ब्राह्मणत्व तथा दान ग्रहण के दोष
*ब्राह्मणत्व तथा दान ग्रहण के दोष*
*(क)* एक समय की बात है, शंकराचार्य को मार्ग अवरुद्ध किए एक प्रेत ने दर्शन दिया। परिचय और उद्देश्य पूछने पर उस प्रेत ने कहा कि एक प्रतापी राजा द्वारा ब्रह्महत्या- दोष- निवारणार्थ प्रचुर धन- सामग्री का प्रायश्चित-दान-ग्रहण हेतु योग्य ब्राह्मण की खोज हो रही थी, किन्तु पाप-भय से कोई योग्य ग्रहणकर्ता मिल नहीं रहा था । घोर दारिद्रदुःख से पीड़ित एक ब्राह्मण यह सोच कर आगे आया कि दारिद्रदुःख से बड़ा और दुःख क्या हो सकता है ! अतुलनीय धन-सम्पदा प्राप्त करने के पश्चात् कोई उपाय कर लिया जायेगा । यह व्यर्थ हुआ जा रहा मानव जीवन तो सार्थक हो जायेगा सम्पत्ति पाकर। किन्तु भोगैश्वर्य में वह ऐसा लिप्त हुआ कि मृत्यु कब ग्रस ली पता भी न चला। प्रायश्चित-दान-ग्रहण-दोष ने महापिशाच योनि में डाल दिया। मैं वही पिशाच हूँ । कृपया आप मेरा उद्धार करें ।
शंकराचार्य ने ध्यानस्थ होकर विचार किया । किन्तु तत्काल कोई ठोस उपाय न सूझा, जो उसे प्रेतत्व से मुक्ति प्रदान कर सके । अनन्तः उन्होंने एक पिटारी की व्यवस्था की और उस प्रेत को उसमें स्थान ग्रहण करने को कहा । प्रेत ने उनकी आज्ञा का पालन किया । शंकराचार्य ने उस पिटारी को उठा कर रामेश्वरम् तीर्थ की यात्रा की । वहां पहुँचकर मन्दिर के सामने उसे स्थापित कर दिया और कहा कि आज से जो कोई भी इस तीर्थ का दर्शन करने आयेगा,उसे जो भी तीर्थ दर्शन का पुण्य-लाभ प्राप्त होगा उसका एक अंश तुम्हें प्राप्त हुआ करेगा । और इस प्रकार पुण्य संचित होते हुए, कालान्तर में तुम्हें प्रेतत्व से मुक्ति अवश्य मिल जायेगी ।
वर्तमान समय में भी वह पिटारी एक ऊँचे चबूतरे के रुप में7 रामेश्वरम् मन्दिर के बाहर देखा जा सकता है । पता नहीं उस आत्मा को अभी तक मुक्ति मिली या नहीं, किन्तु यह प्रसंग दानार्थियों और ग्रहीताओं के लिए एक बड़ा संकेत है, इसमें कोई दो राय नहीं।
किसी प्रकार का दान लेने को प्रायः ब्राह्मण आतुर रहते हैं । किन्तु अज्ञान और लोभ वश ये भूल जाते हैं कि इसका परिणाम क्या होगा । दान देने वाला भी यह सोचता है कि वह ब्राह्मण पर कृपा कर रहा है,किन्तु सच पूछा जाय तो ब्राह्मण का अपना जो भी थोड़ा बहुत पुण्यार्जन है,उसे नष्ट कर रहा है। लुटा रहा है- मिट्टी के मोल किसी से कुछ भी दान लेकर । यह ठीक वैसे ही है जैसे किसी के घर का कूड़ा-कचरा कोई उठाकर अपने घर ले आवे सिर चढ़ाकर ।
हर पदार्थ और व्यक्ति का अपना चैतन्य क्षेत्र अथवा आधुनिक भाषा में औरा’ होता है। चुम्बकीय प्रभाव होता है। इसमें अकारण या सकारण अतिक्रमण प्रायः हानिकारक ही होता है । अतः सावधानी पूर्वक बचना चाहिए । सामान्य रुप से (उपहारादि) भी दिया गया, किसी प्रकार का कोई भी पदार्थ अपना गुण-दोष-प्रभाव छोड़े बिना नहीं रह सकता,यह विज्ञान सम्मत है । और सारे धार्मिक कृत्य पूर्णतया वैज्ञानिक हैं,इसमें भी कोई दो राय नहीं।
*मन्त्र-पूरित सांकल्पिक दान तो और भी घातक हुआ करता है। बचना तो हमें किसी के उपहार से भी चाहिए । दान तो फिर दान ही है । वह सदा दोषपूर्ण ही होगा ।*
दान का उद्देश्य भी इसी बात (गुणवत्ता या कहें दोष की मात्रा) की ओर संकेत करता है। राम ने ब्रह्महत्या-दोष-प्रायश्चित दान किया था,जिसका दुष्प्रभाव ऊपर के प्रसंग के कहा गया।
दान की वस्तु,मात्रा,उद्देश्य,काल और देश(स्थान)सबका प्रभाव अलग-अलग होगा- यह निश्चित है। इसे ठीक से समझने के लिए पुराणों और धर्मशास्त्रों में दिए गए दान के गुण को ठीक से देख-समझ लें । गुण समझ लेने के पश्चात् दोष समझना बिलकुल आसान हो जायेगा । किसी भी प्रकार का प्रायश्चित दान सर्वाधिक हानिकारक होगा ग्रहीता के लिए । तुलादान, छायादान आदि भी विशेष हानिकारक हैं।
एकादशी उद्यापन करने के क्रम में किया गया शैय्यादान और श्राद्ध में दशकर्म या एकादशाह के दिन किया गया शैय्यादान का प्रभाव कदापि एक जैसा नहीं हो सकता । इसी भांति विशेष अवसरों पर, विशेष स्थान (तीर्थादि) में किया गया और सामान्यतया दिया गया दान कदापि एक जैसा नहीं हो सकता । इन बातों को भी ठीक से समझ लेना जरुरी है ।
दान लेना जिन्होंने अपना अधिकार या कि कर्तव्य समझ लिया है, वे यह सवाल उठा सकते हैं कि आखिर ब्राह्मणों के लिए ही तो ये कर्म बना है— *दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानां....।* इस सूत्र को हम आधा याद रखते हैं। दान के बाद का शब्द- प्रतिग्रह भूल जाते हैं। दान लेने के बाद का प्रायश्चित करना भी तो कहा गया है उन्ही शास्त्रों में,जहां दान की महिमा कही गयी है।
*(ख) भोजन*— *यज्ञान्ते ब्राह्मणभोजनम्...* भोजन का ब्राह्मण से विशेष सम्बन्ध है । किसी भी यज्ञ के अन्त में ब्राह्मण-भोजन की सनातन परम्परा है। समुचित दक्षिणा के अभाव(अवहेलना) से यज्ञ निरर्थक(व्यर्थ) हो जाता है,किन्तु दक्षिणा दान के पश्चात् भी एक अत्यावश्यक कर्म शेष रह जाता है- *विप्रभोजन* । क्योंकि- स्वाहा स्वधाऽदि *शब्दैर्देवपित्रादिभ्यो हुतवहत्वाद् यथा वह्निरिति नामधेयमग्नेः, तथैव स्वाशित द्रव्यैर्देवपित्रादि तोषवहत्त्वात् विप्राणां वह्नित्वम् ।।*
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