पुर्णपात्र में 256 मुट्ठी चावल ही क्यो रखते है
श्रीराम ।
इस सम्बन्ध में भारतीय विवाह पद्धति में एक प्रश्नोत्तर है,जिसे यहाँ उद्धृत किया जा रहा है—
प्रश्न—उत्तरे सर्वतीर्थानि, उत्तरे सर्व देवता, उत्तरे प्रोक्षणी-प्रोक्ता, किमर्थं ब्रह्म दक्षिणे?
उत्तर— दक्षिणे दानवा प्रोक्ता, पिशाचाश्चैव राक्षसाः। तेषां संरक्षणार्थाय ब्रह्मस्थाप्य तु दक्षिणे।।
अर्थ:- सभी तीर्थ, देवादि, प्रोक्षणी-प्रणीता जब उत्तर में है,तो ब्रह्मा को दक्षिण में क्यों? तदुत्तर में कहा गया कि दक्षिण में दानव,राक्षस,पिशाचादि वास करते हैं,अतः यज्ञ में इनसे रक्षार्थ ब्रह्मा को यहीं स्थान देना चाहिए।
उक्त प्रश्न के उत्तर का थोड़ा और विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि अग्नि कोण में अग्निदेव का स्थान है,साथ ही ग्रहों में शुक्र का स्थान भी यहींहै जो कि दानवादि के प्रिय गुरु हैं। यज्ञ-रक्षक पितामह ब्रह्माजी को इनके समीप ही कहीं स्थान देना उचित है,इस बात का ध्यान रखते हुए कि अग्नि और शुक्र दोनों का सामीप्य भी मिले,तथा यम के क्षेत्र में अतिक्रमण भी न हो।इस प्रकार सुनिश्चित स्थान पर चावल-हल्दीचूर्ण,कुमकुमादि से अष्टदल कमल बना कर,उस पर पीतरंजित चावल से परिपूर्ण एक कलश की स्थापना करे।
जिसे पुर्णपात्र कहा जाता है।
पुर्णपात्र किसे कहते है?
पुर्णपात्र पुराणों में वर्णित द्रव्य मापने की एक मात्रा है' ।
8 मुट्ठी को किञ्चित' कहते हैं । 8 किञ्चित का 1 पुष्कल होता है। और 4 पुष्कल का एक पूर्णपात्र' होता है। इस प्रकार २५६ मुट्ठी का एक पूर्णपात्र होता है।
प्राचीन काल में यह इकाईयां समान्यतः अन्न इत्यादि देने, क्रय विक्रय, दान इत्यादि में प्रयुक्त होती थीं।
इस ब्रह्मकलश के आकार और चावल की मात्रा के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश है कि यजमान की मुट्ठी से दोसौछप्पन मुट्ठी चावल होना चाहिए,जो कि करीब साढ़ेबारह किलो होता है।
२५६ मुट्ठी चावल ही क्यो?
शाश्त्रो मे चंद्रमा की १६ कला को पुर्ण माना गया है। इसी के आधार पर सभी देवताओ की संपुर्ण १६ कला मानी गयी है। तथा सभी देवताओ का षोडशोपचार पूजन का विधान है। एक एक कला के लिए एक एक मुट्ठी चावल उपचार रुप मे दिया जाता है। इस प्रकार १६×१६=२५६ मुट्ठी चावल का प्रयोग हुआ करता है।
पुर्णपात्र मे 256 मुट्ठी चावल क्यो रखते है?
जय जय सीताराम!
पं.राजेश मिश्र "कण"
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