श्रीराम ने किया मांस से पिण्डदान

 


श्रीराम ।

संप्रति ऐसी परिस्थिति बन गई है कि, जहॉ मांस का प्रयोग आता है, वहॉ पक्ष विपक्ष में वार्ता के बीच, तनावपुर्ण , लज्जापुर्ण स्थिति बन ही जाती है।  पुर्वाग्रह विवाद का कारण बनता है। अतैव ऐसे बिषय में चर्चा से बचना चाहिए। तथापि जब समक्ष ऐसा प्रश्न आ जाता है, तो शाश्त्रमत रखना अभीष्ट है।

शाश्त्रों में , मांस भक्षण के पक्ष व विपक्ष में अनेकानेक प्रमाण मिलते है। 

  , संप्रदाय विशेष के अनुसार भेद विचारणीय है। वैष्णव संप्रदाय मांसभक्षण विरोधी है, जबकि शाक्त संप्रदाय समर्थक।  बंगाल, उडी़सा, बिहार का मिथिलांचल आदि में मांसभक्षण की बहुलता है। 

जहॉ भी मांस भक्षण, प्रचलित है, वहॉ संप्रदाय की प्रधानता विचारणीय है।

मैैने इस बिषय पर, काफी गहनता से पक्ष विपक्ष का अवलोकन करने का प्रयास किया। 

वैष्णव संप्रदाय का प्रभाव व पक्ष बली होने से, लोगो में मांसभक्षण विरोधी छवि पलती, बढ़ती गई।

 इस बिषय पर अधिक विस्तार करना समय व्यर्थ करना ही है।

 

मांस ही क्यो ? बहुत सी ऐसी वस्तुए है, जिनका प्रयोग श्राद्ध मे वर्जित है, फिर भी प्रयोग किये जाते है। जैसे केला, सूरण, कोहडा़ आदि का प्रयोग श्राद्ध में निषिद्ध है, लेकिन इनका प्रयोग भी देखा ही जाता है।

हैं-


देवान् पितॄन् समभ्यर्च्य खादन् मांसं न दोषभाक्।।


श्राद्ध में तो मत्स्य और मांस की विशेष प्रधानता दी गई है. शाक्त संप्रदाय के लोगों के श्राद्ध कर्म में सूरन, केला, बड़-बड़ी के साथ मछली का व्यंजन बनाने का प्रचलन है. सूरन और केला की सब्जी का सम्मिश्रण केवल पितरों को दिया जाता है. अन्य दिन लोग नहीं खाते हैं. उसी प्रकार पाठीन ( पढ़िना) मछली केवल पितरों को खिलाया जाता है।  


सर्वमांसमयो मीनः पाठीनस्तु विशेषतः।।


मधुपर्के च यज्ञे च पितृदैवतकर्मणि।


अत्रैव पशवो हिंस्या: नान्यत्रेत्यब्रवीन्मनु:।।


मधुपर्क, यज्ञ, श्राद्ध एवं देवपूजा इन चारों में पशुओं का वध करने का विधान है. अन्य अवसर पर नहीं. अन्य अवसर पर हिंसा करना राक्षसों का काम है. 


यज्ञाय जग्धिर्मांसस्येत्येष दैवो विधिः स्मृत:।


अतोऽन्यथाप्रवृत्तिस्तु राक्षसीविधिरुच्यते।।


यज्ञ के लिए पशुओं का वध करना तथा उनका मांस भक्षण करना देवोचित कार्य है. यज्ञ के अतिरिक्त केवल मांस भक्षण के हेतु पशु का वध करना राक्षसी कर्म है.




नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नाति मानव:।


स प्रेत्य पशुतां याति सम्भवानेकविंशतिम्।।


श्राद्ध तथा मधुपर्क में जो व्यक्ति पितरों को विधि के अनुसार मांस अर्पण करके स्वयं मांस भक्षण नहीं करता, वह मृत्यु के बाद इक्कीस बार पशुयोनि में जन्म लेता है. ऐसे व्यक्ति को ही पितरों के श्राद्ध मांस से करना चाहिए, जो स्वयं मांस खाते हों, उसी पर उपयुक्त नियम लागू होता है. जो शाकाहारी हैं उन्हें पितरों को मांस अर्पण करने की आवश्यकता नहीं. महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है-


यदन्नः पुरुषो भवति तदन्नास्तस्य देवताः।।


ये बातें मध्यकाल में नहीं जोड़ी गयीं. बहुत पहले से चली आ रही है. वाल्मीकि तो बहुत पहले हो चुके हैं, उनके शब्दों में वर्णन देखें. राम ने जटायु का दाह संस्कार किया. जटायु दशरथ के मित्र थे, तो श्रीराम ने वैसे ही श्राद्ध किया. जैसे लोग अपने चाचा के लिए करते हैं. वाल्मीकि ने रामायण के अरण्यकाण्ड के 68वें सर्ग में लिखा है-


स्थूलान्हत्वा महारोहीननुतस्तार तं द्विजम्।


रोहिमांसानि चोत्कृत्य पेशीकृत्य महायशाः।।33।।


शकुनाय ददौ रामो रम्ये हरितशाद्वले।


यत्तत्प्रेतस्य मर्त्यस्य कथयन्ति द्विजातयः।।34।।


तत्स्वर्गगमनं तस्य पित्र्यं रामो जजाप ह।


जब राम जटायु का दाह-संस्कार कर पिण्डदान करने लगे तो उन्होंने एक मोटे हिरन को मारा और उसका मांस निकाल कर उससे पिण्ड बनाया. उन पिण्डों को हरी घास पर रखकर पक्षियों के लिए अर्पित किया. प्रेत के स्वर्ग जाने के लिए जो-जो मन्त्र ब्राह्मण पढ़ाया करते हैं उन मन्त्रों का जप राम ने किया. 

 उत्तर भारत में श्राद्ध और पिंडदान में शास्त्रीय विधान और व्यवहार लगभग एक जैसे ही देखने को मिलते हैं, लेकिन सनातन धर्म में वैष्णवों की श्राद्ध पद्धति और शाक्तों की श्राद्ध पद्धति को लेकर दूसरे क्षेत्रों में आज बड़े पैमाने पर भ्रम की स्थिति पैदा हुई है. लोग शाक्तों की श्राद्ध पद्धति को न केवल नकारने लगे हैं, बल्कि कई जगहों पर विरोध करने लगे हैं. यह एक चिंता का विषय है.







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