एक गुरु की खोज,गुरु कैसे नष्ट करे शिष्य के पाप, कैसे हो गुरु,

श्रीराम,
गुरु कैसे नष्ट करे शिष्य के पाप:
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सनातन धर्म मे गुरु की बडी महिमा कही है। गुरु को ईश्वर के समान पूज्यनीय वंदनीय कहा गया है।धार्मिक कृत्यो का पुण्यफल बिना गुरुदीक्षा के प्राप्त नही होता।ब्यक्ति बिना गुरुदीक्षा के धार्मिक कृत्य का अधिकारी नही होता।
      वर्षो से मै देख रहा हू, सामान्यजन मे व आध्यात्मिक समूह मे गुरु पद को लेकर काफी संशय, विरोधाभास,जिज्ञासा की स्थिति बनी हुई है, लोगो को निर्णय लेने मे असुविधा है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है, कारण की गुरुव्यापार की गतिविधि मे भेड़ झुण्ड की तरह एक जिधर निकला, पीछे पीछे अनेक हो लिये। अब एक गुरु लाखो शिष्यो पर ध्यान दे तो कैसे? अब चर्चा आती है ,सदगुरु, ब्रह्मवेत्ता की, तो क्या ब्रह्मवेता,ब्रह्म की उपासना छोड व्यापार करेगें। स्वघोषित सदगुरु और इनके, ब्रेनवाशडशिष्य, मेच्योर्ड हो गये है और कुशल सेल्समैन की भॉति मोटीवेट कर ही लेते है।जैसे गडेरियॉ भेडो को झुण्ड को नियंत्रित करता है।
  मेरा यह लेख उन जिज्ञासुओ को संबोधित है, जो संशय मे है, य ब्रह्मवेत्ता की खोज मे है।
गुरु वह है जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए। प्रथम गुरु माता होती है, द्वितीय गुरु पिता, और तृतीय गुरु आचार्य हैं, जो ज्ञान का प्रकाश देकर सफलता का मार्ग दिखाते है।
सदगुरु कौन है? -- जो धर्मग्रंथो का सार निकालकर भक्ति का मार्ग सुनिश्चित करे, जो निज स्वरुप और सच्चिदानंद परमात्मा मे एकता स्थापित कर, आत्म साक्षात्कार करा सके वही सदगुरु है। किंतु कलिकाल मे, ऐसा गुरु मिलना सहज नही कठिन है। और मिल भी जाय तो, तो उससे लाभ पाना कठिन है, क्योकि, हम प्राथमिक माध्यमिक की शिक्षा छोड़कर सीधे डिग्री नही ले सकते। और जो लेना चाहते है वह सफल नही हो सकते। और यदि ले भी ली तो वह डिग्री फर्जी ही होगी। ठीक उसी तरह , सदगुरु के लिये सद शिष्य होना चाहिये।अतः सर्वप्रथम सदशिष्य बनना होगा।
भक्तिमार्ग मे आगे बढ़ने हेतु, शाश्त्रोक्त गुरु की आवश्यकता है।
योजयति परे तत्वे स दीक्षायाऽऽचार्य मूर्तिस्यः।(अग्निपुराण, दीक्षा प्रकरण)
सभी पर अनुग्रह करनेवाले परमेश्वर ही, आचार्य शरीर मे स्थित होकर दीक्षाकरण द्वारा जीवो को परमशिव तत्व की प्राप्ति कराते है।
 अतः यह अनिवार्य नही है कि अाप ब्रह्मविद, अलौकिक शक्ति सम्पन  सदगुरु की खोज मे जीवन भर निगुरे ही रह जाये।

         शाश्त्र मत है कि किसी भी ऐसे ब्राह्मण को, जो वेद, पुराण, शाश्त्र का अध्ययन करनेवाला हो/ ज्ञाता हो, जो नियमित संध्या करता हो, जो मृदुभाषी,शांत स्वभाव का हो, जिससे आवश्यकता पडने पर संवाद करना दुर्लभ न हो, जिससे मिल पाना दुर्लभ न हो, जो उत्सवादि होने पर निमंत्रण देने पर आपके स्थान को अपने चरणरज से पवित्र कर सके, जिससे मंत्रणा की जा सके। जो आपके पापो को जानकर उनका शमन कर सके। उपरोक्त सभी गुण य अधिकांश गुणजिस ब्राह्मण मे हो उसे तत्काल सहर्ष गुरु रुप मे पाने का निवेदन करना चाहिये। सिर्फ ऐसा व्यक्ति ही अध्यात्म मे सहायक होकर भवसागर से पार करा सकता है।
गुरु शिष्य के पापो  को कैसे जान लेता है-
 #अन्तेवासकृतं पापं जानीयादग्नि लक्षणैः।
अग्नि परीक्षा के द्वारा योग्य गुरु शिष्य के लक्षणो से पापो को पहचान कर,पाप भक्षण निमित्तिक होम से उस पाप को जला डालते है। ये लक्षण कैसे है वह मै कहता हू-
१. अग्नि से बिष्ठा की दुर्गंध- ब्रह्महत्यारा, भूमिहर्ता,गुरु घाती।
२.मुर्दे की बदबू-, गर्भ हत्यारा, स्वामीघाती।
३.आग मे कंपन होना- स्वर्ण की चोरी करनेवाला।
४. आग की लपट का चारो ओर घूमना- स्त्रीवध जनितपाप।
५. आग का निस्तेज होना- गर्भघाती।
 इस प्रकार विविध लक्षणो को पहचानकर शिष्य के पापो को दूर करना एक सच्चे गुरु का कर्तव्य है।
श्रीराम,
दीक्षा लेने का शुभाशुभ-
जो चैत्र मास मे दीक्षा लेवे तो बहुत दुःख पावै,वैशाख मे रत्नलाभ, ज्येष्ठ मे मृत्यु आषाढ़ मे भाई का नाश, श्रावण मे शुभ, भाद्रपद मे सन्तान का नाश, आश्विन मे अत्यन्त सुख प्राप्त करे, कार्तिक मे मंत्र दीक्षा ले तो धन की वृद्धि, मार्गशीर्ष मे शुभ हो, पौष मे ज्ञान की हानि,माघ मे ज्ञान की वृद्धि, फाल्गुन मे दीक्षा लेवे तो सौभाग्य और यश बढे़।
दीक्षा लेने का मुहुर्त:- मंगलवार और शनिवार ये दोनों वार छोड़कर सभी अनुकूल हैं। अतः रविवार, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार अथवा शुक्रवार को ही गुरु की कृपा लेने का प्रयास करना चाहिए। 

तिथि :   द्वितीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, त्रयोदशी और पूर्णिमा की तिथियां शुभ होती हैं।

नक्षत्र :  हस्त, अश्विनी, रोहिणी, स्वाति, विशाखा, ज्येष्ठा, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रेपद, श्रवण, आर्द्रा, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र उत्तम माने गए हैं। अतः दीक्षा, परामर्श, साधना, प्रयोग आदि में निर्देशानुसार इन्हीं में से किसी नक्षत्र की समयावधि का उपयोग करना चाहिए। सर्वसम्मत मान्यता यह है कि पुष्य नक्षत्र का प्रभाव सर्वाधिक उत्तम और कल्याणकारी होता हे। केवल विवाह संस्कार को छोड़कर और कोई भी पुष्य नक्षत्र में बिना अन्य किसी नियम प्रतिबंध का विचार किए ही किया जा सकता है। जैसा कि प्रारंभ में लिखा जा चुका है, मंत्र साधना के लिए गुरु पुष्य योग और तंत्र साधना के लिए रवि पुष्य योग को सर्वश्रेष्ठ और सशक्त मुहूर्त माना गया है।

लग्न : कर्क, वृश्चिक, तुला, मकर और कुंभ लग्नों को श्रेष्ठ माना गया है। इस प्रकार दीक्षा (अभीष्ट कार्य के लिए गुरु-विद्वान का परामर्श) लेने में यदि उपरोकत कालखंडों के आधार पर किसी शुभ मुहूर्त का उपयोग किया जाए तो साधना में सफलता की पूर्ण संभावना बन जाती है।

Comments

  1. प्रभो
    अपने चरण रज से आपके स्थान को पवित्र कर सके।
    प्रभो
    बाबा जी के समय से परिपाटी चली आ रही है हमारे यहाँ गुरु जी के आगमन पर उनके चरणों को धुलने के पश्चात उस जल को प्रसाद रूप में स्वयं तो ग्रहण करते ही है घर के प्रत्येक कोने में उस चरणोदक का छिड़काव भी किया जाता है।
    व्रज रज की ही तरह पवित्र है गुरु के कमलवत चरणों की रज।
    जय हो प्रभु।

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  2. बहुत सुन्दर व संस्कारयुक्त परिवार है आपका। आपसभी को नमन।

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