मांस भक्षण क्यो

श्रीराम।।
     प्रायश्चित के लिये चान्द्रायण व्रत आदि क्यो करते है? व्रतोपवास क्यो किया जाता है? शाश्त्र अल्पाहार के लिये क्यो कहता है? भोजन की आवश्यकता क्यो है? आईये जानते है, इस बिषय मे  पं़राजेश मिश्र  "कण" के शाश्त्रीय लेख द्ववारा।  भोजन स्वाद के लिये नही, शरीर की रक्षा के लिये है। सुस्वादु भोजन व अत्यधिक भोजन शरीर को रुग्ण करते है। अतः अल्पाहार की बाते शाश्त्रो मे है। वनस्पति मे संवेदना नही इसलिये इसका आहार उचित व पशुओ मे संवेदना है इसलिये उसका आहार अनुचित है , यह तर्क पूरी तरह तो उचित नही। किंतु जीवन रक्षण हेतु अन्न,फल , दूग्धादि की प्रमुखता उपलब्धता के आधार पर है। यदि इनका प्रयोग न किया जाय तो यह अल्प काल मे नष्ट हो जाते है। अन्न का भोजनादि मे उतना ही प्रयोग किया जाना चाहिये, जिससे जीवन बचाया जा सके। न कि पूर्ण रुपेण पेट भरने व स्वाद के लिये।प्रथम तो वैसे फल जो बिना बीज के है, ही भोज्य है, तदुपरांत अन्नादि।  यदि अन्न का अभाव हो, तथा जीवन पर संकट हो,भोजन के बिना प्राण जाने का भय हो, तो मॉसांदि भक्षण मे दोष नही।( मनुस्मृति) । अनेक शाश्त्रो मे जीवन रक्षण हेतु मांस भक्षण को क्षम्य गमाना है। किंतु स्वाद के लिये सर्वथा निषेध है।
   मांस भक्षण का शाब्दिक अर्थ होता है, मां अर्थात मै स अर्थात वह = मै जिसका भक्षण करता हू वह मेरा भक्षण करेगा। सौ वर्ष तक जो अश्वमेघ यज्ञ प्रतिवर्ष करता है, और जिसने कभी आजीवन मांस नही खाया दोनो को एक समान फल मिलते है।अतः परलोक मे उत्तम गति की इच्छावाले व्यक्ति को मांस भक्षण नही करना चाहिये। जो इन चीजो को नही मानते वह स्वसंतोष हेतु स्वाद हेतु तर्क गढ़कर स्व संतुष्ट होकर मांसभक्षण करते है, तो अधोगति को प्राप्त होते है।और ऐसे लोग असुर प्रवृति मे लिप्त रहते है।
प्राणस्यान्नमिदं सर्व प्रजापतिर कल्पयत्।  ( मनु ़ अ ़ ५ श्लो. २८)
ब्रह्मा ने अन्न को प्राण की रक्षा के लिये बनाया है।
 यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वोहमरणम्।
वृथा पशुघ्न प्रापनोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि।
 ( मनु. अ.५ श्लो. ३८)
जिस पशु की हत्या की जाती है, उसके शरीर मे जितने रोम है, उतने जन्म तक वह ,उस पशु के हाथो मारा जाता है।
 अतः मांस भक्षण उचित नही है।
पण्डित राजेश मिश्र "कण"

स्वप्नफल विचार, दुःस्वप्न निराकरण

प्रायः हमलोग स्वप्न देखते है, और उसका फल जानने की तीव्र इच्छा होती है। आज इस बिषय पर विस्तृत जानकारी उपलबध करायी जा रही है।
शुभ स्वप्न
स्वप्न मे- राजा, मंत्री, ब्राह्म्ण, देवता ,गुरु, श्वेतवस्त्र धारण किये स्त्री इनके दर्शन व आशीर्वाद मिलना, बडे य उचे मकान, पर्वत, घोडा, सिंह आदि का दर्शन य उसपर चढ़ना, खून, खून से स्नान, खून की वर्षा, अपने सिर का छेदन, अपना मरण, शैय्या ( bed ) का जलना, वेद ध्वनि का सुनना, फूल देखना, दर्पण मिलना, दही चावल का भोजन, जुआ, लडाई, विवाद मे अपनी जीत, इंद्र धनुष का देखना,  ये सभी धन सम्मान व ऐश्वर्य की वृद्धि, तथा कष्टो से मुक्ति कराने वाले है।
     यदि स्वप्न मे फल पुष्प मे सफेद सर्प काटे तो जल्द ही विषेष धन की प्राप्ति हो।
   स्वप्न मे सप्प य बिच्छू के काटने से रक्त निकले तो विपत्ति दूर होकर सुख होवे।
    हाथ मे हथकडी पैरो मे जंजीर का बंधन,पुरुष य नारी के हाथ मे तलवार,जूता, खडाउ, देखना, श्वेतवस्त्रवाली स्त्री का स्नान करना, अपने पैर के मॉस को खाते देखना, सर्प दिखना,  पान मिलना, ऐसे स्वप्न लक्ष्मी प्राप्ति व सुख मिलने का सूचक है।
शिर के मॉस को खाते देखना, मणिमयपात्रो मे भोजन करना, ऐसे स्वप्न राज्यलाभ कराते है। 
   गाय दूहकर तुरंत पीते देखना, सूर्य मण्डल का देखना, अपना मरण देखे तो रोगी निरोग होय। निरोगी को लाभ होय।
  बगुला, मोरनी,  मुर्गी, दिखे तो चतुर स्त्री की प्राप्ति हो।
    शराब व खून का पीना दिखे तो, उत्तम विद्या व धन की प्राप्ति हो।मॉस चरबी का खाना, टट्टी (बिष्ठा) अपने शरीर मे पोतना य लगना,सफेद पत्ती पुष्प चंदन से देह सुसज्जित देखना, लाभ कराता है।
 हरीसब्जी, व सुन्दर अन्न कोई आकर दे जाय तो लाभ हो।
नदी, तालाब मे तैरना, य तैरकर पार जाना,सूर्योदय का देखना, कष्ट से छुटकारा दिलाता है।
    ऊँचे मंदिर पर चढ़कर आग लगी देखना,भाग्योदय कराता है।
राजा गौ ब्राह्म्ण का प्रसन्न देखना,पर्वत, वृक्ष, बगीचे, सुन्दर फल संयुक्त रुप से देखना बिगडे काम सिद्ध करानेवाला है।
घर पर किसी की मृत्यु पर सब रो रहे हो, तो लक्ष्मी व सुख की प्राप्ति हो। नाव पर चढ़कर नदी पार हो तो परदेश गमन होवे।
                  नोट- स्वप्न के बाद सोने से स्वप्न निष्फल हो जाता है, अतः सोवे नही।
 अशुभ स्वप्न-लाल वस्त्र पहनना, सूर्य चंद्र का निस्तेज दिखना, तारो का टूटना, अपने घर मे किसी स्त्री को हँस हँस कर मंगलगीत गाते देखना, नीम पलाश के वृक्ष पर चढ़ना, रुई कपास तेल लोहा मिलना, शरीर मे तेल मलना, इससे संकट व मृत्यु हो।
 शरीर के सारे बलो का व मुख के दॉत का गिरना धन व पुत्र का नाश कराता है।
 मरे व्यक्ति का अपने यहॉ भोजन य किसी वस्तु को टॉग कर ले जाना, धन हानि य कष्ट कराता है।
तॉबा य तॉबे का पैसा मिलना रोग का सूचक है।
अपनी स्त्री के वस्त्र को मरी स्त्री ले जावे तो पुत्र कष्ट य मृत्यु हो।
हाथ नाक का कटना, कीचड़ मे फसना, गधे, भैंस पर चढ़कर, तेल मलकर दक्षिण मे जाना, विवाह के मंगल गीत सुनना, अपने घर को किसी के द्वारा गिराते हुए देखना, काले तथा लाल वस्त्र वाली स्त्री का आलिंगन करना, श्राद्धादि पितृ कर्म करना, भूत प्रेत चण्डालो के साथ मिलना, य भूत प्रेत द्वारा पकडकर दक्षिण दिशा मे ले जाना, इत्यादि स्वप्न मृत्यु कारक होते है।
  नदी मे डूबना, नदी के बहाव मे बहना, बिना ऋतु के वर्षा देखना, बाज, रीछ, बिलाव, भैंस, सर्प, मक्खी, का दर्शन, पर्वत शिखर का य बडे मंजिल के ध्वज का गिरना, अशुभ फल व चिंता कारक है।

स्वप्नफल मिलने का समय- रात्रि केप्रथम प्रहर का १वर्ष मे,द्वितीय का आठ मास मे, तृतीय का तीन मास मे, अरुणोदय का दस दिन मे, तथा सुर्योदय से कुछ पहले  का तत्काल फल मिलता है।
 बहुत बडा बहुत छोटा स्वप्न निष्फल होता है।
        अशुभ स्वप्नदोष की शांति का उपाय- अशुभ स्वप्नदोष दूर करने के लिये, अपने इष्टदेव का पूजन, विष्णु सहस्त्रनाम स्त्रोत, गजेन्द्र मोक्ष, चण्डी पाठ, मृत्युंजय का जप, हवन, यथाशक्ति स्वर्ण व गोदान,ब्राह्म्ण भोजनादि करवाना चाहिये।
 अशुभ स्वप्न देखकर तत्काल सो जाने से भी अशुभ स्वप्न का दोष मिट जाता है।
  अशुभ स्वप्न निवारण मंत्र---
लंकायाः दक्षिणेकोणे कुक्कुटो नाम ब्राह्म्णः। तस्य स्मरण मात्रेण, दुःस्वप्नो सुस्वप्नो भवेत्।।

भूतलिपि साधना, यंत्र साधना, यंत्र कैसे काम करता है।


यंत्र निर्माणकर्ता को यंत्र की सिद्धि हेतु भूतलिपि की उपासना करनी चाहिये।इसकी सिद्धि किये बिना  यंत्र अपना चमत्कृत फल नही देते।
     भूतलिपि- अं इं उं ऋं लृं एं ऐं ओं औं हं यं रं वं लं  डं. कं खं घं गं ञं चं छं झं जं णं टं ठं ढं डं नं तम धं दं मं पं फं भं बं शं षं सं
  विनियोग- अस्याः भूतलिपेः दक्षिणामूर्तिऋषिः गायत्री छन्दः वर्णेश्वरी देवता ममाभीष्टसिद्धये जपे विनियोगः।
   षडग्ंडन्यासः - हं यं रं वं लं हृदयाय नमः। डं. कं खं घं गं शिरसे स्वाहा। ञं चं छं झं जं शिखायै वषट। णं टं ठं ढं डं कवचाय हुम । नं तं थं धं दं नेत्र त्रयाय वौषट। मं पं फं भं बं अस्त्राय फट्।
वर्णन्यास- ॐ अं नमः- गुदे। ॐ इं नमः- लिंगे। ॐ उ नमः - नाभौ। ॐऋ नमः- हृदि। ॐ लृ नमः- कण्ठे। ॐ एं नमः- भ्रूमध्ये। ॐ ऐं नमः- ललाटे। ॐ ओं नमः- शिरसि। ॐऔं नमः - ब्रह्मरन्ध्र। ॐ हं नमः - उर्ध्वमुखे। ॐ यं नमः- पूर्वमुखे। ॐ रं नमः - दक्षिणमुखे।ॐ वं नमः- उत्तरमुखे। ॐ लं नमः - पश्चिममुखे। ॐ डं़ नमः- दक्षहस्ताग्रे। ॐ कं नमः दक्ष हस्तमूले।  ॐ खं नमः - दक्षकूर्परे। ॐ घं नमः- दक्ष हस्तांगुलि संधौ। ॐ गं नमः - दक्षमणिबन्धे।ॐ ञं नमः- वामहस्ताग्रे। ॐ चं नमः - वामहस्तमूले। ॐ छं नमः - वामकूर्परे। ॐ झं नमः - वामहस्तांगुलिसंधौ। ॐ जं नमः - वाम मणिबन्धे। ॐ णं नमः - दक्षपादाग्रे। ॐ टं नमः - दक्षपादमूले। ॐ ठं नमः - दक्षिणजानौ। ॐ ढं नमः - दक्ष पादांगुलिसंधौ। ॐ डं नमः - दक्षिणगुल्फे। ॐ नं नमः - वामपादाग्रे। ॐ तं नमः - वामपादमूले। ॐ थं नमः - वामजानौ। ॐ धं नमः - वामपादंगुलिसंधौ। ॐ दं नमः - वामगुल्फे। ॐ मं नमः - उदरे । ॐ पं नमः - दक्षिणपार्श्वे। ॐ फं नमः - वामपार्श्वे। ॐ भं नमः - नाभौ। ॐ बं नमः - पृष्ठे। ॐशं नमः - गुह्ये। ॐ षं नमः - हृदि। ॐ सं नमः - भ्रूमध्ये।
   ध्यान:
 अक्षस्त्रजं हरिणपोतंमुदग्रटंकं, विद्यां करैरविरतं दधतिं त्रिनेत्राम्। अर्धेन्दुमौलिमरुणामरविन्दरामां, वर्णेश्वरीं प्रणतस्तनभारनम्राम्।।
     जपसंख्या व हवन-- इस भूतलिपि का एक लाख जप कर के तिलो से दस हजार आहूतियॉ देने पर यह भूतलिपि सिद्ध होती है। तदुपरांत साधक द्वारा बनाए गये सभी यंत्र अपना पूर्ण प्रभाव दिखाते है।

मंत्र सिद्धि के उपाय व मंत्र सिद्धि के लक्षण

मंत्र सिद्यि के उपाय- यदि विधिवत मन्त्र का पुरश्चरण करने पर भी सिद्धि न मिले तो उस मंत्र का पुनः पुरश्चरण करना चाहिये। क्योकि अनेकानेक जन्मो के अर्जित पाप सिद्धि मे बाधक होते है। यदि ३ बार पुरश्चरण करने पर भी सिद्धि न मिले तो निम्न सात उपाय करने चाहिये।
  भ्रामण- यंत्र पर एक वायुबीज ( यं) और एक मंत्राक्षर इस क्रम से पूरे मंत्र के अक्षरो को वायुबीज स् सम्पुटित कर शिलारस, कपूर, कुंकुम, खस, एवं चंदन को मिलाकर उसी से यंत्र पर पूरा मंत्र लिखना चाहिये।पुनः इस यंत्र को दूध, घी, मधु एवं जल मिलाकर उसी मे डाल दे और विधिवत पूजन जप हवन करे। इस क्रिया को भ्रामण कहा जाता है। ऐसा करके पुरश्चरण करने से शीघ्र सिद्धि मिलती है।
  रोधन- वाग्बीज(ऐं) सेसम्पुटित मूल मंत्र का जप करना रोधन कहलाता है।
  वशीकरण-आलता, लालचंदव,कूट,धतुरे के बीज एवं मैनशिल इस सब को मिलाकर उससे भोजपत्र पर मूल मंत्र लिखकर उसे गले मे धारण करना वशीकरण कहा जाता है।
  पीडन- अधरोत्तर- योग से मंत्र का जप करते हुए अधरोत्तर- स्वरुपणी देवता की पूजी करनी चाहिये।पुनः अकवन के दूध से मंत्र लिखकर उसे पैर से दबाकर हवन करना चाहिये। यह क्रिया पीडन कहलाती है।
    पोषण- वधूबीज( स्रीं) से सम्रुटित मूलमंत्र का जप करना तथा गाय के दूध से लिखित मंत्र को हाथ मे धारण करना पोषण कहलाता है।
    शोषण- वायुबीज ( यं) से सम्पुटित मूलमंत्र का जप करना तथा यज्ञ की भस्म से भोजपत्र पर मूल मंत्र को लिखकर गले मे धारण करना शोषण कहलाता है।
   दाहन- मंत्र के प्रत्येक स्वर- वर्ण के साथ अग्निबीज ( रं) लगाकर जप करना तथा पलाश के बीज के तेल से मंत्र लिखकर गले मे धारण करना, यह क्रिया दाहन कहलाती है।
           उक्त सातो उपाय को एक साथ करने की आवश्यकता नही होती। इनमे से पहिला उपाय करने पर सिद्धि न मिले तो दूसरा, दूसरा करने पर सिद्धि न मिले तो तीसरा और तीसरे से न हो तो चौथा इस क्रम से ये जप करना चाहिये।इन उपायो के द्वारा निश्तित रुप से मंत्रसिद्धि प्राप्त होती है।

  मंत्र सिद्धि के लक्षण- आरंम्भ मे साधक को मन, मंत्र एवं देवता की पृथक पृथक प्रतीति होती है। किंतु मंत्र सिद्धि होने पर इस त्रिपुटी का नाश होने पर इन तीनो मे केवल इष्टदेव का स्वरुप ही दिखलाई पडता है। इस स्थिति मे साधक साधन व साध्य इन तीनो मे कोई भेद ही नही रह जाता। इस अवस्था को प्राप्त होते ही साधक रोमांचित एवं स्तब्ध हो जाता है।नेत्रो से प्रेमाश्रु बहने लगते है। मन एवं मंत्र के देव मे विलीन हो जाने पर साधक समाधिस्थ हो जाता है। और ऐसा साधक महाभाव को प्राप्त कर लेता है। यही मंत्र साधना का अंतिम फल है।
       वार्षिक उपहार निःशुल्क प्राप्त करने हेतु इस ब्लाग को सबस्क्राईब करे।

पूजा पाठ जप तप करने वाले दुखी क्यो रहते है

प्रायः लोग कहा करते है कि मै वर्षो से पूजा, पाठ, जप, तप कर रहा हू, किंतु कोई लाभ नही मिलता मै परेशान रहता हू। फलाना व्यक्ति कोई पूजा पाठ नही करता वह बडा सुखी है। पूजा पाठ से कुछ नही होता। मेरा पूजा पाठ से विश्वास उठ रहा है। और प्रायः ऐसे लोगो को ईश्वर परीक्षा लेते है कहकर सांत्वना दी जाती है। लेकिन प्रायः यह सत्य नही होता। क्योकि इसके पीछे एक बडा राज यह है कि अधिकतर लोगो को पूजा जप तप मे मंत्र व साधन की सही जानकारी का अभाव होता है।प्रत्येक मंत्र अलग अलग व्यक्ति के लिये अलग अलग प्रभावकारी हो सकते है, जो यह जाने बिना जाप करता है  कि यह मंत्र उसके लिये लाभकारी नही है और वह जप करता है। और यही उनके दुख का कारण बनता है। यदि आप भी जानना चाहते है कि कौन सा मंत्र आपके लिये लाभकारी य हानिप्रद है तो हमारे ब्लाग के मुख पृष्ठ से जुडिये। मंत्र व साधन की जानकारी के लिये  यहॉ 
दबाए।
मंत्र तंत्र यंत्र एक ही शक्ति के तीन रुप है। व्यक्ति की शक्ति को  जगाकर उसमे गुरुतर शक्ति का संचार करने वाला गूढ़ रहस्य मंत्र कहलाता है। मन्त्र का ही चित्रात्मक रुप यंत्र है, तथा क्रियात्मक रुप तंत्र कहा जाता है। मंत्र के इन्ही तीनो रुपो के क्रियात्मक विज्ञान को मंत्र साधना कहते है।
मंत्र साधना की छोटी से छोटी प्रक्रियाओ मे जरा सी भी भूल चूक हो जाए तो साधक को मात्र असफलता ही नही मिलती अपितु कभी कभी बडे बिघ्न का शिकार भी होना पड़ता है।
     इस प्रकार की भूल चूक से बचने के लिये हमारे ब्लाग पर संपूर्ण जानकारी दी जा रही है।
सही मंत्र का चुनाव कैसे करे सिद्धादि शोधन इस लिंक से आप अपने लिये सही मंत्र का चुनाव कर सकते है।

कौन सा मंत्र आपके लिये शीघ्र फल देनेवाला है, जानने के लिये यहॉ मंत्रो के ऋणी व धनी होने के बारे मे जाने।

अपनी,आयु के अनुसार मंत्र चुनिए
उपरोक्त बिषय की जानकारी नीले अक्षर को छूकर लिंक खोले व संरुर्ण जानकारी पढिए।

दैनिक क्रिया कलाप के शाश्त्रोक्त विधान का पालन न करने से पुर्व अर्जित पुण्य नष्ट हो जाते है। पुण्य नष्ट होने से कष्ट की वञद्धि होती है।

यदि घर में गाय प्यासी बंधी रहे।
रजस्वला कन्या अविवाहित हो , 
और देवता के विग्रह पर चढाया गया फूलादि निर्माल्य दुसरे दिन तक पडा़ रहे तो, ये सभी दोष पहले के किये हुए पुण्य को नष्ट कर डालते है।
    (पद्म पुराण , पातालखण्ड ३०।२७)




कलियुग मे शीघ्र सिद्ध देने वाले मंत्र

आईये जानते है, कि वे कौन से मंत्र है जो कलियुग मे शीघ्र फल देने वाले है।
और कौन सा मंत्र आपके लिये होगा शीघ्र फलदायी ऋण व धन शोधन प्रकार
कलियुग मे जो सिद्धिदायक मंत्र है, उन्हे बतलाता हू।
   नृसिंह का एकाक्षर मंत्र- क्ष्रौं
नृसिंह का त्र्यक्षर मंत्र - ह्रीं क्ष्रौं ह्रीं
नृसिंह का अनुष्टुप् मंत्र-
उग्र वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्।
नृसिंह भीषणं भद्र मृत्युं-मृत्युं नमाम्यहम।।
कार्तवीर्यार्जुन का एकाक्षर मंत्र- क्रों
कार्तवीर्यार्जुन का अनुष्टुप् मन्त्र-
  कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान्।
  यस्य स्मरण मात्रेण गतं नष्टं च   लभ्यते।।
हयग्रीव मंत्र- ह्ंसूं
हयग्रीव का अनुष्टुप् मंत्र-
उद्गिरद् प्रणवोद्गीथ सर्ववागीश्वरेश्वर।
सर्व वेदमयाचिन्त्य सर्व बोधय बोधय।।
चिन्तामणि मंत्र-क्ष्म्न्यों

शाश्त्र वचन-
अघोरा दक्षिणामूर्तिरुमामाहेश्वरो मनुः।
हयग्रीवोवराहश्चलक्ष्मीनारायणस्तथा।।
प्रणवाद्याश्चतुर्वर्णा वह्नेर्मंत्रास्तथावरवेः।
प्रणवाद्योगणपतिर्हरिद्रागणनायकः।।
सौरोष्टाक्षरमन्त्रश्चतथारामषडक्षर।
मन्त्रराजोध्रुवादिश्चप्रणवो वैदिकोमनुः।।
वर्णत्रयाय दाताव्या एते शूद्रायनो बुद्धैः।


मंत्रो के ऋण व धन शोधन विधि


पूर्व के लेख मे आपने पढा, अब आगे
अब मंत्र के ऋण- धन शुद्धि की विधि बताते है।ऋणि- धनि चक्र की सहायता से मंत्र के वर्णो के स्वर व व्यञ्जंनो को अलग कर लेवे। फिर अक्षर के उपर वाले कोष्ठक से अंक लेने चाहिये। फिर समस्त स्वर व्यंञ्जन के अंको को जोडकर ८ का भाग देवे। जो शेष बचे वह मंत्र राशि है। इसी रीति से नाम के स्वर व व्यंञ्जन के लिये नीचे लिखे अंक लेकर उनका योग करे एवं ८ का भाग दे। शेष नाम राशि होगी।
  दोनो शेष मे जो राशि अधिक होगी वह ऋणी एवं जो कम होगी वह धनी कहलाती है। यदि मंत्र ऋणी हो तो ही ग्रहण करना चाहिये धनी नही।

उदाहरण : मान लिजिए  कि देवदत्त को ' ऐं नम: भगवति वद वद वाग्देवि स्वाहा' मंत्र लेना है।
 नामाक्षर एवं अंक: देवदत्त  = द्=७ ए्=३ व्=७ अ=१० द्=७ अ=१०त्=८ त्=८अ=१० कुल संख्या का योग ७०है अत: ७०÷८=६
मंत्राक्षर एवं अंक ऐ=४ अँ=८ न्=५ अ=१४ म्=२ अः=९ व्=४ अ=१४ द्=४ अ=१४ व्=४ अ=१४ व्=४ आ=१४ ग्=२ द्=४ ए=६ व्=४ इ=२७ स=८ व्=४ आ=१४ ह्=९ आ=१४  कुल संख्याओ का योग =२२४  इसमे८ आठ का भाग देने पर ८ शेष बचता है। अत: नाम राशि ६ से मंत्रराशि ८ अधिक होने से मंत्र ऋणी है। अतः देवदत्त को यह मंत्र ग्राह्य है।
   ऋणि मंत्र शीघ्रलाभदायी होता है, तथा धनी मंत्र के लिये अधिक जाप करना पड़ता है।

आयु और मंत्र के प्रकार कौन मंत्र किस आयु मे सिद्धि देते है


बीजमन्त्र, मन्त्र तथा मालामंत्र मंत्रो के यह तीन भेद बताया जाता है।
एक से दश अक्षर तक के मंत्र बीजमंत्र, ग्यारह से बीस अक्षर तक के मंत्र, मंत्र तथा इक्कीस व उससे अधिक अक्षर के मंत्र मालामंत्र कहे जाते है।
विविध आयु अवस्था मे सिद्धिदायक मंत्र

   बीजमंत्र- उपासक की बाल्यवस्था मे बीज मंत्र सिद्ध होते है।
मंत्र- युवावस्था मे मंत्र सिद्ध होते है।
मालामंत्र- वृद्धावस्था मे मालामंत्र सिद्ध होते है।

उक्त अवस्था से भिन्न अवस्था मे साधक को अपने अभीष्ट सिद्धि के लिये बीजमंत्र आदि को द्विगुणित जप करना चाहिये।
'वौषट'
मंत्रो के तीन प्रकार- पुरुष, स्त्री एवं नपुंसक मंत्र- जिन मंत्रो के अन्त मे ' वषट्' या 'फट्' होता है वह पुरुष मंत्र कहलाते है। जिन मन्त्रो के अंत मे 'वौषट' एवं स्वाहा लगा हो वह स्त्री तथा जिनके अन्त मे ' हुं' एवं ' नमः' हो नपुसंक होते है।
वश्य, उच्चाटन एवं स्तम्भन मे पुरुष मन्त्र सिद्धिदायक, क्षुद्रकर्म एवं रोगो के नाश मे स्त्री मंत्र शीघ्र सिद्धि प्रद होते है। अभिचार मे नपुंसक मंत्र सिद्धिदायक कहे गये है।
 प्रणव, बीजमंत्र व माला मंत्र के लिये सिद्धादि शोधन की आवश्यकता नही होती है।

सर्वसंकट हरण काली मंत्र व विधि

सर्वसिद्धिप्रद सौम्य श्मशान काली मंत्र जप विधि-
गृह कलह, कर्ज, शत्रु पीडा,पदोन्नति मे बाधा, ग्रहबाधा, प्रेतबाधा, गृहदोष आदि समस्या के निवारण हेतु, यह अनुष्ठान परमोपयोगी है।
सर्व प्रथम पवित्र होकर आचमन,शिखा बंधन, गुरुवंदन, संकल्प करे।
पश्चात माता काली का यथासंभव षोडषोपचार, पूजन करे। रक्त पुष्प अर्पित करे। फिर निम्नानुसार-
विनियोग:-अस्य श्मशानकाली मंत्रस्य भृगुऋषी: । त्रिवृच्छन्द: । श्मशानकाली देवता। ऐं बीजम । ह्रीं शक्ति: । क्लीं कीलकम । मम सर्वेअभीष्ट सिद्धये जपे विनियोग: ।
ध्यान:-अन्जनाद्रिनिभां देवी श्मशानालय वासीनीं ।रक्तनेत्रां मुक्तकेशीं शुष्कमांसातिभैरवां ॥पिंगलाक्षीं वामहस्तेन मद्दपूर्णा समांसकाम ।सद्द: कृ तं शिरो दक्ष हस्तेनदधतीं शिवाम ॥स्मितवक्त्रां सदा चाम मांसचर्वणतत्पराम ।नानालंकार भूशांगीनग्नाम मत्तां सदा शवै: ॥
  हृदयादि षडंगन्यास:-ऐं हृदयाय नम: ।ह्रीं शिरसे स्वाहा: ।श्रीं शिखायै वषट ।क्लीं कवचाय हुं ।कालिके नेत्रत्रयाय वौषट ।ऐं श्रीं क्लीं कालिके ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं अस्त्राय फट।इति हृदयादि षडंगन्यास: ॥मंत्र:-॥ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं कालिके क्लीं श्रीं ह्रीं ऐं ।
यह साधना  7 दिन का है और इसमे रुद्राक्ष माला से 21 माला मंत्र जाप करना आवश्यक है, साधना समाप्ती के बाद हवन मे काले तिल व गुड से जप का दशांश 210 बार मंत्र मे स्वाहा लगाकर आहूती दीजिये मंत्र इस प्रकार होगा “ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं कालिके क्लीं श्रीं ह्रीं ऐं स्वाहा”,आहुती के बाद नींबू और नारियल की बलि देना हैऔर नींबू का थोड़ा सा रस हवनकुंड मे ॐ पूर्णमिदं कहकर निचौड दीजिये,समय रात्री मे 10 बजे के बाद,दिशा दक्षिण,आसन-वस्त्र काले,भोग मे तिल और गुड के लड्डू ,यह साधना विधि, पूर्ण प्रामाणिक है और शीघ्र फलदायी भी है। 
विशेष नोट- अनुष्ठान के आरंभ और पूर्ण होने पर काली कवच का पाठ अवश्य करे।

सर्वसिद्धिप्रद कालिका मंत्र



साधक अपने नाम से सिद्धादिशोधन के पश्चात ही इस मंत्र का जप करे

कालिका का यह अचूक मंत्र है।यदि विधि विधान से जप पूजादि किया जाय तो माता शीघ्र प्रसन्न होकर ऐच्छिक / मनोवांक्षित फल देती है।
मंत्र  :

ॐ नमो काली कंकाली महाकाली मुख सुन्दर जिह्वा वाली,
चार वीर भैरों चौरासी, चार बत्ती पूजूं पान ए मिठाई,माता काली की दुहाई,शब्द सॉचा, पिण्ड कॉचा, फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा।
इस मंत्र का प्रतिदिन 108 बार जाप करने से आर्थिक लाभ व पारिवारिक सुख मिलता है। माता काली की कृपा से सब काम संभव हो जाते हैं। किसी भी मंगलवार या शुक्रवार के दिन, जब चतुर्थी य अष्टमी पडे, तो शुरु करे। काली माता को मीठा पान व मिठाई का भोग लगाते रहें। तथा मूर्ति य चित्र के समीप दीपक जलावें। लाल पुष्प अर्पण करे।
  माता काली अपने भक्तों को सभी तरह की परेशानियों से बचाती हैं।

१लंबे समय से चली आ रही बीमारी दूर हो जाती हैं।
२ ऐसी बीमारियां जिनका इलाज संभव नहीं है, वह भी काली की पूजा से समाप्त हो जाती हैं।
३काली के पूजक पर काले जादू, टोने-टोटकों का प्रभाव नहीं पड़ता।
४हर तरह की बुरी आत्माओं भूत प्रेत, नजर दोष से माता काली रक्षा करती हैं।
५कर्ज से छुटकारा दिलाती हैं।
६व्यापारदि में आ रही परेशानियों को दूर करती हैं।
७जीवनसाथी या किसी खास मित्र से संबंधों में आ रहे तनाव को दूर करती हैं।
८ असफलता को दूर करती हैं।
९शनि-राहु की महादशा या अंतरदशा, शनि की साढ़े साती, शनि का ढइया / पनौती आदि सभी से काली रक्षा करती हैं।
१०पितृदोष और कालसर्प दोष जैसे दोषों दूर होते है।
  और भी अनगिनत कार्य है, जो माता की कृपा से संभव है। जितना भी लिखा जाय कम ही है।साधक गुरु से दीक्षा लेकर इस मंत्र का जप करे।
    जय माता महाकाली।

मंत्र शोधन के अपवाद



                             
नास्ति मंत्र समो रिपु। मंत्र के समान कोई शत्रु नही, यह शाश्त्रो मे बार बार बताया गया है। एक ही मंत्र अलग अलग व्यक्तियो के लिये अलग अलग परिणाम दे सकते है।  मंत्रदीक्षा य जाप से पूर्व मंत्र शोधन य सिद्धादि शोधन परमावश्यक है।अन्यथा कल्याण के स्थान पर भारी हानि हो सकती है।
  सिद्धादि शोधन विधि- इसके लिये अकथह चक्र य अकडम चक्र का प्रयोग किया जाता है।
मंत्र के चार प्रकार है।
१. सिद्ध- सिद्धमंत्र बतायी गयी संख्या का जप करने से सिद्ध होता है।
२. साध्य- यह बतायी संख्या से दूना जाप करने से सिद्ध होता है।
३. सुसिद्ध- यह बतायी संख्या का मात्र आधा जप करने से सिद्ध हो जाता है।
४. अरिमंत्र- यह साधक का विनाश कर देता है।
अकडमचक्र द्वारा सिद्धादि शोधन की विधि यह है कि साधक के नाम का प्रथमाक्षर जिस कोष्ठ मे हो वहा से मंत्र का प्रथमाक्षर किस कोष्ठ मे है, यह गिनने पर मंत्र की फलप्रद स्थिति का ज्ञान होता है। नाम के प्रथमाक्षर से मंत्र का प्रथमाक्षर १,५,९,१३वें कोष्ठक मे पडे तो सिद्ध, २,६,१०,१४ वे़ कोष्ठक मे पडे तो साध्य,३,७,११,१५ वे कोष्ठक मे पडे तो सुसिद्ध, तथा ८,४,१२,१६ वे कोष्ठक मे पडे तो शत्रु होता है।
  उदाहरण- मान लिजिए राम, को कोई मंत्र जप करना है, जिसका प्रथमाक्षर ऐ है, तो चक्र देखनेपर ज्ञात होता है कि ऐ, रा से तीसरे है। अतः यह सुसिद्ध है और शीघ्र उत्तम फल को देनेवाला है। अब यही ऐ से शुरु होने वाला मंत्र यदि धर्मेन्द्र जपता है, तो शीघ्र ही उसका विनाश हो जायेगा क्योकि यह ४ वे होने से अरिमंत्र बनता है।

सिद्धादिशोधन की दूसरी विधि- नाम व मंत्र के वर्ण को जोडकर ४ चार का भाग लगाना चाहिए।
यहॉ १ शेष होने पर मंत्रसिद्ध २ शेष होनेपर साध्य ३ शेष होने पर सुसिद्ध एवं ० य ४ शेष होने पर अरि जानना चाहिए। यहॉ ध्यान रहे कि केवल वर्ण ही जोडने है स्वर नही।



   अब उन मंत्रो को बतलाता हू, जिनके लिये सिद्धादि शोधन की आवश्यकता नही।
 प्रणव ( ॐ) , प्रसाद( हौं) , परा( ह्रीं), एकाक्षर,त्र्याक्षर, पञ्चाक्षर, मालामंत्र, षडाक्षर, सप्ताक्षर, नवाक्षर, एकादशाक्षर, द्वात्रिंशदक्षर, अष्टाक्षर, हंसमंत्र, कूटमंत्र, वेदोक्त मंत्र, स्वपन मे प्राप्त मंत्र, नरसिंह मंत्र, सूर्यमंत्र, वाराहमंत्र, मातृकामंत्र, त्रिपुरा, काममंत्र, आज्ञासिद्ध गरुणमंत्र, इन मंत्रो के लिए सिद्धादि शोधन की आवश्यकता नही होती।
   इसके अतिरिक्त सभी मंत्रो मे सिद्धादि शोधन परमावश्यक है। जो विद्यामंत्र, स्तोत्र य सूक्त अरि है,उसे निश्चित रुप से त्याग देना चाहिये।

मंत्र सिद्धादिशोधन विधि, मंत्र का महत्व, मंत्र से हानि य लाभ


    
  1. नास्ति मंत्र समो रिपु। मंत्र के समान कोई शत्रु नही, यह शाश्त्रो मे बार बार बताया गया है। एक ही मंत्र अलग अलग व्यक्तियो के लिये अलग अलग परिणाम दे सकते है।  मंत्रदीक्षा य जाप से पूर्व मंत्र शोधन य सिद्धादि शोधन परमावश्यक है।अन्यथा कल्याण के स्थान पर भारी हानि हो सकती है।
      सिद्धादि शोधन विधि- इसके लिये अकथह चक्र य अकडम चक्र का प्रयोग किया जाता है।
    मंत्र के चार प्रकार है।
    १. सिद्ध- सिद्धमंत्र बतायी गयी संख्या का जप करने से सिद्ध होता है।
    २. साध्य- यह बतायी संख्या से दूना जाप करने से सिद्ध होता है।
    ३. सुसिद्ध- यह बतायी संख्या का मात्र आधा जप करने से सिद्ध हो जाता है।
    ४. अरिमंत्र- यह साधक का विनाश कर देता है।
    अकडमचक्र द्वारा सिद्धादि शोधन की विधि यह है कि साधक के नाम का प्रथमाक्षर जिस कोष्ठ मे हो वहा से मंत्र का प्रथमाक्षर किस कोष्ठ मे है, यह गिनने पर मंत्र की फलप्रद स्थिति का ज्ञान होता है। नाम के प्रथमाक्षर से मंत्र का प्रथमाक्षर १,५,९,१३वें कोष्ठक मे पडे तो सिद्ध, २,६,१०,१४ वे़ कोष्ठक मे पडे तो साध्य,३,७,११,१५ वे कोष्ठक मे पडे तो सुसिद्ध, तथा ८,४,१२,१६ वे कोष्ठक मे पडे तो शत्रु होता है।
      उदाहरण- मान लिजिए राम, को कोई मंत्र जप करना है, जिसका प्रथमाक्षर ऐ है, तो चक्र देखनेपर ज्ञात होता है कि ऐ, रा से तीसरे है। अतः यह सुसिद्ध है और शीघ्र उत्तम फल को देनेवाला है। अब यही ऐ से शुरु होने वाला मंत्र यदि धर्मेन्द्र जपता है, तो शीघ्र ही उसका विनाश हो जायेगा क्योकि यह ४ वे होने से अरिमंत्र बनता है।

    सिद्धादिशोधन की दूसरी विधि- नाम व मंत्र के वर्ण को जोडकर ४ चार का भाग लगाना चाहिए।
    यहॉ १ शेष होने पर मंत्रसिद्ध २ शेष होनेपर साध्य ३ शेष होने पर सुसिद्ध एवं ० य ४ शेष होने पर अरि जानना चाहिए। यहॉ ध्यान रहे कि केवल वर्ण ही जोडने है स्वर नही।

पूजा व मंत्र जप का सही तरीका

 मंत्रजप फलदायक न होकर नुकसान भी पहुचा सकते है,जाने क्यो?

मन को केन्द्रित करने के अभ्यास को साधना कहा जाता है। सिद्धि के लिये किया जाने वाला प्रयत्न ही साधना है। तथा उसके उपयोगी उपकरणो को साधन कहते है। साधन के बिना साधना की ओर प्रवृत होना संभव ही नही है। अतः मंत्रसाधना की जानकारी के साथ साथ मंत्रसाधन का सम्यक ज्ञान परमावश्यक है।
       जो मंत्र या क्रियाए कर्ता का अभीष्ट सिद्ध नही कर सकती य अनिष्ट करती है, उन्हे साधन नही कह सकते। यही कारण है कि मंत्रशाश्त्र मे सर्वप्रथम यह विचार किया गया है कि कोई मंत्र साधक का अभीष्ट सिद्ध करेगा य नही।
        मंत्र व तंत्र शाश्त्र के ग्रंथो मे मंत्र को साधन य अभीष्टफलदायक बनाने के लिये निम्न लिखित बातो पर बिशेष ध्यान दिया गया है।
    १ सिद्धादि शोधन २ मंत्रार्थ ३ मंत्रचैतन्य ४ मंत्रो की कुल्लुका ५ मंत्र सेतु ६ महासेतु ७ निर्वाण ८ मुखशोधन ९ प्राणयोग १० दीपनी ११ मंत्र के सूतक १२ मंत्र के दोष १३ मंत्र दोष निवृति के उपाय।
      उपरोक्त बातो का ध्यान रखकर, उपयोग करने से मंत्र साधन बन कर अभीष्टसिद्धि देता है, अन्यथा मंत्र साधक का सबसे बडा शत्रु होकर उसका नाश कर देता है। 
१ सिद्धादि शोधन- किस मंत्र के द्वारा साधक को सिद्धि मिलेगी, दुःख मिलेगा य साधना निष्फल होगी इत्यादि का ज्ञान इस क्रिया के द्वारा किया जाता है।
मंत्र सिद्धादि शोधन विधिमंत्र
२ मंत्रार्थ- मंत्र साधारण शब्द नही। इसका अर्थ गुप्तभाषा है। मंत्र योग मे मंत्रार्थ की भावना को ही जप कहा गया है,और जप से ही सिद्धि होती है। अतः सिद्धि के लिये मंत्र के अर्थ की जानकारी परमावश्यक है।
३मंत्र चैतन्य- साधक के चित्त मे अपने मंत्र के प्रति साधारण शब्द भाव न होकर, मंत्र ,देवता एवं गुरु का ऐक्य हो जाना, उसमे ब्रह्मभाव जाग्रत हो जाना।
 ४मंत्रो की कुल्लुका- रुद्रयामल मे कहा गया है कि जो व्यक्ति कुल्लुका को जाने बिना जप करता है उसकी आयु, विद्या, कीर्ति एवं बल नष्ट हो जाता है।जप आरंभ करते समय जिस देव के मंत्र का जप करना हो उसकी कुल्लुका का सर पर न्यास कर लेना चाहिये।
 ५ मंत्रसेतु- साधक का मंत्र के साथ संबन्ध जोडनेवाला बीज सेतु कहलाता है।मंत्रजप से पूर्व सेतुमंत्र का जप हृदय मे कर लेना चाहिये। ब्राह्मणो व क्षत्रिय के लिये ॐ, वैश्य के लिये फट तथा शूद्र के लिये ह्रीं सेतु बताया गया है।
६ महासेतु- जप से पूर्व महासेतु मंत्र का जप करने से साधक को सभी समय एवं सभी अवस्था मे जप करने का अधिकार मिल जाता है।
कालिका - क्रीं, तारा- हूं, त्रिपुरसुंदरी- ह्रीं तथा शेष सब देवताओ का स्रीं महासेतु कहा गया है।
७ निर्वाण- प्रणव तथा मातृका से संपुटित मूलमंत्र का जप करना निर्वाण कहलाता है।
८ मुखशोधन- जिस देवता का जप करना हो,उस देवता के अनुसार मुखशोधन मंत्र का पहले 
९ प्राणयोग- मायाबीज से पुटित मूलमंत्र का७ बार जप करना प्राणयोग कहलाता है।
१० दीपनी- मूलमंत्र को प्रणव से संपुटित कर ७ बार जप करना
११ मंत्र के सूतक-जप के प्रारंभ व समाप्ति पर  प्रणव से संपुटित मूल मंत्र का १०८ या ७ बार जप करना
 आगे के लेख मे इनका विस्तार से एक एक कर वर्णन किया जायेगा।

जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...