मंत्र सिद्धि के उपाय व मंत्र सिद्धि के लक्षण
मंत्र सिद्यि के उपाय- यदि विधिवत मन्त्र का पुरश्चरण करने पर भी सिद्धि न मिले तो उस मंत्र का पुनः पुरश्चरण करना चाहिये। क्योकि अनेकानेक जन्मो के अर्जित पाप सिद्धि मे बाधक होते है। यदि ३ बार पुरश्चरण करने पर भी सिद्धि न मिले तो निम्न सात उपाय करने चाहिये।
भ्रामण- यंत्र पर एक वायुबीज ( यं) और एक मंत्राक्षर इस क्रम से पूरे मंत्र के अक्षरो को वायुबीज स् सम्पुटित कर शिलारस, कपूर, कुंकुम, खस, एवं चंदन को मिलाकर उसी से यंत्र पर पूरा मंत्र लिखना चाहिये।पुनः इस यंत्र को दूध, घी, मधु एवं जल मिलाकर उसी मे डाल दे और विधिवत पूजन जप हवन करे। इस क्रिया को भ्रामण कहा जाता है। ऐसा करके पुरश्चरण करने से शीघ्र सिद्धि मिलती है।
रोधन- वाग्बीज(ऐं) सेसम्पुटित मूल मंत्र का जप करना रोधन कहलाता है।
वशीकरण-आलता, लालचंदव,कूट,धतुरे के बीज एवं मैनशिल इस सब को मिलाकर उससे भोजपत्र पर मूल मंत्र लिखकर उसे गले मे धारण करना वशीकरण कहा जाता है।
पीडन- अधरोत्तर- योग से मंत्र का जप करते हुए अधरोत्तर- स्वरुपणी देवता की पूजी करनी चाहिये।पुनः अकवन के दूध से मंत्र लिखकर उसे पैर से दबाकर हवन करना चाहिये। यह क्रिया पीडन कहलाती है।
पोषण- वधूबीज( स्रीं) से सम्रुटित मूलमंत्र का जप करना तथा गाय के दूध से लिखित मंत्र को हाथ मे धारण करना पोषण कहलाता है।
शोषण- वायुबीज ( यं) से सम्पुटित मूलमंत्र का जप करना तथा यज्ञ की भस्म से भोजपत्र पर मूल मंत्र को लिखकर गले मे धारण करना शोषण कहलाता है।
दाहन- मंत्र के प्रत्येक स्वर- वर्ण के साथ अग्निबीज ( रं) लगाकर जप करना तथा पलाश के बीज के तेल से मंत्र लिखकर गले मे धारण करना, यह क्रिया दाहन कहलाती है।
उक्त सातो उपाय को एक साथ करने की आवश्यकता नही होती। इनमे से पहिला उपाय करने पर सिद्धि न मिले तो दूसरा, दूसरा करने पर सिद्धि न मिले तो तीसरा और तीसरे से न हो तो चौथा इस क्रम से ये जप करना चाहिये।इन उपायो के द्वारा निश्तित रुप से मंत्रसिद्धि प्राप्त होती है।
मंत्र सिद्धि के लक्षण- आरंम्भ मे साधक को मन, मंत्र एवं देवता की पृथक पृथक प्रतीति होती है। किंतु मंत्र सिद्धि होने पर इस त्रिपुटी का नाश होने पर इन तीनो मे केवल इष्टदेव का स्वरुप ही दिखलाई पडता है। इस स्थिति मे साधक साधन व साध्य इन तीनो मे कोई भेद ही नही रह जाता। इस अवस्था को प्राप्त होते ही साधक रोमांचित एवं स्तब्ध हो जाता है।नेत्रो से प्रेमाश्रु बहने लगते है। मन एवं मंत्र के देव मे विलीन हो जाने पर साधक समाधिस्थ हो जाता है। और ऐसा साधक महाभाव को प्राप्त कर लेता है। यही मंत्र साधना का अंतिम फल है।
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