प्रत्येक सनातनधर्मावलम्बी को अपनी कुल परम्परा का सम्पूर्ण परिचय निम्न ११ (एकादश) बिन्दुओं के माध्यम से ज्ञात होता है, अतः इसका प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान होना चाहिए -१ - गोत्र, २- प्रवर, ३ - वेद, ४- उपवेद, ५- शाखा, ६- सूत्र, ७-छन्द, ८-शिखा, ९- पाद ,१०-देवता, ११-द्वार
१] गोत्र - गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया । इन गोत्रों के मूल ऋषि –कश्यप, विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, - इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। इस प्रकार कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते जाने पर पक्ष ओर शाखाये बनाई गई । इस तरह इन सप्त ऋषियों पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामो से अन्य गोत्रों का नामकरण हुआ यथा पाराशर गोत्र वशिष्ट गोत्र से ही संबंधित है।
शाश्त्रविधि से गोत्र धारण की जो पद्धति है उसके अनुसार वंश परंपरा तथा गुरु परंपरा दोनो ही है।
जिसका गोत्र ज्ञात नही उनके लिए कश्यप गोत्र माना जाता है क्योकि सभी मूलरुप से कश्यप ऋषि के वंशज है। इसके अतिरिक्त जिनका गोत्र अज्ञात है उनके पुरोहित द्वारा अपना गोत्र प्रदान किया जा सकता है। स्त्री के पति का गोत्र स्त्री का गोत्र हो जाता है। विवाह पुर्व कन्या के पिता का गोत्र होता है विवाह बाद पति का गोत्र हो जाता है।
२] प्रवर -
प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" । अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें । अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्त की गई श्रेष्ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे।
३ ] वेद -
वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने लाभ किया है , इनको सुनकर कंठस्थ किया जाता है , इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्यासी कहलाते हैं। प्रत्येक का अपना एक विशिष्ट वेद होता है , जिसे वह अध्ययन -अध्यापन करता है।
४] उपवेद -
चारो वेद के उपवेद है, जिनका परंपरागत अध्ययन करनेवाला उस उपवेद से संबद्ध होता है। आयुर्वेद- ऋग्वेद से (परन्तु सुश्रुत इसे अथर्ववेद से व्युत्पन्न मानते हैं);
धनुर्वेद - यजुर्वेद से ;
गन्धर्ववेद - सामवेद से, तथा
शिल्पवेद - अथर्ववेद से ।
५] शाखा -
वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है , कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्होने जिसका अध्ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।
६] सूत्र -
प्रत्येक वेद के अपने 2 प्रकार के सूत्र हैं।श्रौत सूत्र और ग्राह्य सूत्र।यथा शुक्ल यजुर्वेद का कात्यायन श्रौत सूत्र और पारस्कर ग्राह्य सूत्र है।
७] छन्द -
उक्तानुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण को अपने परम्परासम्मत छन्द का भी ज्ञान होना चाहिए ।
८] शिखा -
अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने की परम्परा शिखा कहलाती है ।
९] पाद -
अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं । ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है । अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं ।
१०] देवता -प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते है वही उनका देवता [जैसे विष्णु, शिव , दुर्गा ,सूर्य इत्यादि देवों में से कोई एक ] उनके आराध्य देव है ।
११] द्वार -
यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता ) जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार या दिशा कही जाती है।
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जय जय श्री राम
ReplyDeleteजय श्री सीताराम!! पंरतिक्रिया दे ने के लिए हार्दिक आभार।
Deleteबहुत सुन्दर जानकारी, आभार आदरणीय
Deleteश्रीराम!
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद!