जीवित श्राद्ध का माहात्म्य

 लिंगपुराणमें जीवित श्राद्ध की महिमाका प्रतिपादन इस प्रकार हुआ है -ऋषियोंके द्वारा जीवच्छ्राद्धके विषयमें पूछनेपर सूतजीने कहा- हे सुव्रतो! सर्वसम्मत जीवच्छ्राद्धके विषयमें संक्षेपमें कहूँगा। देवाधिदेव ब्रह्माजीने पहले वसिष्ठ, भृगु, भार्गवसे इस विषयमें कहा था। आपलोग सम्पूर्ण भावसे सुनें, मैं श्राद्धकर्मके क्रमको और साक्षात् जो श्राद्ध करनेके योग्य हैं, उनके क्रमको भी बताऊँगा तथा जीवच्छ्राद्धकी विशेषताओंके सम्बन्धमें भी कहूँगा, जो श्रेष्ठ एवं सब प्रकारके कल्याणको देनेवाला है।


मृत्युको समीप जानकर पर्वतपर अथवा नदीके तटपर, वनमें या निवासस्थानमें प्रयत्नपूर्वक जीवच्छ्राद्ध करना चाहिये। जीवच्छ्राद्ध कर लेनेके अनन्तर वह व्यक्ति कर्म करे अथवा न करे, ज्ञानी हो अथवा अज्ञानी हो, श्रोत्रिय हो अथवा अश्रोत्रिय हो, ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो अथवा वैश्य हो-अपनी जीवितावस्थामें ही योगीकी भाँति कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है। उसके मरनेपर उसका और्ध्वदैहिकसंस्कार किया जाय अथवा न किया जाय; क्योंकि वह स्वयं जीवन्मुक्त हो जाता है। यतः वह जीव जीवन्मुक्त हो जाता है, अतः नित्य-नैमित्तिकादि विधिबोधित कार्योंके सम्पादन करने अथवा त्याग करनेके लिये वह स्वतन्त्र है। बान्धवोंके मरनेपर उसके लिये शौचाशौचका विचार भी नहीं है। उसे सूतक प्रवृत्त नहीं होता, वह स्नानमात्रसे शुद्ध हो जाता है। जीवच्छ्राद्ध कर लेनेके अनन्तर अपनी पाणिगृहीती भार्यामें अपने द्वारा पुत्रकी उत्पत्ति हो जाय तो उसे अपनी नवजात सन्ततिके समस्त संस्कारोंको सम्पादित करना चाहिये। ऐसा पुत्र ब्रह्मवित्और कन्या सुव्रता अपर्णा पार्वतीकी भाँति हो जाती है, इसमें सन्देह नहीं। जीवच्छ्राद्धकर्ताक कुलमें उत्पन्न हुए लोग तथा पिता-माता भी नरकसे मुक्त हो जाते हैं। जीवच्छ्राद्धकर्ता मातृ-पितृ ऋणसे भी मुक्त हो जाता है। उसके कालकवलित होनेपर उसका दाह कर देना चाहिये अथवा उसे गाड़ देना चाहिये।*


जैसे मृत्युके समय अचिन्त्य, अप्रमेयशक्तिसम्पन्न भगवन्नाम मुखसे निकल जाय अथवा मोक्षभूमिमें मृत्यु हो जाय तो उस जीवकी मुक्ति सुनिश्चित हो जाती है, उसकी सद्गतिके लिये श्राद्धादि और्ध्वदैहिक कृत्योंकी अपेक्षा नहीं होती, तथापि शास्त्रबोधित विधिका परिपालन करनेकी बाध्यता होनेके कारण उत्तराधिकारियोंको सम्पूर्ण और्ध्वदैहिक कार्य अवश्य करने चाहिये। उसी प्रकार (दायभाग ग्रहण करनेवाले) पुत्रादिको जीवच्छ्राद्धकर्ताक मरनेपर उसके उद्देश्यसे समस्त और्ध्वदैहिक कृत्योंको करना चाहिये, अन्यथा वे विकर्मरूप अधर्मके भागी होंगे। ऐसा न करनेवालेके प्रति श्रीमद्भागवतमें कहा गया है कि जो अजितेन्द्रिय व्यक्ति शास्त्रबोधित विधि-निषेधके प्रति अज्ञ होनेके कारण वेद- विहित कर्मोंका पालन नहीं करता, वह विकर्मरूप अधर्मसे युक्त हो जाता है। इस कारण वह जन्म-मरणके बन्धनसे मुक्त नहीं होता-


नाचरेद् यस्तु वेदोक्तं स्वयमज्ञोऽजितेन्द्रियः। विकर्मणा ह्यधर्मेण मृत्योर्मृत्युमुपैति सः ॥


(श्रीमद्भा० ११।३।४५) व्यक्ति अपनी जीवितावस्थामें अपने कल्याणके सम्पादनमें जब प्रवृत्त होगा तो वह जीवच्छ्राद्ध करनेके लिये अपेक्षित उत्तमोत्तम देश, काल, वित्त तथा कारयिता आचार्य और अन्य अपेक्षित व्यवस्थाओंको अपनी पूरी शक्ति लगाकर सम्पादित करना चाहेगा तथा अपनी पूरी शक्ति एवं सामर्थ्यके अनुसार समस्त क्रियाओंके अविकल अनुष्ठानमें प्रवृत्त होगा। अपनी जीवितावस्थामें और्ध्वदैहिकदान, प्रायश्चित्त और श्राद्धादि कर्मोंके यथावत् अनुष्ठान कर लेनेसे उसे कृतकृत्यताकी प्रतीति होना स्वाभाविक है। ऐसी अवस्थामें निम्नलिखित अभियुक्तोक्तिके आधारपर वह मृत्युरूप महादुःखसे सर्वथा निश्चिन्त होकर प्रिय अतिथिकी भाँति मृत्युकी प्रतीक्षा करते हुए तथा सत्कर्मोंका अनुष्ठान करते हुए जीवनयापन करेगा-

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