ऐसे स्त्री पुरुषों को, पूजा करने का कोई भी फल प्राप्त नहीं होता है।

 ऐसे स्त्री य पुरुषों को, पूजा करने का कोई भी फल प्राप्त नहीं होता, जो

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 *पद्म पुराण के,उत्तरखण्ड में 87 वें अध्याय के 19 वें श्लोक में,शिव जी ने भगवती पार्वती जी को,पवित्रारोपण की विधि का वर्णन करते हुए,पूजा के अनाधिकारी स्त्रीव  पुरुषों की, पूजा की निष्फलता को बताते हुए कहा कि -


 *अश्रद्ध्या: पापात्मा नास्तिकोsछिन्नसंशय:।

 *हेतुनिष्ठश्च पञ्च ऐते न पूजाफलभागिन:।। 


महादेव जी ने,वैसाख महीने में, भगवान श्री हरि को जल में रखकर, पवित्रारोपण विधि से पूजा करने को बताते हुए कहा कि - हे पार्वती! अश्रद्धालु स्त्री पुरुषों को, पापात्मा स्त्री पुरुषों को, नास्तिक स्त्री पुरुषों को,संदेह करनेवाले स्त्री पुरुषों को,हेतुनिष्ठ अर्थात तर्क करनेवाले स्त्री पुरुषों को, इन पांचों प्रकार के स्त्री पुरुषों को पूजा करने का कोई भी फल प्राप्त नहीं होता है।।


 *संसार के सभी सुखों को भोगने का साधन तो, एकमात्र शरीर ही है। इसीलिए तो शरीर को "भोगायतन" अर्थात भोग का आधार,घर कहा जाता है।* 

यदि कोई स्त्री पुरुष, इस शरीर से, विविध प्रकार के भोगों को, निरन्तर ही भोगते हैं तो, अल्पकाल में ही,शरीर में भोगने का सामर्थ्य समाप्त हो जाता है। शरीर में विविध प्रकार के रोग हो जाते हैं,वे रोग ,मृत्यु पर्यन्त समाप्त नहीं होते हैं। ऐसे भोगी विलासी स्त्री पुरुषों की मृत्यु भी रोगों में ही होती है। रोगों के कारण,उन वस्तुओं का त्याग हो जाता है,जिन वस्तुओं का उपभोग करने के लिए,उसने विविध प्रकार के विरोध किए थे। अधर्म धर्म का विचार नहीं किया था। भक्ष्य अभक्ष्य का विचार नहीं किया था। देश, काल, परिस्थिति का भी विचार नहीं किया था। सामाजिक, व्यावहारिक रूप से भी विचार नहीं किया था। ऐसे भोगी स्त्री पुरुष, बहुत समय तक, संसार के सुखों को नहीं भोग सकते हैं।

 *इसीलिए प्रत्येक स्त्री पुरुष को, अपने धर्म का पालन करते हुए, भगवान श्री हरि का पूजन करना चाहिए। व्रत, और पूजन,उत्सव आदि करना चाहिए। इन विधियों से, विषयों के प्रति आसक्ति का नाश होता है। वासना का नाश होता है।* 

 *अपने धर्म का पालन करने से,तथा भगवान के पूजन से, और व्रत उपवास आदि करने से,मन नियन्त्रित होता है।* *संयम नियम के पालन से शरीर में शक्ति की स्थिरता होती है। बुद्धि में, विचार करने का बल प्राप्त होता है।* 

 *संयमी सदाचारी, स्त्री पुरुष ही आजीवन, सांसारिक सुखों को भोगते हुए,आधर्माचरण से प्राप्त दुखों से मुक्त रहते हैं।* 

संयम, नियम तथा धर्म का पालन न करने से,मन बुद्धि की शक्ति का भी ह्रास होता है। दुखदायक मृत्यु होती है। 

इसीलिए, भगवान की पूजा उपासना, अवश्य ही करना चाहिए। श्रद्धा विश्वास पूर्वक,शास्त्रों का श्रवण करना चाहिए। यथाशक्ति संयम नियम का पालन करना चाहिए। इस मनुष्य शरीर में,सभी सुख प्राप्त करने का सामर्थ्य होता है। भक्ति,भजन कीर्तन का भी सुख ग्रहण करना चाहिए।


हे पार्वती! इन पांच प्रकार के स्त्री पुरुषों को,न तो बहुत काल तक, संसार के सुख प्राप्त होते हैं, और न ही,पूजा करने का फल ही प्राप्त होता है।


 *अश्रद्दधान:, पापात्मा,* *नास्तिकोsछिन्नसंशय:* *हेतुनिष्ठश्च।* 


 *(1) अश्रद्दधान:* 

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जो श्रद्धा धारण करते हैं,उनको श्रद्दधान शब्द से कहा जाता है। अर्थात श्रद्धालु।

भगवान ही मेरे दुखों का नाश करेंगे,अन्य कोई भी नहीं,इस प्रकार के विश्वास पूर्वक, भगवान के भक्तों के चरित्रों को सत्य मानते हुए, भगवान की पूजा उपासना करना ही श्रद्धा है। 

यदि किसी स्त्री पुरुष को, भक्तों के लिए किए गए,भगवान के विविध प्रकार के चरित्रों में श्रद्धा विश्वास नहीं होता है,उसे ही अश्रद्धालु,अश्रद्दधान शब्द से कहा जाता है।यदि किसी के कहने पर,या विवाह आदि विधियों में, मात्र व्यावहारिक रूप से पूजा करते हैं,बिना सद्भावना के ही पूजा करते हैं,ऐसे स्त्री पुरुषों को,बिना भावना के, उदासीनता पूर्वक की गई पूजा उपासना से कोई भी फल प्राप्त नहीं होता है।


 *(2) पापात्मा* 

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जिन स्त्री पुरुषों,के मन में,सदा ही पाप करने का ही मन बना रहता है, और पाप करने का अवसर ही देखते रहते हैं,तथा अवसर मिलने पर पाप ही करते हैं,ऐसे स्त्री पुरुषों को *"पापात्मा"* शब्द से कहा जाता है।


किसी के भी धन का हरण करते हैं,तथा पाप करके ही धन कमाते हैं, स्त्री विक्रय,तन विक्रय,तथा पशुओं का वध करके धन एकत्रित करना आदि महापाप ही हैं। 

खाद्य वस्तुओं में,अन्य किसी वस्तु को मिलाकर अधिक मूल्य में विक्रय करना,दुग्ध घृत दधि को,विकृत करके विक्रय करना आदि पाप ही हैं।

ऐसा करनेवाले स्त्री पुरुषों को पापात्मा कहते हैं।

संसार में,पाप भी प्रसिद्ध हैं, और पुण्य भी प्रसिद्ध हैं।

जो व्यक्ति एकमात्र पापों को ही करते रहते हैं,यदि वे कभी संगति में आकर,पूजा भी करते हैं तो,बिना मन के ही करते हैं। ऐसे पापियों को पूजा करने का कोई भी फल प्राप्त नहीं होता है।


 *(3) नास्तिक:* 

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जो स्त्री पुरुष, सद्गुणों की निन्दा करते हैं, सद्गुणों का वर्णन करनेवाले ग्रंथों की, धर्म का वर्णन करनेवाले वेद पुराण आदि शास्त्रों की भी निन्दा करते हैं,तथा धर्म पालन करनेवाले स्त्री पुरुषों को, एकमात्र अधर्म का फल सुख ही बताते हैं। जो स्त्री पुरुष, भगवान की निन्दा करते हुए, शास्त्रों की भी निन्दा करते हैं, *वे स्त्री पुरुष ही नास्तिक कहे जाते हैं।* 

ऐसे शास्त्रनिन्दक, भगवान के निन्दक स्त्री पुरुष,यदि किसी आस्तिक समाज में आकर,पूजा भी करते हैं तो,उनको पूजा करने का कोई भी फल प्राप्त नहीं होता है।


 *(4) अच्छिन्नसंशय:* 

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जिन स्त्री पुरुषों के हृदय में, भगवान के प्रति तथा शास्त्रों के प्रति,सभी प्रकार के *संशय अर्थात संदेह, छिन्न अर्थात नष्ट* हो जाते हैं,उनको *"छिन्नसंशय"* शब्द से कहा जाता है।


 *अच्छिन्नसंशय अर्थात जिन स्त्री पुरुषों को,पूजा में,ब्राह्मण में,तथा शास्त्रों में,सदा ही संशय ही बना रहता है,* उन स्त्री पुरुषों को *"अच्छिन्नसंशय"* शब्द से कहा जाता है।

इस पूजा के करने से,कार्य सफल होगा कि नहीं,ऐसा संशय करते हुए जो स्त्री पुरुष पूजा करते हैं,उनको भी पूजा करने का कोई भी फल प्राप्त नहीं होता है।


 *(5) हेतुनिष्ठ:* 

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 *हेतु अर्थात कारण।* शास्त्रों में कहे गए, प्रत्येक विधि में तथा प्रत्येक निषेध में, *हेतु अर्थात कारण* का प्रश्न करते हुए, उत्तर प्राप्त होने पर जो स्त्री पुरुष नहीं मानते हैं,उनको *"हेतुनिष्ठ"* शब्द से कहा जाता है।


 *यदि भगवान के चरित्रों में कारण पूंछते हैं तो, शास्त्रों के अनुसार दिए गए उत्तर को स्वीकार भी करना चाहिए। किन्तु, मात्र प्रश्न करते हैं और स्वीकार भी नहीं करते हैं तो,ऐसे स्त्री पुरुषों को भी पूजा करने से कोई भी फल प्राप्त नहीं होता है।* 


 *इन पांचों प्रकार के स्त्री पुरुष, प्रायः जड़ बुद्धि के होते हैं। रजोगुणी तमोगुणी भी होते हैं। ऐसे स्त्री पुरुषों से की गई शास्त्रों की चर्चा भी व्यर्थ हो जाती है। मन भी विमोहित हो जाता है। बुद्धि भी विपरीत दिशा में जाने लगती है। इसीलिए ऐसे मूढ़ स्त्री पुरुषों का संग नहीं करना चाहिए, और न ही किसी भी प्रकार की शास्त्रों की चर्चा करना चाहिए।* 


 

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