शनि की सिद्धि, शनि की साढेसाती लघु कल्याणी ढैय्या व शांति के उपाय की संपुर्ण जानकारी

ग्रहो का परिधि पथ पर चलना मार्गी कहलाता है और परिगमन पथ से पीछे की ओर लौटना ग्रह की वक्री गति कही जाती है। राहू केतु को छोडकर सूर्य और चंद्र के अतिरिक्त सभी ग्रह वक्री व मार्गी दोनो होते हैं ।जबकि राहू केतु सदैव वक्री होते हैं ।शनि जिस स्थान पर होता है वह तीसरे सातवे और दसवें स्थान पर देखता है। जब शनि वक्री होकर अपनी तीसरी सातवी और दसवी दृष्टि से जिस भाव को देखता है वह उसपर शनि की दृष्टि वक्री दृष्टि कही जाती है। सातवी और दसवी दृष्टि की अपेक्षा तीसरी दृष्टि अधिक कष्टदायक होती है।

 शनि दण्डाधिकारी है, जो पुर्वजन्मकृत कर्मो के फल को प्रदान करने वाले है। शनि एक राशि में पूरे ढाई वर्ष तक रहता है। कुण्डली में चन्द्रमा जिस राशि में स्थित है उस राशि से चतुर्थ भाव और अष्टम भाव में जब शनि का गोचर होता है तब उसे शनि की ढ़ैय्या कहती है। एक राशि में ढाई वर्ष रहने के कारण इसे ढ़ैय्या का नाम दिया गया है। इस ढैय्या को ही लघु कलानी भी कहा जाता है।

शनि की ढैय्या: - शनि ग्रह प्रत्ति एक राशि मे ढाई साल तक रहती है। जन्मकुंडली के बारह भाव मे शनि ग्रह को एक चक्र पूरा करने में पूरे तीस साल लग जाते हैं। इस चक्र के दौरान कुंडली में चन्द्रमा जिस राशि में स्थित है उस राशि से या उस भाव से एक घर पहले से शनि का गोचर आरंभ होता है।

साढे़साती का अर्थ है - साढे की सात वर्ष चन्द्रमा जिस राशि में स्थित है उस राशि से एक राशि पहले शनि की साढे़साती का पहला चरण आरम्भ हो जाता है। इसमें शनि ढाई वर्ष तक रहता है। उसके बाद साढे़साती का दूसरा चरण शुरू होता है जिसमें शनि का गोचर चन्द्रमा के ऊपर से होता है। यहां भी शनि ढाई वर्ष तक रहता है। इसके बाद शनि चन्द्रमा से अगली राशि में प्रवेश करता है और यह अंतिम व तृष्णा चरण होता है। इसमें भी शनि ढाई वर्ष तक रहता है। इस प्रकार चन्द्रमा से एक राशि पहले और एक राशि बाद तक शनि का ढाई ढाई वर्ष के गोचर को एक साथ जोडकर साढे़साती कहा जाता है।शनि कीगति चुंकि मंद होती है अत: एक राशि को पार करने में यह वर्ष का समयलगता है ’(?) उदाहरण के तौर पर देखें तो मेष राशि में जब शनि प्रवेश करेगा तब क्रमशः: वृष और मिथुन तीन राशियों से गुजरेगा और अपना समय चक्र पूरा करेगा। शनि गोचर में जन्म राशि से बारहवेंराशि में प्रवेश करता है तब साढ़े साती की दशा शुरू हो जाती है और जब शनि जन्म से दूसरे स्थान को पार कर जाता है तब इसकी दशा से मुक्ति मिल जाती है। लोग यह सोच कर ही घबरा जाते हैं कि शनि की साढ़े साती आज से शुरू हो गयी तो आज से भी कष्ट और परेशानियों की शुरूआत होने लगी है। जो लोग ऐसा सोचते हैं वेअकारण ही भयभीत होते हैं वास्तव में अलग अलग राशियों के व्यक्तियों पर शनि का प्रभाव अलग होता है। कुछ व्यक्तियों को साढ़े साती शुरू होने से कुछ समय पहले ही इसके संकेत मिल जाते हैं और साढ़े साती समाप्त होने से पूर्व ही तिलों से मुक्ति मिल जाती है और कुछ लोगों को देर से शनि का प्रभावशाली देखने को मिलता है और साढ़े साती समाप्त होन के कुछ समय बाद। तकइसके प्रभाव से दो चार होना पड़ता है अत: आपको इस विषय में घबराने कीआव परिवर्तनता नहीं है। 

लक्षण-शनि की साढ़े साती के समय कुछ विशेष प्रकार की घटनाएं होती हैं जिनसे संकेत मिलता है कि साढ़े साती चल रही है। शनि की साढ़े साती के समय आमतौर पर इस प्रकार की घटनाएं होती है जैसे घर  का कोई भाग अचानक गिर जाता है। घर के अधिकांश सदस्य बीमार रहते हैं, घर में अचानक अाग लग जाती है, आपको बार-बार अपमानित होना पड़ता है। घर की महिलाएं अक्सर बीमार रहती हैं, एक परेशानी से आप जैसे ही निकलते हैं दूसरी परेशानी सिर उठाए खड़ी रहती है। व्यापार एवं व्यवसाय में असफलता और नुकसान होता है। घर में मांसाहार एवं मादक पदार्थों के प्रति लोगों का रूझान काफी बढ़ जाता है। घर में आये दिन कलह होने लगता है। अकारण ही आपके ऊपर कलंक या इल्ज़ाम लगता है। आंख व कान में तकलीफ महसूस होती है एवं आपके घर से चप्पल जूते गायब होने लगते हैं।

आपके जीवन में जब उपरोक्त घटनाएं दिखने लगे तो आपको समझ लेना चाहिए कि आप साढ़े साती से पीड़ित हैं। 

साढ़े साती शुभ भी:-शनि की ढईया और साढ़े साती का नाम सुनकर बड़े बड़े पराक्रमी और धनवानों केचेहरे की रंगत उड़ जाती है। लोगों के मन में बैठे शनि देव के भय का कई ठगज्योतिषी नाज़ायज लाभ उठाते हैं। विद्वान ज्योतिषशास्त्रियों की मानें तोशनि सभी व्यक्ति के लिए कष्टकारी नहीं होते हैं। शनि की दशा के दौरान बहुतसे लोगों को अपेक्षा से बढ़कर लाभसम्मान व वैभव की प्राप्ति होती है। 

साढ़े साती केप्रभाव के लिए कुण्डली में लग्न व लग्नेश की स्थिति के साथ ही शनि और चन्द्र की स्थिति पर भी विचार किया जाता है। शनि की दशा के समय चन्द्रमाकी स्थिति बहुत मायने रखती है। चन्द्रमा अगर उच्च राशि में होता है तो आपमें अधिक सहन शक्ति आ जाती है और आपकी कार्य क्षमता बढ़ जाती है जबकि कमज़ोर व नीच का चन्द्र आपकी सहनशीलता को कम कर देता है व आपका मन काम मेंनहीं लगता है जिससे आपकी परेशानी और बढ़ जाती है। जन्म कुण्डलीमें चन्द्रमा की स्थिति का आंकलन करने के साथ ही शनि की स्थिति का आंकलनभी जरूरी होता है। शनिअगर लग्न कुण्डली व चन्द्र कुण्डली दोनों में शुभ कारक है तो आपके लिएकिसी भी तरह शनि कष्टकारी नहीं होता है

ढैय्या: -कल्याणी प्रददति वै रावसुता राशेश्चतुर्थताष्टमी।

ढैय्या का मतलब होता है ढाई साल। वैसे तो शनिदेव प्रत्येक राशि में ही ढाई वर्ष रहते हैं। लेकिन ढैय्या का विचार चंद्र राशि से केवल चतुर्थ और अष्टम भाव से ही किया जाता है |

जब शनिदेव चंद्र लग्न (जन्म राशि) के अनुसार चतुर्थ व अष्टम भाव से गोचर करते हैं तो जातक को ढैय्या देते हैं। शनि का प्रभाव जन्म कुंडली में शनि की स्थिति और दशंतर्दशा पर निर्भर करता है। शनि का अशुभ प्रभाव जातक की जन्म कुंडली और नवांश कुंडली में शनि की अशुभकारी स्थिति से होता है। ज्योतिष के सामान्य सिद्घान्तों के अनुसार शनि जब अपनी उच्चा राशि, मित्र राशि या अपने नवांश में और वर्गोत्तम होने की स्थिति में शुभफल देता है। शनि जन्म कुंडली के शनि से 3, 6, 10, 11 भावो में भी शुभफल देता है। जन्म कुंडली के

चन्द्रमा से भी शनि 3, 6, 11 भाव में अशुभ फल नहीं देता है। जिस ग्रह के साथ शनि का संबंध सम रहता है उसकी राशि से गोचर करने के समय भी अशुभ फल नहीं देता है।

शनिदेव प्रत्येक भाव में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के अनुसार फल देते हैं।

चतुर्थ और अष्टम भाव मोक्ष के भाव हैं। ज्योतिष का नियम है कि शनिदेव जिस भाव से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के लिए गोचर करे, उसी के अनुरूप व्यक्ति को कार्य करना चाहिए। जो व्यक्ति ढैय्या में तीर्थ यात्रा, समुद्र स्नान और धर्म के कार्य दान-पुण्य इत्यादि करते हैं, उन्हें ढैय्या में भी शुभ फल की प्राप्ति होती है। लेकिन जो उस अवधि में इन कामों से दूर रहते हैं, उन्हें अपने ही पूर्वकृत अशुभ कर्मों के फलस्वरूप शारीरिक-मानसिक परेशानी और कारोबार में हानि होती है।

चतुर्थ भाव की ढैय्या :-शनि जन्म कालीन चंद्र से चतुर्थ में जाए तो कंटक शनि होता है।शनि की लघु कल्याणी ढैय्या के नाम से भी जाना जाता है| चतुर्थ भाव से शनिदेव छठे भाव को, दशम भाव को तथा लग्न को देखते हैं। अर्थात् जब शनिदेव चतुर्थ भाव से गोचर करते हैं तो जातक के निजकृत पूर्व के अशुभ कर्मों के फलस्वरूप उसके भौतिक सुखों यानी मकान व वाहन आदि में परेशानी पैदा होती है जिसका संकेत कुण्डली में शनिदेव की स्थिति दिया करती है। जिसकी वजह से उसके कारोबार में फर्क पड़ता है। उसकी परेशानी बढ़ जाती है। परेशानियों के बढ़ने से जातक को शारीरिक कष्ट की भी प्राप्ति होती है। अर्थात् चतुर्थ भाव की ढैय्या में मकान खरीदना या बेचना नहीं चाहिए। साथ ही अपने व्यवसाय में भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति अधिकतर शांत रहते हैं और धार्मिक कार्यों में संलग्न रहते हैं, ऐसे व्यक्तियों को चतुर्थ ढैय्या में किसी भी प्रकार की परेशानी पैदा नहीं होती है। और जो व्यक्ति नया कार्य करते हैं, उन्हें परेशानी पैदा होती है।

अष्टम भाव की ढैय्या: जब शनिदेव जन्मकुंडली में चंद्र से अष्टम भाव से गोचर करते हैं तो ढैय्या देते हैं, अष्टम ढैय्या चतुर्थ की ढैय्या से ज्यादा अशुभ फलों का संकेत देती है।अष्टम भाव आयु या मृत्यु का भाव माना गया है|

अष्टम ढैय्या जातक से नया कार्य शुरू कराकर बीच में ही धोखा दे जाती है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अष्टम ढैय्या में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। क्योंकि अष्टम भाव से शनिदेव तीसरी दृष्टि से दशम भाव को सप्तम दृष्टि से द्वितीय भाव को और दशम दृष्टि से पंचम भाव को देखते हैं। अष्टम ढैय्या सबसे पहले कारोबार में परेशानी पैदा करती है। जिसकी वजह से जातक के निजी कुटुंब और धन पर बुरा असर पड़ता हैं तथा धन की वजह से जातक के संतान के ऊपर भी कुप्रभाव पड़ता है। अत: जातक को अष्टम ढैय्या में कोई भी नया कार्य, यानी बैंक आदि से कर्ज या जमीन-जायदाद का खरीदना-बेचना या पिता की संपत्ति को बांटना नुकसानदायक होता है। अत: इस ढैय्या के दौरान ये कार्य नहीं करने चाहिए। अष्टम ढैय्या में जो व्यक्ति धार्मिक कार्य, समुद्र स्नान व तीर्थ यात्रा आदि करता है और ईमानदारी पूर्वक, निश्छल-सहृदय, सादा जीवन जीता है, तो उस व्यक्ति को अष्टम ढैय्या में किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं होती है।याद रहे कि प्रतिकूल परिस्तिथियों के पीछे भी जातक के पूर्वकृत अशुभ कर्म ही रहते हैं।

लघु कल्याणी ढैय्या व साढेसाती के उपाय:-

ढैय्या में व्यक्ति को धैर्य से काम लेना चाहिए क्योंकि ढैय्या में व्यक्ति को अपने सगे संबंधियों की भी मदद कम से कम मिलती है। इसलिए स्वयं सभी कार्य करने पड़ते हैं।

ढैय्या के अशुभ फलों के प्रभावों को कम करने के लिए, लाल किताब के उपाय:- जातक: प्रात:काल चिड़ियों को दाना डालें,

आँगन या छत पर उनके लिए पानी रखें।

आटा शक्कर का मिश्रण बना कर चींटियों को डालें

प्रतिदिन सुबह जल्दी उठ कर स्नान आदि से निवृत होकर सूर्यदेव को प्रतिदिन जल दें।

बुरे कार्यों से बचें।

ढैय्या में सफलता प्राप्त होगी। यहॉ पढिए राहू के चमत्कारी उपाय

आप साढ़े साती के दुष्प्रभाव से बचने क लिए जिन उपायों को आज़मा सकते हैं वे निम्न हैं:

शनिदेव भगवान शिव के शिष्य हैं, शिवजी की जिनके ऊपर कृपा होती है उन्हें शनि हानि नहीं पहुंचाते अत: नियमित रूप से शिवलिंग की पूजा व अराधना करनी चाहिए। पीपल में सभी देवताओं का निवास कहा गया है इस हेतु पीपल को आर्घ देने अर्थात जल देने से शनि देव प्रसन्न होते हैं। अनुराधा नक्षत्र में जिस दिन अमावस्या हो और शनिवार का दिन हो उस दिन आप तेल, तिल सहित विधि पूर्वक पीपल वृक्ष की पूजा करें तो शनि के कोप से आपको मुक्ति मिलती है। शनिदेव की प्रसन्नता हेतु शनि स्तोत्र का नियमित पाठ करना चाहिए।शनि के कोप से बचने हेतु आप हनुमान जी की आराधाना कर सकते हैं, क्योंकि शास्त्रों में हनुमान जी को रूद्रावतार कहा गया है। प्रतिदिन हनुमान चालीसा का पाठ करे। आप साढ़े साती से मुक्ति हेतु शनिवार को बंदरों को केला व चना खिला सकते हैं। नाव के तले में लगी कील और काले घोड़े का नाल भी शनि की साढ़े साती के कुप्रभाव से आपको बचा सकता है अगर आप इनकी अंगूठी बनवाकर धारण करते हैं। लोहे से बने बर्तन, काला कपड़ा, सरसों का तेल चमड़े के जूते, काला सुरमा, काले चने, काले तिल, उड़द की साबूत दाल ये तमाम चीज़ें शनि ग्रह से सम्बन्धित वस्तुएं हैं, शनिवार के दिन इन वस्तुओं का दान करने से एवं काले वस्त्र एवं काली वस्तुओं का उपयोग करने से शनि की प्रसन्नता प्राप्त होती है।

बिशेष उपाय हेतु इसी ब्लाग पर मुख्य मेनु से शनि राहू केतु ग्रह की शांति के उपाय पढि़ये।
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वंश परंपरा सूची गोत्र प्रवर शिखा सूत्र पाद छन्द वेद उपवेद द्वार देवता

 


प्रत्येक सनातनधर्मावलम्बी को अपनी कुल परम्परा का सम्पूर्ण परिचय निम्न  ११ (एकादश) बिन्दुओं के माध्यम से ज्ञात होता है, अतः इसका प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान होना चाहिए -१ - गोत्र, २-  प्रवर, ३ - वेद, ४- उपवेद, ५- शाखा, ६- सूत्र, ७-छन्द, ८-शिखा, ९- पाद ,१०-देवता, ११-द्वार

  १] गोत्र - गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया । इन गोत्रों के मूल ऋषि –कश्यप, विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, - इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। इस प्रकार कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते जाने पर पक्ष ओर शाखाये बनाई गई । इस तरह इन सप्त ऋषियों पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामो से अन्य गोत्रों का नामकरण हुआ यथा पाराशर गोत्र वशिष्ट गोत्र से ही संबंधित है।

शाश्त्रविधि से गोत्र धारण की जो पद्धति है उसके अनुसार वंश परंपरा तथा गुरु परंपरा दोनो ही है।

जिसका गोत्र ज्ञात नही उनके लिए कश्यप गोत्र माना जाता है क्योकि सभी मूलरुप से कश्यप ऋषि के वंशज है। इसके अतिरिक्त जिनका गोत्र अज्ञात है उनके पुरोहित द्वारा अपना गोत्र प्रदान किया जा सकता है। स्त्री के पति का गोत्र स्त्री का गोत्र हो जाता है। विवाह पुर्व कन्या के पिता का गोत्र होता है विवाह बाद पति का गोत्र हो जाता है।

२] प्रवर -

प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" । अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें । अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे।

३ ] वेद -

वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने लाभ किया है , इनको सुनकर  कंठस्थ किया जाता है , इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं। प्रत्येक  का अपना एक विशिष्ट वेद होता है , जिसे वह अध्ययन -अध्यापन करता है।

४] उपवेद -

चारो वेद के उपवेद है, जिनका परंपरागत अध्ययन करनेवाला उस उपवेद से संबद्ध होता है। आयुर्वेद- ऋग्वेद से (परन्तु सुश्रुत इसे अथर्ववेद से व्युत्पन्न मानते हैं);

धनुर्वेद - यजुर्वेद से ;

गन्धर्ववेद - सामवेद से, तथा

शिल्पवेद - अथर्ववेद से ।

५]  शाखा -

वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है , कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।

६]  सूत्र -

प्रत्येक वेद के अपने 2 प्रकार के सूत्र हैं।श्रौत सूत्र और ग्राह्य सूत्र।यथा  शुक्ल यजुर्वेद का कात्यायन श्रौत सूत्र और पारस्कर ग्राह्य सूत्र है।

७]  छन्द  -

उक्तानुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण को  अपने परम्परासम्मत   छन्द का  भी  ज्ञान  होना  चाहिए  ।

८]  शिखा -

अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने  की परम्परा शिखा कहलाती है ।

९]  पाद -

अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं । ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है । अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं ।

१०]  देवता -प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते है वही उनका देवता [जैसे  विष्णु, शिव , दुर्गा ,सूर्य इत्यादि  देवों में से कोई एक ] उनके आराध्‍य देव है ।

११]  द्वार - 

यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता )  जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार या दिशा  कही जाती है।

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देवताओ का समूह, मास के देवता, अधिपति देवता, 33 कोटि देवता के नाम

 आदिशक्ति त्रिदेवयुक्त सर्वशक्तिमान प्रकृति और माया को उत्पन्न करनेवाली सनातन शक्ति है, जो सृष्टि व संहार को संचालित करती है। यही आदिशक्ति सृष्टि करने पर संचालन हेतु अपने अंश को विविध भागो मे बॉटकर सृष्टि का संचालन करती है। पुराणो मे आदिशक्ति दुर्गा, सुर्य, बिष्णु, शिव आदि नामो से जाने जाते है। वस्तुतः ये अलग अलग न होकर एक ही के नाम है, जो अलग अलग प्रकरण के अनुसार कहे गये है। 33 कोटि का अर्थ करोड व प्रकार दोनो है!

त्रिदेव : ब्रह्मा, विष्णु और महेश।

त्रिदेवी : सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती।

पार्वती ही पिछले जन्म में सती थीं। सती के ही 10 रूप 10 महाविद्या के नाम से विख्यात हुए और उन्हीं को 9 दुर्गा कहा गया है। आदिशक्ति मां दुर्गा और पार्वती अलग-अलग हैं। दुर्गा सर्वोच्च शक्ति है

प्रमुख 33 देवता हैं- 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता होते हैं। कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं।

12 आदित्य :के नाम इस प्रकार है -1. अंशुमान, 2. अर्यमन, 3. इन्द्र, 4. त्वष्टा, 5. धातु, 6. पर्जन्य, 7. पूषा, 8. भग, 9. मित्र, 10. वरुण, 11. विवस्वान और 12. विष्णु।

8 वसु के नाम इस प्रकार है  :- 1. आप, 2. ध्रुव, 3. सोम, 4. धर, 5. अनिल, 6. अनल, 7. प्रत्युष और 8. प्रभाष।

11 रुद्र के नाम इस प्रकार है:- 1. शम्भू, 2. पिनाकी, 3. गिरीश, 4. स्थाणु, 5. भर्ग, 6. भव, 7. सदाशिव, 8. शिव, 9. हर, 10. शर्व और 11. कपाली।

अन्य पुराणों में इनके नाम अलग है- मनु, मन्यु, शिव, महत, ऋतुध्वज, महिनस, उम्रतेरस, काल, वामदेव, भव और धृत-ध्वज ये 11 रुद्र देव हैं। इनके पुराणों में अलग-अलग नाम मिलते हैं।

2 अश्विनी कुमार के नाम : 1. नासत्य और 2. दस्त्र। अश्विनीकुमार त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के 2 पुत्र हैं। ये आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं।

अन्य देवी और देवता इस प्रकार है :-  49 मरुदगण, अर्यमा, नाग, हनुमान, भैरव, भैरवी, गणेश, कार्तिकेय, पवन, अग्निदेव, कामदेव, चंद्र, विश्‍वदेव, चित्रगुप्त, यम, यमी, शनि, प्रजापति, सोम, त्वष्टा, ऋभुः, द्यौः, पृथ्वी, सूर्य, बृहस्पति, वाक, काल, अन्न, वनस्पति, पर्वत, पर्जन्य, धेनु, पूषा, आपः सविता, उषा, औषधि, अरण्य, ऋतु त्वष्टा, सावित्री, गायत्री, श्री, भूदेवी, श्रद्धा, शचि, दिति, अदिति, सनकादि, गरूड़, अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक, पिंगला आदि।

ब्रह्मा : ब्रह्मा को जन्म दाता

विष्णु : विष्णु को पालनकर्ता

महेश : महेश को संहारकर्ता कहा जाता है।

इंद्र : बारिश और जंगलों को संचालित करते हैं।

अर्यमा पितरों के अधिपति है।

यम : देह छोड़ चुकी आत्माओं को दंड या न्याय देने वाले।

अपांनपात : धर्म की आलोचना करने वालों को दंड देने वाले।

10 दिशाओ के 10 दिग्पालो के नाम - ऊर्ध्व के ब्रह्मा, ईशान के शिव व ईश, पूर्व के इंद्र, आग्नेय के अग्नि या वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्य के नऋति, पश्चिम के वरुण, वायव्य के वायु और मारुत, उत्तर के कुबेर और अधो के अनंत। उक्त सभी दिशाओं के दिशाशूल, वास्तु की जानकारी के साथ जानिए धन, समृद्धि और शांति बढ़ाने के उपाय।

. स्व: (स्वर्ग) लोक के देवता- सूर्य, वरुण, मित्र

भूव: (अंतरिक्ष) लोक के देवता- पर्जन्य, वायु, इंद्र और मरुत

भू: (धरती) लोक- पृथ्वी, उषा, अग्नि और सोम आदि।

 आकाश के देवता अर्थात स्व: (स्वर्ग)- सूर्य, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत, आदित्यगण, अश्विनद्वय आदि।

अंतरिक्ष के देवता अर्थात भूव: (अंतरिक्ष)- पर्जन्य, वायु, इंद्र, मरुत, रुद्र, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहितर्बुध्न्य।

पृथ्वी के देवता अर्थात भू: (धरती)- पृथ्वी, ऊषा, अग्नि, सोम, बृहस्पति, नद‍ियां आदि।

 पाताल लोक के देवता- पाताल के देवाता शेष और वासुकि हैं।

 पितरो के मुख्य देवता अर्यमा है। पितृलोक के देवता-  अग्रिष्वात्त, बर्हिषद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये 9 दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं। पुराण के अनुसार दिव्य पितरों के अधिपति अर्यमा का उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र निवास लोक है।

अलग अलग नक्षत्रो के देवता इस प्रकार है:-अश्विनी – अश्विनी कुमार, भरणी – काल, कृत्तिका – अग्नि, रोहिणी – ब्रह्मा, मृगशिरा – चन्द्रमा, आर्द्रा – रूद्र, पुनर्वसु – अदिति, पुष्य – बृहस्पति, आश्लेषा – सर्प, मघा – पितर, पूर्व फाल्गुनी – भग, उत्तराफाल्गुनी – अर्यमा, हस्त – सूर्य, चित्रा – विश्वकर्मा, स्वाति – पवन, विशाखा – शुक्राग्नि, अनुराधा – मित्र, ज्येष्ठा – इंद्र, मूल – निऋति पूर्वाषाढ़ – जल, उत्तराषाढ़ – विश्वेदेव, श्रवण – विष्णु, धनिष्ठा – वसु, शतभिषा – वरुण, पूर्वाभाद्रपद – आजैकपाद, उत्तराभाद्रपद – अहिर्बुधन्य, रेवती – पूषा,  अभिजीत – ब्रह्मा,

 मासाधिपति अलग अलग मास के देवता - चैत्र मास में धाता, वैशाख में अर्यमा, ज्येष्ठ में- मित्र, आषाढ़ में वरुण, श्रावण में- इंद्र, भाद्रपद में- विवस्वान, आश्विन में पूषा, कार्तिक-पर्जन्य, मार्गशीर्ष में- अंशु, पौष में- भग, माघ में- त्वष्टा एवं फाल्गुन में विष्णु। इन नामों का स्मरण करते  हुए इन महीनो मे सूर्य को अर्घ्य देने का विधान है।




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  4. हनुमान साधना, हनूमान मंत्रराज, की विधि जानने के लिए लिंकं खोले।
  5. हनुमान मंत्रजाप, हनुमान दर्शन विधि, हनुमान कृपा प्राप्ति विधि , हनुमान प्रयोग, 
  6. हनुमत साधना एक तांत्रिक प्रयोग है, जिसकी साधना करने से, धरती पर ऐसा कुछ नही है जिसकी पुर्ति न की जा सके। अर्थात सभी मनोकामनाए शीघ्र अतिशीघ्र प्राप्त की जा सकती है। मुकदमा मे विजय, ऋ्ण से मुक्ति, व्यवसाय मे सफलता, नौकरी मे प्रोन्नति, निःसंतान को संतान, निर्धन को धन, बिगडे कार्य बने, पारिवारिक कलह से मुक्ति, जमीन विवाद से छुटकारा, भूत प्रेत बाधा, जादू टोना, किया कराया, ग्रहदोष वास्तुदोष सभी प्रकार के अनिष्ट का निवारण होता है। जो भी साधक इस साधना को करता है वर शीघ्र ही सर्वमनोकामना की सिद्धि कर लेता है। हनुमान जी अष्ट सिद्धि और नवऩिधि के दाता है। इस साधना के प्रयोग से वह शीघ्र पसन्न होकर दर्शन देते है तथा भक्त की मनोकामना पुर्ण करते है।
  7. इस व्रत का आरंभ रविवार से करके मंगलवार को पुर्ण करना होता है। यह प्रयोग तीन दिन का है। तीन दिन मे १२००० बारह हजार जाप करने से मंत्र सिद्ध होता है।
  8. मंत्रजाप के पश्चात दशांश हवन उसका दशांश तर्पण उसका दशांश मार्जन  तथा ब्राह्मण भोजन अवश्य करना चाहिये। इससे मंत्रसिद्ध होता है।

हनुमत महामंत्रराज साधना सामाग्री:-

मूर्ति निर्माण हेतु- बेसन चना का २५० ग्रा, काली उड़द का आटा २५०ग्रा, सरसो तेल १०० ग्रा़,

हनुमान जी को चोला चढा़ने की संपुर्ण विधि

पूजन सामाग्री- भोजपत्र१,अष्टगंध, रोरी, मौली, चन्दन, गुलाल, सिन्दूर,बुक्का, हल्दी, मधु, दही, दूब, अक्षत, फल, फूल , फूलमाला, तुलसी पत्र, धूपबत्ती, दीपक मिट्टी का २१, सोपाडी ३०, पान पत्ता ३०, रुई की बत्ती, मीठा ( गुड़ य चीनी), जनेऊ ११,  पीली सरसो ५० ग्रा,  तिल का तेल ५००ग्रा, घी१००ग्रा, पंचपल्लव, कुश, मिट्टी का कलश छोटा एक ढक्कन सहित, नारियल१, प्रसाद के लिये दोनिया २५, पंचमेवा, हनुमानजी को चढा़ने के लिए वस्त्र,

मूंगामाला-१ गाढा़ लाल रंग की (जिसके सभी दाने एक समान हो, कोई दाना टूटा फूटा नही हो)

भोग लगाने हेतु-पूआ, भात,शाक, उरद का बडा,  पकौडा़, मिठाई आदि

उरद बडा़ से बनी माला १  (७ उरद के बडे से बना)

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हवन सामाग्री- धान सवा किलो, दूध आधा किलो, दही एक पाव, घी आधा पाव।

मूर्ति व यंत्र प्रतिष्ठा/ स्थापन हेतु लाल वस्त्र १मीटर, 


आचार्य वरण सामाग्री-( जैसे-धोती कुर्ता गमछा आदि यथा इच्छानुसार/सामर्थ्यानुसार यह द्रव्य से भी किया जा सकता है।)

मॉ काली साधना, मॉ काली की सिद्धि, स्तोत्र मंत्र सिद्धि

 
  1. पति को वश मे / मुटठी मे कैसे करे!
  2. पति को खुश कैसे रखे!
  3.  पत्नी प्रेमिका को वश मे करने का अचूक उपाय क्या है ?
माता काली ही आदिशक्ति स्वरुपा है। इनके स्वरुप का विवरण शाश्त्रो मे जो मिलता है, वह अपने आप मे एक रहस्य लिए होता है। आईये इन रहस्यो को बारीकी से समझते है। भगवती के मुख पर मुस्कान बनी रहती है, जिसका अर्थ है, कि वे नित्यानन्द स्वरुपा है।देवी के होठो से रक्त की धारा बहने का अर्थ है, देवी शुद्ध सत्वात्मिका है, तमोगुण व रजोगुण को निकाल रही है।



देवी के बाहर निकले दॉत जिससे जीभ को दबाए है, का भावार्थ रजोगुण तमोगुण रुपी जीभ को बाहर कर सतोगुण रुपी उज्जवल दॉतो से दबॉये है।
भगवती के स्तन तीनो लोको को आहार देकर पालन करने का प्रतीक है, तथा अपने भक्तो को मोक्षरुपी दुग्धपान कराने का प्रतीक है।
मुण्डमाला के पचास मुण्ड पचास मातृकावर्णो को धारण करने के कारण शब्दब्रह्म स्वरुपा है। उस शब्द गुण से रजोगुण का टपकना अर्थात सृष्टि का उत्पन्न होना ही, रक्तस्राव है
भगवती मायारुपी आवरण से आच्छादित नही है, माया उन्हे अपनी लपेट मे ले नही पाती, यह उनके दिग्म्बरा होने का भावार्थ है।
भगवती शवो के हाथ की करधनी पहने है- शव की भुजाए जीव के कर्म प्रधान हो ने का प्रतीक है, वे भुजाऐं देवी के गुप्तांग को ढॉके हुए है अर्थात नवीन कल्पारंभ होने तक देवी द्वारा सृष्टिकार्य स्थगित रहता है। कल्पान्त मे सभी जीव कर्म भोग पूर्णकर स्थूल शरीर त्यागकर सूक्ष्म शरीर के रुप मे कल्पारंभ पर्यंत जबतक कि उनका मोक्ष नही हो जाता, भगवती के कारण शरीर मे संलग्न रहते है।
देवी के बाए हाथ मे कृपाण वाममार्ग अर्थात शिवजी (शिवजी का एक नाम वामदेव) के बताए मार्ग पर चलने वाले निष्काम भक्तो के अज्ञान को नष्ट कर, उन्हे मुक्ति प्रदान करती है।
देवी के नीचे वाले बॉए हाथ मे कटा सिर वाममार्ग की निम्नतम मानीजाने वाली क्रियाओ मेभी रजोगुण रहित तत्वज्ञान केआधार मस्तक (शुद्धज्ञान) को धारण करने का प्रतीक है।
कालीरुप जिस प्रकार लाल पीला सफेद सभी रंग काले रंग मे समाहित हो जाते है उसी प्रकार सभी जीवो का लय काली मे ही होता है,
भगवती कानो मे बालको के शव पहनी है जो बाल स्वभाव निर्विकार भक्तो की   ओर कान लगाऐ रहती है अर्थात उनकी प्रत्येक कामना ध्यान से सुनने का प्रतीक है।

रावण को शिवजी से प्राप्त गुप्त काली कवच पढ़ने के लिए यहॉ किलिक करे।

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रुद्राक्ष का प्रयोग, धारण विधि व फायदा


रुद्राक्ष के फायदे :
सभी रुद्राक्ष एक प्रकार की तरंगे छोड़ते है जो जातक को शारीरिक रूप से और सकारात्मक उर्जा के रूप में फायदा करती है |
शारीरिक रोग जैसे : पेट रोग , गठिया रोग , मानसिक रोग , ह्रदय रोग इस प्रकार के रोगों में रुद्राक्ष धारण करने से लाभ मिलता है |
रुद्राक्ष धारण करने से मानसिक तनाव कम होता है |
रुद्राक्ष धारण करने से सकारात्मक उर्जा का संचार होता है |
रुद्राक्ष धारण करने वाले जातक नकारात्मक शक्तियों से छुटकारा पाते है जैसे : ऊपरी बाधा , नजर दोष , भूत -प्रेत बाधा आदि |
विधिवत रुद्राक्ष पहनने से भाग्य उदय होता है | जिन लोगों का भाग्य कमजोर हो, उन्हें रुद्राक्ष अवश्य धारण करना चाहिए |
रोग से मुक्ति , कष्टों से छुटकारा और परिवार में सुख-शांति ये सभी सिद्ध रुद्राक्ष धारण करने से संभव होती है |
ज्योतिष द्रष्टि से भी रुद्राक्ष बड़ा लाभकारी होता है | जैसे : कुंडली के दोष : शनि दोष , सूर्य दोष , राहु-केतु दोष और काल सर्प दोष आदि में रुद्राक्ष फायदा पहुंचाता है |
धार्मिक दृष्टि से रुद्राक्ष का महत्व : –
रुद्राक्ष न केवल एक भौतिक वस्तु है बल्कि धार्मिक द्रष्टि से रुद्राक्ष बहुत कल्याणकारी है | जो लोग विधिवत रुद्राक्ष धारण करते है और रुद्राक्ष के नियमों का पालन करते है वे धर्म के मार्ग की और अग्रसर होने लगते है | उनका मष्तिष्क स्थिर रहने लगता है | पूजा के समय , ईष्ट देव का ध्यान करते समय उनका ध्यान केन्द्रित होने लगता है | सामाजिक बुराइयों से ऐसे जातक दूर रहते है | भगवान शिव के साथ-साथ अन्य देवों की भी कृपा ऐसे जातक पर सदैव बनी रहती है |

जो जातक मोक्ष के मार्ग पर चलते है उनके लिए रुद्राक्ष किसी चमत्कार से कम नहीं होता | ध्यान लगाने में रुद्राक्ष के महत्व को अनदेखा कदापि नहीं किया जा सकता | साधू-संत प्रवृति के जातक रुद्राक्ष अवश्य धारण किये होते है | इसके पीछे का मुख्य कारण : मन का एकाग्र रहना और सभी सांसारिक कुरूतियों से बचना है |

ध्यान देने योग्य :
मुख्य रूप से एक से 14 मुखी रुद्राक्ष धारण किये जाते है वैसे इनकी संख्या 22 मुखी तक देखने को मिलती है | शिव महा पुराण के अनुसार रुद्राक्ष एक मुखी से 38 मुखी तक होते है | एक मुखी रुद्राक्ष को सबसे दुर्लभ और प्रभावशाली रुद्राक्ष माना गया है | यह बड़ी ही दुर्लभता से प्राप्त होता है |

रुद्राक्ष पूर्ण रूप से धार्मिक आस्था का प्रतीक है | इसे धारण करने से पहले इसे धारण करने के नियमों के विषय में जानकारी अवश्य प्राप्त करे | यदि आप इन नियमों का पालन कर सकते है तब ही रुद्राक्ष को गले में धारण करना चाहिए | अन्यथा विपरीत परिणाम भी मिल सकते है | सामान्य रुद्राक्ष की अपेक्षा अभिमंत्रित(सिद्ध) रुद्राक्ष धारण करना कई गुना प्रभावशाली माना है | इसलिए जब भी आप रुद्राक्ष धारण करने का मन बनाये, किसी योग्य पंडित द्वारा इसे अभिमंत्रित और इसकी पूजा अवश्य कराये |

रुद्राक्ष को राशी के अनुसार ही धारण करना चाहिए | रुद्राक्षके मुख के आधार पर ये सभी राशियों के लिए गुणकारी है | किसी योग्य ज्योतिष आचार्य द्वारा अपने लिए उपयुक्त रुद्राक्ष का चुनाव करने और विधिवत धारण करें |

आप अपने लिए उपयुक्त रुद्राक्ष की जानकारी हेतु कमेंट मे अपना जन्म विवरण दे।
जिन्हे जन्म विवरण ज्ञात नही वह अपना सर्वाधिक प्रचलित नाम लिखे।

यदि आप रुद्राक्ष को शरीर पर धारण करना चाहते है तो इसके लिए आप कोई शिव पूजा वाला दिवस चुने | जैसे आप  श्रावन (सावन ) मास का कोई सोमवार , पूर्णिमा या शिवरात्रि का दिन चुन सकते है | ये दिन शिव पूजा के अत्यंत शुभ दिवस माने जाते है | यहा ध्यान रखे की रुद्राक्ष असली हो पहचान के बाद ही उसे धारण करे | खंडित , गलत और कीड़े लगे रुद्राक्ष को धारण नही करे |
जप माला को ना धारण करे
जिस रुद्राक्ष की माला को आपने कभी मंत्र जप के लिए काम में लिया है उसे कभी भी भूल से धारण नही करे | आप नयी माला या रुद्राक्ष खरीद कर उसे पहन सकते है |

धारण कैसे करे रुद्राक्ष पूजन के बाद
सबसे पहले कांसे के दो पात्रो में पंचामृत और पंचगव्य बना ले | और उसमे गुलाब के पुष्प के पत्ते डाल दे | अब बारी बारी से रुदाक्ष या उसकी माला को दोनों में स्नान कराये और उस समय भगवान शिव के मंत्र का जप करे | यह शिव पंचाक्षर मंत्र ॐ नमः शिवाय हो तो बहुत अच्छा होगा |

इसके बाद फिर से इसे गंगा जल से स्नान कराये और फिर एक साफ़ लाल कपडे की चोकी पर इसे रखे |और  चंदन, बिल्वपत्र, लालपुष्प, धूप, दीप द्वारा रुदाक्ष की  पूजा करके अभिमंत्रित करे | इसके लिए शिव गायत्री मंत्र का जप करे |

ॐ तत्पुरुषाय विदमहे महादेवाय धीमहि तन्नो रूद्र: प्रचोदयात |

यह मंत्र आप 11 बार जपे  | अब इस रुद्राक्ष को किसी शिवलिंग पर स्पर्श कराकर शिवजी से विनती करे की वो अपनी कृपा इसके माध्यम से हमेशा आप पर रखे और फिर इसे धारण करे |

रुद्राक्ष धारण करने के बाद कुछ नियम
रुद्राक्ष धारणकर्ता को तामसिक भोजन और मदपान से दूर रहना चाहिए |
रुद्राक्ष की पवित्रता का हमेशा ध्यान रखे |
रुद्राक्ष को कभी भी नाभि के निचे तक ना पहने |
रुद्राक्ष स्वर्ण या रजत धातु में धारण करें। इन धातुओं के अभाव में इसे ऊनी या रेशमी धागे में भी धारण कर सकते हैं। अधिकतर रुद्राक्ष यद्यपि लाल धागे में धारण किए जाते हैं, किंतु एक मुखी रुद्राक्ष सफेद धागे, सात मुखी काले धागे और ग्यारह, बारह, तेरह मुखी तथा गौरी-शंकर रुद्राक्ष पीले धागे में भी धारण करने का विधान है।
रुद्राक्ष पहन कर श्मद्गाान या किसी अंत्येष्टि-कर्म में अथवा प्रसूति-गृह में न जाएं। स्त्रियां मासिक धर्म के समय रुद्राक्ष धारण न करें। रुद्राक्ष धारण कर रात्रि शयन न करें!
नोट-आप अपने लिए उपयुक्त रुद्राक्ष की जानकारी हेतु कमेंट मे अपना जन्म विवरण दे।
जिन्हे जन्म विवरण ज्ञात नही वह अपना सर्वाधिक प्रचलित नाम लिखे।

साबर साधना

साबर साधनाएं : वैदिक अथवा तांत्रोक्त अनेक ऐसे मंत्र हैं, जिसमें साधना करने के लिए अत्यंत सावधानी की जरूरत होती है। असावधानी से कार्य करने पर प्रभाव प्राप्त नहीं होता अथवा सारा श्रम व्यर्थ चला जाता है, परंतु शाबर मंत्रों की साधना या सिद्धि में ऐसी कोई आशंका नहीं होती। यह सही है कि इनकी भाषा सरल और सामान्य होती है। माना जाता है कि लगभग सभी साबर साधनाओं और मंत्रों को अ गुरु गोरखनाथ ने उत्पन्न किया है।
।।ओम् गुरुजी को आदेश गुरुजी को प्रणाम, धरती माता धरती पिता, धरती धरे ना धीरबाजे श्रींगी बाजे तुरतुरि आया गोरखनाथमीन का पुत् मुंज का छड़ा लोहे का कड़ा हमारी पीठ पीछे यति हनुमंत खड़ा, शब्द सांचा पिंड काचास्फुरो मन्त्र ईश्वरो वाचा।।
इस मन्त्र को सात बार पढ़ कर चाकू य कुश से अपने चारों तरफ रक्षा रेखा खींच ले गोलाकार, स्वयं हनुमानजी साधक की रक्षा करते हैं। शर्त यह है कि मंत्र को विधि विधान से पढ़ा गया हो।
साबर मंत्रों को पढ़ने पर ऐसा कुछ भी अनुभव नहीं होता कि इनमें कुछ विशेष प्रभाव है, परंतु मंत्रों का जप किया जाता है तो असाधारण सफलता दृष्टिगोचर होती है। कुछ मंत्र तो ऐसे हैं कि जिनको सिद्ध करने की जरूरत ही नहीं है, केवल कुछ समय उच्चारण करने से ही उसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देने लगता है। यदि किसी मंत्र की संख्या निर्धारित नहीं है तो मात्र 1008 बार मंत्र जप करने से उस मंत्र को सिद्ध समझना चाहिए।
दूसरी बात शाबर मंत्रों की सिद्धि के लिए मन में दृढ़ संकल्प और इच्छा शक्ति का होना आवश्यक है। जिस प्रकार की इच्छा शक्ति साधक के मन में होती है, उसी प्रकार का लाभ उसे मिल जाता है। यदि मन में दृढ़ इच्छा शक्ति है तो अन्य किसी भी बाह्य परिस्थितियों एवं कुविचारों का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता।

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हनुमान जी को चोला कैसे चढा़ये

  हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए बहुत से उपाय साधनाये है जिनमे से एक है चोला चढ़ाना । हनुमान जी को चोला चढ़ाने से आपकी मनोकामनाएं पूर्ण होती है । शनि का प्रकोप शान्त होता है। शनि की महादशा, अन्तर्दशा साढेसाती जन्य कश्ट निवारण होता है।
सामग्री- हनुमान जी वाला सिंदूर ,गाय का घी या चमेली का तेल ,कुंकुम और चावल ( तिलक करने के लिए),एक गुलाब की माला, शुद्ध ताजा पानी गंगाजल मिला हुआ (स्न्नान कराने के लिए),माली पन्ना(चमकीला कागज होता है ), धूप व् दीप ,हनुमान चालीसा की पुस्तक ।

विधि – मंदिर में पहुँचने पर हनुमान जी को प्रणाम करें ।अगर हनुमान जी की मूर्ति पर पहले से कोई चोला चढ़ा हुआ हो तो उसे उतारे फिर स्नान कराये । इसके बाद सिंदूर को गाय के घी या चमेली के तेल में घोले मूर्ति के साइज अनुसार । घोल तैयार होने पर हनुमान के पैर से सिंदूर लगाना शुरू करे “ॐ हनुमते नमः” मन्त्र का जाप करते हुए इसी प्रकार ऊपर बढ़ते हुए पूरी मूर्ति पर सिंदूर लगाये । सिंदूर लगने के बाद मूर्ति पर माली पन्ना चिपकाये पैर और हाथों पर , फिर धुप दीप जलाये कुंकुम चावल से तिलक करें, गुलाब की माला पहनाये ये सब कार्य पूर्ण होने पर 11 बार हनुमान चालीसा का पाठ करे, पाठ पूर्ण होने पर हनुमान से जो प्राथना करनी है करे और आज्ञा लेकर घर आ जाये इस प्रकार विधि विधान से चोला चढ़ाने की विधि पूर्ण होती है ।

नोट- 1.स्त्री को चोला नही चढ़ाना चाहिए और ना ही चोला चढ़ाते समय कोई भी स्त्री हनुमान को देख सकती है इसलिए कोई भी स्त्री वहा ना हो । इस बात का विशेष ध्यान रखे ।
2.सिंदूर हमेशा सवा के हिसाब से लाये जैसे सवा पाव ,सवा किलो ।






3. हनुमान जी को चोला चढ़ाते समय लाल या पीले रंग के वस्त्र धारण करे ।
4.जिस पर शनिदेव जी की दशा चल रही हो ढैया या साढ़े सती उनके लिए चोला चढ़ाना अत्यंत लाभकारी है ।
5.पुराना जो चोला उतारते है उसे पानी में प्रवाहित करदे।
6.संकट या रोग दोष दूर करने के लिए चोला शनिवार को चढ़ाये और घर की सुख शांति के लिए मंगलवार को चढ़ाये । संकट, रोग दोष, और शांति के लिए चढ़ा रहे है तो पहले किसी भक्त या साधक से सम्पर्क करले। यदि भक्ति भाव से चढ़ा रहे है तो किसी से बात करने की आवश्यकता नही है।
7. मूर्ति पर सिंदूर लगाते समय हमारी स्वास मूर्ति पर ना लगे इसके लिए मुख पर कोई कपड़ा रख ले ।

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जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...