पूजा मे शिर पर कपडा़़ न रखे।


#देव_पूजा_में_निषिद्ध_वस्त्र------||


*_शिरः प्रावृत्य वस्त्रेण ध्यानं नैव प्रशस्यते_*

*_भोजन और पूजन ,हवनादि पर सिर के ऊपर वस्त्र रखना वर्जित है आजकल अधिकतर लोगो को सिर ढ़ककर  पूजन , हवनादि करते देखा जाता है,जो गलत है , सही जानकारी के अभाव मे यह मुसलमानो की संस्कृति लोगों ने अपना ली है |_*


शाश्त्रीय विधान के अनुसार, पूजन हवन मे, धोती और उत्तरीय वस्त्र ( अंगोछा य चादर ) धारण करना है। अंगोछा कंधे पर रखा जाता है, तथा यज्ञोपवीत की भॉति अंगोछे को भी सव्य अपसव्य देव पूजन व पितृपूजन मे रखने का विधान है। अर्थात बाये कंधे पर देव पूजन मे व दाये कंधे पर पितृपूजन मे।

   मल-मूत्र का त्याग करते समय शिर को वस्त्र से ढकने का विधान है।


न स्यूते न दग्धेन पारक्येन विशेषतः |

 मूषिकोत्कीर्ण जीर्णेन कर्म कुर्याद्विचक्षणः ||

 सिले हुए वस्त्र से , जले हुए वस्त्र से, विशेषकर दूसरे के वस्त्र से, चूहे से कटे हुए वस्त्र से धर्मकार्य नहीं करना चाहिए.


जीर्णं नीलं संधितं च पारक्यं मैथुने धृतम् | 

छिन्नाग्रमुपवस्त्रं च कुत्सितं धर्मतो विदुः ||

जीर्ण, नीला, सीला हुआ, दूसरे का, संभोगावस्था में पहना हुआ, जिसका तत्र भाग कटा हो एवं छोर रहित वस्त्र धर्मकी दृष्टि से धारण न करें!


अहतं यन्त्र निर्मुक्तं वासः प्रोक्तं स्वयंभुवा |

 शस्तं तन् मांगलिक्येषु तावत् कालं न सर्वदा||

यन्त्र(मील) से निकले हुए बने हुए वस्त्र को "अहत" वस्त्र माना हैं | वह यन्त्र से निकला हुआ कपड़ा विवाह आदि मांगलिक कार्य में उतने ही समय तक ठीक हैं, हमेशा के लिए नहीं.


अन्यत्र यज्ञादौ तु इषद्धौतमिति | #न_च_यज्ञादिकमपि #मांगलिक्यमेवेत्याशंकनीयम् / विवाहोत्सवादेरैहिकसुखस्याभ्युदयस्य च मांगलिकत्वात् / यज्ञोदेस्तु #धर्मरूपादृष्टफलदत्वेन मांगलिकत्वाभावात् "         (मदन पारि० शातातपः)


मदन पारि० ग्रन्थ में शातातप नामक ऋषि की व्याख्या अहतवस्त्र का -- अन्यत्र यज्ञादि अनुष्ठान में (प्रशस्त )नहीं , यज्ञादि कर्म तो अदृष्ट (अप्रत्यक्ष) फल देनेवाले हैं, इस कारण से वे मांगलिक कर्म में नहीं आते | निष्कर्ष यह हैं कि विवाहादि मांगलिक कार्यों का प्रत्यक्ष संस्काररूपी फल हैं, ऐसा यज्ञादिकर्मों का दृष्ट फल नहीं |

इषद्धौतमरजकादिना सकृद्धौतमिति नागदेवाह्निके व्याख्यातम् ||-- इषद्धौत का मतलब बिना धोबी के एकबार धुला वस्त्र |

स्वयं धौतेन कर्त्तव्या क्रिया धर्म्या विपश्चिता / न तु तेजकधौतेन नोपभुक्तेन च क्वचित् ||

(चतुर्वर्ग चिंता०वृद्धमनुवचन)

विद्वान् कर्मकर्ता को स्वयं(ब्रह्मचारी स्वयं/ गृहस्थी स्वयं वा पत्नी द्वारा)धूले वस्त्र से धार्मिक क्रिया को सम्पन्न करे | धोबी से धुले हुए एवं भोजन में पहने हुए या दूसरे के पहने हुए वस्त्र से कभी भी धार्मिक कर्म न करे.

    पं.राजेश मिश्र "कण"

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