नर कौन है ? मनुष्य किसे कहते है?


नर कौन है?


नित्यानुष्ठाननिरतः सर्वसंस्कारसंस्कृतः ।

वर्णाश्रम- सदाचार-सम्पन्नो 'नर' उच्यते ॥


अर्थात् नित्य कर्म करनेवाला, सब संस्कारों से पुनीत देह, और वर्ण आश्रम, एवं सदाचार से सम्पन्न व्यक्ति ही (उक्त श्लोककी परिभाषा में) नर कहा जाने योग्य है।


यूँ तो जन गणना की पुस्तक में नामाङ्कित करानेवाले अन्यून तीन अर्व नर-मनुष्य-प्रादमी आज संसार में विद्यमान हैं, परन्तु काली स्याही के साथ रजिस्टर की खाना पूरी करने मात्र से कोई व्यक्ति 'नर' प्रमाणित नहीं हो सकता किन्तु वेदादि शास्त्रों में नर की एक विशेष परिभाषा निश्चित की गई है तदनुसार तादृश आचार, विचार, व्यवहार और रहन-सहन रखनेवाला व्यक्ति ही उक्त उपाधि का वास्तविक अधिकारी हो सकता है।


यह बात सर्व विदित है कि संस्कृत देवभाषा का प्रत्येक शब्द यौगिक होने के कारण अपनी मूल धातु के अनुरूप किसी विशिष्ट अर्थ का द्योतक होता है। इस तरह संस्कृत के प्रत्येक शब्द के साथ धर्यवाङ्मय के अनेक तत्व नितरी सुसम्बद्ध

रहते हैं। जैसे—मनुष्य, मानुष, मर्त्य, मनुज, मानव और नर आदि मनुष्य शब्द के सभी पर्यायों में जहाँ मानवता का एक खास संकेत मिलता है यहां उसकी इतिकर्तव्यता का भी सुस्पष्ट आभास दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिये हम यहाँ एक दो शब्दों का दिग्दर्शन कराते हैं।


पहिले 'नर' शब्द को ही लीजिये। यह 'तृ नये' धातु से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है नयनीति सम्पन्न व्यक्ति, अथवा अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि पर नेतृत्व की क्षमता रखने वाला नेता । अब यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि वह नीति क्या है जिससे कि सम्पन्न हो जाने पर कोई व्यक्ति 'नर' बन सकता है और शरीर इंद्रिय आदि क्या हैं और उन पर शासन करने के क्या क्या उपाय किंवा अपाय हैं ? इन सब प्रश्नों का साङ्गोपाङ्ग रहस्य जानने के लिये वेद से लेकर हनुमान चालीसा पर्यन्त समस्त प्रासाहित्य का आलोड़न करना होगा। इस तरह संस्कृत भाषा के किसी भी एक शब्द का अनुसन्धान करने पर समस्त शास्त्र उसी का उपबृंहण जान पड़ेंगे।

इसी प्रकार 'मनुष्य' शब्द भी 'मनु ज्ञाने' और 'सिदु तन्तु सन्ताने' इन दो धातुओं से निष्पन्न माना है। निरुक्तकार यास्काचार्य इसका निर्वचन करते हुए लिखते हैं कि-


'मत्वा कर्माणि सोव्यन्ति इति मनुष्याः (निरुवत 


अर्थात् जो व्यक्ति (मत्वा) मनन विवेकपूर्ण (कर्माणि) = समस्त क्रिया कलाप को (सीव्यन्ति) सीते हैं कटे फटे एक दूसरे से जुदा हुए मानव समाज को विधिवत् सुसंगठित बनाते हैं ये 'मनुष्य' कहे जाते हैं ।

तात्पर्य यह हुआ कि जिस व्यक्ति की समस्त हलचल ज्ञान पर आधारित हो, जो पहिले समझता है और फिर करता है- पहिले तोलता है फिर बोलता है-पहिले सोचता है फिर कदम उठाता है- वही बुद्धिजीवी जन्तु 'मनुष्य' पदवी का अधिकारी है।


तत्तत् कार्य कलाप की औौचित्य किंवा अनौचित्य सीमा को निर्धारित करने वाले मानबिन्दु का ही अपर नाम 'मर्यादा' है । मर्यादा का पालन करने वाला जन्तु ही तादृश आचरण के प्रताप से अपने जन्मजात पाशविक दुर्गुणों से उन्मुक्त हो जाने के कारण 'नर' बन जाता है।

जय सीताराम ।

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