कर्तव्य य अधिकार
श्रीराम!!!
अधिकार या भार ( कर्तव्यपालन )
वर्तमान मे सभी प्रकार के संघर्ष य विरोध का एक मात्र मूल कारण है "अधिकार" , कोई कहता है, मुझे जनेऊ पहनने का अधिकार क्यो नही?, दूसरा कहता है, मुझे वेद पढ़ने का अधिकार क्यो नही?, तीसरा कहता है, मुझे मंदिर मे घुसने का अधिकार क्यो नही? चौथा कहता है, मुझे दण्डी संन्यासी बनने का अधिकार क्यो नही? सनातन धर्म मे जैसा यह अधिकार का द्वन्द चल रहा है, ठीक इसी प्रकार का द्वन्द, आर्थिक जगत मे, किसान व भूमिधर, मिल मालिक व मजदूर, विद्यार्थी व शिक्षक, इतना ही नही पत्नी और पति मे भी चल रहा है। आज अधिकार के नाम पर यहॉ वहॉ सर्वत्र बेवजह ही देवासुर संग्राम मचा हुआ है। अधिकारवाद संघर्ष जन्य अनेक अनर्थो से डूबा मानव समाज यदि आज अधिकार वाद की रट लगाना छोड़कर कर्तव्यवाद के दृष्टिकोण से समस्त उलझी हुई समस्याओ को समाहित करने के लिये प्रयत्नशील हो जाए तो, संसार का चित्र ही बदल जायेगा।
जब हम अधिकार वाद को स्वीकार करते है, तो "कम परिश्रम मे अधिक लाभ" की प्रवृति को प्रकट करते है। यह प्रवृति जहॉ सामाजिक संगठन के लिये घातक नही, बिशेषरुप से घातक है, वही राष्ट्र के विकास मे भी बाधक सिद्ध होती है। इसलिये हमारे शाश्त्रो मे समस्त कार्यकलाप का विभाजन अधिकार के आधार पर नही बल्कि कर्तव्य पालन के आधार पर किया गया है। जैसे वेद पढ़ने का ब्राह्मण को अधिकार नही, किन्तु उसके कंधो पर यह भार है, कि वह भूखा रहकर भी वेद पढे। क्षत्रिय को युद्ध मे सर काटने का अधिकार नही, किन्तु वह देश, जाति, धर्म की रक्षा के लिये शिर कटाये यह उसक् मस्तक पर ईश्वर निहित भार है।
अधिकार व भार का विश्लेषण करते हुए यह बात समझ लेनी चाहिये कि अधिकार के प्रयोग मे अधिकारी स्वतन्त्र होता है, परन्तु भार तो न चाहते हुए भी कर्तव्य वशात धारण करना ही पड़ता है। यही कारण है कि ब्राह्मण जाति ने सुदामा की भॉति निर्धनता पूर्ण जीवन सहर्ष बिताते हुए भी आज के इस आधुनिक युग मे भी वेदो की पठन पाठन प्रणाली को अक्षुण्ण रखा है । यवनादि विदेशीआतताईयो से सहर्ष युद्ध मे लड़ते हुए क्षत्रिय वीरो ने अपने प्राणो की आहूति दी है। जिससे ही आज सनातन धर्म व धर्मी सुरक्षित बचे है। अन्यथा ये अधिकार की मॉग करने वाले आज न होते। इसलिये अनर्थकारी अधिकार वाद की दृष्टि से ही समस्त कार्यकलाप को देखने की प्रवृति को त्यागकर उसे कर्तव्यपालन - भार की दृष्टि से ही मनन करने की आदत डालनी चाहिये।
कर्तव्यता के बिषय मे किसको,कब, कैसे, क्या करना चाहिये, यह सब बाते केवल शाश्त्र से ही पूछनी चाहिये। शाश्त्र जिसे जैसे कहे वह उसे वैसे ही करे जो न कहे उसे न करे। जैसे शाश्त्र द्वारा बताए कार्य न करने पर पाप होता है, वैसे ही शाश्त्र द्वारा मना किये कार्य को करने पर भी पाप होता है। सैनिक य पुलिस के लिये जैसी वर्दी निर्धारित है, यदि वह आन डयूटी पर वैसा न पहने तो दण्ड का पात्र होता है। वैसे ही साधारण व्यक्ति पुलिस का स्वांग करके रौब गाठे तो वह भी दण्ड क पात्र होता है। इसलिये जिन द्विजाति ( ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य ) के लिये जो संस्कार समन्त्रक करने बताये है यदि वे न करेंगे तो पाप के भागी होंगे और जिन द्विजेतर पुरुषो के लिये जो संस्कार अमन्त्रक करने की या न करने की शाश्त्र ने छूट दे रखी है, वे यदि इसके विरुद्ध करेंगे तो अवश्य ही पातकी होंगे।
कर्मलाप का विभाजन तो वर्ण और आश्रम के तारतम्य से कर्तव्यपालन के आधार पर हुआ है, परन्तु कर्म फल मे समान रुप से सभी को लाभ मिलता है।
अधिकार व अनाधिकार से किये गये कर्म के बाहरी रुप से प्रत्यक्ष भले ही कुछ अन्तर न दिखाई पडे , परन्तु पुण्य पाप के तारतम्य से उससे उत्पन्न अदृष्ट फल मे महान अन्तर पड़ता है, जैसे एक अनाधिकारी पुरुष रात दिन अमुक को फॉसी दे दो पुकारे तो उसका बाल भी बाका नही होता किन्तु यदि यही शब्द जज की कुर्सी पर बैठा न्यायधीश सिर्फ एक बार कह दे तो तदनुसार उसे फॉसी दे दी जाएगी। यहॉ दोनो व्यक्तियो के वाक्य य शब्दो मे कोई अन्तर नही, केवल कर्तव्यपालन(अधिकार) का ही अन्तर है।
इस बिषय पर लिखा जाय तो एक ग्रंथ तैयार हो जाए, किन्तु आशा है,हमारा यह संक्षिप्त प्रयास पाठकोे के लिये बिषय को समझने मे सहयोगी हो सकेगा।
जय जय सीताराम!
अधिकार या भार ( कर्तव्यपालन )
वर्तमान मे सभी प्रकार के संघर्ष य विरोध का एक मात्र मूल कारण है "अधिकार" , कोई कहता है, मुझे जनेऊ पहनने का अधिकार क्यो नही?, दूसरा कहता है, मुझे वेद पढ़ने का अधिकार क्यो नही?, तीसरा कहता है, मुझे मंदिर मे घुसने का अधिकार क्यो नही? चौथा कहता है, मुझे दण्डी संन्यासी बनने का अधिकार क्यो नही? सनातन धर्म मे जैसा यह अधिकार का द्वन्द चल रहा है, ठीक इसी प्रकार का द्वन्द, आर्थिक जगत मे, किसान व भूमिधर, मिल मालिक व मजदूर, विद्यार्थी व शिक्षक, इतना ही नही पत्नी और पति मे भी चल रहा है। आज अधिकार के नाम पर यहॉ वहॉ सर्वत्र बेवजह ही देवासुर संग्राम मचा हुआ है। अधिकारवाद संघर्ष जन्य अनेक अनर्थो से डूबा मानव समाज यदि आज अधिकार वाद की रट लगाना छोड़कर कर्तव्यवाद के दृष्टिकोण से समस्त उलझी हुई समस्याओ को समाहित करने के लिये प्रयत्नशील हो जाए तो, संसार का चित्र ही बदल जायेगा।
जब हम अधिकार वाद को स्वीकार करते है, तो "कम परिश्रम मे अधिक लाभ" की प्रवृति को प्रकट करते है। यह प्रवृति जहॉ सामाजिक संगठन के लिये घातक नही, बिशेषरुप से घातक है, वही राष्ट्र के विकास मे भी बाधक सिद्ध होती है। इसलिये हमारे शाश्त्रो मे समस्त कार्यकलाप का विभाजन अधिकार के आधार पर नही बल्कि कर्तव्य पालन के आधार पर किया गया है। जैसे वेद पढ़ने का ब्राह्मण को अधिकार नही, किन्तु उसके कंधो पर यह भार है, कि वह भूखा रहकर भी वेद पढे। क्षत्रिय को युद्ध मे सर काटने का अधिकार नही, किन्तु वह देश, जाति, धर्म की रक्षा के लिये शिर कटाये यह उसक् मस्तक पर ईश्वर निहित भार है।
अधिकार व भार का विश्लेषण करते हुए यह बात समझ लेनी चाहिये कि अधिकार के प्रयोग मे अधिकारी स्वतन्त्र होता है, परन्तु भार तो न चाहते हुए भी कर्तव्य वशात धारण करना ही पड़ता है। यही कारण है कि ब्राह्मण जाति ने सुदामा की भॉति निर्धनता पूर्ण जीवन सहर्ष बिताते हुए भी आज के इस आधुनिक युग मे भी वेदो की पठन पाठन प्रणाली को अक्षुण्ण रखा है । यवनादि विदेशीआतताईयो से सहर्ष युद्ध मे लड़ते हुए क्षत्रिय वीरो ने अपने प्राणो की आहूति दी है। जिससे ही आज सनातन धर्म व धर्मी सुरक्षित बचे है। अन्यथा ये अधिकार की मॉग करने वाले आज न होते। इसलिये अनर्थकारी अधिकार वाद की दृष्टि से ही समस्त कार्यकलाप को देखने की प्रवृति को त्यागकर उसे कर्तव्यपालन - भार की दृष्टि से ही मनन करने की आदत डालनी चाहिये।
कर्तव्यता के बिषय मे किसको,कब, कैसे, क्या करना चाहिये, यह सब बाते केवल शाश्त्र से ही पूछनी चाहिये। शाश्त्र जिसे जैसे कहे वह उसे वैसे ही करे जो न कहे उसे न करे। जैसे शाश्त्र द्वारा बताए कार्य न करने पर पाप होता है, वैसे ही शाश्त्र द्वारा मना किये कार्य को करने पर भी पाप होता है। सैनिक य पुलिस के लिये जैसी वर्दी निर्धारित है, यदि वह आन डयूटी पर वैसा न पहने तो दण्ड का पात्र होता है। वैसे ही साधारण व्यक्ति पुलिस का स्वांग करके रौब गाठे तो वह भी दण्ड क पात्र होता है। इसलिये जिन द्विजाति ( ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य ) के लिये जो संस्कार समन्त्रक करने बताये है यदि वे न करेंगे तो पाप के भागी होंगे और जिन द्विजेतर पुरुषो के लिये जो संस्कार अमन्त्रक करने की या न करने की शाश्त्र ने छूट दे रखी है, वे यदि इसके विरुद्ध करेंगे तो अवश्य ही पातकी होंगे।
कर्मलाप का विभाजन तो वर्ण और आश्रम के तारतम्य से कर्तव्यपालन के आधार पर हुआ है, परन्तु कर्म फल मे समान रुप से सभी को लाभ मिलता है।
अधिकार व अनाधिकार से किये गये कर्म के बाहरी रुप से प्रत्यक्ष भले ही कुछ अन्तर न दिखाई पडे , परन्तु पुण्य पाप के तारतम्य से उससे उत्पन्न अदृष्ट फल मे महान अन्तर पड़ता है, जैसे एक अनाधिकारी पुरुष रात दिन अमुक को फॉसी दे दो पुकारे तो उसका बाल भी बाका नही होता किन्तु यदि यही शब्द जज की कुर्सी पर बैठा न्यायधीश सिर्फ एक बार कह दे तो तदनुसार उसे फॉसी दे दी जाएगी। यहॉ दोनो व्यक्तियो के वाक्य य शब्दो मे कोई अन्तर नही, केवल कर्तव्यपालन(अधिकार) का ही अन्तर है।
इस बिषय पर लिखा जाय तो एक ग्रंथ तैयार हो जाए, किन्तु आशा है,हमारा यह संक्षिप्त प्रयास पाठकोे के लिये बिषय को समझने मे सहयोगी हो सकेगा।
जय जय सीताराम!
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