाय

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 राहु-केतु की कथा: -पुराणों और ज्योतिष शास्त्र में-  श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार महर्षि कश्यप की पत्नी दनु से विप्रचित्ति नामक पुत्र हुआ जिसका विवाह हिरण्यकशिपु की बहन सिंहिका से हुआ | राहु का जन्म सिंहिका के गर्भ से हुआ इसीलिए राहू का एक नाम सिंहिकेय भी है | जब भगवान विष्णु की प्रेरणा से देव दानवों ने क्षीर सागर का मंथन किया तो उसमें से अन्य रत्नों के अतिरिक्त अमृत की प्राप्ति हुई। भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण करके देवों व दैतों को मोह लिया और अमृत बाँटने का कार्य स्वयम ले लिया और पहले देवताओं को अमृत पान करने वाले अर्भ कर दिया | राहु को संदेह हो गया और वह भगवान का वेश धारण करके सूर्य देव और चन्द्र देव के निकट बैठ गया | विष्णुजी जैसे ही राहु को अमृत पान प्रदान करने वाले सूर्य और चन्द्र ने जो राहु को पहचान लिया था विष्णुजी को उनके बारे में सूचित कर दिया था। भगवान विष्णु ने उसी समय सुदर्शन चक्र द्वारा राहु के मस्तक को धड से अलग कर दिया | पर इस से पहले अमृत की कुछ बूंदें राहु के गले में गयी थी जैसे राहु व केतु को ग्रहत्व की प्राप्ति- राहु और केतु सूर्य व चन्द्र से प्रतिशोध ल...

शनि की सिद्धि, शनि की साढेसाती लघु कल्याणी ढैय्या व शांति के उपाय की संपुर्ण जानकारी

ग्रहो का परिधि पथ पर चलना मार्गी कहलाता है और परिगमन पथ से पीछे की ओर लौटना ग्रह की वक्री गति कही जाती है। राहू केतु को छोडकर सूर्य और चंद्र के अतिरिक्त सभी ग्रह वक्री व मार्गी दोनो होते हैं ।जबकि राहू केतु सदैव वक्री होते हैं ।शनि जिस स्थान पर होता है वह तीसरे सातवे और दसवें स्थान पर देखता है। जब शनि वक्री होकर अपनी तीसरी सातवी और दसवी दृष्टि से जिस भाव को देखता है वह उसपर शनि की दृष्टि वक्री दृष्टि कही जाती है। सातवी और दसवी दृष्टि की अपेक्षा तीसरी दृष्टि अधिक कष्टदायक होती है।  शनि दण्डाधिकारी है, जो पुर्वजन्मकृत कर्मो के फल को प्रदान करने वाले है। शनि एक राशि में पूरे ढाई वर्ष तक रहता है। कुण्डली में चन्द्रमा जिस राशि में स्थित है उस राशि से चतुर्थ भाव और अष्टम भाव में जब शनि का गोचर होता है तब उसे शनि की ढ़ैय्या कहती है। एक राशि में ढाई वर्ष रहने के कारण इसे ढ़ैय्या का नाम दिया गया है। इस ढैय्या को ही लघु कलानी भी कहा जाता है। शनि की ढैय्या : - शनि ग्रह प्रत्ति एक राशि मे ढाई साल तक रहती है। जन्मकुंडली के बारह भाव मे शनि ग्रह को एक चक्र पूरा करने में पूरे तीस साल लग जाते हैं। ...

वंश परंपरा सूची गोत्र प्रवर शिखा सूत्र पाद छन्द वेद उपवेद द्वार देवता

  प्रत्येक सनातनधर्मावलम्बी को अपनी कुल परम्परा का सम्पूर्ण परिचय निम्न  ११ (एकादश) बिन्दुओं के माध्यम से ज्ञात होता है, अतः इसका प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान होना चाहिए -१ - गोत्र, २-  प्रवर, ३ - वेद, ४- उपवेद, ५- शाखा, ६- सूत्र, ७-छन्द, ८-शिखा, ९- पाद ,१०-देवता, ११-द्वार   १] गोत्र - गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया । इन गोत्रों के मूल ऋषि –कश्यप, विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, - इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। इस प्रकार कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते जाने पर पक्ष ओर शाखाये बनाई गई । इस तरह इन सप्त ऋषियों पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों ...