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बाल्मीकि जन्मना शूद्र नही , जन्म से ब्राह्मण थे

श्रीराम!!
वाल्मीकि जन्मना शूद्र नही , जन्मना ब्राह्मण ही थे।
अंग्रेज साहित्यकार " बुल्के" वामपंथी विचारक व आर्यसमाजीयो की मिलीभगत से वाल्मीकि को शूद्र बतलाने का षडयंत्र किया गया। जबकि सदा की तरह जन्मना शूद्र होने का कोई प्रमाण ये दे नही पाये।
कृति वासीय रामायण मे वाल्मीकी को च्यवन का पुत्र कहा गया है, सन्तान परंपरा मे होनेवाले को भी पुत्र कहा जाता है, इस दृष्टि से च्यवन का भार्गववंश मे जन्म होने से, वाल्मिकि च्यवन के पुत्र कहे गये।
उत्तरकाण्ड मे भी वाल्मीकि को भार्गव कहा गया है-
" संनिबद्धं हि श्लोकानां चतुर्विंशत्सहस्त्रकम्।
   उपाख्यानशतं  चैव  भार्गवेण  तपस्विना।।
आदिप्रभृति वै राजन् पञ्चसर्गशतानि च  ।
काण्डानि षट् कृतानीह सोत्तराणि महात्मनां।।
     ( वा. रा. ७|९४|२५,२६)
उक्त श्लोको मे वाल्मीकि को ही भार्गव कहा गया है।
"भृगोर्भ्राता भार्गवः" भृगु के भ्राता होने से वाल्मीकि भी भार्गव हुए।
बुद्धचरित मे वाल्मीकि को च्यवन का पुत्र कहा गया है- " वाल्मीकिरादौ च ससर्ज पद्यंजग्रन्थ यन्न च्यवनो महर्षि:।" ( बुद्धचरित १|४३)
        वाल्मीकि जी ने स्वंय ही अपने को जन्मना ब्राह्मण कहा है-
"अहं पुरा किरातेषु किरातै सह वर्धित:।
जन्ममात्रं द्विजत्वं मे शूद्राचाररत: सदा।।
" शूद्रायां बहव: पुत्रा उत्पन्ना मेऽजितात्मन:।
ततश्चोरैश्च संगम्य    चोरोऽहमभवं   पुरा।।
    (अध्यात्म रामायण २/६/६४,८७)
 वाल्मीकी ने कहा, मै प्राचीनकाल मे किरातो के मध्य मे रहकर किरातप्राय हो गया था। केवल जन्ममात्र से मै द्विज (ब्राह्मण) था, परन्तु आचरण सब मेरे शूद्र के से थे । चोरो के साथ रहते रहते मै भी चोर हो गया था।
रामायण मे भी वाल्मीकी ने अपने को प्रचेता का दशवां पुत्र कहा है-
    " सुतौ तवैव दुर्धर्षो तथ्यमेतत् ब्रवीमि ते।
     प्रचेतसोऽहं दशम: पुत्रो रघुकुलोद्वह!।।
              ( वा. रा. ७|९६|१७,१८)
  इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि पहले वे प्रचेता के दशम पुत्र थे। किसी शापवशात पापयुक्त हो गये।महाभारत मे युधिष्ठर वाल्मीकि संवाद मे वाल्मीकि ने ऋषियो द्वारा शाप पाने का संकेत दिया है।
अनन्तर वे किसी भृगुवंशीय ब्राह्मण के यहॉ उत्पन्न हुए, वहॉ दस्युओ के संपर्क मे आकर दस्यु हो गये, फिर मुनिसमागम के प्रभाव से क्रमेण वाल्मीकि महर्षि हुए।  और भी बहुत से प्रमाण है, जो वाल्मीकि के जन्मना ब्राह्मण होना सिद्ध करते है, किन्तु लेख के विस्तारभय से नही दिये जा रहे।
इस प्रकार इन प्रचुर साक्ष्यो से निर्विवाद रुप से सिद्ध होता है कि वाल्मीकि जी जन्मना ब्राह्मण ही थे।
  पं.राजेश मिश्र"कण" ( स्रोत-रा.मी. स्वा. कर. )
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वर्णाश्रम जातिभेद क्यो?


श्रीराम!!
#वर्णाश्रम
पश्चिमी देश आज पशु पक्षी व वृक्षो की नस्ल को सुरक्षित व उनकी वृद्धि के लिये लगातार प्रयत्नशील है। किन्तु दुर्भाग्यवश समाजीयो की खोपडी मे यह बात नही बैठ पा रही है, कि मनुष्य की भी कोई खास नस्ल होती है, और उसकी रक्षा करना भी आवश्यक है।
   यह तो सभी जानते है कि आम कहने के लिये तो मात्र एक साधारण वृक्ष है, परन्तु उसमे भी कलमी , लगंडा, दशहरी, तोतापरी, सिन्दुरी आदि अनेकानेक जातिया पाई जाती है। जिनका आकार प्रकार, रंग रुप और स्वाद मे भिन्नता पाई जाति है। लंगडा के वृक्ष पर तोतापरी तो नही उगता, सफेदा सिन्दूरी हो सकता है क्या? पशुओ मे गाय व घोडो की बिशेष नस्ले पाई जाति है।
कुत्तो की नस्ल को सुरक्षित रखने के लिये  "बुलडाग" और "पप्पीडाग" जन्मानेवाली कुतिया को वर्णसंकरता से बचाने के लिये, (दुसरे कुत्ते के संपर्क से) रबड़ के जॉघिये पहनाए जाते है । अहो यह कितने आश्चर्य व शोक का बिषय है, कि आज मानव नस्ल की सुरक्षा की न केवल उपेक्षा की जा रही है, बल्कि जातिगत बिशेषताओ की रक्षा के किले- जन्मना वर्ण व्यवस्था, गोत्र प्रवर विचार, जाति उपजाति मे विवाह सम्बन्ध तथा भोजन सम्बन्ध आदि आदि वैज्ञानिक विधानो की धज्जियॉ उडाई जा रही है।
हिन्दू जाति ही एकमात्र ऐसी जाति है कि जिसने अपने वर्ण मे ही यौन सम्बन्ध को यथा तथा सुरक्षित रखा है। सात सौ वर्षो के मुस्लिम शाशनकाल मे हजारो क्षत्राणियो ने जौहर व्रत धारण कर सहर्ष जलती चिता मे प्रवेश किया। कालकूट का पान किया लेकिन अकबर महान की साम दाम भेद पुर्ण और औरंगजेब की दण्डपूर्ण सारी नीति व्यर्थ सिद्ध हुई। आर्यललनाओ ने अपनी  विशुद्ध कोख को गोमॉसभक्षक अनार्यो क् संसर्ग से दूषित नही होने दिया। फलस्वरुप हिन्दू हृदय सम्राट राणाप्रताप, छत्रपति शिवाजी महराज, श्री गुरु गोविन्द सिंह और वीर बन्दा बैरागी जैसो की नस्ल सुरक्षित रह सकी।
  1947 पाकिस्तान के जन्मकालीन हत्याकाण्ड के समय अनेको देविये अपने सतीत्व की रक्षा के लिये हँसते हँसते चिताओ पर चढ़ गयी। पुरे गॉव के गॉव सती हो गयी। इन कष्टपूर्ण कथाओ ने जहॉ हमारे हृदय को भस्म कर डाला वही इन बलिदानो के प्रकाश मे एक आशा की किरण भी सुस्पष्ट झलक पडी। आस्तिक जगत को पुनः यह निश्चित समझने का अवसर मिला कि हिन्दू जाति की "नस्ल " अभी सुरक्षित है।
सीता सावित्री और पद्मिनी का परम्परागत रक्त आज भी हिन्दू नारियो मे ठाठे मार रहा है। जब तक हमारी यह नस्ल सुरक्षित है तब तक हिन्दू जाति का बाल भी बॉका नही हो सकता इसप्रकार का उदात्त विचार एक बार फिर हमारे हृदय मे उद्बुद्ध हुए।
  यदि यह नस्ल समाप्त हो गयी तो एक बार फिर यहॉ भी जर्मनी के प्रसिद्ध नाजी नेता फील्ड मार्शल गोयरिंग की लाश पर उन्ही की विधवा पत्नी फिल्मस्टार  के रुप मे थिरक कर, पति के जानी दुश्मन, अंग्रेज, रसियन, अमेरिकन सैनिको से " वंस मोर हियर" वंस मोर हियर" की दाद चाहने वाली नचनिये देखने मे आयेंगी। मानवता मृत हो जाऐगी।
     दो विभिन्न जातियो के सांकर्य
छआछूत व जातिवाद का जन्म इस लिकं पर पढि़ए

कलियुगी ब्राह्मण क्यो है पथभ्रष्ट

श्रीराम!
कलियुग मे अधिकांश ब्राह्मण क्यो पथभ्रष्ट है?
एक समय की बात है, पृथ्वीवासीयो को कर्मदण्ड देने के लिये देवेन्द्र ने १५ वर्ष वर्षा नही की जिससे अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गयी। ऋषि गौतम की भक्ति से प्रसन्न होकर माता गायत्री ने उन्हे एक कल्पपात्र प्रदान किया । जिसके द्वारा इच्छित मात्रा मे अन्न धन प्राप्त कर, गौतम ऋषि ने ब्राह्म्णो की सेवा की। ब्राह्मणो का समूह वहॉ रहकर जीवन यापन करने लगा। इस प्रकार ऋषि गौतम की प्रसिद्धि की चर्चा देवलोक तक होने लगी। इस ख्याति से कुछ ब्राह्मणो को ईर्ष्या हुई। अतः षडयंत्र द्वारा ऋषि गौतम को नीचा दिखाने के उद्देश्य से , इन दुष्टस्वभाव वाले ब्राह्मणो ने एक ऐसी गाय जो मरणासन्न थी को महर्षि के आश्रम मे हॉक दिया। उस समय गौतम ऋषि पूजा कर रहे थे। उनके देखते देखते गाय ने प्राणत्याग दिया। तबतक वे नीचगण वहॉ पहुचकर गाय की गौतम ऋषि द्वारा हत्या कर देने का आरोप लगाया। ऋषि बडे दुःखित हुए। उन्होने समाधिस्थ होकर ध्यान लगाया तो सारा माजरा समझते ही अत्यंत कुपित हुए। और उन्होने ब्राह्मणो को श्राप दिया।
 अरे अधम ब्राह्मणो, अब से तुम गायत्री के अघिकारी नही रहोगे, वेदशाश्त्र मे तुम्हारा अधिकार नही होगा। तिलक, रुद्राक्ष, जनेऊ के अधिकारी नही रहोगे।पूजा पाठ कीर्तन मे अधिकार नही होगा। अतः तुम अधम ब्राहम्ण हो जाओ। तुम्हारे वंश मे जो जो स्त्री पुरुष जन्मेगें वे मेरे शाप से शापित होंगे।
तब वे लोग प्रायश्चित पुर्वक क्षमा मांगने लगे। कोमल हृदय ऋषि ने कहा मेरा श्राप मिथ्या नही होगा। अतः जबतक द्वापर मे कृष्ण का जन्म नही होजाता तब तक तुम लोग नरक मे रहो।कलियुग मे तुम लोग जन्मलेकर मेरे श्राप को भोगोगे।
गौतम ऋषि के श्राप से शापित वे ही ब्राह्मण इस कलिकाल मे त्रिकालसंध्या से रहित, गायत्रीभक्ति से हीन तिलक जनेऊ का परित्याग करने वाले ब्राह्मण जाति मे उत्पन्न हुए है। श्राप के प्रभाव से वेद मे श्रद्धा न रही। पाखण्ड का प्रचार करने वाले लम्पट और दुराचारी हुए है।
   (श्रीमद्देवीभागवत पुराण १२ वॉ स्कंध- ब्राह्मणो की कृतघ्न्ता व गौतम ऋषि का श्राप से।)

 मंत्र दीक्षा की संपुर्णज जानकारी के लिए एक विस्तृत व शाशत्रोक्त विवेचन

पूजा व मंत्र जप का सही तरीका

मंत्र सिद्धादि शोधन 

मंत्र शोधन के अपवाद 

 मंत्र ऋण धन शोधन विधि 

आयु व मंत्र के प्रकार किस आयु मे कौन सा मंत्र जपना चाहिए  

पूजा पाठ तरने वाले दुखी क्यो रहते है?

मंत्र सिद्धि के उपाय व लक्षण

क्या यज्ञोपवीत के बाद दुसरू शिक्षा लेनी चाहिये





मुसलमानो की उत्पत्ति व विस्तार

श्रीराम!
मुसलमानो की उत्पत्ति तथा विस्तार
     ।भविष्य पुराण।
हस्तिनापुर के राजा क्षेमक की हत्या म्लेच्छो ने कर दी, तब, क्षेमक के पुत्र प्रद्योत ने म्लेच्छो का संहारयज्ञ किया, जिससे उसका नाम म्लेच्छहंता पडा़।
म्लेच्छरुप मे कलि( जिसका यह युग है) ने ही राज्य किया था।तब कलि ने नारायण की पूजा कर दिव्य स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर नारायण प्रकट हुए। कलि ने उनसे कहा हेनाथ ! राजा प्रद्योत ने मेरे स्थान व प्रिय म्लेच्छो का विनाश कर दिया है। प्रभु मेरी सहायता करे!
    भगवान ने कहा - हे कले! कई कारणो से तुम अन्य युगो से श्रेष्ठ हो,अतः कई रुपो कोे धारण कर,मै तुम्हारी इच्छा पूर्ण करुगा! "आदम" नाम का पुरुष और हव्यवती ( हौवा ) नाम की स्त्री से म्लेच्छ वंश की वृद्धि करने वाले उत्पन्न होंगे। यह कर भगवान अन्तरध्यान हो गये।
    म्लेच्छो का आदि पुरुष आदम और उसकी पत्नी हौवा दोनो ने इंद्रियो का दमन कर ध्यान परायण हो रहते थे। कलियुग सर्परुप धारण कर हौवा के पासआया। उस धूर्त कलि ने गूलर के पत्ते मे लपेटकर दूषित वायुयुक्त फल धोखे से खिला दिया, जिससे हौवा का संयम भंग हो गया। इससे अनेक पुत्र हुए जो सभी म्लेच्छ कहलाए। इसी का एक वंशज न्यूह हुआ जो परम विष्णुभक्त था। भगवान ने प्रसन्न होकर उसके वंश की वृद्धि की। उसने वेदवाक्य व संस्कृत से बहिर्भूत म्लेच्छ भाषा का विस्तार किया, और कलि की वृद्धि के लिये ब्राह्मी भाषा को अपनाया। ब्राह्मी भाषा को लिपियो का मूल माना गया है। न्यूह के हृदय मे स्वंय भगवान विष्णुने प्रकट होकर उसकी बुद्धि को प्रेरित किया।इसलिये उसने अपनी लिपि को उल्टीगति से दाहिने से बॉए प्रकाशित किया। जो उर्दू, अरबी, फारसी और हिबूकी लेखन प्रक्रिया मे देखी जाती है।संस्कृत भाषा भारत मे ही किसी तरह बची रही।अन्य भागो मे म्लेच्छ भाषा मे ही लोग सुख मानने लगे।
दो हजार वर्ष कलियुग के बीतने पर विश्व की अधिकांश भूमि म्लेच्छमयी हो गयी। भॉति भॉति के मत चल पडे। मूसा नाम का व्यक्ति म्लेच्छो का आचार्य था।उसने अपने मत को सारे संसार मे फैलाया। कलियुग के आने सेभारत मे वेदभाषा व देवपूजा प्रायः नष्ट हो गयी। प्राकृत व म्लेच्छ भाषा का प्रचार हुआ। ब्रजभाषा व महाराष्ट्री ये प्राकृत भाषा के मुख्य भेद है, यावनी और गुरुकण्डिका( English) म्लेच्छ भाषा के मुख्य भेद है।
  म्लेच्छ भाषा मे षष्टी को सिक्स्टी,सूर्यवार को संडे, भ्रातृ को ब्रादर, पितृ को फादर, आहूति को आजू, जानू को जैनु, फाल्गुन को फरवरी कहते है।
   म्लेच्छदेश मे म्लेच्छलोग सुख से रहते है, यही कलियुग की बिशेषता है।
 अतः भारत और इसके द्वीपो मे म्लेच्छो का राज होगा, ऐसा समझकर आपलोग हरि का भजन करे।
      जय जय सीताराम!

कर्तव्य य अधिकार

श्रीराम!!!
         अधिकार या भार ( कर्तव्यपालन )
वर्तमान मे सभी प्रकार के संघर्ष य विरोध का एक मात्र मूल कारण है "अधिकार" , कोई कहता है, मुझे जनेऊ पहनने का अधिकार क्यो नही?, दूसरा कहता है, मुझे वेद पढ़ने का अधिकार क्यो नही?, तीसरा कहता है, मुझे मंदिर मे घुसने का अधिकार क्यो नही? चौथा कहता है, मुझे दण्डी संन्यासी बनने का अधिकार क्यो नही? सनातन धर्म मे जैसा यह अधिकार का द्वन्द चल रहा है, ठीक इसी प्रकार का द्वन्द, आर्थिक जगत मे, किसान व भूमिधर, मिल मालिक व मजदूर, विद्यार्थी व शिक्षक, इतना ही नही पत्नी और पति मे भी चल रहा है। आज अधिकार के नाम पर यहॉ वहॉ सर्वत्र बेवजह ही देवासुर संग्राम मचा हुआ है। अधिकारवाद  संघर्ष जन्य अनेक अनर्थो से डूबा मानव समाज यदि आज अधिकार वाद की रट लगाना छोड़कर कर्तव्यवाद के दृष्टिकोण से समस्त उलझी हुई समस्याओ को समाहित करने के लिये प्रयत्नशील हो जाए तो, संसार का चित्र ही बदल जायेगा।
जब हम अधिकार वाद को स्वीकार करते है, तो "कम परिश्रम मे अधिक लाभ" की प्रवृति को प्रकट करते है। यह प्रवृति जहॉ सामाजिक संगठन के लिये घातक नही, बिशेषरुप से घातक है, वही राष्ट्र के विकास मे भी बाधक सिद्ध होती है। इसलिये हमारे शाश्त्रो मे समस्त कार्यकलाप का विभाजन अधिकार के आधार पर नही बल्कि कर्तव्य पालन के आधार पर किया गया है। जैसे वेद पढ़ने का ब्राह्मण को अधिकार नही, किन्तु उसके कंधो पर यह भार है, कि वह भूखा रहकर भी वेद पढे। क्षत्रिय को युद्ध मे सर काटने का अधिकार नही, किन्तु वह देश, जाति, धर्म की रक्षा के लिये शिर कटाये यह उसक् मस्तक पर ईश्वर निहित भार है।
  अधिकार व भार का विश्लेषण करते हुए यह  बात समझ लेनी चाहिये कि अधिकार के प्रयोग मे अधिकारी स्वतन्त्र होता है, परन्तु भार तो न चाहते हुए भी कर्तव्य वशात धारण करना ही पड़ता है। यही कारण है कि ब्राह्मण जाति ने सुदामा की भॉति निर्धनता पूर्ण जीवन सहर्ष बिताते हुए भी आज के इस आधुनिक युग मे भी वेदो की पठन पाठन प्रणाली को अक्षुण्ण रखा है । यवनादि विदेशीआतताईयो से सहर्ष युद्ध मे लड़ते हुए क्षत्रिय वीरो ने अपने प्राणो की आहूति दी है। जिससे ही आज सनातन धर्म व धर्मी सुरक्षित बचे है। अन्यथा ये अधिकार की मॉग करने वाले आज न होते। इसलिये अनर्थकारी अधिकार वाद की दृष्टि से ही समस्त कार्यकलाप को देखने की प्रवृति को त्यागकर उसे कर्तव्यपालन - भार की दृष्टि से ही मनन करने की आदत डालनी चाहिये।
   कर्तव्यता के बिषय मे किसको,कब, कैसे, क्या करना चाहिये, यह सब बाते केवल शाश्त्र से ही पूछनी चाहिये। शाश्त्र जिसे जैसे कहे वह उसे वैसे ही करे जो न कहे उसे न करे। जैसे शाश्त्र द्वारा बताए कार्य न करने पर पाप होता है, वैसे ही शाश्त्र द्वारा मना किये कार्य को करने पर भी पाप होता है। सैनिक य पुलिस के लिये  जैसी वर्दी निर्धारित है, यदि वह आन डयूटी पर वैसा न पहने तो दण्ड का पात्र होता है। वैसे ही साधारण व्यक्ति पुलिस का स्वांग करके रौब गाठे तो वह भी दण्ड क पात्र होता है। इसलिये जिन द्विजाति ( ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य ) के लिये जो संस्कार समन्त्रक करने बताये है यदि वे न करेंगे तो पाप के भागी होंगे और जिन द्विजेतर पुरुषो के लिये जो संस्कार अमन्त्रक करने की या न करने की शाश्त्र ने छूट दे रखी है, वे यदि इसके विरुद्ध करेंगे तो अवश्य ही पातकी होंगे।
   कर्मलाप का विभाजन तो वर्ण और आश्रम के तारतम्य से कर्तव्यपालन के आधार पर हुआ है, परन्तु कर्म फल मे समान रुप से सभी को लाभ मिलता है।
 अधिकार व अनाधिकार से किये गये कर्म के बाहरी रुप से प्रत्यक्ष भले ही कुछ अन्तर न दिखाई पडे , परन्तु पुण्य पाप के तारतम्य से उससे उत्पन्न अदृष्ट फल मे महान अन्तर  पड़ता है, जैसे  एक अनाधिकारी पुरुष रात दिन अमुक को फॉसी दे दो पुकारे तो उसका बाल भी बाका नही होता किन्तु यदि यही शब्द जज की कुर्सी पर बैठा न्यायधीश सिर्फ एक बार कह दे तो तदनुसार उसे फॉसी दे दी जाएगी। यहॉ दोनो व्यक्तियो के वाक्य य शब्दो मे कोई अन्तर नही, केवल कर्तव्यपालन(अधिकार) का ही अन्तर है।
इस बिषय पर लिखा जाय तो एक ग्रंथ तैयार हो जाए, किन्तु आशा है,हमारा यह संक्षिप्त प्रयास पाठकोे के लिये बिषय को समझने मे सहयोगी हो सकेगा।
   जय जय सीताराम!

भक्तियोग और रामचरितमानस

सियावर रामचन्द्र की जय
भक्तियोग हीएक ऐसा सुलभ और स्वतंत्र अवलम्ब है, जिसके प्रभाव से, सर्व शक्तिमान भगवान कोभी भक्तो के प्रेमपाश मेबंधकर भक्त हृदय मे वास करना पड़ता है, अतः प्राणीमात्र के लिये भगवत प्रेमावलम्बन ही वास्तविक योग है, तथा ईश्वर के प्रति प्रेम की प्रधानता ही यथार्थ मे ज्ञान है|
 जोग कुजोग ग्यानु अग्यानु| जहँ नही राम प्रेम परधानू|
 सर्वप्रकार से चित्त को शान्तकर ईश्वर के चरणो मे, ध्यान लगाना, अर्थात अपने को ईश्वर के शरणागत करना ही भक्तियोग है|
 धर्म ते विरति योग ते ग्याना| ग्यान मोक्षप्रद वेद बखाना|
जबतक वर्णाश्रम आदि के अनुसार निजधर्म का पूर्णतः पालन नही किया जाता तबतक ( धर्म ते विरति) वैराग्य उत्पन्न न होगा, जब बैराग्य न होगा तो कर्मादिक फल का त्याग न होने से कर्मयोग न हो सकेगा जबतक कर्मयोग न होगा तबतक (योग ते ग्याना) ज्ञान न उत्पन्न होगा, और जबतक ज्ञान न होगा, तबतक मोक्ष न होगा| किन्तु भक्तियोग, भक्तो के लिये सुलभ, सुखद एवं स्वतंत्र अवलंम्ब है, जिसके द्वारा ईश्वर भक्तो के अधीन हो जाते है, फिर मोक्ष की बात ही क्या करना | प्रभु ने स्वंय कहा है,
जाते वेगि द्रवऊँ मै भाई, सो मम भगति भगत सुखदाई|
 सो सुतंत्र अवलंब न आना| तेहि ते अधीन ग्यान विग्याना|
 गृहस्थ और बैरागी दोनो ही प्रकार के लोगो हेतू, भक्ति मार्ग कैसे सुलभ है, श्री प्रभु  के मुखारविन्द से-
 संत चरण पँकज अति प्रेमा| मन क्रम बचन भजन दृढ नेमा|
 गुरु पितु मातु बंधु पतिदेवा| सब मोहि कहै जाने दृढ सेवा|
 मम गुन गावत पुलक शरीरा| गदगद गिरा नयन बह नीरा||
 काम आदि मद दंभ न जाके| तात निरंन्तर बस मै ताके||
 वचन कर्म मम मोरि गति भजन करहि निःकाम|
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करऊँ सदा विश्राम||
 सियावर रामचन्द्र की जय| |

जब गंगा जी भागीरथ द्वारा पृथ्वी पर लायी गयी तो राजा हरिश्चंद्र के समय काशी मे गंगा जी नही थी?

जब गंगा जी भागीरथ द्वारा पृथ्वी पर लायी गयी तो राजा हरिश्चंद्र के समय काशी मे गंगा जी नही थी?

जैसा की वर्तमान मे, गंगा जी के तट पर, हरिश्चंद्र घाट, मणिकिर्णकाघाट है। अतः सर्वजन के मानस पटल पर, गंगा जी का सर्वदा होना अंकित हो गया है।
 और वर्तमान मे अधिकांश श्मशान नदी तट पर होने से यह भाव सहज उत्पन्न होता है कि, राजा हरिश्चंद्र के समय भी नदी रही है। लेकिन जब आदरणीय श्री भागवत प्रवक्ता जी के विचार पर ध्यान दिया। और पुराणो मे  रोहिताश्व प्रसंग खोजना शुरु किया तो भविष्य पुराण मे, काशी के दक्षिण श्मशान का उल्लेख मिला किंतु वहा किसी नदी का होना उल्लेखित नही है। अन्य पुराणो मे भी जहा राजा हरिश्चंद्र का प्रसंग है। वहा सिर्फ काशी के दक्षिण मे श्मशान होने का ही उल्लेख है। नदी का नही । अतः यह स्पष्ट है कि गंगा जी भगीरथ के समय ही पृथ्वी पर लायी गयी है, उसके पुर्व गंगा जी धरती पर नही थी।
     कुछ धर्मद्रोही राजा हरिश्चंद्र के समय धरती पर गंगा जी के होने की मनगड़न्त बाते गढ़कर पुराणो के प्रति शंका उत्पन्न करने का दुः प्रयास कर रहे है।जबकि स्पष्ट रुप से भागीरथ के पुर्व गंगा जी के पृथ्वी पर न होने का उल्लेख पुराणो मे है।

वराहावतार दिग्दर्शन, वराहावतार रहस्य

श्रीराम!!!
#वराहावतार_दिग्दर्शन
धन ही पतन का कारण है, हम प्रायः समाज मे देखते है, उच्चतम ( धनाढ्य ) परिवारो मे, जो नये नये अमीर हुए है। पश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करने मे, सनातन सभ्यता का लोप कर, संस्कारहीन होते जाते है। और अन्य को भी पूछकटे सियार की भॉति, उसी का अनुकरण करने को बाध्य करते है। पुरुष का पुरुष से व नारी का पर पुरुष से, शारीरिक यौन संबध गौरव समझते है। विचार करते है, तो पाते है, कि इस पद्धति को गौरव मानने वाले नवीन अमीर ही अधिक है। धन को नियंत्रण न कर पाने के कारण संस्कार हीन होते जा रहे है। यहॉ कनक, कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय, पूर्णता चरितार्थ होता है। खैर, बिषय को लम्बा न खीचते हुए मुख्य बिंदु पर आते है।
हिरण्याक्ष अर्थात स्वर्ण की धुरी, धन के प्रति मोह लोभ उत्पन्न होना ही हिरण्याक्ष के जन्म का कारण है । विलासिता ही स्वर्णादि धन के लिये प्रेरित करती है।
धन से विलासिता बढ़ती है। अतः विलासिता को ही हिरण्याक्ष कहा गया है। मनुष्य विलासी होने पर संस्कार को महत्व नही देता, यह रजो गुण की वृद्धि हुई। जीव भोग विलास मे डूब गया।विलास मे खलल पडने पर क्रोध की वृद्धि हुई। जब क्रोध से खलल करने वाले को दबा दिया तो अहंकार उत्पन्न हुआ।अतः इस प्रकार उसके जीवन मे संस्कार का लोप होता है। तमोगुण की वृद्धि हुई।अर्थात तमोगुण मे जीव डूब गया। पंचतत्व निर्मित शरीररुपधारी जीव की उपमा पृथ्वी से की गयी है। मायामय संसार को अथाह सागर कहा गया है। काम, क्रोध मद लोभादि विकार ही मल मूत्र गंदगी है। विलासिता( हिरण्याक्ष), जीव( पृथ्वी) को, संसार सागर मे, मल, मूत्र, गंदगी (काम, क्रोधादि विकार)से ढक देता है!यही जीव का पतन है। इह लोक और परलोक दोनो मे ही जीव निन्दनीय हो जाता है। इसी मे पडे पडे जीव को जब काफी समय बीत जाता है। तब कभी जब जीव चिंतन करता है। अहो मेरी क्या गति हुई, जा रही है। मै परमात्मा से विमुख होता जा रहा हू। जीव छटपटा उठता है, उस स्थिति से बाहर निकलने के लिये दृढ प्रतिज्ञ होता है, उसमे सतो गुण की वृद्धि होती है। इस प्रकार दृढनिर्णय़ होना ही योग है, यही योग सतोगुण को बढानेवाला है। यह दृढ़ निर्णय ही कठोरशरीर वाला वराह है,जिसके उज्जवल दॉत सतोगुण है। यही "वराहावतार" है।यही वराह अपने उज्जवल दॉतो से मल मूत्र गंदगी को साफ करके पृथ्वी का उद्धार करता है। अर्थात वराह रुपी दृढ़निर्णय सतोगुणरुपी दॉत से मल, मूत्र , गंदगी रुपी विकार को हटाकर पृथ्वी रुपी जीव का कल्याण करता है।
  इस हेतु ही कहा गया है, कि
जो जल बाढै़ नाव मे, घर मे बाढै दाम!
दोऊ हाथ उलीचिए, यही सयानो काम!!
जय जय सीताराम!!!
पं. राजेश मिश्र 'कण'

शूद्र ही श्रेष्ठ है स्त्रीयॉ ही श्रेष्ठ है, कलियुग श्रेष्ठ है।

श्रीराम!
शूद्र ही श्रेष्ठ है! स्त्रीयॉ ही साधु है! युग मे कलियुग ही श्रेष्ठ है!
    शूद्र क्यो श्रेष्ठ है?
द्विजातियो को संपुर्ण कार्यो मे बंधन रहता है। पहले ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए। वेदाध्ययन करना पड़ता है।और फिर स्वधर्म का पालन करते हुए, उपार्जित धन से, विधिपूर्वक यज्ञ करने पड़ते है। इसमे भी व्यर्थ वार्तालाप, व्यर्थ भोजन और व्यर्थ यज्ञ उनके पतन का कारण होती है।उन्हे सदा संयमी रहना पड़ता है। सभी कामो मे विधि के विपरीत करने से उन्हे दोष लगता है। यहॉ तक की भोजन और पानी भी वे अपनी ईच्छानुसार नही भोग सकते। इस प्रकार वे अत्यंत क्लेश से पुण्य लोको को प्राप्त करते है। किंतु शूद्र के लिये कोई नियम नही है। वह मात्र द्विजो की सेवा करने से ही सद्गति को प्राप्त करते है, इसलिये वर्णो मे शूद्र ही श्रेष्ठ है ।
     स्त्री क्यो साधु है?
  पुरुषो को अपने धर्मानुकुल प्राप्त किये हुए धन से ही सुपात्र को दान और विधिपुर्वक यज्ञ करना चाहिये। इस धन के उपार्जन तथा रक्षण मे महान क्लेश होता है। और उसको अनुचित कार्य मे लगाने से भी मनुष्यो को जो कष्ट होता है वह ज्ञात ही है। किंतु स्त्रीयॉ तो तन मन वचन से पति की सेवा करने से ही पति के समान शुभ लोको को प्राप्त कर लेती है। जो कि पुरुषो को अत्यंत परिश्रम से मिलता है। इसलिये स्त्रीयॉ साधु है।
   कलियुग क्यो श्रेष्ठ है?
  जो फल सतयुग मे दश वर्ष तपस्या ब्रह्मचर्य व जप  करने से मिलता है, उसे त्रेता मे एक वर्ष द्वापर मे एक मास और कलियुग मे केवल एक दिन रात मे करने से प्राप्त होता है। जो फल सतयुग मे ध्यान त्रेता मे यज्ञ द्वापर मे देवार्चन करने से प्राप्त होता है, वही कलियुग मे श्रीकृष्ण का नाम- कीर्तन करने से प्राप्त होता है। कलियुग मे थोडे़ से श्रम से ही महान फल की प्राप्ति होती है। अतः कलियुग ही श्रेष्ठ है।
             विष्णु पुराण: कलिधर्म निरुपण, षष्ठ अंश दुसरा अध्याय

वेद, पुराण, उपनिषद आदि ग्रंथ हमारे लिये किस महत्व के, कितने उपयोगी है

श्रीराम!
पुराणों उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों में आहार, व्यवहार तथा उपचार सम्बन्धी मौलिक जानकारी दी गयी है। इनमे उत्तम सामाजिक संस्कार उत्पन्न करने की तकनीक है।
प्राचीन ग्रंथो के अनुसार मानव शरीर में तीन दोष पहचाने गये हैं जिन्हें वात, पित, और कफ़ कहते हैं। स्वास्थ इन तीनों के उचित अनुपात पर निर्भर करता है। जब भी इन तीनों का आपसी संतुलन बिगड जाता है तो शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है। रोग के लक्षणों को पहचान कर संतुलन का आँकलन किया जाता है और उपचार की क्रिया आरम्भ होती है। जीवन शैली को भी तीन श्रेणियों में रखा गया है जिसे सात्विक, राजसिक तथा तामसिक जीवन शैली की संज्ञा दी गयी है। आज के वैज्ञानिक तथा चिकित्सक दोनों ही इस वैदिक तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जीवन शैली ही मानव को स्वस्थ अथवा अस्वस्थ बनाती है। आज कल इसे ‘लाईफ़ स्टाईल डिजीज़ ’ कहा जाता है।
भारतीय समाज में पौरुष की परीक्षा विवाह से पूर्व अनिवार्य थी। मनु समृति में तपेदिक, मिर्गी, कुष्टरोग, तथा तथा सगोत्र से विवाह सम्बन्ध वर्जित किया गया है।

छुआछुत का प्रचलन भी स्वास्थ के कारणों से जुडा है। अदृष्य रोगाणु रोग का कारण है यह धारणा भारतीयों में युरोप वासियों से बहुत काल पूर्व ही विकसित थी। आधुनिक मेडिकल विज्ञान जिसे ‘जर्म थियोरी’ कहता है वह शताब्दियों पूर्व ही मनु तथा सुश्रुत के विधानों में प्रमाणिक्ता पा चुकी थी। इसीलिये हिन्दू धर्म के सभी विधानों सें शरीर, मन, भोजन तथा स्थान की सफाई को विशेष महत्व दिया गया है।
आज भारतीय, शास्त्रो , सद्ग्रन्थों और संस्कृति से दूर होते जा रहे है जो कि आज के मानव समाज के कष्टप्रद जीवन होने का मुख्य कारण है। जैसे कोई कंपनी कोई प्रोडक्ट लांच करती है और उसके साथ एक मैन्युअल (छोटी पुस्तिका) भी साथ में देती है। ये मैन्युअल, हमें उस प्रोडक्ट को कैसे उपयोग में  लाना है इस बारे में सहायता करता है। अगर हम बिना मैन्युअल के ही प्रोडक्ट यूज़  करे तो हो सकता है कि हम उसे सही ढंग से यूज़ न कर पाये। उसी तरह ईश्वर ने इस संपूर्ण ब्रम्हांड की रचना की है और उसके साथ वेद , पुराण आदि ग्रंथो की भी रचना की है जिससे हम सही ढंग से आनंदमय जीवन जी सके और इस पृथ्वी और प्रकृति का आनंद ले सके।

वेद इस सृष्टि के आदि ग्रन्थ और खुद ईश्वर के द्वारा रचित है। इन ग्रंथो में जीवन से सम्बंधित सभी पहलुओ पर बहुत विस्तार से चर्चा की गयी है।  दुर्भाग्य से समय के साथ हम दूर होते चले गए और सच्चे जीवन जीने की कला से भी दूर हो गए। हमारी सनातन संस्कृति में वेद ,  पुराण और उपनिषदों की रचना हुई है। परन्तु आज हमें इसका ज्ञान नहीं है और हमारे शिक्षा व्यस्था भी ऐसी है की जो कुछ भी ज्ञान बचा हुआ है उसे आने वाली पीढ़ियों  तक इसे नहीं पंहुचा पा रही है।

हमारी पुरातन जीवन जीने की पद्धति विशुद्ध  वैज्ञानिक और प्रकृति के साथ बेहतर तालमेल रखने पर आधारित थी। आज का आधुनिक विज्ञानं भी इस तथ्य को स्वीकार कर चुका  है। अमेरिका में स्थित नासा इंस्टिट्यूट ने स्पेस टेक्नोलॉजी कोर्स के लिए संस्कृत अनिवार्य कर दिया है लेकिन हमारे देश में ही लोगो के अपने इस खजाने से दूर रखा जा रहा है और आधुनिक जीवन और दिखावे की जीवन शैली में निरंतर फसते  जा रहे है।

वेदो को हम श्रुति भी कहते है जिसका अर्थ है सुनने वाला ज्ञान। प्राचीन समय में मानव मस्तिष्क  इतना उन्नत था कि वो सुन कर ज्ञान ग्रहण कर सकता था।  फिर पुराणो में कहानी को माध्यम बना कर उसी ज्ञान को कथा के माध्यम से जन सामान्य मे प्रसारित किया गया
अगर आज हम सिर्फ  रामचरितमानस और भगवद्गीता को ही सही अर्थो में समझ ले और इसके सूत्रों को जीवन में उतार सके तो मेरा दावा हैं कि मानव समाज को अभूतपूर्व लाभ होगा और समाज में सभी लोग आनंदमय जीवन जी सकेंगे।
सदशाश्त्रो से हमे, जीने की कला का ज्ञान होता है।
  अगर यह शाश्त्र न हो तो निश्चय ही हम इन गुणो से वंचित होते।

राम नाम महिमा

नाम स्मरण महिमा
श्री राम जय राम जय जय राम' - यह सात शब्दों वाला तारक मंत्र है। साधारण से दिखने वाले इस मंत्र में जो शक्ति छिपी हुई है, वह अनुभव का विषय है। इसे कोई भी, कहीं भी, कभी भी कर सकता है। फल बराबर मिलता है...... ।
 राम नाम सब कोई कहै, ठग ठाकुर अरु चौर|
 तारे ध्रुव प्रहलाद को वहै नाम कछु और||
     नाम का उच्चारण मात्र करने से, नाम की पवित्रता के कारण फल तो अवश्य ही मिलता है किन्तु बहुत अधिक नही| देवी य देवता का नाम लेते ही मानस पटल पर उस देवी य देवता का रुप दिखायी पडना, उनके गुण कर्मो का स्मरण होना चाहिये, भगवान का सर्वोतमतत्व और अपना अत्यंत क्षुद्रत्व ध्यान मे आना चाहिये, ईश्वर की अपार दया प्रेम से हृदय गद्गद होकर उनके स्वरुप मे मिलने का प्रयत्न होना चाहिये| ऐसे ही नाम स्मरण की महिमा गायी जाती है|
 राम नाम सब कोई कहै, दशरित कहे न कोय|
 एकबार दश रित कहे, कोटि यज्ञ फल होय||
 प्रयुक्त दोहे मे दशरित जिन्हे कहा गया है, वे ही दश नामापराध है, जिनसे नाम स्मरण " रित" ( रिक्त) होना चाहिये | ये नामापराध है- १. निन्दा २. आसुरी प्रकृतिवाले को नाम महिमा बतलाना ३. हरि हर मे भेद दृष्टि रखना ४. वेदो पर विश्वाश न करना ५. शाश्त्रो पर अविश्वाश ६. गुरुपर अविश्वाश ७. नाम महिमा को असत जानना ८. नाम के भरोसे निषिद्ध कर्म करना ९. नाम के भरोसे विहित कर्म न करना १०. भगवन्न नाम के साथ अन्य साधनो की तुलना करना |
    इन दश का परहेज रखा जाय तो नाम जप से शीघ्र परम सिद्घि प्राप्त होती है, इसमे तनिक भी संदेह नही है|

काली रहस्य

काली माता के रुप का अर्थ- भगवती के मुख पर मुस्कान बनी रहती है, जिसका अर्थ है, कि वे नित्यानन्द स्वरुपा है।देवी के होठो से रक्त की धारा बहने का अर्थ है, देवी शुद्ध सत्वात्मिका है, तमोगुण व रजोगुण को निकाल रही है।
देवी के बाहर निकले दॉत जिससे जीभ को दबाए है, का भावार्थ रजोगुण तमोगुण रुपी जीभ को बाहर कर सतोगुण रुपी उज्जवल दॉतो से दबॉये है।
भगवती के स्तन तीनो लोको को आहार देकर पालन करने का प्रतीक है, तथा अपने भक्तो को मोक्षरुपी दुग्धपान कराने का प्रतीक है।
मुण्डमाला के पचास मुण्ड पचास मातृकावर्णो को धारण करने के कारण शब्दब्रह्म स्वरुपा है। उस शब्द गुण से रजोगुण का टपकना अर्थात सृष्टि का उत्पन्न होना ही, रक्तस्राव है
भगवती मायारुपी आवरण से आच्छादित नही है, माया उन्हे अपनी लपेट मे ले नही पाती, यह उनके दिग्म्बरा होने का भावार्थ है।
भगवती शवो के हाथ की करधनी पहने है- शव की भुजाए जीव के कर्म प्रधान हो ने का प्रतीक है, वे भुजाऐं देवी के गुप्तांग को ढॉके हुए है अर्थात नवीन कल्पारंभ होने तक देवी द्वारा सृष्टिकार्य स्थगित रहता है। कल्पान्त मे सभी जीव कर्म भोग पूर्णकर स्थूल शरीर त्यागकर सूक्ष्म शरीर के रुप मे कल्पारंभ पर्यंत जबतक कि उनका मोक्ष नही हो जाता, भगवती के कारण शरीर मे संलग्न रहते है।
देवी के बाए हाथ मे कृपाण वाममार्ग अर्थात शिवजी (शिवजी का एक नाम वामदेव) के बताए मार्ग पर चलने वाले निष्काम भक्तो के अज्ञान को नष्ट कर, उन्हे मुक्ति प्रदान करती है।
देवी के नीचे वाले बॉए हाथ मे कटा सिर वाममार्ग की निम्नतम मानीजाने वाली क्रियाओ मेभी रजोगुण रहित तत्वज्ञान केआधार मस्तक (शुद्धज्ञान) को धारण करने का प्रतीक है।
कालीरुप जिस प्रकार लाल पीला सफेद सभी रंग काले रंग मे समाहित हो जाते है उसी प्रकार सभी जीवो का लय काली मे ही होता है,
भगवती कानो मे बालको के शव पहनी है जो बाल स्वभाव निर्विकार भक्तो की   ओर कान लगाऐ रहती है अर्थात उनकू प्रत्येक कामना ध्यान से सुनती है,इसका प्रतीक है।

काली गायत्री मंत्र- कालिकायै विद्महे, श्मशानवासिन्ये धीमही, तन्नोदेवी प्रचोदयात्।
काली अर्थात काल ( शिव ) की पत्नी। माता काली के रुप-भेद अनेक है, किंतु  जिनमे महाकाली, भद्रकाली, श्मशान काली, दक्षिणा काली, चिन्तामणि काली, स्पर्शमणि काली, संततिप्रदा काली, सिद्धि काली, कामकला काली, हंस काली, गुह्य काली, प्रमुख ११ भेद है। काली के ये भेद वस्तुतः काम्य भेद है। येअनेकानेक भेद आभासी है। मूलतः सभी एक ही शक्ति के विविध रुप है। जो देवी के भक्तगण अपनी कामना के अनुरुप भासते है।और भगवती आद्यकाली, जो अजन्मा तथा निराकार है, अपने भक्तो पर कृपालु होकर उनके हृदयाकाश पर अभिलाषित रुप मे साकार हो जाती है। और इस प्रकार देवी भगवती निराकार होते हुए भी साकार है।

जो साधक सभी प्रकार की सिद्धि देनेवाली माता काली का ध्यान व मंत्रजप करता है, वह तीनो लोको को वश मे कर सकता है, इस संसार मे उसके लिये दुर्लभ कुछ नही। भगवती काली के मंत्र साधारण विधियो व अल्पश्रम से ही सिद्ध हो जाते है। और साधक को मनोवांछित फल प्रदान करते है।
   किसी भी मंत्र की सिद्धि के लिये गुरु से दीक्षित होना अनिवार्य है। गुरु की कृपा आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन के बिना कोई भी मंत्र सिद्ध नही हो पाता।

सर्व सिद्धिदायक काली मंत्र व विधि

एक गुरु की खोज,गुरु कैसे नष्ट करे शिष्य के पाप, कैसे हो गुरु,

श्रीराम,
गुरु कैसे नष्ट करे शिष्य के पाप:
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सनातन धर्म मे गुरु की बडी महिमा कही है। गुरु को ईश्वर के समान पूज्यनीय वंदनीय कहा गया है।धार्मिक कृत्यो का पुण्यफल बिना गुरुदीक्षा के प्राप्त नही होता।ब्यक्ति बिना गुरुदीक्षा के धार्मिक कृत्य का अधिकारी नही होता।
      वर्षो से मै देख रहा हू, सामान्यजन मे व आध्यात्मिक समूह मे गुरु पद को लेकर काफी संशय, विरोधाभास,जिज्ञासा की स्थिति बनी हुई है, लोगो को निर्णय लेने मे असुविधा है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है, कारण की गुरुव्यापार की गतिविधि मे भेड़ झुण्ड की तरह एक जिधर निकला, पीछे पीछे अनेक हो लिये। अब एक गुरु लाखो शिष्यो पर ध्यान दे तो कैसे? अब चर्चा आती है ,सदगुरु, ब्रह्मवेत्ता की, तो क्या ब्रह्मवेता,ब्रह्म की उपासना छोड व्यापार करेगें। स्वघोषित सदगुरु और इनके, ब्रेनवाशडशिष्य, मेच्योर्ड हो गये है और कुशल सेल्समैन की भॉति मोटीवेट कर ही लेते है।जैसे गडेरियॉ भेडो को झुण्ड को नियंत्रित करता है।
  मेरा यह लेख उन जिज्ञासुओ को संबोधित है, जो संशय मे है, य ब्रह्मवेत्ता की खोज मे है।
गुरु वह है जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए। प्रथम गुरु माता होती है, द्वितीय गुरु पिता, और तृतीय गुरु आचार्य हैं, जो ज्ञान का प्रकाश देकर सफलता का मार्ग दिखाते है।
सदगुरु कौन है? -- जो धर्मग्रंथो का सार निकालकर भक्ति का मार्ग सुनिश्चित करे, जो निज स्वरुप और सच्चिदानंद परमात्मा मे एकता स्थापित कर, आत्म साक्षात्कार करा सके वही सदगुरु है। किंतु कलिकाल मे, ऐसा गुरु मिलना सहज नही कठिन है। और मिल भी जाय तो, तो उससे लाभ पाना कठिन है, क्योकि, हम प्राथमिक माध्यमिक की शिक्षा छोड़कर सीधे डिग्री नही ले सकते। और जो लेना चाहते है वह सफल नही हो सकते। और यदि ले भी ली तो वह डिग्री फर्जी ही होगी। ठीक उसी तरह , सदगुरु के लिये सद शिष्य होना चाहिये।अतः सर्वप्रथम सदशिष्य बनना होगा।
भक्तिमार्ग मे आगे बढ़ने हेतु, शाश्त्रोक्त गुरु की आवश्यकता है।
योजयति परे तत्वे स दीक्षायाऽऽचार्य मूर्तिस्यः।(अग्निपुराण, दीक्षा प्रकरण)
सभी पर अनुग्रह करनेवाले परमेश्वर ही, आचार्य शरीर मे स्थित होकर दीक्षाकरण द्वारा जीवो को परमशिव तत्व की प्राप्ति कराते है।
 अतः यह अनिवार्य नही है कि अाप ब्रह्मविद, अलौकिक शक्ति सम्पन  सदगुरु की खोज मे जीवन भर निगुरे ही रह जाये।

         शाश्त्र मत है कि किसी भी ऐसे ब्राह्मण को, जो वेद, पुराण, शाश्त्र का अध्ययन करनेवाला हो/ ज्ञाता हो, जो नियमित संध्या करता हो, जो मृदुभाषी,शांत स्वभाव का हो, जिससे आवश्यकता पडने पर संवाद करना दुर्लभ न हो, जिससे मिल पाना दुर्लभ न हो, जो उत्सवादि होने पर निमंत्रण देने पर आपके स्थान को अपने चरणरज से पवित्र कर सके, जिससे मंत्रणा की जा सके। जो आपके पापो को जानकर उनका शमन कर सके। उपरोक्त सभी गुण य अधिकांश गुणजिस ब्राह्मण मे हो उसे तत्काल सहर्ष गुरु रुप मे पाने का निवेदन करना चाहिये। सिर्फ ऐसा व्यक्ति ही अध्यात्म मे सहायक होकर भवसागर से पार करा सकता है।
गुरु शिष्य के पापो  को कैसे जान लेता है-
 #अन्तेवासकृतं पापं जानीयादग्नि लक्षणैः।
अग्नि परीक्षा के द्वारा योग्य गुरु शिष्य के लक्षणो से पापो को पहचान कर,पाप भक्षण निमित्तिक होम से उस पाप को जला डालते है। ये लक्षण कैसे है वह मै कहता हू-
१. अग्नि से बिष्ठा की दुर्गंध- ब्रह्महत्यारा, भूमिहर्ता,गुरु घाती।
२.मुर्दे की बदबू-, गर्भ हत्यारा, स्वामीघाती।
३.आग मे कंपन होना- स्वर्ण की चोरी करनेवाला।
४. आग की लपट का चारो ओर घूमना- स्त्रीवध जनितपाप।
५. आग का निस्तेज होना- गर्भघाती।
 इस प्रकार विविध लक्षणो को पहचानकर शिष्य के पापो को दूर करना एक सच्चे गुरु का कर्तव्य है।
श्रीराम,
दीक्षा लेने का शुभाशुभ-
जो चैत्र मास मे दीक्षा लेवे तो बहुत दुःख पावै,वैशाख मे रत्नलाभ, ज्येष्ठ मे मृत्यु आषाढ़ मे भाई का नाश, श्रावण मे शुभ, भाद्रपद मे सन्तान का नाश, आश्विन मे अत्यन्त सुख प्राप्त करे, कार्तिक मे मंत्र दीक्षा ले तो धन की वृद्धि, मार्गशीर्ष मे शुभ हो, पौष मे ज्ञान की हानि,माघ मे ज्ञान की वृद्धि, फाल्गुन मे दीक्षा लेवे तो सौभाग्य और यश बढे़।
दीक्षा लेने का मुहुर्त:- मंगलवार और शनिवार ये दोनों वार छोड़कर सभी अनुकूल हैं। अतः रविवार, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार अथवा शुक्रवार को ही गुरु की कृपा लेने का प्रयास करना चाहिए। 

तिथि :   द्वितीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, त्रयोदशी और पूर्णिमा की तिथियां शुभ होती हैं।

नक्षत्र :  हस्त, अश्विनी, रोहिणी, स्वाति, विशाखा, ज्येष्ठा, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रेपद, श्रवण, आर्द्रा, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र उत्तम माने गए हैं। अतः दीक्षा, परामर्श, साधना, प्रयोग आदि में निर्देशानुसार इन्हीं में से किसी नक्षत्र की समयावधि का उपयोग करना चाहिए। सर्वसम्मत मान्यता यह है कि पुष्य नक्षत्र का प्रभाव सर्वाधिक उत्तम और कल्याणकारी होता हे। केवल विवाह संस्कार को छोड़कर और कोई भी पुष्य नक्षत्र में बिना अन्य किसी नियम प्रतिबंध का विचार किए ही किया जा सकता है। जैसा कि प्रारंभ में लिखा जा चुका है, मंत्र साधना के लिए गुरु पुष्य योग और तंत्र साधना के लिए रवि पुष्य योग को सर्वश्रेष्ठ और सशक्त मुहूर्त माना गया है।

लग्न : कर्क, वृश्चिक, तुला, मकर और कुंभ लग्नों को श्रेष्ठ माना गया है। इस प्रकार दीक्षा (अभीष्ट कार्य के लिए गुरु-विद्वान का परामर्श) लेने में यदि उपरोकत कालखंडों के आधार पर किसी शुभ मुहूर्त का उपयोग किया जाए तो साधना में सफलता की पूर्ण संभावना बन जाती है।

मै कौन हू? मेरी पहचान क्या है?

मै कौन हू ?
प्रश्न का उत्तर कठिन नही समझना कठिन लगता है| कारण कि मै स्वयं को पहचान नही पा रहा? मेरा नाम तो मै नही क्योकि होता तो मै यह प्रश्न नही करता, आज जो मेरा नाम है, यदि किसी कारणवश बदल दिया जाय तो क्या मै बदल जाउगा नही न , तो मेरा नाम मै नही ।यह शरीर भी मै नही, क्योकि जन्म जन्म मे शरीर बदलता रहताहै,  मेरी पहचान भी मै नही, पहचान भी बदलती रहती है।तो फिर मै कौन?
जीवन्नपि मृत एव- एक ऐसा जीव जो कहने को जीवित होते हुए भी मुर्दा ही है, क्योकि स्वंय की पहचान नही रास्ते का ज्ञान नही  लक्ष्य का पता नही, अत: दुसरो से पुछते है ,मै कौन? मुझे जाना कहॉ? किस रास्ते से?
विचार करते है तो पाते है कि  बिना लक्ष्य को जाने अपनी पहचान न मिलेगी अत: लक्ष्य की पहचान प्रथम आवश्यक है| प्रत्येक मनुष्य के मन मे एक ही क्षण मे अनेक विचार उत्पन्न होते हैऔर उनमे बारंबार परिवर्तन भी होते है,अत: विभिन्न प्रकार के मनुष्यो मे लक्ष्य मे भिन्नता होगी, किन्तु तनिक गहराई से विचार करने पर हम पाते है कि वास्तव मे सभी मनुष्यो का एक ही लक्ष्य है, जैसे - कोई पैसो के पीछे पडा है कोई स्वास्थय के, कोई विद्या चाहता है तो कोई कीर्ति का भूखा है, इसे ही मनुष्य सच्चा लक्ष्य मानकर उसी की प्राप्ति का अथक प्रयास करता है| किन्तु ऐसा चाहने वाले किसी से पूछा जाय कि वह जो चाहता है क्यो चाहता है? तो एक स्थान पर सभी का उत्तर एक ही होगा आनंद की प्राप्ति| जैसे पैसा चाहने वाले से पूछा जाय कि पैसा क्यो चाहता है तो वह कहेगा कि मै अमुक वस्तु का उपभोगं करुगॉ, क्यो करेगा? उससे मुझे आनंद मिलेगा, तू आनंद क्यो चाहता है? आनंद चाहना स्वभाविक है, यहॉ कोई नही कहता कि अमुक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये आनंद चाहता हू, अर्थात आनंद ही एक लक्ष्य है| बल , स्वास्थय, विद्या, कीर्ति आदि सभी के बारे मे यही प्रश्नोत्तर होते है| यहॉ एक बात स्पष्ट होती है कि विचार मे जितने भेद है सभी साधन के बारे मे है लक्ष्य सबका एक है| हम सबके भीतर रहनेवाले इस शाश्वत  अखण्ड आनंदरुपी लक्ष्य के क्या क्या लक्षण है यह किसी प्रमाण से नही स्वंय अपने ही हृदय से पुछिये तो १. किसी मरणासन्न व्यक्ति जिसके सभी अंग शिथिल हो ऐसा व्यक्ति भी जीवित रहना चाहता है सभी जीव सदैव जीवित रहना चाहते है.यह स्वभाविक है यह प्रथम लक्ष्य है जो किसी अन्य लक्ष्य का साधन नही|
२. अपने दिल से पुछनेपर  हम सब जीवित रहते सभी पदार्थो को जानना अर्थात ज्ञान दुसरा लक्ष्य है|
३.दु:ख क्लेश से रहित शुद्ध परिपूर्ण अखण्ड सुख तीसरा लक्ष्य है|
४.परतंत्रता ही दुःख और स्वतंत्रता ही सुख है, अत: स्वतंत्र रहना चौथा लक्ष्य है|
५.अब सवाल उठता है कि क्या शाश्वत जीवन , अखण्ड ज्ञान, परिपूर्ण आनंद एवं स्वतंत्रता मिलने पर हम तृप्त हो जाते है? नही . क्योकि एक पॉचवी इच्छा स्वभाविक होती है कि अब हमारी इच्छानुसार  दुसरे समस्त जीव लोग चले ,अर्थात हमपर किसी का शाशन न हो सब पर हम शाशन करे| यह पंचवा लक्ष्य ईश स्वरुप है|
६. विचार करने पर जब उपरोक्त पॉच लक्षणो की प्राप्ति के बाद चौदह भुवनो मे कोई ऐसी वस्तु नही मिलती जिसकी इच्छा हो कोई छठा लक्षण नही मिलता|
अब विचार करे कि ये पॉच लक्षणो से लक्षित लक्ष्य का नाम परमेश्वर ही है जिसे शाश्त्र ग्रथं मे बताया है, और कही न मिलेगा| अर्थात हम सब नर होकर नारायण के लक्षण को नजानते हुए भी नारायण ही बनना चाहते है ऐसा क्यो? क्योकि हम इसी ईश्वर के अंश रुप एक ऐसा बिंदु है जिसकी अलग से कोई अपनी पहचान नही कोई नम्बर  नही, मात्र ईश्वर अंश होने से उसके गुणो की तरफ आकृष्ट होकर  उसमे ही पुनः समाहित होने के लिये उसकी तरफ अनजाने ही खिच रहे है | लेकिन यह मै का पर्दा इस मायाजाल रुपी सागर मे तैरा रहा है|
 जब यह मै रुपी पर्दा हटता है, तब अनायस ही "अहं ब्रह्मास्मि" का बोध होता है। 

जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...