वास्तु ब्रह्मस्थान

   




ब्रह्म स्थान से तात्पर्य भूखंड का केन्द्रीय स्थान है। इसका क्षेत्रफल कुल भूखंड के क्षेत्रफल के अनुपात के आधार पर तय होता है। साधारण घरों के लिए 81 पद की वास्तु बताई गई है, जिसमें 9 x 9 = 81 पदों में से 9 पद ब्रह्मा के बताए गए हैं। इससे ब्रह्मा का स्थान पूरे भूखंड का 9वां भाग हुआ। लोग भ्रमवश किसी भी भूखण्ड के एकदम केन्द्रीय स्थान को ही ब्रह्म स्थान मानते हैं। जब मर्म स्थानों की गणना करते हैं, जहां कि कोई निर्माण घातक सिद्ध हो सकता है तो वह मर्म स्थान इन 9 पदों में पड़ते हैं न कि केवल केन्द्रीय बिन्दु पर। अत: जिस क्षेत्र को निर्माण कार्यों से या अन्य बाधाओं से बचाना है, वह पूरे भूखण्ड का 9वां भाग होता है  और उस नवें भाग में कुल मिलाकर 15 या 20 मर्मस्थान चिह्नित करने पड़ते हैं। यदि भूखण्ड 100 वर्गगज का हुआ तो ब्रह्म स्थान 10 वर्ग गज का हुआ परंतु यदि भूखण्ड का क्षेत्रफल 900 वर्ग गज का हो तो ब्रह्म स्थान का क्षेत्रफल 100 वर्गगज होता है। ब्रह्म स्थान का क्षेत्रफल भूखण्ड के क्षत्रफल के अनुपात घटत या बढ़ता है।

यदि 81 पद या वर्ग के स्थान पर 100 पद की वास्तु लागू करें जो कि देवप्रसादों या उनके मण्डपों के लिए की जाती है तो ब्रह्मा का स्थान 16 पद हो जाता है। यह अनुपात 6.25 आया। अर्थात भूखंड का 9वां भाग न होकर 6.25 भाग आया।

यदि 64 पद का भूखण्ड लिया जाए जिसे कि मानसार में मंदिर के लिये प्रसिद्ध बताया गया है या राजाओं के शिविरों के लिए भी बताया जाता था तो उसमें ब्रह्मï का स्थान चार पद तक ही सीमित रह जाता है। यानि कुल पदों के 16वें भाग में ब्रह्मा सीमित रह जाते है। इसमें अन्य देवताओं के क्षेत्राधिकार भी बदल जाते है। अर्यमा आदि जो देवता है वे दो-दो पदों का उपभोग करते हैं। आठों कोणों पर स्थिति बीच और जो आठ देवता स्थित हैं, वे आधे-आधे पदों का उपभोग करते हैं। इसलिए अन्य देवताओं के भी क्षेत्राधिकार में अंतर आता है। इस भेद को अनुभवी वास्तु शास्त्री ही मौके  पर पकड़ पाते हैं। नादानी से किए गए निर्माण यदि किसी एक देवता की बजाय दूसरे के क्षेत्राधिकार में करा दिए जाएं तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

ब्रह्म स्थान में नहीं मर्म स्थान अन्यत्र भी मिलते हैं वास्तु पुरुष के मुख मे, हृदय में, नाभि में, सिर में और स्तनों में जो मर्म है, उनको षण्महन्ति कहा जाता है। वंश, अनुवंश एवं संपात (कटान बिंदु) और पद के मध्य में जो देवस्थान है, वे 16 पद वाली वास्तु में अत्यंत गंभीर हो जाते हैं। इतने ही गंभीर 81 पद की वास्तु में भी होते है।

चारों विभागों में, चारों दिशाओं में जो शिरा होती है तथा द्वार के मध्य भाग पर जो स्थान होते हैं उन्हें मर्म कहते है। मर्म स्थान को पहचानना अत्यंत कौशल का काम है और अच्छे-अच्छे आर्किटेक्ट या वास्तु शास्त्री उसको नहीं कर पा रहे हैं। द्वारों से या दीवार से यदि मर्म स्थान का वेध हो तो गृह स्वामी की कुल हानि होती है। यदि स्तम्भ से मर्म वेध हो तो गृह स्वामी का नाश होता है। यदि तुलाओं के द्वारा वेध हो तो स्त्री नाश कराता है। खूंटी के द्वारा वेध हो तो बहू का नाश और मर्म स्थान पर भारी सामान रखने से भाई का नाश होता है। यदि मर्म स्थानों पर नागपाश हो तो धनहानि, यदि नागदंत (एक तरह की खूंटी) तो मित्रहानि तथा मर्म में कंगूरे स्थित होने पर नौकरों की हानि होती है। अवांछित लकडिय़ां, गवाक्ष व खिड़कियां धन क्षय कराने के माध्यम बनते हैं। शिराओं के पीडऩ से उद्वेग और अनर्थ आता है और संधियों और अनुसंधियों के अनुपीडऩ से घर में काल आता है। इसका अर्थ यह है कि दो दीवारों का मिलन स्थल या क्रॉस बीम किसी मर्म स्थान पर पड़े तो घर में मृत्यु को आमंत्रण मिलता है। अनुभव में आया है कि अकाल मृत्यु के सारे मामले अधिकांश इस वेध से आते हैं।

यदि कोई मर्म स्थान कोई द्वार के मध्य में पड़े तो राजभय आपतित होता है। पहले तो राजा लोग क्रोधित होने पर सीधे फांसी चढ़ा दिया करते थे। आजकल इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स और जेडीए के रूप में घरों में घुस आते हैं और आने के बाद कई दिन तक नहीं निकलते। यदि शैया किसी मर्म स्थान पर आ जाए तो कुल नाश करा देती है। शैया के आजू-बाजू में जो नागदंत होते हैं अर्थात खूंटियों का कोई भी प्रकार यदि वे मर्म स्थान पर पड़ जाएं तो स्वामी का क्षय करा देते हैं। स्वामी के विरुद्ध षड्ïयंत्र वहां जन्म लेते हैं। जो खूंटियां खिड़कियों या खंभों से वेध हो जाएं तो शस्त्रघात से कोई न कोई मृत्यु घर में आती है। शस्त्रघात का आधुनिक समीकरण शल्य चिकित्सा है। यदि घर के बिल्कुल मध्य में द्वार हो तो स्त्री दूषण आता है। यदि उत्तर दिशा में, उत्तर दिशा मध्य और ईशान के बीचोंबीच अदिति नाम के देवता के स्थान पर द्वार हो और घर के बीचोंबीच भी द्वार हो और इस तरह से मर्मवेध हो तो उस घर में स्त्री दूषण आता है और स्त्रियां चरित्रहीन होने लगती है। नागदंत का स्तम्भ से बेध या तो घर में चोरी कराता है या घर के किसी प्राणी में चौरवृत्ति देता है।

मर्मवेध के दुष्परिणाम लिखने का तात्पर्य यह है कि न केवल इन स्थानों पर वेध से बचें बल्कि मर्मस्थान की यत्नपूर्वक रक्षा करें। आजकल स्थापति या वास्तुशास्त्री वास्तुपुरुष के रूप में प्रोजेक्ट की गई असाधारण भवन निर्माण योजना के शास्त्रीय पक्ष पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। यदि इन्हें केवल पौराणिक कथाएं मानकर छोड़ दिया जाए तो हम वैदिक ऋषियों की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रस्तावों का उल्लंघन कर रहे होंगे और प्रकृति की ऊर्जा को संपूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर पाएंगे।

ब्रह्म स्थान व उसके चारों ओर स्थित देवताओं की ऊर्जा आवश्यकताएं अलग-अलग होती है। यद्यपि बाहर से आयातित ऊर्जा चाहे वह कॉस्मिक ऊर्जा हो, चाहे भूगर्भ ऊर्जा, चाहे अंतरिक्ष पिंडों के आकर्षण-विकर्षण का परिणाम हो, चाहे कक्षापथों के परस्पर घर्षण का परिणाम हो, चाहे ग्रहों के कक्षापथों में दोलन, या ग्रहों की अयन स्थितियां या ग्रहों का किसी अवसर विशेष पर चेष्टाबल हो, भवन में इन सबको साधने की प्रविधियां वैदिक ऋषियों ने आविष्कृत कर ली थीं। इन वास्तु शास्त्रीय नियमों में छिपी गहराई को हम समझ नहीं पा रहे हैं। उदाहरण के लिए ज्योतिष ग्रंथों में हर ग्रह की जप संख्या अलग-अलग बताई जाती है। किसी की 7000 तो किसी की 36000। इसी भांति भूखण्ड में भी हर देवता की ऊर्जा क्षमता अलग-अलग मानी गई है। अत: वास्तु शास्त्री को यह निर्णय भी करना होगा कि किस दिशा से कितनी ऊर्जा किस देवता को पहुंचाई जाए। यह वह स्थान है जहां स्थापत्य के भौतिक नियमों में धर्म, दर्शन और अध्यात्म की प्रतिष्ठा करनी होती है। भूखण्ड में जब तक देवताओं की इस रूप में प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाए तब तक भूखण्ड सफल नहीं होते।


वास्तु शास्त्र के अनुसार मुख्य द्वार कभी भी किसी भी दिशा के कोने में नहीं होना चाहिए।


2.-   प्रत्येक भूमि या कमरे की लम्बाई व चौड़ाई को नौ भागों में बांट लेना चाहिए।

1. - पूर्व दिशा में मुख्य द्वार ईशान के दो भाग छोड़ कर तीन भागों में बनाया जा सकता है। आग्नेय के चार भाग फिर फिर छोड़ देने चाहिए।

2.  - पश्चिम में मुख्यद्वार के लिए नैऋत्य के दो भाग छोड़कर तीन भागों में बनाया जा सकता है। शेष चार भाग वायव्य के छोड़ देने चाहिए।

3.   उत्तर में वायव्य के तीन भाग छोड़कर दो भागों में मुख्य द्वार बनाना उचित रहता है। शेष भाग फिर छोड़ देने चाहिए।

4.    दक्षिण दिशा में आग्नेय कोण के तीन भाग छोड़कर तीन भागों में मुख्य द्वार बनाना उचित रहता है। शेष तीन भाग फिर छोड़ देने चाहिए जैसे चित्र में दर्शाया गया है।

परन्तु बने बनाए मकान-फ्लैट व कार्यालय लेने के कारण मुख्य द्वार बना-बनाया प्राप्त होता है। कार्यालय का मुख्य द्वार कोने में भी हो सकता है तथा दक्षिण दिशा के कोने में भी हो सकता है। जो अत्यधिक अशुभ होता है।  शास्त्र विधि के द्वारा इसका सुधार आवश्यक हो जाता है।


ब्रह्म स्थान पं. राजेश मिश्र कण भास्कर ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र






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