शम्बूक वध क्यो आवश्यक था ?




भगवान राम ने शम्बूक का वध क्यों किया था?


 ‘ श्राीराम का आचरण इतना शुद्ध, निष्ठापूर्ण और धर्मानुसार था कि उनकी प्रजा को दुख, दरिद्रता, रोग, आलस़्य, असमय मृत्यु जैसे कष्ट छू भी नहीं पाते थे।।

अतः इसी अनुसार रामराज्य की अवधारणा बनी है।

इसी कारण सभी लोग रामराज्य की कामना करते है।

   एक दिन अचानक एक ब्राह्मण रोता-बिलखता उनके

 राजदरबार में आ पहुंचा।

श्रीराम ने ब्राह्मण से जब उसके रोने का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसके तेरह वर्ष के पुत्र की असमय मृत्यु हो गई। यह राम के राज्य में अनोखी और असंभव-सी घटना थी क्योंकि ‘राम-राज्य’ में तो इस तरह का कष्ट किसी को नहीं हो सकता था। दुखी ब्राह्मण ने श्रीराम पर आरोप लगाया कि उनके राज्य में धर्म की हानि हुई है और उसी के चलते उसके पुत्र की असमय मृत्यु हो गई। ब्राह्मण कहता है कि राज्य में धर्म की उपेक्षा और अधर्म का प्रसार होने का फल प्रजा को भुगतना पड़ रहा है और उस पाप का छठा भाग राजा के हिस्से में आता है। इसलिए राज्य में होने वाले पाप के लिए राजा राम उत्तरदायी हैं।


मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से यह आरोप सहन नही होता। वह देवर्षि नारद समेत कुछ दूसरे सिद्ध ऋषियों को बुलाकर इस समस्या पर विचार करते हैं और ब्राह्मण के पुत्र की असमय मृत्यु का कारण पूछते हैं।

नारद के अनुसार, राम-राज्य में बालक की मृत्यु से यह पता चलता है कि राज्य में कोई ऐसा व्यक्ति तपस्या कर रहा है जो नियमानुसार तपस्या करने का अधिकारी नहीं है। चूंकि त्रेता में तपस्या का अधिकार केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय को है, इसलिए इनके अलावा कोई भी दूसरा व्यक्ति तपस्या करता है तो वह अधर्म माना जाएगा और उसके प्रभाव से राजा को अपयश और पाप का भागी बनना पड़ेगा। इसलिए ऐसा अधर्म रोकने का नैतिक दायित्व राजा राम का है। नारद सुझाव देते हैं कि राम अपने राज्य का दौरा कर तुरंत उस व्यक्ति को खोजें।


राम उस अज्ञात दुष्कर्मी को दंड देने के इरादे से अस्त्र-शस्त्र लेकर निकल पड़ते हैं। आखिर में वह दक्षिण में शैवल पर्वत के पास पहुंचते हैं। वहां एक सरोवर के पास सिर नीचे लटकाए एक तापस मिल जाता है। राम उसका परिचय, जाति और तपस्या करने का कारण पूछते हैं। तापस कहता है, 'श्रीराम! मेरा नाम शम्बूक है। मैं शूद्र जाति का हूं लेकिन तपोबल से सशरीर देवलोक जाना चाहता हूं।'


शम्बूक के इतना कहते ही श्रीराम ने तलवार निकाली और शम्बूक का सिर धड़ से अलग कर दिया। देवलोक से फूलों की वर्षा हुई और देवताओं ने राम के इस धर्म-सम्मत कार्य से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान मांगने को कहा। राम ने देवताओं से ब्राह्मण के पुत्र को दोबारा जीवित करने को कहा तो देवताओं ने सहर्ष उनकी बात मान ली। ब्राह्मण का पुत्र जीवित हो उठा। इससे पता लगता है कि देवताओं ने श्रीराम के हाथों शम्बुक की हत्या का पूरा समर्थन किया।



पद्मपुराण (सृष्टिखण्ड अध्याय ३२।८९ तथा उत्तरखण्ड अध्याय २३०।४७) में भी देवताओं के बरदान से द्विज-पुत्र के जीवित होने का उल्लेख है महाभारत शान्तिपर्व में कहा गया है कि

 "श्रूयते शम्बुके शूद्रे हते ब्राह्मणदारकः

जीवितो धर्ममासाद्य रामात् सत्यपराक्रमात् ॥

(महाभारत  (१२।१४९।६२)

इसमें देवताओं के बरदान से नहीं किन्तु राम के धर्म से द्विजपुत्र का पुनर्जीवन होना माना गया है।

आनन्दरामायण के अनुसार मृत बालक के माता-पिता को प्रीतिपूर्वक कहा गया था कि यदि उनका पुत्र पुनर्जीवित न होगा तो उन्हें और लव और कुश मिल जायेंगे । 

ब्राह्मण ही नहअयोध्या में पांच शव और एकत्रित हो गये मे एक क्षत्रिय, एक वैश्य,एक तेली, एक लुहार की पुत्रवधु, एवं एक चमार। राम ने जैसे ही शंबूक को मारा सब जीवित हो गये। 

राम ने पहले शंबूक को बरदान दिया। उसने अपने उद्धार के अतिरिक्त अपनी जाति के लिए सद्गति मांगी। राम मे रामनाम का जप और कीर्तन शूद्रो की सद्गति का उपाय बताया। यह भी कहा कि सूद्र लोग आपस में मिल कर एक दूसरे से मिलते हुए नमस्कार के रूप में राम राम कहेंगे। इससे उनका उद्धार होगा। तुम भी मेरे हाथ से मरकर बैकुण्ठ जाओगे।


वेदादि शास्त्रोक्त कर्म ही धर्म है। यह


" तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।" (गीता १६।२४ )


"चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः ।" ( मीमांसा  दर्पण १।१।१२ )


आदि से स्पष्ट है। तदनुसार चातुवर्ण्यधर्म के विपरीत आचरण अधर्म है। राम ने शम्बूक शुद्र को ही नहीं धर्मविपरीत ब्राह्मण रावण को भी प्राणदण्ड दिया था। अतः उनकी निष्पक्षता स्पष्ट है । धर्म पर चलनेवाले वानरों, भालुओं, गीध, काक तथा कोल, भिल्ल, किरात, निषाद आदि सबका ही आदर किया था। कोई भी कर्म अधिकारानुसार ही पुण्य हो सकता है। अनधिकारी का वेदाध्ययन, यश और तप भी पाप ही होता है। संन्यासी के स्वर्ण, ब्रह्मचारी को ताम्बूल तथा चोर को अभय का दान पाप ही है-.


"यतये काश्चनं दत्त्वा ताम्बूलं ब्रह्मचारिणे । 

चौराय चाभयं दत्वा दातापि नरकं व्रजेत् ॥”

 

एक यातायात सिपाही का अपना काज छोड़कर किसी शिष्ट की रक्षा जैसे अच्छे काज में लगना भी अपराध है । स्वकर्तव्य में निष्ठा ही धर्म है-


"स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि ं लभते नरः ।" ( गीता० १८।४५ )


"स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः ।


विपरीतस्तु दोषः स्यादुभयोरेष निश्चयः ॥” ( पुराणवचन )


यातायात सिपाही के अन्यकार्याभिमुख होने पर यदि मोटर आदि का एक्सीडेन्ट हो जाय तो इसका उत्तरदायित्व सिवा सिपाही के किसके ऊपर होगा ? वह एक मनुष्य को बचाने के लिए अपने कर्तव्य से विमुख होता है तो नियन्त्रण न होने से अनेक एक्सीडेन्ट हो सकते हैं। सैकड़ों शिष्टों का जीवन संकटग्रस्त हो सकता है। अतः स्वधर्मविमुख अवश्य ही दण्डनीय है ।


एक न्यायाधीश के सामने किसी हत्यारे का हत्या का अपराध सिद्ध हो जाने पर न्यायाधीश का कर्तव्य है कि उसे प्राणदण्ड का आदेश दे, फिर भले ही उसके बूढ़े माँ बाप तथा युवती स्त्री एवं दुधमुंहे बालकों का जीवन खतरे में पड़ जाय । यदि शम्बूक के समान कोई स्वास्थ्य अधिकारी ( हेल्थ डिपार्टमेण्ट का अधिकारी ) सफाई का इन्चार्ज अपने पद का चार्ज बिना दिये तपस्या में बैठ जाय और सफाई की गड़बड़ी से प्लेग, कालरा आदि फैलने से ब्राह्मण आदि वर्णों के बालक मर जाये तो स्पष्ट ही इसका उत्तरदायित्व उसी पर है। जो अपना काम छोड़कर तप में बैठा है। हरएक समझदार उसके लिए प्राणदण्ड उचित हो समझेगा । कर्तव्यपालन को उपेक्षा का दुष्परिणाम सर्वप्रसिद्ध ही है । शास्त्रों में तप का विधान चतुर्थ वर्ग के लिए नहीं है। वैदिक चातुर्वर्ण्यधर्म का उल्घंन करने के कारण ही ब्राह्मण रावण और शुद्ध शम्बूक दोनों को दण्ड दिया गया था। कोई भी बुद्धिमान् यह भलीभांति समझ सकता है कि जैसे ब्राह्मण अपना कर्म छोड़कर शूद्र का कर्म करे तो अपराधी होगा वैसे ही शूद्र अपना कर्म छोड़कर ब्राह्मण का कर्म करने पर अपराधी क्यों न होगा ? और जो अपराधी है उसे दण्ड तो मिलेगा ही।

जय जय सीताराम।

पं. राजेश मिश्र "कण"


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