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मॉ काली साधना, मॉ काली की सिद्धि, स्तोत्र मंत्र सिद्धि

 
  1. पति को वश मे / मुटठी मे कैसे करे!
  2. पति को खुश कैसे रखे!
  3.  पत्नी प्रेमिका को वश मे करने का अचूक उपाय क्या है ?
माता काली ही आदिशक्ति स्वरुपा है। इनके स्वरुप का विवरण शाश्त्रो मे जो मिलता है, वह अपने आप मे एक रहस्य लिए होता है। आईये इन रहस्यो को बारीकी से समझते है। भगवती के मुख पर मुस्कान बनी रहती है, जिसका अर्थ है, कि वे नित्यानन्द स्वरुपा है।देवी के होठो से रक्त की धारा बहने का अर्थ है, देवी शुद्ध सत्वात्मिका है, तमोगुण व रजोगुण को निकाल रही है।



देवी के बाहर निकले दॉत जिससे जीभ को दबाए है, का भावार्थ रजोगुण तमोगुण रुपी जीभ को बाहर कर सतोगुण रुपी उज्जवल दॉतो से दबॉये है।
भगवती के स्तन तीनो लोको को आहार देकर पालन करने का प्रतीक है, तथा अपने भक्तो को मोक्षरुपी दुग्धपान कराने का प्रतीक है।
मुण्डमाला के पचास मुण्ड पचास मातृकावर्णो को धारण करने के कारण शब्दब्रह्म स्वरुपा है। उस शब्द गुण से रजोगुण का टपकना अर्थात सृष्टि का उत्पन्न होना ही, रक्तस्राव है
भगवती मायारुपी आवरण से आच्छादित नही है, माया उन्हे अपनी लपेट मे ले नही पाती, यह उनके दिग्म्बरा होने का भावार्थ है।
भगवती शवो के हाथ की करधनी पहने है- शव की भुजाए जीव के कर्म प्रधान हो ने का प्रतीक है, वे भुजाऐं देवी के गुप्तांग को ढॉके हुए है अर्थात नवीन कल्पारंभ होने तक देवी द्वारा सृष्टिकार्य स्थगित रहता है। कल्पान्त मे सभी जीव कर्म भोग पूर्णकर स्थूल शरीर त्यागकर सूक्ष्म शरीर के रुप मे कल्पारंभ पर्यंत जबतक कि उनका मोक्ष नही हो जाता, भगवती के कारण शरीर मे संलग्न रहते है।
देवी के बाए हाथ मे कृपाण वाममार्ग अर्थात शिवजी (शिवजी का एक नाम वामदेव) के बताए मार्ग पर चलने वाले निष्काम भक्तो के अज्ञान को नष्ट कर, उन्हे मुक्ति प्रदान करती है।
देवी के नीचे वाले बॉए हाथ मे कटा सिर वाममार्ग की निम्नतम मानीजाने वाली क्रियाओ मेभी रजोगुण रहित तत्वज्ञान केआधार मस्तक (शुद्धज्ञान) को धारण करने का प्रतीक है।
कालीरुप जिस प्रकार लाल पीला सफेद सभी रंग काले रंग मे समाहित हो जाते है उसी प्रकार सभी जीवो का लय काली मे ही होता है,
भगवती कानो मे बालको के शव पहनी है जो बाल स्वभाव निर्विकार भक्तो की   ओर कान लगाऐ रहती है अर्थात उनकी प्रत्येक कामना ध्यान से सुनने का प्रतीक है।

रावण को शिवजी से प्राप्त गुप्त काली कवच पढ़ने के लिए यहॉ किलिक करे।

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हनुमान जी को चोला कैसे चढा़ये

  हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए बहुत से उपाय साधनाये है जिनमे से एक है चोला चढ़ाना । हनुमान जी को चोला चढ़ाने से आपकी मनोकामनाएं पूर्ण होती है । शनि का प्रकोप शान्त होता है। शनि की महादशा, अन्तर्दशा साढेसाती जन्य कश्ट निवारण होता है।
सामग्री- हनुमान जी वाला सिंदूर ,गाय का घी या चमेली का तेल ,कुंकुम और चावल ( तिलक करने के लिए),एक गुलाब की माला, शुद्ध ताजा पानी गंगाजल मिला हुआ (स्न्नान कराने के लिए),माली पन्ना(चमकीला कागज होता है ), धूप व् दीप ,हनुमान चालीसा की पुस्तक ।

विधि – मंदिर में पहुँचने पर हनुमान जी को प्रणाम करें ।अगर हनुमान जी की मूर्ति पर पहले से कोई चोला चढ़ा हुआ हो तो उसे उतारे फिर स्नान कराये । इसके बाद सिंदूर को गाय के घी या चमेली के तेल में घोले मूर्ति के साइज अनुसार । घोल तैयार होने पर हनुमान के पैर से सिंदूर लगाना शुरू करे “ॐ हनुमते नमः” मन्त्र का जाप करते हुए इसी प्रकार ऊपर बढ़ते हुए पूरी मूर्ति पर सिंदूर लगाये । सिंदूर लगने के बाद मूर्ति पर माली पन्ना चिपकाये पैर और हाथों पर , फिर धुप दीप जलाये कुंकुम चावल से तिलक करें, गुलाब की माला पहनाये ये सब कार्य पूर्ण होने पर 11 बार हनुमान चालीसा का पाठ करे, पाठ पूर्ण होने पर हनुमान से जो प्राथना करनी है करे और आज्ञा लेकर घर आ जाये इस प्रकार विधि विधान से चोला चढ़ाने की विधि पूर्ण होती है ।

नोट- 1.स्त्री को चोला नही चढ़ाना चाहिए और ना ही चोला चढ़ाते समय कोई भी स्त्री हनुमान को देख सकती है इसलिए कोई भी स्त्री वहा ना हो । इस बात का विशेष ध्यान रखे ।
2.सिंदूर हमेशा सवा के हिसाब से लाये जैसे सवा पाव ,सवा किलो ।






3. हनुमान जी को चोला चढ़ाते समय लाल या पीले रंग के वस्त्र धारण करे ।
4.जिस पर शनिदेव जी की दशा चल रही हो ढैया या साढ़े सती उनके लिए चोला चढ़ाना अत्यंत लाभकारी है ।
5.पुराना जो चोला उतारते है उसे पानी में प्रवाहित करदे।
6.संकट या रोग दोष दूर करने के लिए चोला शनिवार को चढ़ाये और घर की सुख शांति के लिए मंगलवार को चढ़ाये । संकट, रोग दोष, और शांति के लिए चढ़ा रहे है तो पहले किसी भक्त या साधक से सम्पर्क करले। यदि भक्ति भाव से चढ़ा रहे है तो किसी से बात करने की आवश्यकता नही है।
7. मूर्ति पर सिंदूर लगाते समय हमारी स्वास मूर्ति पर ना लगे इसके लिए मुख पर कोई कपड़ा रख ले ।

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मॉ बगलामुखी साधना

श्रीराम!!

मॉ बगलामुखी ही ब्रह्मास्त्रविद्या है। इन्हीके अनेक नाम यथा- बगलामुखी, पीताम्बरा , बगला , वल्गा, वल्गामुखी , वगलामुखी , ब्रह्मास्त्र विद्या

मॉ बगलामुखी शत्रुओं का नाश करने वाली, उनकी गति, मति, बुद्धि का स्तम्भन करने वाली, मुकदमे एवं चुनाव आदि में विजय दिलाने वाली तथा वे जगत का वशीकरण भी करने वाली हैं। यदि उनकी कृपा प्राप्त हो जाये तो साधक की ओर सभी आकर्षित होने लगते हैं, वह जंहा बोलता है, वंही उसे सुनने को जन समूह उमड़ पड़ता है। उसका दायरा बहुत व्यापक हो जाता है। कोई भी स्त्री, पुरूष, बच्चा उसके आकर्षण में ऐसा बंध जाता है कि अपनी सुध-बुध खो बैठता है और वही करने के लिए विवश हो जाता है, जो साधक चाहता है
इस साधना को करने के लिए अति गोपनीय मंत्र का उल्लेख मैं यंहा साधकों के लिए कर रहा हॅू, लेकिन साधक सदैव स्मरण रखें कि ऐसी साधनाओं का दुष्प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए अन्यथा साधक की साधना क्षीण होने लगती है। मंत्र का प्रयोग सदैव समाज कल्याण के लिए करना चाहिए, न कि समाज-विरोधी गतिविधियों के लिए ।
सर्वप्रथम भगवती बगलामुखी की मंत्र दीक्षा ग्रहण करें उसके पश्चात गुरू आज्ञानुसार साधना का माँ बगलामुखी की साधना करने के लिए सबसे पहले एकाक्षरी मंत्र ह्ल्रीं की दीक्षा अपने गुरुदेव के मुख से प्राप्त करें। एकाक्षरी मंत्र के एक लाख दस हजार
जप करने के पश्चात क्रमशः चतुराक्षरी, अष्टाक्षरी , उन्नीसाक्षरी, छत्तीसाक्षरी (मूल मंत्र ) आदि मंत्रो की दीक्षा अपने गुरुदेव से प्राप्त करें एवं गुरु आदेशानुसार मंत्रो का जाप संपूर्ण करें। कुछ ध्यान योग्य बातें बगलामुखी आराधना में निम्न बातों का विशेष ध्यान रखना जरूरी होता है। साधना में पीत वस्त्र धारण करना चाहिए एवं पीत वस्त्र का ही आसन लेना चाहिए। आराधना में पूजा की सभी वस्तुएं पीले रंग की होनी चाहिए। आराधना खुले आकाश के नीचे नहीं करनी चाहिए। आराधना काल में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए तथा साधना क्रम में स्त्री स्पर्श, चर्चा और संसर्ग कतई नहीं करना चाहिए। बगलामुखी देवी अपने साधक की परीक्षा भी लेती हैं। साधना गुरु की आज्ञा लेकर ही करनी चाहिए और शुरू करने से पहले गुरु का ध्यान और पूजन अवश्य करना चाहिए। बगलामुखी के भैरव मृत्युंजय हैं, इसलिए साधना के पूर्व महामृत्युंजय मंत्र का एक माला जप अवश्य करना चाहिए। मंत्र का जप हल्दी की माला से करना चाहिए। साधना रात्रि में ९ बजे से २ बजे के बीच करनी चाहिए। मंत्र के जप की संख्या निर्धारित होनी चाहिए और रोज उसी संख्या से जप करना चाहिए। यह संख्या साधक को स्वयं तय करना चाहिए। साधना गुप्त रूप से होनी चाहिए। साधना काल में दीप अवश्य जलाया जाना चाहिए। जो जातक इस बगलामुखी साधना को पूर्ण कर लेता है, वह अजेय हो जाता है, उसके शत्रु उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाते।

यदि एक बार आपने यह साधना पूर्ण कर ली तो इस संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जिसे आप प्राप्त नहीं कर सकत। सभी प्रकार की समस्या का समाधान और किसी भी परीक्षा में सफलता प्राप्त करने के लिए बगलामुखी साधना की जाती है। सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए, शत्रुओं का विनाश करने और कोर्ट कचहरी के मसलों में विजय होने के लिए बगलामुखी साधना की जाती है। हल्दी की माला से ८,१६ या २१बार बगलामुखी साधना की जाती है। बगलामुखी साधना का मंत्र है “ॐ ह्लीं बगलामुखी देव्यै ह्लीं ॐ नम:

1 ) कुल : – महाविद्या बगलामुखी “श्री कुल” से सम्बंधित है।

2 ) नाम : – बगलामुखी, पीताम्बरा , बगला , वल्गामुखी , वगलामुखी , ब्रह्मास्त्र विद्या

3 ) कुल्लुका : – मंत्र जाप से पूर्व उस मंत्र कि कुल्लुका का न्यास सिर में किया जाता है। इस विद्या की कुल्लुका “ॐ हूं छ्रौम्”

4) महासेतु : – साधन काल में जप से पूर्व ‘महासेतु’ का जप किया जाता है। ऐसा करने से लाभ यह होता है कि साधक प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थिति में जप कर सकता है। इस महाविद्या का महासेतु “स्त्रीं” है। इसका जाप कंठ स्थित विशुद्धि चक्र में दस बार किया जाता है।

5) कवचसेतु :- इसे मंत्रसेतु भी कहा जाता है। जप प्रारम्भ करने से पूर्व इसका जप एक हजार बार किया जाता है। ब्राह्मण व छत्रियों के लिए “प्रणव “, वैश्यों के लिए “फट” तथा शूद्रों के लिए “ह्रीं” कवचसेतु है।

6 ) निर्वाण :- “ह्रूं ह्रीं श्रीं”  से सम्पुटित मूल मंत्र का जाप ही इसकी निर्वाण विद्या है। इसकी दूसरी विधि यह है कि पहले प्रणव कर, अ , आ , आदि स्वर तथा क, ख , आदि व्यंजन पढ़कर मूल मंत्र पढ़ें और अंत में “ऐं” लगाएं और फिर विलोम गति से पुनरावृत्ति करें।

7 ) बंधन :- किसी विपरीत या आसुरी बाधा को रोकने के लिए इस मंत्र का एक हजार बार जाप किया जाता है। मंत्र इस प्रकार है ” ऐं ह्रीं ह्रीं ऐं ”

8) मुद्रा :- इस विद्या में योनि मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।

9) प्राणायाम : – साधना से पूर्व दो मूल मंत्रो से रेचक, चार मूल मंत्रो से पूरक तथा दो मूल मंत्रो से कुम्भक करना चाहिए। दो मूल मंत्रो से रेचक, आठ मूल मंत्रो से पूरक तथा चार मूल मंत्रो से कुम्भक करना और भी अधिक लाभ कारी है।

10 ) दीपन :- दीपक जलने से जैसे रोशनी हो जाती है, उसी प्रकार दीपन से मंत्र प्रकाशवान हो जाता है। दीपन करने हेतु मूल मंत्र को योनि बीज ” ईं ” से संपुटित कर सात बार जप करें

11) जीवन अथवा प्राण योग : – बिना प्राण अथवा जीवन के मन्त्र निष्क्रिय होता है, अतः मूल मन्त्र के आदि और अन्त में माया बीज “ह्रीं” से संपुट लगाकर सात बार जप करें ।

12 ) मुख शोधन : – हमारी जिह्वा अशुद्ध रहती है, जिस कारण उससे जप करने पर लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। अतः “ऐं ह्रीं ऐं ” मंत्र से दस बार जाप कर मुखशोधन करें

13 ) मध्य दृस्टि : – साधना के लिए मध्य दृस्टि आवश्यक है। अतः मूल मंत्र के प्रत्येक अक्षर के आगे पीछे “यं” (Yam) बीज का अवगुण्ठन कर मूल मंत्र का पाँच बार जप करना चाहिए।

14 ) शापोद्धार : – मूल मंत्र के जपने से पूर्व दस बार इस मंत्र का जप करें –
” ॐ हलीं बगले ! रूद्र शापं विमोचय विमोचय ॐ ह्लीं स्वाहा

15 ) उत्कीलन : – मूल मंत्र के आरम्भ में ” ॐ ह्रीं स्वाहा ” मंत्र का दस बार जप करें।

16 ) आचार :- इस विद्या के दोनों आचार हैं, वाम भी और दक्षिण भी ।

17 ) साधना में सिद्धि प्राप्त न होने पर उपाय : – कभी कभी ऐसा देखने में आता हैं कि बार बार साधना करने पर भी सफलता हाथ नहीं आती है। इसके लिए आप निम्न वर्णित उपाय करें –

a) कर्पूर, रोली, खास और चन्दन की स्याही से, अनार की कलम से भोजपत्र पर वायु बीज “यं” से मूल मंत्र को अवगुण्ठित कर, उसका षोडशोपचार पूजन करें। निश्चय ही सफलता मिलेगी।

b) सरस्वती बीज “ऐं”  से मूल मंत्र को संपुटित कर एक हजार जप करें।

c)ताडपत्र य भोजपत्र पर गौदुग्ध से मूल मंत्र लिखकर उसे दाहिनी भुजा पर बांध लें। साथ ही मूल मंत्र को “स्त्रीं” से सम्पुटित कर उसका एक हजार जप करें

18 ) विशेष : – गंध,पुष्प, आभूषण, भगवती के सामने रखें। दीपक देवता के दायीं ओर व धूपबत्ती बायीं ओर रखनी चाहिए। नैवेद्य फल, मीठा, भी देवता के दायीं ओर ही रखें। जप के उपरान्त आसन से उठने से पूर्व ही अपने द्वारा किया जाप भगवती के बायें हाथ में समर्पित कर दें।

अतः ऐसे साधक गण जो किन्ही भी कारणो से यदि अभी तक साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर सकें हैं, उपर्युक्त निर्देशों का पालन करते हुए पुनः एक बार फिर संकल्प लें, तो निश्चय ही पराम्बा पीताम्बरा की कृपा दृस्टि उन्हें प्राप्त होगी
  बिशेष नोट- *देवी जितनी जल्दी प्रसन्न होती है, उतनी ही जल्दी अनिष्ट भी कर सकती है। अतः साधना मे बिशेष सावधानी रखनी आवाश्यक है।* चूकि तंत्रशाश्त्र गोपनीय है अतः इसके दुरुपयोग को रोकने हेतु , यह लेख साधना हेतु पर्याप्त नही है, इसलेख मे  हवन विधि, हवन सामाग्री तथा समापन विधि, नही लिखी गयी है। यदि इस लेखके आधार पर कोई साधना करता है, तो किसी भी प्रकार की हानि/ बाधा के लिये वह स्वंय जिम्मेदार होगा। अतः साधना से पुर्व अपने गुरु से आज्ञा प्राप्त करे और उनके निर्देशन मे ही साधना करे।
1. बगलामुखी साधना के दौरान पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना अत्याधिक आवश्यक है. 
2. इस क्रम में स्त्री का स्पर्श, उसके साथ किसी भी प्रकार की चर्चा या सपने में भी उसका आना पूर्णत: निषेध है. अगर आप ऐसा करते हैं तो आपकी साधना खण्डित हो जाती है.
 3. किसी डरपोक व्यक्ति या बच्चे के साथ यह साधना नहीं करनी चाहिए. बगलामुखी साधना के दौरान साधक को डराती भी है. साधना के समय विचित्र आवाजें और खौफनाक आभास भी हो सकते हैं इसीलिए जिन्हें काले अंधेरों और पारलौकिक ताकतों से डर लगता है, उन्हें यह साधना नहीं करनी चाहिए.
 4. साधना से पहले आपको अपने गुरू का ध्यान जरूर करना चाहिए.
 5. मंत्रों का जाप शुक्ल पक्ष में ही करें. बगलामुखी साधना के लिए नवरात्रि सबसे उपयुक्त है.
 6. उत्तर की ओर देखते हुए ही साधना आरंभ करें.
 7. मंत्र जाप करते समय अगर आपकी आवाज अपने आप तेज हो जाए तो चिंता ना करें. 
8. जब तक आप साधना कर रहे हैं तब तक इस बात की चर्चा किसी से भी ना करें.
 9. साधना करते समय अपने आसपास घी और तेल के दिये जलाएं. 
10. साधना करते समय आपके वस्त्र और आसन पीले रंग का होना चाहिए।
*पं. राजेश मिश्र " कण"*
भास्कर ज्योतिष्य व तंत्र अनुसंधान केन्द्र आजमगढ़

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शिवजी द्वारा रावण को दिया गया काली कवच

यह काली कवच शिवजी ने अपने परम भक्त रावण को बताया था। इसके प्रयोग से शांति, पुष्टि, शत्रु मारण, उच्चाटन, स्तम्भन, वशीकरण आदि अति सुलभ है। जब शत्रु का भय हो, सजा का डर हो, आर्थिक स्थिति कमजोर हो, किसी बुरी आत्मा का प्रकोप हो, घर मे आशांति हो, व्ययपार मे घाटा हो, मानसिक तनाव हो, गंभीर बिमारी हो, कही मन न लगता हो, किसी के द्वारा जादू टोना, किया कराया गया हो, तो इस काली कवच का पाठ अवश्य करना चाहिये।साधक पवित्र हो, कार्य सिद्धि के अनुसार, आसन दिशा सामाग्री का चुनाव करे। फिर आचमन, संकल्प , गुरु गणेश की वंदना करे। फिर हाथ मे जल लेकर विनियोग करे।
विनियोग मंत्र-ॐ अस्य श्री कालिका कवचस्य भैरव ऋषिः गायत्री छन्दःश्री कालिका देवता सः बैरी सन्धि नाशे विनियोगः। यह मंत्र पढ़कर जमीन पर जल छोड़ दे।भयंकर रुप धारण किये काली का ध्यान, पूजन करे। फिर कवच का पाठ आरंभ करे।
कवचम्- ॐ कालीघोररुपा सर्व कामप्रदा शुभा।सर्व देवस्तुता देवी शत्रु नाशं करोतु मे।।ह्रीं ह्रीं ह्रूं रुपणी चैव ह्रां ह्रीं ह्रीं संगनी यथा।श्रीं ह्रीं क्षौं स्वरुघायि सर्व शत्रु नाशनी।।श्रीं ह्रीं ऐं रुपणी देवीभवबन्ध विमोचनी।यथा शुम्भो हतो दैत्यो निशुम्भश्च महासुराः।।बैरि नाशाय बन्दे तां कालिकां शंकर प्रियाम।ब्राह्मी शैवी वैष्णवी न वाराही नारसिंहिका।।कौमाज्येन्द्री च चामुण्डा खादन्तु मम विद्विषः।सुरेश्वरि घोरु रुपा चण्ड मुण्ड विनाशिनी ।।मुण्डमाला वृतांगी च सर्वतः पातु मां सदा।ह्रीं ह्रीं ह्रीं कालिके घोरे द्रष्ट्वैरुधिरप्रिये, रुधिरा।।पूर्णचक्रे चरुविरेण बृत्तस्तनि, मम शत्रुन खादय खादय, हिंसय हिंसय, मारय मारय, भिंधि भिंधि, छिन्धि छिन्धि,उच्चाट्य, उच्चाट्य द्रावय द्रावय, शोषय शोषय, स्वाहा।यातुधानान चामुण्डे ह्रीं ह्रीं वां काली कार्ये सर्व शत्रुन समर्यप्यामि स्वाहा। ॐ जय विजय किरि किरि कटि कटि मर्दय मर्दय मोहय मोहय हर हर मम रिपून ध्वंसय ध्वंसय भक्षय भक्षय त्रोटय त्रोटय, यातुधानान चामुण्डे सर्वे सनान् राज्ञो राजपुरुषान् राजश्रियं मे देहि पूतन धान्य जवक्ष जवक्ष क्षां क्षों क्षें क्षौं क्षूं स्वाहा।
  यह दिव्य काली कवच रावण द्वारा शिवजी से प्राप्त किया गया है। इस कवच के भक्तिभाव से नित्य पाठ करने से शत्रुओ का नाश हो जाता है। इस कवच का १००० पाठ , १०० हवन तथा १० तर्पण १ मार्जन व एक ब्राहम्ण को भोजन कराने  से  सिद्ध हो जाता है।
 फिर इसके विविध प्रयोग भिन्न भिन्न कार्यो की सफलता के लिये करना चाहिये। सिद्धि के उपरांत इसके प्रयोग की विधि दुरुपयोग को रोकने के लिये नही दी जा रही है।
 सामान्य शांति के लिये गुरु गणेश की वंदना, माता काली का ध्यान व शोडषोपचार य पंचोपंचार, य मानसिक,पूजन करके मात्र पाठ करने से ही चमत्कारिक लाभ मिलता है। यह मेरे द्वारा परीक्षित है।
   

मंत्र सिद्धि के लिये, पुरश्चरण विधि, मंत्र संस्कार विधि, मंत्रशोधन के अपवाद

पुरश्चरण" के पांच अंग होते हैं-

१. जप २. हवन ३. तर्पण ४. मार्जन ५. ब्राह्मण भोज

किसी भी मन्त्र का पुरश्चरण उस मन्त्र की वर्ण संख्या को एक लाख से गुणित कर जपने पर पूर्ण माना जाता है। "पुरश्चरण" में जप संख्या निर्धारित मन्त्र के अक्षरों की संख्या पर निर्भर करती है। इसमें "ॐ" और "नम:" को नहीं गिना जाता।  अशक्त होने पर कम से कम एक लाख जप का भी पुरश्चरण किया जा सकता है। जप संख्या निश्चित होने के उपरान्त जप का दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन, मार्जन का दशांश ब्राह्मण भोज कराने से "पुरश्चरण" पूर्ण होता है।
आसन न बदले
जितने माला जप प्रथम दिन किये हो उतने माला ही प्रतिदिन करे।
- हवन के लिए मन्त्र के अन्त में ‘स्वाहा’ बोलें।

- तर्पण करते समय मन्त्र के अन्त में ‘तर्पयामी’ बोलें।

- मार्जन करते समय मन्त्र के अन्त में ‘मार्जयामि’ अथवा ‘अभिसिन्चयामी’ बोलें ।
मंत्र संस्कार की दस विधि है-
१- जनन- गोरोचन, कुंकुम या चंदन से भोजपत्र पर आत्माभिमुख एक त्रिकोण लिखे। उसके तीनो कोण पर छ:छ: समान रेखाए खीचें। इस प्रकार बने हुए ४९ त्रिकोणात्मक कोष्ठो मे ईशानकोण से क्रमशः मातृकावर्ण लिखे। फिर देवता का उसमे आवाहन करे और मंत्र के एक एक वर्ण का उद्धार करके अलग पत्र पर लिखे।
-२-दीपन-'हंस' मंत्र से सम्पुटित करके एक हजार बार मन्त्र का जप करे। यह दीपन संस्कार है।
-३-बोधन- ह्रूं बीज से सम्पुटित करके पॉच हजार बार मंत्र का जप करे। यह बोधन संस्कार है।
-४-ताड़न- फट्" से सम्पुटित करके एक हजार बार मंत्र का जप करने से ताड़न संस्कार पूर्ण होता है।
-५- अभिषेक- मंत्र को भोजपत्र पर लिखकर 'ॐ हंसःॐ" मंत्र से एक हजार अभिमंत्रित कर सम्मुख रखे जल से पीपल पत्र से मंत्र का अभिषेक करे।
-६- विमलीकरण- मंत्र को "ॐ त्रों वषट्" मंत्र से सम्पुटित कर एक हजार जप विमलीकरण कहलाता है।
-७- जीवन- मंत्र को " स्वधा - वषट्" से सम्पुटित कर एक हजार बार जप करने से जीवन संस्कार पूर्ण होता है।
-८तर्पण-मूल-मंत्र से दूध, जल और घृत द्वारा सौ बार तर्पण करने से यह संस्कार पूर्ण होता है।
-९- गोपन- मंत्र को "ह्री" बीज से सम्पुटित कर एक हजार जप करना गोपन संस्कार है।
-१०- आप्यायन- मंत्र को "ह्रौं" बीज से सम्पुटित कर उसका एक हजार जप करने से आप्यायन संस्कार होता है।
मंत्रशोधन का अपवाद- कृष्णमंत्र, एकाक्षर, त्रयाक्षर,पञ्चाक्षर, षडक्षर, सप्ताक्षर, नवाक्षर, अष्टाक्षर,एकदशाक्षर, हंसमंत्र, स्वपन मे प्राप्त मंत्र, मातृकामंत्र,सूर्यमंत्र, वराहमंत्र,मालामंत्र, आदि को शोधन की आवश्यकता नही होती।
   निष्काम भाव से जप करने के लिये भी मंत्रशोधन की आवश्यकता नही होती।

हनुमान महामंत्रराज, सर्वसिद्धिप्रद

श्रीराम! , हनुमान कृपा, हनुमान मंत्र, हनुमान प्रत्यक्ष दर्शन के लिए, यह तांत्रिक विधि बहुत ही उपयोगी है।
विद्यां वापि धनं वापि राज्यं वा शत्रुविग्रहम्।
तत्क्षणादेव चाप्नोति सत्यं सत्यं सुनिश्चितम्।।

 आय से अधिक खर्च, पारिवारिक विवाद, बीमारी, अकस्मात किसी संकट का उपस्थित होना, भूत- प्रेत बाधा, पितर दोष, वास्तुदोष, ग्रहो की पीडा़, किसी के द्वारा तांत्रिक क्रिया ( मारण,उच्चाटन) आदि किया जाना।  इन सभी दोषो का एक विश्वसनीय व परीक्षित उपाय है। "हनुमतमहामंत्रराज" का बारह हजार जप व तद्दशांश हवन,  तर्पण, मार्जन। यह एक तांत्रिक अनुष्ठान है। जिसमे श्रीहनुमानजी के द्वादशाक्षर तांत्रिक मंत्र " हौं हस्फ्रे ख्फ्रे हस्रौं हंस्ख्फ्रे ह्स्रौं हनुमते नमः।" का जप किया जाता है।
तेल, बेसन व उड़द के आटे से निर्मित हनुमान जी की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा करके तेल और घी का दीपक जलाये, विधिवत पूजन कर पूआ, भात, शाक, मिठाई, बडे़, पकौडी़ आदि का भोग लगाये।
यहॉ हनुमान साधना की संपुर्ण सामग्री देखिए।
 जप से पूर्व मंत्र का विनियोग षडंगन्यास, वर्णन्यास, पदन्यास तथा अष्टदलकमलयंत्र में विमलाआदि शक्तियोवाली पीठ पर हनुमान् का पूजन करना चाहिये। पीठ देवताओ का  विविध नियतस्थानो मे पूजन करना चाहिये। केसरो मे अंगपूजा, तथा दलो पर विविधनामो वाले हनुमान का पूजन करना चाहिये। दिकपाल सहित प्रमुख वानरो की पूजा कर आवरण पूजा करनी चाहिये। विधि के सभी मंत्र लेख के अधिक विस्तार भय से नही लिखे जा रहे है। अलग अलग कामना के लिये हवन सामाग्री अलग अलग होती है। जहॉ अन्माय लाभोपयोगी अनुष्त्रठान मे लाखो खर्च होते है, वही मात्र ५००० रु के खर्च मे यह अनुष्ठान सम्पन्न हो सकता है।
    यह अनुष्ठान मेरे द्वारा कई लोगो पर परिक्षित है, जिससे लोगो को प्रत्यक्ष लाभ मिला है।

रावण द्वारा शिवजी से प्राप्त सर्वसिद्धिप्रद काली कवच

यह काली कवच शिवजी ने अपने परम भक्त रावण को बताया था। इसके प्रयोग से शांति, पुष्टि, शत्रु मारण, उच्चाटन, स्तम्भन, वशीकरण आदि अति सुलभ है।
जब शत्रु का भय हो, सजा का डर हो, आर्थिक स्थिति कमजोर हो, किसी बुरी आत्मा का प्रकोप हो, घर मे आशांति हो, व्ययपार मे घाटा हो, मानसिक तनाव हो, गंभीर बिमारी हो, कही मन न लगता हो, किसी के द्वारा जादू टोना, किया कराया गया हो, तो इस काली कवच का पाठ अवश्य करना चाहिये।
साधक पवित्र हो, कार्य सिद्धि के अनुसार, आसन दिशा सामाग्री का चुनाव करे। फिर आचमन, संकल्प , गुरु गणेश की वंदना करे। फिर हाथ मे जल लेकर विनियोग करे।
विनियोग मंत्र-
ॐ अस्य श्री कालिका कवचस्य भैरव ऋषिः गायत्री छन्दःश्री कालिका देवता सः बैरी सन्धि नाशे विनियोगः।
  यह मंत्र पढ़कर जमीन पर जल छोड़ दे।
भयंकर रुप धारण किये काली का ध्यान, पूजन करे। फिर कवच का पाठ आरंभ करे।
कवचम्- 
ॐ कालीघोररुपा सर्व कामप्रदा शुभा।
सर्व देवस्तुता देवी शत्रु नाशं करोतु मे।।
ह्रीं ह्रीं ह्रूं रुपणी चैव ह्रां ह्रीं ह्रीं संगनी यथा।
श्रीं ह्रीं क्षौं स्वरुघायि सर्व शत्रु नाशनी।।
श्रीं ह्रीं ऐं रुपणी देवीभवबन्ध विमोचनी।
यथा शुम्भो हतो दैत्यो निशुम्भश्च महासुराः।।
बैरि नाशाय बन्दे तां कालिकां शंकर प्रियाम।
 ब्राह्मी शैवी वैष्णवी न वाराही नारसिंहिका।।
कौमाज्येन्द्री च चामुण्डा खादन्तु मम विद्विषः।
सुरेश्वरि घोरु रुपा चण्ड मुण्ड विनाशिनी ।।
मुण्डमाला वृतांगी च सर्वतः पातु मां सदा।
ह्रीं ह्रीं ह्रीं कालिके घोरे द्रष्ट्वैरुधिरप्रिये, रुधिरा।।
पूर्णचक्रे चरुविरेण बृत्तस्तनि, मम शत्रुन खादय खादय, हिंसय हिंसय, मारय मारय, भिंधि भिंधि, छिन्धि छिन्धि,उच्चाट्य, उच्चाट्य द्रावय द्रावय, शोषय शोषय, स्वाहा।यातुधानान चामुण्डे ह्रीं ह्रीं वां काली कार्ये सर्व शत्रुन समर्यप्यामि स्वाहा। ॐ जय विजय किरि किरि कटि कटि मर्दय मर्दय मोहय मोहय हर हर मम रिपून ध्वंसय ध्वंसय भक्षय भक्षय त्रोटय त्रोटय, यातुधानान चामुण्डे सर्वे सनान् राज्ञो राजपुरुषान् राजश्रियं मे देहि पूतन धान्य जवक्ष जवक्ष क्षां क्षों क्षें क्षौं क्षूं स्वाहा।
  यह दिव्य काली कवच रावण द्वारा शिवजी से प्राप्त किया गया है। इस कवच के भक्तिभाव से नित्य पाठ करने से शत्रुओ का नाश हो जाता है। इस कवच का १००० पाठ , १०० हवन तथा १० तर्पण १ मार्जन व एक ब्राहम्ण को भोजन कराने  से  सिद्ध हो जाता है।
 फिर इसके विविध प्रयोग भिन्न भिन्न कार्यो की सफलता के लिये करना चाहिये। सिद्धि के उपरांत इसके प्रयोग की विधि दुरुपयोग को रोकने के लिये नही दी जा रही है।
 सामान्य शांति के लिये गुरु गणेश की वंदना, माता काली का ध्यान व शोडषोपचार य पंचोपंचार, य मानसिक,पूजन करके मात्र पाठ करने से ही चमत्कारिक लाभ मिलता है। यह मेरे द्वारा परीक्षित है।
   


मंत्र सिद्धि के उपाय व मंत्र सिद्धि के लक्षण

मंत्र सिद्यि के उपाय- यदि विधिवत मन्त्र का पुरश्चरण करने पर भी सिद्धि न मिले तो उस मंत्र का पुनः पुरश्चरण करना चाहिये। क्योकि अनेकानेक जन्मो के अर्जित पाप सिद्धि मे बाधक होते है। यदि ३ बार पुरश्चरण करने पर भी सिद्धि न मिले तो निम्न सात उपाय करने चाहिये।
  भ्रामण- यंत्र पर एक वायुबीज ( यं) और एक मंत्राक्षर इस क्रम से पूरे मंत्र के अक्षरो को वायुबीज स् सम्पुटित कर शिलारस, कपूर, कुंकुम, खस, एवं चंदन को मिलाकर उसी से यंत्र पर पूरा मंत्र लिखना चाहिये।पुनः इस यंत्र को दूध, घी, मधु एवं जल मिलाकर उसी मे डाल दे और विधिवत पूजन जप हवन करे। इस क्रिया को भ्रामण कहा जाता है। ऐसा करके पुरश्चरण करने से शीघ्र सिद्धि मिलती है।
  रोधन- वाग्बीज(ऐं) सेसम्पुटित मूल मंत्र का जप करना रोधन कहलाता है।
  वशीकरण-आलता, लालचंदव,कूट,धतुरे के बीज एवं मैनशिल इस सब को मिलाकर उससे भोजपत्र पर मूल मंत्र लिखकर उसे गले मे धारण करना वशीकरण कहा जाता है।
  पीडन- अधरोत्तर- योग से मंत्र का जप करते हुए अधरोत्तर- स्वरुपणी देवता की पूजी करनी चाहिये।पुनः अकवन के दूध से मंत्र लिखकर उसे पैर से दबाकर हवन करना चाहिये। यह क्रिया पीडन कहलाती है।
    पोषण- वधूबीज( स्रीं) से सम्रुटित मूलमंत्र का जप करना तथा गाय के दूध से लिखित मंत्र को हाथ मे धारण करना पोषण कहलाता है।
    शोषण- वायुबीज ( यं) से सम्पुटित मूलमंत्र का जप करना तथा यज्ञ की भस्म से भोजपत्र पर मूल मंत्र को लिखकर गले मे धारण करना शोषण कहलाता है।
   दाहन- मंत्र के प्रत्येक स्वर- वर्ण के साथ अग्निबीज ( रं) लगाकर जप करना तथा पलाश के बीज के तेल से मंत्र लिखकर गले मे धारण करना, यह क्रिया दाहन कहलाती है।
           उक्त सातो उपाय को एक साथ करने की आवश्यकता नही होती। इनमे से पहिला उपाय करने पर सिद्धि न मिले तो दूसरा, दूसरा करने पर सिद्धि न मिले तो तीसरा और तीसरे से न हो तो चौथा इस क्रम से ये जप करना चाहिये।इन उपायो के द्वारा निश्तित रुप से मंत्रसिद्धि प्राप्त होती है।

  मंत्र सिद्धि के लक्षण- आरंम्भ मे साधक को मन, मंत्र एवं देवता की पृथक पृथक प्रतीति होती है। किंतु मंत्र सिद्धि होने पर इस त्रिपुटी का नाश होने पर इन तीनो मे केवल इष्टदेव का स्वरुप ही दिखलाई पडता है। इस स्थिति मे साधक साधन व साध्य इन तीनो मे कोई भेद ही नही रह जाता। इस अवस्था को प्राप्त होते ही साधक रोमांचित एवं स्तब्ध हो जाता है।नेत्रो से प्रेमाश्रु बहने लगते है। मन एवं मंत्र के देव मे विलीन हो जाने पर साधक समाधिस्थ हो जाता है। और ऐसा साधक महाभाव को प्राप्त कर लेता है। यही मंत्र साधना का अंतिम फल है।
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कलियुग मे शीघ्र सिद्ध देने वाले मंत्र

आईये जानते है, कि वे कौन से मंत्र है जो कलियुग मे शीघ्र फल देने वाले है।
और कौन सा मंत्र आपके लिये होगा शीघ्र फलदायी ऋण व धन शोधन प्रकार
कलियुग मे जो सिद्धिदायक मंत्र है, उन्हे बतलाता हू।
   नृसिंह का एकाक्षर मंत्र- क्ष्रौं
नृसिंह का त्र्यक्षर मंत्र - ह्रीं क्ष्रौं ह्रीं
नृसिंह का अनुष्टुप् मंत्र-
उग्र वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्।
नृसिंह भीषणं भद्र मृत्युं-मृत्युं नमाम्यहम।।
कार्तवीर्यार्जुन का एकाक्षर मंत्र- क्रों
कार्तवीर्यार्जुन का अनुष्टुप् मन्त्र-
  कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान्।
  यस्य स्मरण मात्रेण गतं नष्टं च   लभ्यते।।
हयग्रीव मंत्र- ह्ंसूं
हयग्रीव का अनुष्टुप् मंत्र-
उद्गिरद् प्रणवोद्गीथ सर्ववागीश्वरेश्वर।
सर्व वेदमयाचिन्त्य सर्व बोधय बोधय।।
चिन्तामणि मंत्र-क्ष्म्न्यों

शाश्त्र वचन-
अघोरा दक्षिणामूर्तिरुमामाहेश्वरो मनुः।
हयग्रीवोवराहश्चलक्ष्मीनारायणस्तथा।।
प्रणवाद्याश्चतुर्वर्णा वह्नेर्मंत्रास्तथावरवेः।
प्रणवाद्योगणपतिर्हरिद्रागणनायकः।।
सौरोष्टाक्षरमन्त्रश्चतथारामषडक्षर।
मन्त्रराजोध्रुवादिश्चप्रणवो वैदिकोमनुः।।
वर्णत्रयाय दाताव्या एते शूद्रायनो बुद्धैः।


मंत्रो के ऋण व धन शोधन विधि


पूर्व के लेख मे आपने पढा, अब आगे
अब मंत्र के ऋण- धन शुद्धि की विधि बताते है।ऋणि- धनि चक्र की सहायता से मंत्र के वर्णो के स्वर व व्यञ्जंनो को अलग कर लेवे। फिर अक्षर के उपर वाले कोष्ठक से अंक लेने चाहिये। फिर समस्त स्वर व्यंञ्जन के अंको को जोडकर ८ का भाग देवे। जो शेष बचे वह मंत्र राशि है। इसी रीति से नाम के स्वर व व्यंञ्जन के लिये नीचे लिखे अंक लेकर उनका योग करे एवं ८ का भाग दे। शेष नाम राशि होगी।
  दोनो शेष मे जो राशि अधिक होगी वह ऋणी एवं जो कम होगी वह धनी कहलाती है। यदि मंत्र ऋणी हो तो ही ग्रहण करना चाहिये धनी नही।

उदाहरण : मान लिजिए  कि देवदत्त को ' ऐं नम: भगवति वद वद वाग्देवि स्वाहा' मंत्र लेना है।
 नामाक्षर एवं अंक: देवदत्त  = द्=७ ए्=३ व्=७ अ=१० द्=७ अ=१०त्=८ त्=८अ=१० कुल संख्या का योग ७०है अत: ७०÷८=६
मंत्राक्षर एवं अंक ऐ=४ अँ=८ न्=५ अ=१४ म्=२ अः=९ व्=४ अ=१४ द्=४ अ=१४ व्=४ अ=१४ व्=४ आ=१४ ग्=२ द्=४ ए=६ व्=४ इ=२७ स=८ व्=४ आ=१४ ह्=९ आ=१४  कुल संख्याओ का योग =२२४  इसमे८ आठ का भाग देने पर ८ शेष बचता है। अत: नाम राशि ६ से मंत्रराशि ८ अधिक होने से मंत्र ऋणी है। अतः देवदत्त को यह मंत्र ग्राह्य है।
   ऋणि मंत्र शीघ्रलाभदायी होता है, तथा धनी मंत्र के लिये अधिक जाप करना पड़ता है।

आयु और मंत्र के प्रकार कौन मंत्र किस आयु मे सिद्धि देते है


बीजमन्त्र, मन्त्र तथा मालामंत्र मंत्रो के यह तीन भेद बताया जाता है।
एक से दश अक्षर तक के मंत्र बीजमंत्र, ग्यारह से बीस अक्षर तक के मंत्र, मंत्र तथा इक्कीस व उससे अधिक अक्षर के मंत्र मालामंत्र कहे जाते है।
विविध आयु अवस्था मे सिद्धिदायक मंत्र

   बीजमंत्र- उपासक की बाल्यवस्था मे बीज मंत्र सिद्ध होते है।
मंत्र- युवावस्था मे मंत्र सिद्ध होते है।
मालामंत्र- वृद्धावस्था मे मालामंत्र सिद्ध होते है।

उक्त अवस्था से भिन्न अवस्था मे साधक को अपने अभीष्ट सिद्धि के लिये बीजमंत्र आदि को द्विगुणित जप करना चाहिये।
'वौषट'
मंत्रो के तीन प्रकार- पुरुष, स्त्री एवं नपुंसक मंत्र- जिन मंत्रो के अन्त मे ' वषट्' या 'फट्' होता है वह पुरुष मंत्र कहलाते है। जिन मन्त्रो के अंत मे 'वौषट' एवं स्वाहा लगा हो वह स्त्री तथा जिनके अन्त मे ' हुं' एवं ' नमः' हो नपुसंक होते है।
वश्य, उच्चाटन एवं स्तम्भन मे पुरुष मन्त्र सिद्धिदायक, क्षुद्रकर्म एवं रोगो के नाश मे स्त्री मंत्र शीघ्र सिद्धि प्रद होते है। अभिचार मे नपुंसक मंत्र सिद्धिदायक कहे गये है।
 प्रणव, बीजमंत्र व माला मंत्र के लिये सिद्धादि शोधन की आवश्यकता नही होती है।

सर्वसंकट हरण काली मंत्र व विधि

सर्वसिद्धिप्रद सौम्य श्मशान काली मंत्र जप विधि-
गृह कलह, कर्ज, शत्रु पीडा,पदोन्नति मे बाधा, ग्रहबाधा, प्रेतबाधा, गृहदोष आदि समस्या के निवारण हेतु, यह अनुष्ठान परमोपयोगी है।
सर्व प्रथम पवित्र होकर आचमन,शिखा बंधन, गुरुवंदन, संकल्प करे।
पश्चात माता काली का यथासंभव षोडषोपचार, पूजन करे। रक्त पुष्प अर्पित करे। फिर निम्नानुसार-
विनियोग:-अस्य श्मशानकाली मंत्रस्य भृगुऋषी: । त्रिवृच्छन्द: । श्मशानकाली देवता। ऐं बीजम । ह्रीं शक्ति: । क्लीं कीलकम । मम सर्वेअभीष्ट सिद्धये जपे विनियोग: ।
ध्यान:-अन्जनाद्रिनिभां देवी श्मशानालय वासीनीं ।रक्तनेत्रां मुक्तकेशीं शुष्कमांसातिभैरवां ॥पिंगलाक्षीं वामहस्तेन मद्दपूर्णा समांसकाम ।सद्द: कृ तं शिरो दक्ष हस्तेनदधतीं शिवाम ॥स्मितवक्त्रां सदा चाम मांसचर्वणतत्पराम ।नानालंकार भूशांगीनग्नाम मत्तां सदा शवै: ॥
  हृदयादि षडंगन्यास:-ऐं हृदयाय नम: ।ह्रीं शिरसे स्वाहा: ।श्रीं शिखायै वषट ।क्लीं कवचाय हुं ।कालिके नेत्रत्रयाय वौषट ।ऐं श्रीं क्लीं कालिके ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं अस्त्राय फट।इति हृदयादि षडंगन्यास: ॥मंत्र:-॥ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं कालिके क्लीं श्रीं ह्रीं ऐं ।
यह साधना  7 दिन का है और इसमे रुद्राक्ष माला से 21 माला मंत्र जाप करना आवश्यक है, साधना समाप्ती के बाद हवन मे काले तिल व गुड से जप का दशांश 210 बार मंत्र मे स्वाहा लगाकर आहूती दीजिये मंत्र इस प्रकार होगा “ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं कालिके क्लीं श्रीं ह्रीं ऐं स्वाहा”,आहुती के बाद नींबू और नारियल की बलि देना हैऔर नींबू का थोड़ा सा रस हवनकुंड मे ॐ पूर्णमिदं कहकर निचौड दीजिये,समय रात्री मे 10 बजे के बाद,दिशा दक्षिण,आसन-वस्त्र काले,भोग मे तिल और गुड के लड्डू ,यह साधना विधि, पूर्ण प्रामाणिक है और शीघ्र फलदायी भी है। 
विशेष नोट- अनुष्ठान के आरंभ और पूर्ण होने पर काली कवच का पाठ अवश्य करे।

सर्वसिद्धिप्रद कालिका मंत्र



साधक अपने नाम से सिद्धादिशोधन के पश्चात ही इस मंत्र का जप करे

कालिका का यह अचूक मंत्र है।यदि विधि विधान से जप पूजादि किया जाय तो माता शीघ्र प्रसन्न होकर ऐच्छिक / मनोवांक्षित फल देती है।
मंत्र  :

ॐ नमो काली कंकाली महाकाली मुख सुन्दर जिह्वा वाली,
चार वीर भैरों चौरासी, चार बत्ती पूजूं पान ए मिठाई,माता काली की दुहाई,शब्द सॉचा, पिण्ड कॉचा, फुरो मंत्र ईश्वरो वाचा।
इस मंत्र का प्रतिदिन 108 बार जाप करने से आर्थिक लाभ व पारिवारिक सुख मिलता है। माता काली की कृपा से सब काम संभव हो जाते हैं। किसी भी मंगलवार या शुक्रवार के दिन, जब चतुर्थी य अष्टमी पडे, तो शुरु करे। काली माता को मीठा पान व मिठाई का भोग लगाते रहें। तथा मूर्ति य चित्र के समीप दीपक जलावें। लाल पुष्प अर्पण करे।
  माता काली अपने भक्तों को सभी तरह की परेशानियों से बचाती हैं।

१लंबे समय से चली आ रही बीमारी दूर हो जाती हैं।
२ ऐसी बीमारियां जिनका इलाज संभव नहीं है, वह भी काली की पूजा से समाप्त हो जाती हैं।
३काली के पूजक पर काले जादू, टोने-टोटकों का प्रभाव नहीं पड़ता।
४हर तरह की बुरी आत्माओं भूत प्रेत, नजर दोष से माता काली रक्षा करती हैं।
५कर्ज से छुटकारा दिलाती हैं।
६व्यापारदि में आ रही परेशानियों को दूर करती हैं।
७जीवनसाथी या किसी खास मित्र से संबंधों में आ रहे तनाव को दूर करती हैं।
८ असफलता को दूर करती हैं।
९शनि-राहु की महादशा या अंतरदशा, शनि की साढ़े साती, शनि का ढइया / पनौती आदि सभी से काली रक्षा करती हैं।
१०पितृदोष और कालसर्प दोष जैसे दोषों दूर होते है।
  और भी अनगिनत कार्य है, जो माता की कृपा से संभव है। जितना भी लिखा जाय कम ही है।साधक गुरु से दीक्षा लेकर इस मंत्र का जप करे।
    जय माता महाकाली।

मंत्र शोधन के अपवाद



                             
नास्ति मंत्र समो रिपु। मंत्र के समान कोई शत्रु नही, यह शाश्त्रो मे बार बार बताया गया है। एक ही मंत्र अलग अलग व्यक्तियो के लिये अलग अलग परिणाम दे सकते है।  मंत्रदीक्षा य जाप से पूर्व मंत्र शोधन य सिद्धादि शोधन परमावश्यक है।अन्यथा कल्याण के स्थान पर भारी हानि हो सकती है।
  सिद्धादि शोधन विधि- इसके लिये अकथह चक्र य अकडम चक्र का प्रयोग किया जाता है।
मंत्र के चार प्रकार है।
१. सिद्ध- सिद्धमंत्र बतायी गयी संख्या का जप करने से सिद्ध होता है।
२. साध्य- यह बतायी संख्या से दूना जाप करने से सिद्ध होता है।
३. सुसिद्ध- यह बतायी संख्या का मात्र आधा जप करने से सिद्ध हो जाता है।
४. अरिमंत्र- यह साधक का विनाश कर देता है।
अकडमचक्र द्वारा सिद्धादि शोधन की विधि यह है कि साधक के नाम का प्रथमाक्षर जिस कोष्ठ मे हो वहा से मंत्र का प्रथमाक्षर किस कोष्ठ मे है, यह गिनने पर मंत्र की फलप्रद स्थिति का ज्ञान होता है। नाम के प्रथमाक्षर से मंत्र का प्रथमाक्षर १,५,९,१३वें कोष्ठक मे पडे तो सिद्ध, २,६,१०,१४ वे़ कोष्ठक मे पडे तो साध्य,३,७,११,१५ वे कोष्ठक मे पडे तो सुसिद्ध, तथा ८,४,१२,१६ वे कोष्ठक मे पडे तो शत्रु होता है।
  उदाहरण- मान लिजिए राम, को कोई मंत्र जप करना है, जिसका प्रथमाक्षर ऐ है, तो चक्र देखनेपर ज्ञात होता है कि ऐ, रा से तीसरे है। अतः यह सुसिद्ध है और शीघ्र उत्तम फल को देनेवाला है। अब यही ऐ से शुरु होने वाला मंत्र यदि धर्मेन्द्र जपता है, तो शीघ्र ही उसका विनाश हो जायेगा क्योकि यह ४ वे होने से अरिमंत्र बनता है।

सिद्धादिशोधन की दूसरी विधि- नाम व मंत्र के वर्ण को जोडकर ४ चार का भाग लगाना चाहिए।
यहॉ १ शेष होने पर मंत्रसिद्ध २ शेष होनेपर साध्य ३ शेष होने पर सुसिद्ध एवं ० य ४ शेष होने पर अरि जानना चाहिए। यहॉ ध्यान रहे कि केवल वर्ण ही जोडने है स्वर नही।



   अब उन मंत्रो को बतलाता हू, जिनके लिये सिद्धादि शोधन की आवश्यकता नही।
 प्रणव ( ॐ) , प्रसाद( हौं) , परा( ह्रीं), एकाक्षर,त्र्याक्षर, पञ्चाक्षर, मालामंत्र, षडाक्षर, सप्ताक्षर, नवाक्षर, एकादशाक्षर, द्वात्रिंशदक्षर, अष्टाक्षर, हंसमंत्र, कूटमंत्र, वेदोक्त मंत्र, स्वपन मे प्राप्त मंत्र, नरसिंह मंत्र, सूर्यमंत्र, वाराहमंत्र, मातृकामंत्र, त्रिपुरा, काममंत्र, आज्ञासिद्ध गरुणमंत्र, इन मंत्रो के लिए सिद्धादि शोधन की आवश्यकता नही होती।
   इसके अतिरिक्त सभी मंत्रो मे सिद्धादि शोधन परमावश्यक है। जो विद्यामंत्र, स्तोत्र य सूक्त अरि है,उसे निश्चित रुप से त्याग देना चाहिये।

मंत्र सिद्धादिशोधन विधि, मंत्र का महत्व, मंत्र से हानि य लाभ


    
  1. नास्ति मंत्र समो रिपु। मंत्र के समान कोई शत्रु नही, यह शाश्त्रो मे बार बार बताया गया है। एक ही मंत्र अलग अलग व्यक्तियो के लिये अलग अलग परिणाम दे सकते है।  मंत्रदीक्षा य जाप से पूर्व मंत्र शोधन य सिद्धादि शोधन परमावश्यक है।अन्यथा कल्याण के स्थान पर भारी हानि हो सकती है।
      सिद्धादि शोधन विधि- इसके लिये अकथह चक्र य अकडम चक्र का प्रयोग किया जाता है।
    मंत्र के चार प्रकार है।
    १. सिद्ध- सिद्धमंत्र बतायी गयी संख्या का जप करने से सिद्ध होता है।
    २. साध्य- यह बतायी संख्या से दूना जाप करने से सिद्ध होता है।
    ३. सुसिद्ध- यह बतायी संख्या का मात्र आधा जप करने से सिद्ध हो जाता है।
    ४. अरिमंत्र- यह साधक का विनाश कर देता है।
    अकडमचक्र द्वारा सिद्धादि शोधन की विधि यह है कि साधक के नाम का प्रथमाक्षर जिस कोष्ठ मे हो वहा से मंत्र का प्रथमाक्षर किस कोष्ठ मे है, यह गिनने पर मंत्र की फलप्रद स्थिति का ज्ञान होता है। नाम के प्रथमाक्षर से मंत्र का प्रथमाक्षर १,५,९,१३वें कोष्ठक मे पडे तो सिद्ध, २,६,१०,१४ वे़ कोष्ठक मे पडे तो साध्य,३,७,११,१५ वे कोष्ठक मे पडे तो सुसिद्ध, तथा ८,४,१२,१६ वे कोष्ठक मे पडे तो शत्रु होता है।
      उदाहरण- मान लिजिए राम, को कोई मंत्र जप करना है, जिसका प्रथमाक्षर ऐ है, तो चक्र देखनेपर ज्ञात होता है कि ऐ, रा से तीसरे है। अतः यह सुसिद्ध है और शीघ्र उत्तम फल को देनेवाला है। अब यही ऐ से शुरु होने वाला मंत्र यदि धर्मेन्द्र जपता है, तो शीघ्र ही उसका विनाश हो जायेगा क्योकि यह ४ वे होने से अरिमंत्र बनता है।

    सिद्धादिशोधन की दूसरी विधि- नाम व मंत्र के वर्ण को जोडकर ४ चार का भाग लगाना चाहिए।
    यहॉ १ शेष होने पर मंत्रसिद्ध २ शेष होनेपर साध्य ३ शेष होने पर सुसिद्ध एवं ० य ४ शेष होने पर अरि जानना चाहिए। यहॉ ध्यान रहे कि केवल वर्ण ही जोडने है स्वर नही।

जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...