शूद्र ही श्रेष्ठ है स्त्रीयॉ ही श्रेष्ठ है, कलियुग श्रेष्ठ है।

श्रीराम!
शूद्र ही श्रेष्ठ है! स्त्रीयॉ ही साधु है! युग मे कलियुग ही श्रेष्ठ है!
    शूद्र क्यो श्रेष्ठ है?
द्विजातियो को संपुर्ण कार्यो मे बंधन रहता है। पहले ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए। वेदाध्ययन करना पड़ता है।और फिर स्वधर्म का पालन करते हुए, उपार्जित धन से, विधिपूर्वक यज्ञ करने पड़ते है। इसमे भी व्यर्थ वार्तालाप, व्यर्थ भोजन और व्यर्थ यज्ञ उनके पतन का कारण होती है।उन्हे सदा संयमी रहना पड़ता है। सभी कामो मे विधि के विपरीत करने से उन्हे दोष लगता है। यहॉ तक की भोजन और पानी भी वे अपनी ईच्छानुसार नही भोग सकते। इस प्रकार वे अत्यंत क्लेश से पुण्य लोको को प्राप्त करते है। किंतु शूद्र के लिये कोई नियम नही है। वह मात्र द्विजो की सेवा करने से ही सद्गति को प्राप्त करते है, इसलिये वर्णो मे शूद्र ही श्रेष्ठ है ।
     स्त्री क्यो साधु है?
  पुरुषो को अपने धर्मानुकुल प्राप्त किये हुए धन से ही सुपात्र को दान और विधिपुर्वक यज्ञ करना चाहिये। इस धन के उपार्जन तथा रक्षण मे महान क्लेश होता है। और उसको अनुचित कार्य मे लगाने से भी मनुष्यो को जो कष्ट होता है वह ज्ञात ही है। किंतु स्त्रीयॉ तो तन मन वचन से पति की सेवा करने से ही पति के समान शुभ लोको को प्राप्त कर लेती है। जो कि पुरुषो को अत्यंत परिश्रम से मिलता है। इसलिये स्त्रीयॉ साधु है।
   कलियुग क्यो श्रेष्ठ है?
  जो फल सतयुग मे दश वर्ष तपस्या ब्रह्मचर्य व जप  करने से मिलता है, उसे त्रेता मे एक वर्ष द्वापर मे एक मास और कलियुग मे केवल एक दिन रात मे करने से प्राप्त होता है। जो फल सतयुग मे ध्यान त्रेता मे यज्ञ द्वापर मे देवार्चन करने से प्राप्त होता है, वही कलियुग मे श्रीकृष्ण का नाम- कीर्तन करने से प्राप्त होता है। कलियुग मे थोडे़ से श्रम से ही महान फल की प्राप्ति होती है। अतः कलियुग ही श्रेष्ठ है।
             विष्णु पुराण: कलिधर्म निरुपण, षष्ठ अंश दुसरा अध्याय

वेद, पुराण, उपनिषद आदि ग्रंथ हमारे लिये किस महत्व के, कितने उपयोगी है

श्रीराम!
पुराणों उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों में आहार, व्यवहार तथा उपचार सम्बन्धी मौलिक जानकारी दी गयी है। इनमे उत्तम सामाजिक संस्कार उत्पन्न करने की तकनीक है।
प्राचीन ग्रंथो के अनुसार मानव शरीर में तीन दोष पहचाने गये हैं जिन्हें वात, पित, और कफ़ कहते हैं। स्वास्थ इन तीनों के उचित अनुपात पर निर्भर करता है। जब भी इन तीनों का आपसी संतुलन बिगड जाता है तो शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है। रोग के लक्षणों को पहचान कर संतुलन का आँकलन किया जाता है और उपचार की क्रिया आरम्भ होती है। जीवन शैली को भी तीन श्रेणियों में रखा गया है जिसे सात्विक, राजसिक तथा तामसिक जीवन शैली की संज्ञा दी गयी है। आज के वैज्ञानिक तथा चिकित्सक दोनों ही इस वैदिक तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जीवन शैली ही मानव को स्वस्थ अथवा अस्वस्थ बनाती है। आज कल इसे ‘लाईफ़ स्टाईल डिजीज़ ’ कहा जाता है।
भारतीय समाज में पौरुष की परीक्षा विवाह से पूर्व अनिवार्य थी। मनु समृति में तपेदिक, मिर्गी, कुष्टरोग, तथा तथा सगोत्र से विवाह सम्बन्ध वर्जित किया गया है।

छुआछुत का प्रचलन भी स्वास्थ के कारणों से जुडा है। अदृष्य रोगाणु रोग का कारण है यह धारणा भारतीयों में युरोप वासियों से बहुत काल पूर्व ही विकसित थी। आधुनिक मेडिकल विज्ञान जिसे ‘जर्म थियोरी’ कहता है वह शताब्दियों पूर्व ही मनु तथा सुश्रुत के विधानों में प्रमाणिक्ता पा चुकी थी। इसीलिये हिन्दू धर्म के सभी विधानों सें शरीर, मन, भोजन तथा स्थान की सफाई को विशेष महत्व दिया गया है।
आज भारतीय, शास्त्रो , सद्ग्रन्थों और संस्कृति से दूर होते जा रहे है जो कि आज के मानव समाज के कष्टप्रद जीवन होने का मुख्य कारण है। जैसे कोई कंपनी कोई प्रोडक्ट लांच करती है और उसके साथ एक मैन्युअल (छोटी पुस्तिका) भी साथ में देती है। ये मैन्युअल, हमें उस प्रोडक्ट को कैसे उपयोग में  लाना है इस बारे में सहायता करता है। अगर हम बिना मैन्युअल के ही प्रोडक्ट यूज़  करे तो हो सकता है कि हम उसे सही ढंग से यूज़ न कर पाये। उसी तरह ईश्वर ने इस संपूर्ण ब्रम्हांड की रचना की है और उसके साथ वेद , पुराण आदि ग्रंथो की भी रचना की है जिससे हम सही ढंग से आनंदमय जीवन जी सके और इस पृथ्वी और प्रकृति का आनंद ले सके।

वेद इस सृष्टि के आदि ग्रन्थ और खुद ईश्वर के द्वारा रचित है। इन ग्रंथो में जीवन से सम्बंधित सभी पहलुओ पर बहुत विस्तार से चर्चा की गयी है।  दुर्भाग्य से समय के साथ हम दूर होते चले गए और सच्चे जीवन जीने की कला से भी दूर हो गए। हमारी सनातन संस्कृति में वेद ,  पुराण और उपनिषदों की रचना हुई है। परन्तु आज हमें इसका ज्ञान नहीं है और हमारे शिक्षा व्यस्था भी ऐसी है की जो कुछ भी ज्ञान बचा हुआ है उसे आने वाली पीढ़ियों  तक इसे नहीं पंहुचा पा रही है।

हमारी पुरातन जीवन जीने की पद्धति विशुद्ध  वैज्ञानिक और प्रकृति के साथ बेहतर तालमेल रखने पर आधारित थी। आज का आधुनिक विज्ञानं भी इस तथ्य को स्वीकार कर चुका  है। अमेरिका में स्थित नासा इंस्टिट्यूट ने स्पेस टेक्नोलॉजी कोर्स के लिए संस्कृत अनिवार्य कर दिया है लेकिन हमारे देश में ही लोगो के अपने इस खजाने से दूर रखा जा रहा है और आधुनिक जीवन और दिखावे की जीवन शैली में निरंतर फसते  जा रहे है।

वेदो को हम श्रुति भी कहते है जिसका अर्थ है सुनने वाला ज्ञान। प्राचीन समय में मानव मस्तिष्क  इतना उन्नत था कि वो सुन कर ज्ञान ग्रहण कर सकता था।  फिर पुराणो में कहानी को माध्यम बना कर उसी ज्ञान को कथा के माध्यम से जन सामान्य मे प्रसारित किया गया
अगर आज हम सिर्फ  रामचरितमानस और भगवद्गीता को ही सही अर्थो में समझ ले और इसके सूत्रों को जीवन में उतार सके तो मेरा दावा हैं कि मानव समाज को अभूतपूर्व लाभ होगा और समाज में सभी लोग आनंदमय जीवन जी सकेंगे।
सदशाश्त्रो से हमे, जीने की कला का ज्ञान होता है।
  अगर यह शाश्त्र न हो तो निश्चय ही हम इन गुणो से वंचित होते।

जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...