मंत्र क्या है?

मंत्र शब्द का निर्माण

मंत्र शब्द का निर्माण मन से हुआ है। मन के द्वारा और मन के लिए। मन के द्वारा यानी मनन करके और मन के लिए यानी 'मननेन त्रायते इति मन्त्रः' जो मनन करने पर त्राण यानी लक्ष्य पूर्ति कर दे, उसे मन्त्र कहते हैं। मंत्र अक्षरों एवं शब्दों के समूह से बनने वाली वह ध्वनि है जो हमारे लौकिक और पारलौकिक हितों को सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त होती है। सभी स्वर व व्यजंन भी मंत्र रुप ही है। यह सृष्टि प्रकाश और शब्द द्वारा निर्मित और संचालित मानी जाती है। इन दोनों में से कोई भी ऊर्जा एक-दूसरे के बिना सक्रिय नहीं हो सकती और शब्द मंत्र का ही स्वरूप है। आप किसी कार्य को या तो स्वयं करते हैं या निर्देश देते हैं। आप निर्देश या तो लिखित स्वरूप में देते हैं या मौखिक रूप में देते हैं। मौखिक रूप में दिए गए निर्देश को हम मंत्र भी कह सकते हैं। हर शब्द और अपशब्द एक मंत्र ही है। इसीलिए अपशब्दों एवं नकारात्मक शब्दों और वचनों के प्रयोग से हमें बचना चाहिए।

किसी भी मंत्र के जाप से पूर्व संबंधित देवता व गणपति के ध्यान के साथ गुरु का ध्यान, स्मरण और पूजन आवश्यक है।
मंत्र का ही क्रियात्मक रुप तंत्र कहा जाता है। और चित्रात्मक रुप यंत्र कहलाता है। वस्तुतः तंत्र, मंत्र, यंत्र एक ही शक्ति के तीन अलग रुप है।
   मंत्र जहॉ तक सर्व मनोरथ सिद्ध करते है वही यदि मंत्र का चुनाव सही न किया जाय य बिना पूर्ण जानकारी के मंत्र का जाप हानिप्रद होता है।
  इसलिये ऋषि मुनियो ने नाम के अनुसार मंत्र का चुनाव करने का निर्देश दिया है।

 मंत्रजप फलदायक न होकर नुकसान भी पहुचा सकते है,जाने क्यो?

मन को केन्द्रित करने के अभ्यास को साधना कहा जाता है। सिद्धि के लिये किया जाने वाला प्रयत्न ही साधना है। तथा उसके उपयोगी उपकरणो को साधन कहते है। साधन के बिना साधना की ओर प्रवृत होना संभव ही नही है। अतः मंत्रसाधना की जानकारी के साथ साथ मंत्रसाधन का सम्यक ज्ञान परमावश्यक है।
       जो मंत्र या क्रियाए कर्ता का अभीष्ट सिद्ध नही कर सकती य अनिष्ट करती है, उन्हे साधन नही कह सकते। यही कारण है कि मंत्रशाश्त्र मे सर्वप्रथम यह विचार किया गया है कि कोई मंत्र साधक का अभीष्ट सिद्ध करेगा य नही।
        मंत्र व तंत्र शाश्त्र के ग्रंथो मे मंत्र को साधन य अभीष्टफलदायक बनाने के लिये निम्न लिखित बातो पर बिशेष ध्यान दिया गया है।
    १ सिद्धादि शोधन २ मंत्रार्थ ३ मंत्रचैतन्य ४ मंत्रो की कुल्लुका ५ मंत्र सेतु ६ महासेतु ७ निर्वाण ८ मुखशोधन ९ प्राणयोग १० दीपनी ११ मंत्र के सूतक १२ मंत्र के दोष १३ मंत्र दोष निवृति के उपाय।
      उपरोक्त बातो का ध्यान रखकर, उपयोग करने से मंत्र साधन बन कर अभीष्टसिद्धि देता है, अन्यथा मंत्र साधक का सबसे बडा शत्रु होकर उसका नाश कर देता है। 
१ सिद्धादि शोधन- किस मंत्र के द्वारा साधक को सिद्धि मिलेगी, दुःख मिलेगा य साधना निष्फल होगी इत्यादि का ज्ञान इस क्रिया के द्वारा किया जाता है।
मंत्र सिद्धादि शोधन विधिमंत्र
२ मंत्रार्थ- मंत्र साधारण शब्द नही। इसका अर्थ गुप्तभाषा है। मंत्र योग मे मंत्रार्थ की भावना को ही जप कहा गया है,और जप से ही सिद्धि होती है। अतः सिद्धि के लिये मंत्र के अर्थ की जानकारी परमावश्यक है।
३मंत्र चैतन्य- साधक के चित्त मे अपने मंत्र के प्रति साधारण शब्द भाव न होकर, मंत्र ,देवता एवं गुरु का ऐक्य हो जाना, उसमे ब्रह्मभाव जाग्रत हो जाना।
 ४मंत्रो की कुल्लुका- रुद्रयामल मे कहा गया है कि जो व्यक्ति कुल्लुका को जाने बिना जप करता है उसकी आयु, विद्या, कीर्ति एवं बल नष्ट हो जाता है।जप आरंभ करते समय जिस देव के मंत्र का जप करना हो उसकी कुल्लुका का सर पर न्यास कर लेना चाहिये।
 ५ मंत्रसेतु- साधक का मंत्र के साथ संबन्ध जोडनेवाला बीज सेतु कहलाता है।मंत्रजप से पूर्व सेतुमंत्र का जप हृदय मे कर लेना चाहिये। ब्राह्मणो व क्षत्रिय के लिये ॐ, वैश्य के लिये फट तथा शूद्र के लिये ह्रीं सेतु बताया गया है।
६ महासेतु- जप से पूर्व महासेतु मंत्र का जप करने से साधक को सभी समय एवं सभी अवस्था मे जप करने का अधिकार मिल जाता है।
कालिका - क्रीं, तारा- हूं, त्रिपुरसुंदरी- ह्रीं तथा शेष सब देवताओ का स्रीं महासेतु कहा गया है।
७ निर्वाण- प्रणव तथा मातृका से संपुटित मूलमंत्र का जप करना निर्वाण कहलाता है।
८ मुखशोधन- जिस देवता का जप करना हो,उस देवता के अनुसार मुखशोधन मंत्र का पहले 
९ प्राणयोग- मायाबीज से पुटित मूलमंत्र का७ बार जप करना प्राणयोग कहलाता है।
१० दीपनी- मूलमंत्र को प्रणव से संपुटित कर ७ बार जप करना
११ मंत्र के सूतक-जप के प्रारंभ व समाप्ति पर  प्रणव से संपुटित मूल मंत्र का १०८ या ७ बार जप करना


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