ग्रहदोष व शांति के उपाय, सूर्य, चंद्र,मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र

आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, व्यापारिक परेशानीयो का कारण ग्रहजनित पीडा होती है। इससे राहत के लिये विभिन्न ग्रहो की शांति के उपाय दिये जा रहे है।
सूर्य ग्रह की शांति के सरल उपाय
जिस व्यक्ति की कुण्डली मे सूर्य २,७,१०,१२ भाव मे हो विशेश कर उनके लिये
कई बार किसी समय-विशेष में कोई ग्रह अशुभ फल देता है, ऐसे में उसकी शांति आवश्यक होती है। गृह शांति के लिए कुछ शास्त्रीय उपाय प्रस्तुत हैं। इनमें से किसी एक को भी करने से अशुभ फलों में कमी आती है और शुभ फलों में वृद्धि होती है।
ग्रहों के मंत्र की जप संख्या, द्रव्य दान की सूची आदि सभी जानकारी एकसाथ दी जा रही है। मंत्र जप स्वयं करें या किसी कर्मनिष्ठ ब्राह्मण से कराएं। दान द्रव्य सूची में ‍दिए पदार्थों को दान करने के अतिरिक्त उसमें लिखे रत्न-उपरत्न के अभाव में जड़ी को विधिवत् स्वयं धारण करें, शांति होगी।
सूर्य के ‍लिए : समय सूर्योदय
भगवान शिव की पूजा-अर्चना करें। आदित्य स्तोत्र या गायत्री मंत्र का प्रतिदिन पाठ करें। सूर्य के मूल मंत्र का जप करें।
मंत्र : 'ॐ ह्रां ह्रीं ह्रों सूर्याय नम:।'
40 दिन में 7,000 मंत्र का जप होना चाहिए। जप सूर्योदय काल में करें।
दान-द्रव्य : माणिक, सोना, तांबा, गेहूं, गुड़, घी, लाल कपड़ा, लाल फूल, केशर, मूंगा, लाल गाय, लाल चंदन।
दान का समय : सूर्योदय होना चाहिए। रविवार का व्रत करना चाहिए। रुद्राभिषेक करना चाहिए। एकमुखी या बारहमुखी रुद्राक्ष धारण करें।
चन्द्र ग्रह की शान्ति के उपाय-
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जिनकी कुण्डली मे चन्द्र कमजोर  नीच पाप ग्रह से युत दुःस्थान य किसी प्रकार से अनिष्टकारी हो
चन्द्र के लिए : समय संध्याकाल
शिव एवं पार्वती माता की पूजा करें। अन्नपूर्णा स्तोत्र का पाठ करें।
चंद्र के मूल मंत्र का11,000  जाप करें।
मंत्र : 'ॐ श्रां श्रीं श्रोक्तं चंद्रमसे नम:'।
दान द्रव्य : मोती, सोना, चांदी, चावल, मिश्री, दही, सफेद कपड़ा, सफेद फूल, शंख, कपूर, सफेद बैल, सफेद चंदन।
सोमवार का व्रत करें।सोमवार को देवी पूजन करें।
दोमुखी रुद्राक्ष धारण करें।
मंगल पीडा निवारण
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जिसकी कुण्डली मे मंगल अशुभ भाव (1,4,5,8,9,12 मे मंगल अमंगलकारी) हो, उसे मंगल की शान्ति हेतू निम्न उपाय करने चाहिये
 दान - मूंगा.सोना, तॉबा,मसूर, गुड, घी, लालवस्त्र,केशर ,कस्तुरी,लाल चन्दन (दान अपनी सामर्थ्य के अनसार ही करना चाहिये)
अन्नत मूल(सारिवा) की जड शरीर पर धारण करने से मंगलजनित दोष की शान्ति होती है|
मंगल मंत्र का 10,000 जप किया जाय तो शान्ति होती है  मंगल मंत्र-
एकाक्षरी बीजमंत्र- ऊँ अं अंगारकाय नमः|
तांत्रिक मंत्र- ऊँ क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः |
मंगल जाप करनेवाले  जातक को चाहिये की वह अपनी सामर्थ्य अनुसार 4 से8 रत्ती मूगा की अंगूठी प्राणप्रतिष्ठा पूर्वक बनवा अपनी अनामिका उगली मे धारण करे और सामर्थ्य अनुसार सोने य ताबे पर निर्मित भौम यंत्र एवंभौम मूर्ति की स्थापना कर उत्तराभिमुख सूर्योदय के 1 घंटे बाद तक जप करे | जप की समाप्ति पर खैर की लकडी से हवन करे|
 मंगल का व्रत करे- मंगल को नमक न खाये।
बुध ग्रह कीशान्ति के लिये
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जिन मनुष्यो के जन्मपत्रमे बुध लग्न से ६,८,१२ भाव मे  से किसी मे हो नीच अस्त य नीचास्त होकर पीडित करता हो उन्हे निम्न उपाय करने से अवश्य ही लाभ होगा |
दान- पन्ना, सोना ,कांसा,घी,मूंग,हरावस्त्र, पंचरंग के फूल, हाथी दॉत, कपूर, शश्त्र और फल|
 बुध देवता स्वर्णदान से शीघ्र प्रसन्न होते है , दान अपनी सामर्थ्य अनुसार ही करना चाहिये , कर्ज लेकर नही |
बुध की शान्ति हेतू विधारा वृक्ष की जड बुधवार के दिन जबशुभ नक्षत्र हो अपने घर लाकर विधिपूर्वक पूजन करके धारण करे तो निश्चय ही बुध जनित पीडा से राहत मिलेगी|
बुध मंत्र का जाप 9000 करना चाहिये
विनियोग- उदबुध्य ईति मन्त्रस्य परमेष्ठी ऋषिः बुधे देवता त्रिष्टुपछन्दःसौम्यमंत्रजपे विनियोगः
एकाक्षरी बीज मंत्र-ॐ बुं बुधाय नमः|
 तांत्रिक बुध मंत्र- ॐ ब्रां ब्रीं, ब्रौं ,सः बुधाय नमः|

कॉसे के बर्तन मे देशी घी कपूर और शक्कर डालकर पानी मे बहा दे, बर्तन घर ले आये
कुमारी कन्याओ का पूजन करे
जन्मकुडंली मे स्थित गुरु भाव व दृष्टि के अनुसार शुभ व अशुभ फल का तीव्र कारक होता है शुभ भाव मे तो शुभ कारक है किन्तु अशुभ भाव मे होने पर शनि एवं मंगल से भी अधिक कष्टकर होता है, यह मेरा निजी अनुभव है|प्रायः गुरु लग्न व गोचर मे ३,६,८,१२ भावो मे अशुभ होता है|
 जिनकी कुन्डली मे गुरु ३,८,९,१२ भाव मे बैठा हो उन्हे गुरु को प्रसन्न करने का उपाय करना चाहिये|
गुरु प्रतिदान-पुखराज, सोना,चने की दाल,घी, पीला वस्त्र, हल्दी,. गीता की पुस्तक,पीले फल|
 धारण- पुखराज सोने मे य केले की जड,  य सारंगी की जड पीले कपडा य धागा मे|
गुरु स्तुति-
 देवमन्त्री विशालाक्षः सदा लोकहिते स्तः |
 अनेक शिवयैः सम्पूर्णः पीडा दहतु मे गुरुः||
 विनियोग
अस्य श्री वृहस्पतिमन्त्रस्यं गृत्समदऋषि ब्रह्मा देवता त्रिष्टुपछन्द बृहस्पति- मन्त्रजपे विनियोगः
सवीज वैदिक मन्त्र-ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः ॐ भूर्भुवः स्वः| ॐ बृहस्पतेअ्अतियर्ययो् अहदियुमद्विभाति वक्रतमज्जनेषु| यददीदयच्छवसअ्ॠतप्प्रजातु तदस्मासु द्रविणन्धेहि चित्रम् ॐ स्वः भूवः भूः ॐ सः ह्रौ, ह्री, ह्रां ॐ बृहस्पतये नमः|
एकाक्षरी बीज मन्त्र- ॐ बॄं बृहस्पतये नमः|
 तान्त्रिक गुरु मन्त्र- ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरवे नमः|
 जपसंख्या- 19000
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जन्मकुडंली मे स्थित शुक्र भाव व दृष्टि के अनुसार शुभ व अशुभ दोनो फल का तीव्र कारक होता है शुभ भाव मे तो शुभ कारक है किन्तु अशुभ भाव मे धनहानि  व कलहप्रदायक है प्रायः शुक्र लग्न व गोचर मे ३,६,७,८,१२ भावो मे अशुभ होता है|
 जिनकी कुन्डली मे शुक्र ३,६,७,८,१२ भाव मे बैठा हो नीच अस्त य शत्रुक्षेत्री हो उन्हे शुक्र को प्रसन्न करने का उपाय करना चाहिये|
शुक्रप्रतिदान-हीरा, चॉदी,सोना, चावल,दूध सफेद वस्त्र, कपूर,कस्तुरी,सफेद चन्दन,सफेद मिठाई|
 धारण- हीरा सोने य चादी मे सरपुंखा (झोंझरु) की जड सफेद कपडा य धागा मे|
शुक्र स्तुति-
 दैत्यमन्त्री गुरुस्तेषां प्राणदश्च महाशुतिः |
 प्रभुस्ताराग्रहाणां च पीडां दहतु मे भृगुः||
 विनियोग
अन्नात्परिस्रुत इति मन्त्रस्य प्रजापति ऋषिः अश्विसरस्वतीन्द्रा देवता जगतीछन्दः शुक्र मन्त्रजपे विनियोगः|
सवीज वैदिक मन्त्र-ॐ  द्रां द्रीं द्रौं सः ॐ भूर्भुवः स्वः| ॐ अन्नात्परिस्रूतो रसम्ब्रह्मणा व्यपिवत्क्षत्रम्पयः सोमम्प्रजापतिः| ऋतेन सप्तमिन्द्रियं विपानं शुक्रमन्धसअ्इन्द्रस्येन्द्रियमिदम्पयोमृतम्मधु ॐ स्वः भूवः भूः ॐ सः द्रौ, द्री, द्रां ॐ शुक्राय नमः|
एकाक्षरी बीज मन्त्र- ॐ शुं शुक्राय नमः|
 तान्त्रिक शुक्र मंत्र- द्रां द्रीं द्रौं सः शुक्राय नमः|
 जपसंख्या- 16000

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धन्यवाद।

काली रहस्य

काली माता के रुप का अर्थ- भगवती के मुख पर मुस्कान बनी रहती है, जिसका अर्थ है, कि वे नित्यानन्द स्वरुपा है।देवी के होठो से रक्त की धारा बहने का अर्थ है, देवी शुद्ध सत्वात्मिका है, तमोगुण व रजोगुण को निकाल रही है।
देवी के बाहर निकले दॉत जिससे जीभ को दबाए है, का भावार्थ रजोगुण तमोगुण रुपी जीभ को बाहर कर सतोगुण रुपी उज्जवल दॉतो से दबॉये है।
भगवती के स्तन तीनो लोको को आहार देकर पालन करने का प्रतीक है, तथा अपने भक्तो को मोक्षरुपी दुग्धपान कराने का प्रतीक है।
मुण्डमाला के पचास मुण्ड पचास मातृकावर्णो को धारण करने के कारण शब्दब्रह्म स्वरुपा है। उस शब्द गुण से रजोगुण का टपकना अर्थात सृष्टि का उत्पन्न होना ही, रक्तस्राव है
भगवती मायारुपी आवरण से आच्छादित नही है, माया उन्हे अपनी लपेट मे ले नही पाती, यह उनके दिग्म्बरा होने का भावार्थ है।
भगवती शवो के हाथ की करधनी पहने है- शव की भुजाए जीव के कर्म प्रधान हो ने का प्रतीक है, वे भुजाऐं देवी के गुप्तांग को ढॉके हुए है अर्थात नवीन कल्पारंभ होने तक देवी द्वारा सृष्टिकार्य स्थगित रहता है। कल्पान्त मे सभी जीव कर्म भोग पूर्णकर स्थूल शरीर त्यागकर सूक्ष्म शरीर के रुप मे कल्पारंभ पर्यंत जबतक कि उनका मोक्ष नही हो जाता, भगवती के कारण शरीर मे संलग्न रहते है।
देवी के बाए हाथ मे कृपाण वाममार्ग अर्थात शिवजी (शिवजी का एक नाम वामदेव) के बताए मार्ग पर चलने वाले निष्काम भक्तो के अज्ञान को नष्ट कर, उन्हे मुक्ति प्रदान करती है।
देवी के नीचे वाले बॉए हाथ मे कटा सिर वाममार्ग की निम्नतम मानीजाने वाली क्रियाओ मेभी रजोगुण रहित तत्वज्ञान केआधार मस्तक (शुद्धज्ञान) को धारण करने का प्रतीक है।
कालीरुप जिस प्रकार लाल पीला सफेद सभी रंग काले रंग मे समाहित हो जाते है उसी प्रकार सभी जीवो का लय काली मे ही होता है,
भगवती कानो मे बालको के शव पहनी है जो बाल स्वभाव निर्विकार भक्तो की   ओर कान लगाऐ रहती है अर्थात उनकू प्रत्येक कामना ध्यान से सुनती है,इसका प्रतीक है।

काली गायत्री मंत्र- कालिकायै विद्महे, श्मशानवासिन्ये धीमही, तन्नोदेवी प्रचोदयात्।
काली अर्थात काल ( शिव ) की पत्नी। माता काली के रुप-भेद अनेक है, किंतु  जिनमे महाकाली, भद्रकाली, श्मशान काली, दक्षिणा काली, चिन्तामणि काली, स्पर्शमणि काली, संततिप्रदा काली, सिद्धि काली, कामकला काली, हंस काली, गुह्य काली, प्रमुख ११ भेद है। काली के ये भेद वस्तुतः काम्य भेद है। येअनेकानेक भेद आभासी है। मूलतः सभी एक ही शक्ति के विविध रुप है। जो देवी के भक्तगण अपनी कामना के अनुरुप भासते है।और भगवती आद्यकाली, जो अजन्मा तथा निराकार है, अपने भक्तो पर कृपालु होकर उनके हृदयाकाश पर अभिलाषित रुप मे साकार हो जाती है। और इस प्रकार देवी भगवती निराकार होते हुए भी साकार है।

जो साधक सभी प्रकार की सिद्धि देनेवाली माता काली का ध्यान व मंत्रजप करता है, वह तीनो लोको को वश मे कर सकता है, इस संसार मे उसके लिये दुर्लभ कुछ नही। भगवती काली के मंत्र साधारण विधियो व अल्पश्रम से ही सिद्ध हो जाते है। और साधक को मनोवांछित फल प्रदान करते है।
   किसी भी मंत्र की सिद्धि के लिये गुरु से दीक्षित होना अनिवार्य है। गुरु की कृपा आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन के बिना कोई भी मंत्र सिद्ध नही हो पाता।

सर्व सिद्धिदायक काली मंत्र व विधि

रावण द्वारा शिवजी से प्राप्त सर्वसिद्धिप्रद काली कवच

यह काली कवच शिवजी ने अपने परम भक्त रावण को बताया था। इसके प्रयोग से शांति, पुष्टि, शत्रु मारण, उच्चाटन, स्तम्भन, वशीकरण आदि अति सुलभ है।
जब शत्रु का भय हो, सजा का डर हो, आर्थिक स्थिति कमजोर हो, किसी बुरी आत्मा का प्रकोप हो, घर मे आशांति हो, व्ययपार मे घाटा हो, मानसिक तनाव हो, गंभीर बिमारी हो, कही मन न लगता हो, किसी के द्वारा जादू टोना, किया कराया गया हो, तो इस काली कवच का पाठ अवश्य करना चाहिये।
साधक पवित्र हो, कार्य सिद्धि के अनुसार, आसन दिशा सामाग्री का चुनाव करे। फिर आचमन, संकल्प , गुरु गणेश की वंदना करे। फिर हाथ मे जल लेकर विनियोग करे।
विनियोग मंत्र-
ॐ अस्य श्री कालिका कवचस्य भैरव ऋषिः गायत्री छन्दःश्री कालिका देवता सः बैरी सन्धि नाशे विनियोगः।
  यह मंत्र पढ़कर जमीन पर जल छोड़ दे।
भयंकर रुप धारण किये काली का ध्यान, पूजन करे। फिर कवच का पाठ आरंभ करे।
कवचम्- 
ॐ कालीघोररुपा सर्व कामप्रदा शुभा।
सर्व देवस्तुता देवी शत्रु नाशं करोतु मे।।
ह्रीं ह्रीं ह्रूं रुपणी चैव ह्रां ह्रीं ह्रीं संगनी यथा।
श्रीं ह्रीं क्षौं स्वरुघायि सर्व शत्रु नाशनी।।
श्रीं ह्रीं ऐं रुपणी देवीभवबन्ध विमोचनी।
यथा शुम्भो हतो दैत्यो निशुम्भश्च महासुराः।।
बैरि नाशाय बन्दे तां कालिकां शंकर प्रियाम।
 ब्राह्मी शैवी वैष्णवी न वाराही नारसिंहिका।।
कौमाज्येन्द्री च चामुण्डा खादन्तु मम विद्विषः।
सुरेश्वरि घोरु रुपा चण्ड मुण्ड विनाशिनी ।।
मुण्डमाला वृतांगी च सर्वतः पातु मां सदा।
ह्रीं ह्रीं ह्रीं कालिके घोरे द्रष्ट्वैरुधिरप्रिये, रुधिरा।।
पूर्णचक्रे चरुविरेण बृत्तस्तनि, मम शत्रुन खादय खादय, हिंसय हिंसय, मारय मारय, भिंधि भिंधि, छिन्धि छिन्धि,उच्चाट्य, उच्चाट्य द्रावय द्रावय, शोषय शोषय, स्वाहा।यातुधानान चामुण्डे ह्रीं ह्रीं वां काली कार्ये सर्व शत्रुन समर्यप्यामि स्वाहा। ॐ जय विजय किरि किरि कटि कटि मर्दय मर्दय मोहय मोहय हर हर मम रिपून ध्वंसय ध्वंसय भक्षय भक्षय त्रोटय त्रोटय, यातुधानान चामुण्डे सर्वे सनान् राज्ञो राजपुरुषान् राजश्रियं मे देहि पूतन धान्य जवक्ष जवक्ष क्षां क्षों क्षें क्षौं क्षूं स्वाहा।
  यह दिव्य काली कवच रावण द्वारा शिवजी से प्राप्त किया गया है। इस कवच के भक्तिभाव से नित्य पाठ करने से शत्रुओ का नाश हो जाता है। इस कवच का १००० पाठ , १०० हवन तथा १० तर्पण १ मार्जन व एक ब्राहम्ण को भोजन कराने  से  सिद्ध हो जाता है।
 फिर इसके विविध प्रयोग भिन्न भिन्न कार्यो की सफलता के लिये करना चाहिये। सिद्धि के उपरांत इसके प्रयोग की विधि दुरुपयोग को रोकने के लिये नही दी जा रही है।
 सामान्य शांति के लिये गुरु गणेश की वंदना, माता काली का ध्यान व शोडषोपचार य पंचोपंचार, य मानसिक,पूजन करके मात्र पाठ करने से ही चमत्कारिक लाभ मिलता है। यह मेरे द्वारा परीक्षित है।
   


अपने नाम व शहर ग्राम के नाम से, निवास योग्य स्थान, भूमि परीक्षा, आय व्यय, द्वार दिशा निर्देश

ज्योतिष्य शाश्त्र मे वास्तु विद्या द्वारा रहने के स्थान, गृह निर्माण की विधि व स्थान के फल का निर्णय करते है।
हम जिस शहर/ नगर य ग्राम मे रहते है, वह स्थान हमारे लिये लाभप्रद है य नही। किस प्रकार का मकान उत्तम होता है ? किस दिशा का द्वार किसके लिये उत्तम है ? भूमि की परीक्षा कैसे करे ? घर के समीप कौन सा वृक्ष क्या फल देता है? आदि प्रश्नो के उत्तर इस लेख मे दिये जा रहे है।
  सर्व प्रथम जिस शहर य ग्राम मे निवास करते है य करना चाहते है, वह आय देने वाला है, य व्यय कराने वाला है। यह जानने के लिये संलग्न चित्र की सहायता लेते है।
चित्र मे अपने नाम का प्रथम अक्षर किस वर्ग मे है, यह देखे तथा जिस शहर य ग्राम मे रहना चाहते है उस शहर य ग्राम के नाम का प्रथम अक्षर किस वर्ग मे है यह देखे। जिस ग्राम य दिशा मे घर बनाना हो वह साध्य तथा जो बनवाने य रहने वाला है वह साधक कहा जाता है।
साध्य अंक के बाए साधक अंक लिखकर 8 से भाग देने पर शेष लाभ कहा जाता है तथा साधक अंक के बाए साध्य अंक लिखकर 8 से भाग देने पर शेष व्यय कहलाता है। यदि व्यय से लाभ अधिक हो तो वहॉ रहना लाभप्रद होता है, यदि लाभ से व्यय अधिक हो तो हानि होती है।
उदाहरण: मान लिजिए राजेश को बरईपुर ग्राम मे रहना है तो, साधक राजेश के प्रथम नाम का अक्षर  र  यवर्ग मे पड़ता है जिसकी संख्या 7 है, तथा साध्य बरईपुर का प्रथम अक्षर ब  पवर्ग मे पड़ता है, जो कि 6 अंक सूचित करता है।( देखिये संलग्न चित्र ) 
 अतः सूत्रानुसार :
साधक साध्य÷ 8 =  शेष लाभ
76÷8= 4 शेष
साध्य साधक÷8=शेष व्यय
67÷8=3 शेष
यहॉ व्यय से लाभ अधिक होने से यह स्थान लाभदायक है।
नोट- यदि भाग देने पर शून्य आये तो उसे 8 ही समझे।
इस तालिका के अनुसार अपने वर्ग से पॉचवा वर्ग बैरी होता है, अतः इसमे निवास उपयुक्त नही होता।
दूसरी विधि: 
~~~~~~ अपनी नाम राशि से नगर य ग्राम की राशि दूसरी, पॉचवी, नवी, दसवी, य ग्यारहवी हो तो  वह नगर / ग्राम निवास के लिये शुभ होती है। तथा यदि एक, य सातवी हो तो शत्रुता होती है।तीसरी य छठी हो तो हानि होती है। चौथी आठवी य बारहवी हो तो रोग होता है।
अब जिस भूमि पर मकान का निर्माण करना है, उसके लिये भूमि की परीक्षा की विधि कहते है। सांयकाल गृह स्वामी के हाथ से, एक हाथ लम्बा एक हाथ चौडा तथा एक हाथ गहरा गड्ढा खोदकर पानी से भरवा दे। पुनः प्रातःकाल उठकर देखें, गड्ढे मे पानी दिखाई दे तो वृद्धिप्रद, केवल कीचड़ बचे तो मध्यम, तथा यदि दरार दिखाई दे तो अशुभ समझना चाहिये।
मकान की लम्बाई दक्षिण से उत्तर शुभ होती है।
  किस राशि के लिये किस दिशा का द्वार शुभ होता है, अब उसे कहते है।
कर्क, वृश्चिक, मीन-- पूर्व दिशा मे।
कन्या, मकर, मिथुन -- दक्षिण दिशा मे।
तुला, कुम्भ, वृष -- पश्चिम दिशा मे।
मेष, सिंह, धनु -- उत्तर दिशा मे।

अब घर के समीप स्थित वृक्ष का वास्तु जनित प्रभाव बताते है।
घर के समीपस्थ वृक्ष का वास्तुजनित प्रभाव- अश्वत्थं च कदम्बं च कदलीबीजपूरकम्|
गृहे यस्य प्ररोहन्ति स गृही न प्ररोहति||
पीपल कदम्ब केला बीजू नींबू ये जिस घर मे होते है, उसमे रहनेवाले की वंशवृद्धि नही होती| घर मे कॉटे वाले वृक्ष शत्रुका भय दूधवाले वृक्ष धन का नाश और फलवाले वृक्ष संतान का नाश करते है

अशोक, शमी, मौलसिरी,  चम्पा, अर्जुन , कटहल, केतकी, चमेली, नारियल, महुआ, वट, सेमल, बकुल , शाल आदि वृक्ष गृह व गौशाला के  समीप शुभ है|
 यदि निम्न क्रम से वृक्ष लगाये जाय तो अच्छे परिणाम प्राप्त होंगे- पूर्व मे बरगद, दक्षिण मे गूलर, दक्षिण व नैऋत्य मे जामुन कदम्ब, पश्चिम मे पीपल, वायव्य मे बेल, आग्नेय मे अनार, उत्तर मे पाकड़, ईशान मे अॉवला, ईशान पूर्व मे कटहल व आम|
 उपरोक्तदिशा मे परिवर्तन से हानिकर है, वृक्षरोपण करते समय निम्न मंत्र पढे़- ॐ वसुधेति शीतेतिपुण्यदेति धरेति च| नमस्ते शुभगे देवि द्रुमोऽयं त्वयि रोप्यते||
 शुभ मुहुर्त मे लगाये|| शंका समाधान हेतु टिप्पणी मे संपर्क करे।
- नारद पुराण व अग्नि पुराण
 जय श्रीराम||

एक गुरु की खोज,गुरु कैसे नष्ट करे शिष्य के पाप, कैसे हो गुरु,

श्रीराम,
गुरु कैसे नष्ट करे शिष्य के पाप:
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सनातन धर्म मे गुरु की बडी महिमा कही है। गुरु को ईश्वर के समान पूज्यनीय वंदनीय कहा गया है।धार्मिक कृत्यो का पुण्यफल बिना गुरुदीक्षा के प्राप्त नही होता।ब्यक्ति बिना गुरुदीक्षा के धार्मिक कृत्य का अधिकारी नही होता।
      वर्षो से मै देख रहा हू, सामान्यजन मे व आध्यात्मिक समूह मे गुरु पद को लेकर काफी संशय, विरोधाभास,जिज्ञासा की स्थिति बनी हुई है, लोगो को निर्णय लेने मे असुविधा है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है, कारण की गुरुव्यापार की गतिविधि मे भेड़ झुण्ड की तरह एक जिधर निकला, पीछे पीछे अनेक हो लिये। अब एक गुरु लाखो शिष्यो पर ध्यान दे तो कैसे? अब चर्चा आती है ,सदगुरु, ब्रह्मवेत्ता की, तो क्या ब्रह्मवेता,ब्रह्म की उपासना छोड व्यापार करेगें। स्वघोषित सदगुरु और इनके, ब्रेनवाशडशिष्य, मेच्योर्ड हो गये है और कुशल सेल्समैन की भॉति मोटीवेट कर ही लेते है।जैसे गडेरियॉ भेडो को झुण्ड को नियंत्रित करता है।
  मेरा यह लेख उन जिज्ञासुओ को संबोधित है, जो संशय मे है, य ब्रह्मवेत्ता की खोज मे है।
गुरु वह है जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए। प्रथम गुरु माता होती है, द्वितीय गुरु पिता, और तृतीय गुरु आचार्य हैं, जो ज्ञान का प्रकाश देकर सफलता का मार्ग दिखाते है।
सदगुरु कौन है? -- जो धर्मग्रंथो का सार निकालकर भक्ति का मार्ग सुनिश्चित करे, जो निज स्वरुप और सच्चिदानंद परमात्मा मे एकता स्थापित कर, आत्म साक्षात्कार करा सके वही सदगुरु है। किंतु कलिकाल मे, ऐसा गुरु मिलना सहज नही कठिन है। और मिल भी जाय तो, तो उससे लाभ पाना कठिन है, क्योकि, हम प्राथमिक माध्यमिक की शिक्षा छोड़कर सीधे डिग्री नही ले सकते। और जो लेना चाहते है वह सफल नही हो सकते। और यदि ले भी ली तो वह डिग्री फर्जी ही होगी। ठीक उसी तरह , सदगुरु के लिये सद शिष्य होना चाहिये।अतः सर्वप्रथम सदशिष्य बनना होगा।
भक्तिमार्ग मे आगे बढ़ने हेतु, शाश्त्रोक्त गुरु की आवश्यकता है।
योजयति परे तत्वे स दीक्षायाऽऽचार्य मूर्तिस्यः।(अग्निपुराण, दीक्षा प्रकरण)
सभी पर अनुग्रह करनेवाले परमेश्वर ही, आचार्य शरीर मे स्थित होकर दीक्षाकरण द्वारा जीवो को परमशिव तत्व की प्राप्ति कराते है।
 अतः यह अनिवार्य नही है कि अाप ब्रह्मविद, अलौकिक शक्ति सम्पन  सदगुरु की खोज मे जीवन भर निगुरे ही रह जाये।

         शाश्त्र मत है कि किसी भी ऐसे ब्राह्मण को, जो वेद, पुराण, शाश्त्र का अध्ययन करनेवाला हो/ ज्ञाता हो, जो नियमित संध्या करता हो, जो मृदुभाषी,शांत स्वभाव का हो, जिससे आवश्यकता पडने पर संवाद करना दुर्लभ न हो, जिससे मिल पाना दुर्लभ न हो, जो उत्सवादि होने पर निमंत्रण देने पर आपके स्थान को अपने चरणरज से पवित्र कर सके, जिससे मंत्रणा की जा सके। जो आपके पापो को जानकर उनका शमन कर सके। उपरोक्त सभी गुण य अधिकांश गुणजिस ब्राह्मण मे हो उसे तत्काल सहर्ष गुरु रुप मे पाने का निवेदन करना चाहिये। सिर्फ ऐसा व्यक्ति ही अध्यात्म मे सहायक होकर भवसागर से पार करा सकता है।
गुरु शिष्य के पापो  को कैसे जान लेता है-
 #अन्तेवासकृतं पापं जानीयादग्नि लक्षणैः।
अग्नि परीक्षा के द्वारा योग्य गुरु शिष्य के लक्षणो से पापो को पहचान कर,पाप भक्षण निमित्तिक होम से उस पाप को जला डालते है। ये लक्षण कैसे है वह मै कहता हू-
१. अग्नि से बिष्ठा की दुर्गंध- ब्रह्महत्यारा, भूमिहर्ता,गुरु घाती।
२.मुर्दे की बदबू-, गर्भ हत्यारा, स्वामीघाती।
३.आग मे कंपन होना- स्वर्ण की चोरी करनेवाला।
४. आग की लपट का चारो ओर घूमना- स्त्रीवध जनितपाप।
५. आग का निस्तेज होना- गर्भघाती।
 इस प्रकार विविध लक्षणो को पहचानकर शिष्य के पापो को दूर करना एक सच्चे गुरु का कर्तव्य है।
श्रीराम,
दीक्षा लेने का शुभाशुभ-
जो चैत्र मास मे दीक्षा लेवे तो बहुत दुःख पावै,वैशाख मे रत्नलाभ, ज्येष्ठ मे मृत्यु आषाढ़ मे भाई का नाश, श्रावण मे शुभ, भाद्रपद मे सन्तान का नाश, आश्विन मे अत्यन्त सुख प्राप्त करे, कार्तिक मे मंत्र दीक्षा ले तो धन की वृद्धि, मार्गशीर्ष मे शुभ हो, पौष मे ज्ञान की हानि,माघ मे ज्ञान की वृद्धि, फाल्गुन मे दीक्षा लेवे तो सौभाग्य और यश बढे़।
दीक्षा लेने का मुहुर्त:- मंगलवार और शनिवार ये दोनों वार छोड़कर सभी अनुकूल हैं। अतः रविवार, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार अथवा शुक्रवार को ही गुरु की कृपा लेने का प्रयास करना चाहिए। 

तिथि :   द्वितीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, त्रयोदशी और पूर्णिमा की तिथियां शुभ होती हैं।

नक्षत्र :  हस्त, अश्विनी, रोहिणी, स्वाति, विशाखा, ज्येष्ठा, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रेपद, श्रवण, आर्द्रा, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र उत्तम माने गए हैं। अतः दीक्षा, परामर्श, साधना, प्रयोग आदि में निर्देशानुसार इन्हीं में से किसी नक्षत्र की समयावधि का उपयोग करना चाहिए। सर्वसम्मत मान्यता यह है कि पुष्य नक्षत्र का प्रभाव सर्वाधिक उत्तम और कल्याणकारी होता हे। केवल विवाह संस्कार को छोड़कर और कोई भी पुष्य नक्षत्र में बिना अन्य किसी नियम प्रतिबंध का विचार किए ही किया जा सकता है। जैसा कि प्रारंभ में लिखा जा चुका है, मंत्र साधना के लिए गुरु पुष्य योग और तंत्र साधना के लिए रवि पुष्य योग को सर्वश्रेष्ठ और सशक्त मुहूर्त माना गया है।

लग्न : कर्क, वृश्चिक, तुला, मकर और कुंभ लग्नों को श्रेष्ठ माना गया है। इस प्रकार दीक्षा (अभीष्ट कार्य के लिए गुरु-विद्वान का परामर्श) लेने में यदि उपरोकत कालखंडों के आधार पर किसी शुभ मुहूर्त का उपयोग किया जाए तो साधना में सफलता की पूर्ण संभावना बन जाती है।

मै कौन हू? मेरी पहचान क्या है?

मै कौन हू ?
प्रश्न का उत्तर कठिन नही समझना कठिन लगता है| कारण कि मै स्वयं को पहचान नही पा रहा? मेरा नाम तो मै नही क्योकि होता तो मै यह प्रश्न नही करता, आज जो मेरा नाम है, यदि किसी कारणवश बदल दिया जाय तो क्या मै बदल जाउगा नही न , तो मेरा नाम मै नही ।यह शरीर भी मै नही, क्योकि जन्म जन्म मे शरीर बदलता रहताहै,  मेरी पहचान भी मै नही, पहचान भी बदलती रहती है।तो फिर मै कौन?
जीवन्नपि मृत एव- एक ऐसा जीव जो कहने को जीवित होते हुए भी मुर्दा ही है, क्योकि स्वंय की पहचान नही रास्ते का ज्ञान नही  लक्ष्य का पता नही, अत: दुसरो से पुछते है ,मै कौन? मुझे जाना कहॉ? किस रास्ते से?
विचार करते है तो पाते है कि  बिना लक्ष्य को जाने अपनी पहचान न मिलेगी अत: लक्ष्य की पहचान प्रथम आवश्यक है| प्रत्येक मनुष्य के मन मे एक ही क्षण मे अनेक विचार उत्पन्न होते हैऔर उनमे बारंबार परिवर्तन भी होते है,अत: विभिन्न प्रकार के मनुष्यो मे लक्ष्य मे भिन्नता होगी, किन्तु तनिक गहराई से विचार करने पर हम पाते है कि वास्तव मे सभी मनुष्यो का एक ही लक्ष्य है, जैसे - कोई पैसो के पीछे पडा है कोई स्वास्थय के, कोई विद्या चाहता है तो कोई कीर्ति का भूखा है, इसे ही मनुष्य सच्चा लक्ष्य मानकर उसी की प्राप्ति का अथक प्रयास करता है| किन्तु ऐसा चाहने वाले किसी से पूछा जाय कि वह जो चाहता है क्यो चाहता है? तो एक स्थान पर सभी का उत्तर एक ही होगा आनंद की प्राप्ति| जैसे पैसा चाहने वाले से पूछा जाय कि पैसा क्यो चाहता है तो वह कहेगा कि मै अमुक वस्तु का उपभोगं करुगॉ, क्यो करेगा? उससे मुझे आनंद मिलेगा, तू आनंद क्यो चाहता है? आनंद चाहना स्वभाविक है, यहॉ कोई नही कहता कि अमुक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये आनंद चाहता हू, अर्थात आनंद ही एक लक्ष्य है| बल , स्वास्थय, विद्या, कीर्ति आदि सभी के बारे मे यही प्रश्नोत्तर होते है| यहॉ एक बात स्पष्ट होती है कि विचार मे जितने भेद है सभी साधन के बारे मे है लक्ष्य सबका एक है| हम सबके भीतर रहनेवाले इस शाश्वत  अखण्ड आनंदरुपी लक्ष्य के क्या क्या लक्षण है यह किसी प्रमाण से नही स्वंय अपने ही हृदय से पुछिये तो १. किसी मरणासन्न व्यक्ति जिसके सभी अंग शिथिल हो ऐसा व्यक्ति भी जीवित रहना चाहता है सभी जीव सदैव जीवित रहना चाहते है.यह स्वभाविक है यह प्रथम लक्ष्य है जो किसी अन्य लक्ष्य का साधन नही|
२. अपने दिल से पुछनेपर  हम सब जीवित रहते सभी पदार्थो को जानना अर्थात ज्ञान दुसरा लक्ष्य है|
३.दु:ख क्लेश से रहित शुद्ध परिपूर्ण अखण्ड सुख तीसरा लक्ष्य है|
४.परतंत्रता ही दुःख और स्वतंत्रता ही सुख है, अत: स्वतंत्र रहना चौथा लक्ष्य है|
५.अब सवाल उठता है कि क्या शाश्वत जीवन , अखण्ड ज्ञान, परिपूर्ण आनंद एवं स्वतंत्रता मिलने पर हम तृप्त हो जाते है? नही . क्योकि एक पॉचवी इच्छा स्वभाविक होती है कि अब हमारी इच्छानुसार  दुसरे समस्त जीव लोग चले ,अर्थात हमपर किसी का शाशन न हो सब पर हम शाशन करे| यह पंचवा लक्ष्य ईश स्वरुप है|
६. विचार करने पर जब उपरोक्त पॉच लक्षणो की प्राप्ति के बाद चौदह भुवनो मे कोई ऐसी वस्तु नही मिलती जिसकी इच्छा हो कोई छठा लक्षण नही मिलता|
अब विचार करे कि ये पॉच लक्षणो से लक्षित लक्ष्य का नाम परमेश्वर ही है जिसे शाश्त्र ग्रथं मे बताया है, और कही न मिलेगा| अर्थात हम सब नर होकर नारायण के लक्षण को नजानते हुए भी नारायण ही बनना चाहते है ऐसा क्यो? क्योकि हम इसी ईश्वर के अंश रुप एक ऐसा बिंदु है जिसकी अलग से कोई अपनी पहचान नही कोई नम्बर  नही, मात्र ईश्वर अंश होने से उसके गुणो की तरफ आकृष्ट होकर  उसमे ही पुनः समाहित होने के लिये उसकी तरफ अनजाने ही खिच रहे है | लेकिन यह मै का पर्दा इस मायाजाल रुपी सागर मे तैरा रहा है|
 जब यह मै रुपी पर्दा हटता है, तब अनायस ही "अहं ब्रह्मास्मि" का बोध होता है। 

क्या कलियुग समाप्त होनेवाला है? कब है कलियुग का अन्त?

पद्म पुराण, मानसागरी,विविध मान्यता प्राप्त सर्वग्राह्य पंचाग, प्रमाणिक ग्रंथ व साहित्य के अनुसार क्या है, युगायन, काल गणना, दिव्य वर्ष, कलियुग का अंत समय। तथा कलियुग के अंत समय का परिवेश और आज के परिवेश के संदर्भ मे तुलना आप स्वंय करे कि कलियुग के अंत के स्वरुप से आज मे अभी कितना अंतर है।

मानव के एक वर्ष का देवताओं की एक रात दिन होता है।
      एक कल्प का ब्रह्मा जी का दिन व एक कल्प की रात होती है, अतः दो कल्प का ब्रह्मा जी की एक दिन रात होती है। तद्नुसार 720 कल्प का ब्रह्मा का एक वर्ष हुआ। ब्रह्माजी की 100 ब्रह्म वर्ष=72000 कल्प की आयु है। ब्रह्मा जी के एक दिन मे 14 मन्वंतर होते है। एक मन्वंतर 71 चतुर्युग से कुछ अधिक काल का होता है। 
   एक सौर वर्ष मे 360 दिन होते है।एक दिन मे 24 घंटा ,1घंटा मे ढाई घटी व एक घटी मे, 60 पल, एक पल मे 60 विपल होते है। यह समय का मानक है।
 संध्या व संध्याश सहित, युग की आयु इस प्रकार है।
युग                        सौर वर्ष
सतयुग  - 1728000
त्रेतायुग - 1296000
द्वापरयुग- 864000
कलियुग - 432000
इन चार युगो का मान 43,20,000 वर्ष है। चार युगो का एक महायुग होता है। 1000 महायुग का एक कल्प होता है। अतः
 4320000×1000=4320000000 सौर वर्ष एक कल्प का मान होता है।( चार अरब बत्तीसकरोड़ वर्ष)
   360 मानव, वर्ष का एक दिव्य वर्ष होता है, यह देवताओ का वर्ष होता है। एक मन्वंतर मे सौर मान से 30,67,20,000 वर्ष होते है। दिव्य वर्ष गणना के अनुसार 8,52,000 दिव्यवर्ष का एक मन्वंतर होता है।
चूकि 360 सौर वर्ष= 1दिव्य वर्ष
अतः मन्वंतर =
 30'67'20'000÷360= 852000 दिव्यवर्ष
 एक चतुर्युग 
= 43,20,000÷360=12000 दिव्य वर्ष एक चतुर्युग का मान है।
इस प्रकार चारो युग का दिव्य वर्ष प्राप्त करते है।
सतयुग  1728000÷ 360=4800दिव्य वर्ष
त्रेतायुग 1296000÷360=3600   दिव्य वर्ष
द्वापर युग 864000÷360=2400 दिव्य वर्ष
कलियुग 432000÷360=1200 दिव्य वर्ष

ब्रह्माजी के एक दिन मे चौदह मन्वंतर होते है, जिनमे 1स्वंयभुव 2स्वरोपित 3उत्तमज 4तामस5 रैवत 6चाक्षुस नामक 6 मन्वंतर व्यतीत होकर 7वां वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है, इसके भी 27 महायुग समाप्त होकर28वें महायुग के तीन युग सतयुग त्रेता, द्वापर युग बीत कर चौथा कलियुग चल रहा है। कलियुग का आंरभ भाद्रपद कृष्ण13 रविवार को अर्द्धरात्रि मे हुआ था।
तदनुसार कलियुग के5119वर्ष बीत चुके है। कल्पांरभ से 1955885119 वर्ष व्यतीत हुए है।
 कलियुग अभी 426881 वर्ष शेष है।
इस समय ब्रह्माजी की आयु के 51वर्ष 1 दिन 13 घटी 22 पल बीत चुके है।
     कलियुग की विशेषता- कलियुग मे 75% पाप 25% पुण्य रहेगा।
 कलियुग के अन्त मे भूमि बीजहीन हो जाएगी, गंगा लुप्त हो जाएगी, देवता, आकाश, तुलसी एवं गुरु की पूजा बंद हो जाएगी। सभी लोग म्लेचछ का आचरण करेंगें।
  कलियुग के 821वर्ष शेष रहने पर संम्बल क्षेत्र के गौड़ ब्राह्म्ण विष्णुयश के घर मे कल्कि अवतार होगा जो म्लेच्छो का संहार कर विलुप्त धर्म की पुनर्स्थापना करेंगे।
      कलियुग समाप्ति की घोषणा करने वाले ने कहॉ गलती की है ,अब वह बताते है। जब रिसर्च रिपोर्ट का मैने अध्ययन किया तो उसमे बहुत ही विस्तार से सृष्टिक्रम को बहुत ही स्पष्टता से वर्णन किया है और गणितीय उदाहरण से अच्छी तरह समझाया भी है। सौरमान और दिव्यवर्ष की तुलना भी बडी सटीक की है साथ ही दिनमान निकालकर और स्पष्ट करने का सुन्दर प्रयास किया है। किंतु  एक मन्वंतर मे जो 71 चतुर्युग होते है, उसे एक चतुर्युग के दिव्य 12000 वर्ष को एक मन्वंतर का वर्ष मानकर 71 से भाग कर दिया है जिससे कालक्रम 71 गुणा कम हो गया ।  कलियुग की आयु 5070 वर्ष की बता दी गयी।इस समय कलियुग 5119 वर्ष बीत चुका है। और यह ऑकडा 100% गलत साबित हो गया। एक मन्वंतर मे 8,52,000 दिव्य वर्ष होते है।12000 दिव्य वर्ष एक चतुर्युग मे होता है।
आजकल शोशल मिडिया नेट, गूगल, आदि पर कलियुग के समाप्ति की घोषणा की जा रही है। और सन 2012, 2015 मे भी, प्रलय की अफवाहे उडाई गयी । एक विद्वानगण ने इस पर रिसर्च रिपोर्ट प्रस्तुत कर  ५०पचास वर्ष मे कलियुग की समाप्ति की घोषणा की है,और इसी के आधार पर शेष लोग भी पुष्टि कर रहे है।
    कुछ प्रयत्न के बाद इस रिसर्च रिपोर्ट को मैने प्राप्त कर अध्ययन किया और पाया कि यहॉ एक बडी गणितीय चूक हुई है। य जानबूझकर स्वंय को हाईलाईट करने के लिये गडबडी पैदा कर भ्रम बनाया गया है।
      आईये जानते है, कि वे कौन से मंत्र है जो कलियुग मे शीघ्र फल देने वाले है।
और कौन सा मंत्र आपके लिये होगा शीघ्र फलदायी कलियुग मे शीघ्र फलदेनेवाले मंत्र यहॉ ब्लूलाईन को टच कर के, आप जान सकते है।

जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...