जीवित श्राद्ध कैसे करे

 आज तो अधिकांश घरोंमें जीवितावस्थामें ही माता-पिताकी दुर्दशा देखी जा रही है फिर मृत्युके अनन्तर और्ध्वदैहिक संस्कार सम्पन्न करनेका प्रश्न ही नहीं। यद्यपि माता-पिताके जीवनकालमें उनके पुत्रादि उत्तराधिकारियोंके द्वारा भरण-पोषणमें जो उनकी उपेक्षा हो रही है और इससे उन्हें जो कष्ट हो रहा है, वह कष्ट तो इस शरीरके रहनेतक ही है, उसके बाद समाप्त हो जानेवाला है, किंतु शरीरके अन्त होनेके अनन्तर जीवके सुदीर्घ कालतककी आमुष्मिक 

सद्गति-दुर्गतिसे सम्बन्धित औध्वदैहिक संस्कारोंके न कर लेनेकी सम्भावनासे माता-पिता आदि जनोंमें घोर निराशा उत्पन्न होती है। इस अवसादसे त्राण पानेके लिये अपने जीवनकालमें ही जीवको अपना जीवच्छ्राद्ध कर लेनेकी व्यवस्था शास्त्रने दी है।



अपनी जीवितावस्थामें ही अपने पुत्रादिद्वारा अपनी उपेक्षाको देख-समझकर उन पुत्रादि अधिकारियोंसे अपने आमुष्मिक श्रेयः-सम्पादनकी आशा कैसे की जा सकती है? पुत्रादि उत्तराधिकारियोंको अपने दिवंगत माता-पिताके कल्याणके लिये अपनी शक्ति और सामर्थ्यके अनुरूप इन सब कृत्योंका किया जाना आवश्यक है - पापके प्रायश्चित्तके रूपमें जीवनमें किये गये व्रत आदिकी पूर्णताके लिये अकृत उद्यापनादि विधियोंके अनुष्ठान, अष्टमहादान, दश-महादान, पंचधेनुदान, मलिनषोडशी, मध्यमषोडशी, उत्तमषोडशी, सपिण्डीकरण, आनुमासिकश्राद्ध, सांवत्सरिक एकोद्दिष्ट एवं पार्वणश्राद्ध आदि। इसीलिये शास्त्रमें उत्तराधिकारियोंके रहते हुए भी जीवच्छ्राद्ध कर लेनेकी व्यवस्था दी गयी है-


जीवन्नेवात्मनः श्राद्धं कुर्यादन्येषु सत्स्वपि ।


(हेमाद्रि पृ० १७१०, वीरमित्र० श्राद्धप्र० पृ० ३६३) साधनसम्पन्न होते हुए भी भगवत्कृपाका अवलम्ब लेकर जो व्यक्ति अपने आमुष्मिक कल्याणके लिये प्रवृत्त नहीं होता, ऐसे व्यक्तिको श्रीमद्भागवत (११।२०।१७) में 'आत्महा' की संज्ञा दी गयी है-


नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्। मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा ॥


अर्थात् यह मनुष्य-शरीर समस्त शुभ फलोंकी प्राप्तिका मूल है और अत्यन्त दुर्लभ होनेपर भी अनायास सुलभ हो गया है। इस संसार-सागरसे पार जानेके लिये यह एक सुदुढ़ नौका है। शरण-ग्रहणमात्रसे ही गुरुदेव इसके केवट बनकर पतवारका संचालन करने लगते हैं और स्मरणमात्रसे ही मैं अनुकूल वायुके रूपमें इसे लक्ष्यकी ओर बढ़ाने लगता हूँ। इतनी सुविधा होनेपर भी जो शास्त्रप्रतिपादित अनुष्ठान करके इस शरीरके द्वारा संसार-सागरसे पार नहीं हो जाता, वह तो अपने हाथों अपने आत्माका हनन- अध:पतन कर रहा है।


अन्यत्र भी कहा गया है कि जबतक यह शरीर स्वस्थ है, रोगोंसे रहित है, जरावस्था अभी दूर है और जबतक इन्द्रियोंकी शक्ति अप्रतिहत है और जबतक आयु क्षीण नहीं हो जाती, बुद्धिमान् व्यक्तिको चाहिये कि उससे पहले ही अपने आत्मकल्याणके लिये महान् प्रयत्न कर ले। भवनमें आग लग जाय तो फिर कुआँ खोदनेका श्रम करनेसे क्य लाभ है-


यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः । आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् सन्दीप्ते भवने तु कूपखनने प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥


अतः जीवनकालमें अपने उद्देश्यसे किये जानेवाले श्राद्धादि कृत्योंका सम्पादन आवश्यक प्रतीत होता है। जीवच्छ्राद्ध-सम्बन्धी वचन लिंगपुराण, आदिपुराण, आदित्यपुराण, बौधायनगृह्यशेषसूत्र, वीरमित्रोदयश्राद्धप्रकाश कृत्यकल्पतरु, हेमाद्रि (चतुर्वर्गचिन्तामणि) आदि ग्रन्थोंमें प्राप्त होते हैं। आचार्य शौनकके नामसे भी जीवच्छ्राद्धकी व्यवस्था प्राप्त होती है।

एक शंका यह होती है कि पत्नीके रहते पुरुषको जीवच्छ्राद्ध नहीं करना चाहिये, इसका कारण इसमें पुत्तलदाह


आदिके कारण पत्नीको वैधव्यकी भावना बन सकती है। परंतु इसका समाधान यह है कि पत्नीका जीवच्छ्राद्ध पूर्वमें


कराकर पुरुष अपना श्राद्ध करे।


यदि कोई व्यक्ति अपनी अस्वस्थता आदिके कारण स्वयं श्राद्ध करनेमें सक्षम नहीं है तो प्रतिनिधिके द्वारा भी श्राद्ध करा सकता है।


अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है। बौधायनगृह्यसूत्र (पितृमेधसूत्र २।९।५७।१) में कहा गया है- 'जीवता स्वार्थोद्देश्येन कर्तव्यं श्राद्धं जीवच्छ्राद्धमित्युच्यते ।"


जय जय सीताराम ।

No comments:

Post a Comment

जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...