यज्ञोपवीत दीक्षा के बाद भी गुरु दीक्षा आवश्यक है
श्रीराम ।
एक जिज्ञासा:-विप्र को यज्ञोपवित संस्कार के समय गुरुदीक्षा हो जाती है।तो क्या बाद में भी वैष्णव परंपरा आदि संतों से दीक्षित होना चाहिए??कृपया शास्त्र सम्वत आज्ञा से जिज्ञासा शांत करने की कृपा करें। एक जिज्ञासु🙏🏻🙏🏻
पं.राजेश मिश्र 'कण' का उत्तर
*यथा सिंहम द्रष्टवा भीतो याति वने गजः अधिक्षीतो अर्चये लिंग तथा भीतो महेश्वरी ।।*
जिस प्रकार हाथी वन में सिंह को देखकर भय भीत होता है। उसी प्रकार अदिक्षित व्यक्ति भवअरण्य में भय से
कांपता है यानि गुरु के बगैर शिष्य का भव भय मुक्त होना
असंभव है।
दीयते च शिव ज्ञानम क्षीयते पाश बंधनम स्मादातः समाख्याता दिक्षेतियंम विचक्षणैः ।
दीक्षा का अर्थ है :-
दीयते लिंग समधः क्षीयते मलत्रयम दीयते क्षीयते तस्मात् सा दिक्षेती निगद्यते ।।
अगर हम दीक्षा शब्द को देखें तो इसमें दो व्यंजन और दो स्वर मिले हुए हैं। -
"द'
'ई'
"क्ष"
"आ"
द का अर्थ-
"द" का अर्थ है दमन है। इन्द्रियों का निग्रह मन का निग्रह का नाम दमन है।
ई का अर्थ-
"ई" का अर्थ ईश्वर उपासना है। विषयातीत मानसिक बुद्धि को गुरु और शास्त्र के द्वारा बतायी हुई विधि के अनुसार परमात्मा में एक ही भाव से स्थिर रखने का नाम ईश्वर उपासना है।
"क्ष" का अर्थ-
"क्ष" का अर्थ क्षय करना है। उपासना करते करते जब हमारी मनोस्थिति परमात्मा में लीन होने लगती है उस क्षण में जो वासना जलकर नष्ट होती है, उसे क्षय कहते हैं।
आ का अर्थ-
"आ" का अर्थ आनंद है। मन, बुद्धि, चित्त आदि के विषय काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, इन सभी विकारों का अवकाश जब हमारे जीवन में होने लगता है और अंतःकरण में दिव्य चेतना का प्रकाश होते ही प्रसन्नता, समता, प्रेम प्रकट होने लगता है, उस क्षण का नाम आनंद है। जब हमारा जीव भाव, परमात्मा भाव में परिणित होता है, उस अवस्था का नाम आनंद है, जो शब्द का नहीं अनुभव का विषय होता है।
*उपनयनसंस्कार में गुरुदीक्षा हो जाती है, तो क्या पुन: किसी दीक्षा की आवश्यकता है?*
*शाश्त्रो में चौसठ प्रकार की दीक्षा का वर्णन है।
*जबकि मूलरुप से तीन प्रकार की दीक्षा कही गई है।
*इस का प्रमाण सिद्धांत शिखामणि में श्लोक स्पष्ट है-
*सादीक्षा त्रिविधाप्रोक्ता शिवागम विशारदैः वैधारूपा क्रियारूपा मंत्ररूपा च तापस ।।*
मलत्रय (अशुद्ध से जीव ) को नाश (बंधन मुक्त ) करके लिंगय (शुद्ध शिव) सम्बन्ध बनना ही दीक्षा है। दीक्षा तिन प्रकार है १) वेध दीक्षा- सिद्ध गुरु द्वारा समर्थ शिष्य में शक्तिपात द्वारा षटचक्रो का वेधन किया जाता है।
२) मंत्र दीक्षा - गुरु द्वारा शिष्य के कल्याण के लिए योग्य मंत्र का अभ्यास कराना मंत्र दीक्षा है।
३) क्रिया दीक्षा -योगादि
इस प्रकार ये मूल तीन दीक्षा है, इसके अतिरिक्त संप्रदाय बिशेष से भिन्नता मिलती है। जन्मसे मृत्युपर्यन्त तकदीक्षा का विधान है ।
यथा-
वीरशैवस्थितानाम च स्त्रीणानं गर्भाष्टमे गुरुः पंचसूत्रकत लिंगं धारयेत विधि वच्छुभम ।।
स्वयंभू अागम में जन्म दीक्षा के विषय पर य श्लोक है-
इति बध्वा चेष्टलिंग प्रतिक्षेत शिशोर्जनिम संस्कुर्यत्तनयम जातकर्मणा जननात्परम ।।
जात कर्म करते समय यह लिंग दीक्षा जन्म दीक्षा कहलाता है। शिशु के जन्म होते ही जब तक जन्म दीक्षा धारण नही किया जाता है तब तक शिशु को माँ में अपना दूध नहीं पिलाती। इस कारण जन्म के पश्यात २ घंटे के अंदर शिशु को जन्म दीक्षा धारण कराया जाता है।
*उपनयन मे प्राप्त दीक्षा गायत्री , यज्ञ,पूजन व शिक्षा की अधिकारी बनाती है। किन्तु सैकडो प्रकार की कामनाओ के लिए, कुल परंपरा के निर्वाह के लिए, अध्यात्मिक व सामाजिक उन्नति के लिए सद्गति की प्राप्ति के लिए अलग से दीक्षा का विधान है ।* इन बिषयो का बिस्तृत अध्ययन करने के उपरांत पं.राजेश मिश्र 'कण' का यह विचार है कि
*अपने कुलगुरु के कुल से ही, योग्य ब्राह्मण गुरु हेतु निवेदन करे ।किन्तु यदि योग्य व सदाचारी न मिलने पर अन्य किसी योग्य विद्वान सदाचारी ब्राह्मण से दीक्षा का विनम्र निवेदन करना चाहिए।
जय जय सीताराम ।
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