मै कौन हू? मेरी पहचान क्या है?
मै कौन हू ?
प्रश्न का उत्तर कठिन नही समझना कठिन लगता है| कारण कि मै स्वयं को पहचान नही पा रहा? मेरा नाम तो मै नही क्योकि होता तो मै यह प्रश्न नही करता, आज जो मेरा नाम है, यदि किसी कारणवश बदल दिया जाय तो क्या मै बदल जाउगा नही न , तो मेरा नाम मै नही ।यह शरीर भी मै नही, क्योकि जन्म जन्म मे शरीर बदलता रहताहै, मेरी पहचान भी मै नही, पहचान भी बदलती रहती है।तो फिर मै कौन?
जीवन्नपि मृत एव- एक ऐसा जीव जो कहने को जीवित होते हुए भी मुर्दा ही है, क्योकि स्वंय की पहचान नही रास्ते का ज्ञान नही लक्ष्य का पता नही, अत: दुसरो से पुछते है ,मै कौन? मुझे जाना कहॉ? किस रास्ते से?
विचार करते है तो पाते है कि बिना लक्ष्य को जाने अपनी पहचान न मिलेगी अत: लक्ष्य की पहचान प्रथम आवश्यक है| प्रत्येक मनुष्य के मन मे एक ही क्षण मे अनेक विचार उत्पन्न होते हैऔर उनमे बारंबार परिवर्तन भी होते है,अत: विभिन्न प्रकार के मनुष्यो मे लक्ष्य मे भिन्नता होगी, किन्तु तनिक गहराई से विचार करने पर हम पाते है कि वास्तव मे सभी मनुष्यो का एक ही लक्ष्य है, जैसे - कोई पैसो के पीछे पडा है कोई स्वास्थय के, कोई विद्या चाहता है तो कोई कीर्ति का भूखा है, इसे ही मनुष्य सच्चा लक्ष्य मानकर उसी की प्राप्ति का अथक प्रयास करता है| किन्तु ऐसा चाहने वाले किसी से पूछा जाय कि वह जो चाहता है क्यो चाहता है? तो एक स्थान पर सभी का उत्तर एक ही होगा आनंद की प्राप्ति| जैसे पैसा चाहने वाले से पूछा जाय कि पैसा क्यो चाहता है तो वह कहेगा कि मै अमुक वस्तु का उपभोगं करुगॉ, क्यो करेगा? उससे मुझे आनंद मिलेगा, तू आनंद क्यो चाहता है? आनंद चाहना स्वभाविक है, यहॉ कोई नही कहता कि अमुक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये आनंद चाहता हू, अर्थात आनंद ही एक लक्ष्य है| बल , स्वास्थय, विद्या, कीर्ति आदि सभी के बारे मे यही प्रश्नोत्तर होते है| यहॉ एक बात स्पष्ट होती है कि विचार मे जितने भेद है सभी साधन के बारे मे है लक्ष्य सबका एक है| हम सबके भीतर रहनेवाले इस शाश्वत अखण्ड आनंदरुपी लक्ष्य के क्या क्या लक्षण है यह किसी प्रमाण से नही स्वंय अपने ही हृदय से पुछिये तो १. किसी मरणासन्न व्यक्ति जिसके सभी अंग शिथिल हो ऐसा व्यक्ति भी जीवित रहना चाहता है सभी जीव सदैव जीवित रहना चाहते है.यह स्वभाविक है यह प्रथम लक्ष्य है जो किसी अन्य लक्ष्य का साधन नही|
२. अपने दिल से पुछनेपर हम सब जीवित रहते सभी पदार्थो को जानना अर्थात ज्ञान दुसरा लक्ष्य है|
३.दु:ख क्लेश से रहित शुद्ध परिपूर्ण अखण्ड सुख तीसरा लक्ष्य है|
४.परतंत्रता ही दुःख और स्वतंत्रता ही सुख है, अत: स्वतंत्र रहना चौथा लक्ष्य है|
५.अब सवाल उठता है कि क्या शाश्वत जीवन , अखण्ड ज्ञान, परिपूर्ण आनंद एवं स्वतंत्रता मिलने पर हम तृप्त हो जाते है? नही . क्योकि एक पॉचवी इच्छा स्वभाविक होती है कि अब हमारी इच्छानुसार दुसरे समस्त जीव लोग चले ,अर्थात हमपर किसी का शाशन न हो सब पर हम शाशन करे| यह पंचवा लक्ष्य ईश स्वरुप है|
६. विचार करने पर जब उपरोक्त पॉच लक्षणो की प्राप्ति के बाद चौदह भुवनो मे कोई ऐसी वस्तु नही मिलती जिसकी इच्छा हो कोई छठा लक्षण नही मिलता|
अब विचार करे कि ये पॉच लक्षणो से लक्षित लक्ष्य का नाम परमेश्वर ही है जिसे शाश्त्र ग्रथं मे बताया है, और कही न मिलेगा| अर्थात हम सब नर होकर नारायण के लक्षण को नजानते हुए भी नारायण ही बनना चाहते है ऐसा क्यो? क्योकि हम इसी ईश्वर के अंश रुप एक ऐसा बिंदु है जिसकी अलग से कोई अपनी पहचान नही कोई नम्बर नही, मात्र ईश्वर अंश होने से उसके गुणो की तरफ आकृष्ट होकर उसमे ही पुनः समाहित होने के लिये उसकी तरफ अनजाने ही खिच रहे है | लेकिन यह मै का पर्दा इस मायाजाल रुपी सागर मे तैरा रहा है|
जब यह मै रुपी पर्दा हटता है, तब अनायस ही "अहं ब्रह्मास्मि" का बोध होता है।
प्रश्न का उत्तर कठिन नही समझना कठिन लगता है| कारण कि मै स्वयं को पहचान नही पा रहा? मेरा नाम तो मै नही क्योकि होता तो मै यह प्रश्न नही करता, आज जो मेरा नाम है, यदि किसी कारणवश बदल दिया जाय तो क्या मै बदल जाउगा नही न , तो मेरा नाम मै नही ।यह शरीर भी मै नही, क्योकि जन्म जन्म मे शरीर बदलता रहताहै, मेरी पहचान भी मै नही, पहचान भी बदलती रहती है।तो फिर मै कौन?
जीवन्नपि मृत एव- एक ऐसा जीव जो कहने को जीवित होते हुए भी मुर्दा ही है, क्योकि स्वंय की पहचान नही रास्ते का ज्ञान नही लक्ष्य का पता नही, अत: दुसरो से पुछते है ,मै कौन? मुझे जाना कहॉ? किस रास्ते से?
विचार करते है तो पाते है कि बिना लक्ष्य को जाने अपनी पहचान न मिलेगी अत: लक्ष्य की पहचान प्रथम आवश्यक है| प्रत्येक मनुष्य के मन मे एक ही क्षण मे अनेक विचार उत्पन्न होते हैऔर उनमे बारंबार परिवर्तन भी होते है,अत: विभिन्न प्रकार के मनुष्यो मे लक्ष्य मे भिन्नता होगी, किन्तु तनिक गहराई से विचार करने पर हम पाते है कि वास्तव मे सभी मनुष्यो का एक ही लक्ष्य है, जैसे - कोई पैसो के पीछे पडा है कोई स्वास्थय के, कोई विद्या चाहता है तो कोई कीर्ति का भूखा है, इसे ही मनुष्य सच्चा लक्ष्य मानकर उसी की प्राप्ति का अथक प्रयास करता है| किन्तु ऐसा चाहने वाले किसी से पूछा जाय कि वह जो चाहता है क्यो चाहता है? तो एक स्थान पर सभी का उत्तर एक ही होगा आनंद की प्राप्ति| जैसे पैसा चाहने वाले से पूछा जाय कि पैसा क्यो चाहता है तो वह कहेगा कि मै अमुक वस्तु का उपभोगं करुगॉ, क्यो करेगा? उससे मुझे आनंद मिलेगा, तू आनंद क्यो चाहता है? आनंद चाहना स्वभाविक है, यहॉ कोई नही कहता कि अमुक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये आनंद चाहता हू, अर्थात आनंद ही एक लक्ष्य है| बल , स्वास्थय, विद्या, कीर्ति आदि सभी के बारे मे यही प्रश्नोत्तर होते है| यहॉ एक बात स्पष्ट होती है कि विचार मे जितने भेद है सभी साधन के बारे मे है लक्ष्य सबका एक है| हम सबके भीतर रहनेवाले इस शाश्वत अखण्ड आनंदरुपी लक्ष्य के क्या क्या लक्षण है यह किसी प्रमाण से नही स्वंय अपने ही हृदय से पुछिये तो १. किसी मरणासन्न व्यक्ति जिसके सभी अंग शिथिल हो ऐसा व्यक्ति भी जीवित रहना चाहता है सभी जीव सदैव जीवित रहना चाहते है.यह स्वभाविक है यह प्रथम लक्ष्य है जो किसी अन्य लक्ष्य का साधन नही|
२. अपने दिल से पुछनेपर हम सब जीवित रहते सभी पदार्थो को जानना अर्थात ज्ञान दुसरा लक्ष्य है|
३.दु:ख क्लेश से रहित शुद्ध परिपूर्ण अखण्ड सुख तीसरा लक्ष्य है|
४.परतंत्रता ही दुःख और स्वतंत्रता ही सुख है, अत: स्वतंत्र रहना चौथा लक्ष्य है|
५.अब सवाल उठता है कि क्या शाश्वत जीवन , अखण्ड ज्ञान, परिपूर्ण आनंद एवं स्वतंत्रता मिलने पर हम तृप्त हो जाते है? नही . क्योकि एक पॉचवी इच्छा स्वभाविक होती है कि अब हमारी इच्छानुसार दुसरे समस्त जीव लोग चले ,अर्थात हमपर किसी का शाशन न हो सब पर हम शाशन करे| यह पंचवा लक्ष्य ईश स्वरुप है|
६. विचार करने पर जब उपरोक्त पॉच लक्षणो की प्राप्ति के बाद चौदह भुवनो मे कोई ऐसी वस्तु नही मिलती जिसकी इच्छा हो कोई छठा लक्षण नही मिलता|
अब विचार करे कि ये पॉच लक्षणो से लक्षित लक्ष्य का नाम परमेश्वर ही है जिसे शाश्त्र ग्रथं मे बताया है, और कही न मिलेगा| अर्थात हम सब नर होकर नारायण के लक्षण को नजानते हुए भी नारायण ही बनना चाहते है ऐसा क्यो? क्योकि हम इसी ईश्वर के अंश रुप एक ऐसा बिंदु है जिसकी अलग से कोई अपनी पहचान नही कोई नम्बर नही, मात्र ईश्वर अंश होने से उसके गुणो की तरफ आकृष्ट होकर उसमे ही पुनः समाहित होने के लिये उसकी तरफ अनजाने ही खिच रहे है | लेकिन यह मै का पर्दा इस मायाजाल रुपी सागर मे तैरा रहा है|
जब यह मै रुपी पर्दा हटता है, तब अनायस ही "अहं ब्रह्मास्मि" का बोध होता है।
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