श्रीराम ने लक्ष्मण जी को सहोदर भ्राता क्यो कहा


सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥ ७ ॥ अस बिचारि जिय जागहु ताता मिलै न जगत सहोदर भ्राता॥

  इस पर अनावश्यक रुप से तूल दिया जा रहा है। यह कोई नया प्रश्न नही , वर्षो से इसके उत्तर मे तरह तरह के तर्क जोडे जाते रहे है। विविध विद्वानो ने अपना अपना पक्ष रखा है, जिसमे- पायस से उत्पत्ति के कारण, कौशल्या के गर्भ मे आठ मास रहने की बात, एक पिता से उत्पन्न होने के कारण आदि तरह तरह की बाते कही जाती रही है। किन्तु जब इन कथित प्रमाणो को शब्दार्थ की कसौटी पर कसते है, तो ये सभी कथन स्वतः ही निर्मूल हो जाते है।

  अतैव जिज्ञासुगण से निवेदन है कि इस लेख को ध्यान पुर्वक मनन करते हुए शान्तचित्त से पढ़े।

     तुलसी जी ने प्रसंग आरंभ करने के पहले ही एक संकेत स्पष्टरुप से किया है, जिसपर ध्यान देना आवश्यक है।

उहाँ राम लछिमनहि निहारी बोले बचन मनुज अनुसारी ।।

शब्दार्थ- अनुसारी-सदृश, समान अनुसरण करते हुए।


अर्थ-उधर लक्ष्मणजीको देखकर श्रीरामजी प्राकृत मनुष्योंके समान वचन बोले ॥ 

 नोट-१ इस स्थानपर 'उहाँ' पद देकर जनाया कि कवि इस समय श्रीहनुमानजी के साथ हैं। जहाँका चरित अब लिखते हैं, वहाँसे वे बहुत दूर हैं।


नोट-२ आगे उत्पन्न होनेवाली शङ्काओंकी निवृत्तिके लिये यहाँ प्रसङ्ग आदिमें ही 'मनुज अनुसारी' पद देकर जनाया कि 'जस काछिय तस चाहिय नाचा'; अतः शङ्काएँ न करना दोहा ६० देखिये। 

नोट-३ 'निहारी' से जनाया कि आधी रात्रितक सावधान रहे कि पवनसुत शीघ्र ही ओषधि लेकर आते हैं। आधी रात बीतनेपर चिन्ता हुई भाईकी ओर देखा तो शोकका उद्दीपन हो आया


नोट-४ यहाँ भाईको देखकर दुःखके वचन बोलने में 'लछिमन' नाम दिया

 यहॉ मुख्यबिन्दु जो ध्यान देने योग्य है वह है कि *बोले बचन मनुज अनुसारी*

 अब आते है मूल प्रसंग पर

सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥ ७ ॥ अस बिचारि जिय जागहु ताता मिलै न जगत सहोदर भ्राता॥


अर्थ- पुत्र, धन, स्त्री परिवार (कुटुम्ब) संसारमें आरंवार होते और जाते हैं ॥ ७॥

 जगत्‌में सहोदर भ्राता (बार-बार) नहीं मिलते, ऐसा जीसे विचारकर होशमें आ जाओ ॥ ८॥ 


नोट-१ 'सहोदर' का अर्थ है एक पेट से , एक मातासे उत्पन्न यथा-समानोदर्यसोदयंसगसहजा समाः इति (अमरकोश)- (पु०रा० फु०) वाल्मीकीयमें इन चौपाइयोंका समानार्थक श्लोक है। उसमें भी 'सहोदर' शब्द आया है। यथा-'देशे देशे कलत्राणि देशे देशे च बान्धवाः तं तु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदरः ॥ (१०१।१४)

जो एक ही गर्भ से उत्पन्न है वही सहोदर है।


   'सहोदर भ्राता का प्रश्न उठाकर जमीन आसमानके कुलाबे मिलाये जाते हैं। श्रीरामजी यह नहीं कहते कि तुम मेरे सहोदर भ्राता हो' या 'हे सहोदर भ्राता।

 प्रत्युत वे कहते हैं- 'सो अपलोक सोक सुत तोरा।' इसमें स्पष्टरूपसे वे 'सुत' सम्बोधन कर रहे हैं तो क्या श्रीलक्ष्मणजी श्रीरामजी के पुत्र थे? वस्तुतः उस पूरे प्रसङ्गपर विचार करनेसे यही निश्चित होता है कि यह सब विलाप प्रलाप नर-गति है।


'मर्यादापुरुषोत्तमका वचन है 'पूषा न कहउँ मोर यह बाना' तब वे असत्य कैसे कहेंगे?" ऐसा तर्क लोग करते हैं पर वे यह नहीं विचारते कि मर्यादापुरुषोत्तमता है क्या चीज? सुष्टधारम्भ कालसे जगत्के लिये लोक वेद के अनुसार बँधे नियमका नाम मर्यादा है। उन सामयिक नियमोंक ठीक-ठीक पालन करनेका नाम मर्यादापुरुषोत्तमता है। अनेक नियमोंमें एक यह भी प्रख्यात नियम है कि 'विषादे विस्मये कोपे हास्ये दैन्यमेव च गोब्राह्मणरक्षायां वृत्यर्थे प्राणसंकटे स्त्रीषु नर्मविवाहेषु नानृतं स्याजुगुप्सितम्॥ (धर्मविवेकमाला) विषादकी दशामें मनुष्य मूर्छित तो कम होते हैं, परन्तु विक्षिप्त प्रायः हो जाते हैं और


कविने आदिमें कह दिया है कि बोले वचन मनुज अनुसारी और अन्तमें 'नरगति भगत कृपालु देखाई' कहकर तब प्रभुके इन वचनोंको 'प्रलाप' विशेषण दिया है- *'प्रभु प्रलाप सुनि कान विकल भए बानर निकर।* ' 'प्रलाप ' का अर्थ है- 'निरर्थक बात, अनाप शनाप प्रलापोऽनर्थकं वचः' (अमरकोश)। ज्वर आदिके वेगमें लोग कभी-कभी प्रलाप करते हैं। वियोगियोंकी दस दशाओंमेंसे एक यह भी है। इति (हिन्दी- -शब्द-सागर)


 'विद्वानोंकी राय है कि देवता मनुष्यका आदर्श नहीं हो सकता। मनुष्योंका अनुकरणीय होनेके लिये देवता और ईश्वरको भी अपना देवत्व एक ओर रखकर मनुष्य सदृश बर्ताव करना पड़ता है। इसीके अनुसार तुलसीदासजीके श्रीरामचन्द्र ईश्वर होते हुए भी मनुष्योचित कार्य करते हैं। उनका देवत्व उनके मनुष्यत्वको दवा नहीं देता। यही चित्रण चातुरी है। 


यहाँ रघुनाथजीने जो कुछ कहा है वह नरत्व और प्रलाप दशामें कहा है। इसलिये पाठकोंको विषयकी सचाईपर ध्यान नहीं देना चाहिये, वरन् रघुनाथजीको नरलीला और काव्यके रसाङ्गपर ध्यान देना चाहिये। फिर किसी प्रकारकी शङ्काकी गुंजाइश ही नहीं रह जाती।' 'यहाँ मानुषीय प्रकृतिके अनुसार रामचन्द्रजीकी व्याकुलता और शोक प्रदर्शित करना कविको अभीष्ट है, इसीसे उन्होंने जान-बूझकर कुछ ऐसी असङ्गत बातें कहलायी हैं, जिनका ठीक-ठीक अर्थ करना असम्भव सा प्रतीत होता है।'


ईश्वरमें प्रलाप नहीं हो सकता। इसीसे 'मनुज' और 'नर' पद दिया है, जिसका भाव ही है कि मनुष्य ऐसा प्रलाप करते हैं। रावणकी मृत्यु नरके हाथ है। ब्रह्माके वचन सत्य करनेके लिये यहाँ नरवत् प्रलाप दिखाया है।

 और इसलिए ही आरंभ मे ही  *मनुज अनुसारी* व अन्त मे *नरगति भगत कृपालु देखाई* *प्रभु प्रलाप* कहकर सभी भ्रान्ति का उन्मूलन कर दिया है।

     जय जय सीताराम

     पं़ राजेश मिश्र कण

संपुर्ण बजरंग बाण

 पवित्र होकर हनुमानजी का पूजन करे। ध्यान करे।

हेमशैलाभदेहं

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् सकल गुण निधानं वानराणामधीशं, रघुपति प्रियभक्त वातजातं नमामि ।। 

बंजरंगबाण

निश्चय प्रेम प्रतीत ते. विनय करें सनमान तेहि के कारज सकल शुभ सिद्ध करें हनुमान।। जय हनुमंत संत हितकारी सुन लीजै प्रभु अरज हमारी जन के काज विलंब न कीजें आतुर दौर महासुख दीजै ।। जैसे कूदि सिंधु के पारा , सुरसा बदन पैठि विस्तारा।  आगे जाय लंकिनी रोका मारेहु लात गई सुरलोका।।  जाय विभीषण को सुख दीन्हा सीता निरखि परम पद लीन्हा। बाग उजारि सिंधु मह बोरा अति आतुर यमकातर तोरा ।। अक्षय कुमार मार संहारा , लुमि लपेटि लंक को जारा।।  लाह समान लंक जरि गई , जय-जय धुनि सुरपुर नभ भई।


अब बिलंब केहि कारण स्वामी कृपा करहु प्रभु अन्तरयामी,  जय-जय लक्ष्मण प्राण के दाता आतुर होइ दुःख करहू निपाता।

जय गिरधर जय-जय सुख सागर सुर समूह समरथ भटनागर ।। ॐ हनु हनु हनुमंत हठीले बैरिहिं मारू वज्र के कीले ।।


गदा व्रज लै बैरहिं मारौ महाराज निज दास उबारौ।। सुनि हुंकार हुंकार दै धावो वज्र गदा हनु विलंब न लावौ।।


ॐ ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीशा ॐ हुं हुं अरि उर शीशा ।। सत्य होय हरि शपथ पायके रामदूत धरू मारू धायके । जय जय जय हनुमान अगाधा दुःख पावत जन केहि अपराधा। पूजा जप तप नेम अचारा । नहिं जानत हौं दास तुम्हारा। वन उपवन मग गिरी गृह मांही तुम्हरें बल हो डरपत नाही... पायं परौं कर जोरि मनावौं, अपने काज लागि गुण गावौं।।


जय अंजनी कुमार बलवंता शंकर सुवन बीर हनुमंता ।। बदन कराल काल कुल घालक राम सहाय सदा प्रतिपालक ।। भूत प्रेत पिसाच निसाचार अग्नि वैताल काल मारीमर ।।


इन्हें मारू तोहि सपथ राम की राखु नाथ मर्यादा राम की। जनक सुतापति दास कहावौ ताकी सपथ विलंब न लावौ ।। चरण पकरि कर तोहि मनायौ एहि अवसर अब केहि गुहरावौ।। उठु उठु उठु चलु राम दोहाई पाय परौं कर जोरि मनाई।। ॐ चं. चं. चं. चं चपल चलन्ता, ऊँ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता । ऊँ हं हं हांक देत कपि चंचल

ॐ सं सं. सहमि पराने खलदल ।। अपने जन को तुरंत उबारौ सुमिरत होत आनंद हमारो ।। ताते विनती करौं पुकारी हरहु सकल दुःख विपत्ति हमारी। परम प्रबल प्रभाव प्रभु धायौ मेटि सकल दुःख दरस दिखावौ।।


हे कपिराज काज कब ऐहौ अवसर चूकि अंत पछितेहौ।। जन की लाज जात एहि बारा धावहु हे कपि पवन कुमारा।। जयति जयति जय जय हनुमाना जयति जयति गुणज्ञान निधाना ।। जयति जयति जय जय कपिराई जयति जयति जय जय सुखदाई। जयति जयति जय राम पियारे जयति जयति जय सिया दुलारे।। जयति जयति जय मंगलदाता जयति जयति त्रिभुवन विख्याता । यहि प्रकार गावत गुण शेषा । पावत पार नही लवलेषा ।।


राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।। विधि शारदा सहित दिन-राती। गावत कपि के गुण-बहु भॉति।। तुम समान नहिं जग बलवाना करि विचार देखउ विधि नाना। यह जिय जानि शरण हम आये ताते विनय करौं मन लाए। सुनि कपि आरत वचन हमारे हरहु सकल दुःख कष्ट हमारे।। यहि प्रकार विनती कपि केरी जौ जन करे लहै सुख ढेरीं।।

याके पढ़़त वीर हनुमाना। धावत बाण तुल्य बलवाना।। मेटत आय दुःख क्षण माहीं । दे दर्शन प्रभु ढिग जाहीं । पाठ करें बजरंग बाण की हनुमंत रक्षा करैं प्राण की।। डीठ मूठ टोनादिक नाशै,पर कृत यंत्र मंत्र नही त्रासै। भैरवादि सूर करें मिताई आयसु मानि करै सेवकाई ।।


प्रण करि पाठ करै मन लाई । अल्प मृत्यु ग्रह दोष नसाई।


आवृत ग्यारह प्रतिदिन जापै ताकी छांह काल नहि चापै।। दै गूगल की धूप हमेशा करे पाठ तन मिटै कलेशा || यह बजरंग बाण जेहि मारे, ताहि कहो फिर कौन उबारै।। शत्रु समूह मिटै सब आपै। देखत ताहि सुरा सुर कापै।। तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई रहे सदा कपिराज सहाई

दोह

प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।।

तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान।


agama tantra yantra vigyan totka  shaber mantra

Agori tantra kaali tantra kali tantra ravan tantra uddish tantra rahasya



घर का द्वार मुख्यद्वार कहॉ किस दिशा मे होना चाहिए

 मुख्य द्वार


(१) वास्तुचक्रको चारों दिशाओं में कुल बत्तीस देवता स्थित


हैं। किस देवता के स्थान में मुख्य द्वार बनानेसे क्या शुभाशुभ फल होता है, इसे बताया जाता है


पूर्व


१. शिखी- इस स्थानपर द्वार बनाने दुःख, हानि और असे भय होता है। 

२. पर्जन्य- इस स्थानपर द्वार बनानेसे परिवार में कन्याओंकी वृद्धि, निर्धनता तथा शोक होता है।


३. जयन्त- इस स्थानपर द्वार बनानेसे धनको प्राप्ति होती है।

४. इन्द्र-इस स्थानपर द्वार बनाने राज-सम्मान प्राप्त होता है।

 ५. सूर्य इस स्थानपर द्वार बनानेसे धन प्राप्त होता है। (मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनानेसे क्रोधको अधिकता


६. सत्य- इस स्थानपर द्वार बनानेसे चोरी कन्याओ की वृद्धि तथा असत्यभाषणकी अधिकता होती है। 


७भृश- इस स्थानपर द्वार बनाने से क्रूरता अति क्रोध तथा अपुत्रता होती है।


 ८. अन्तरिक्ष- इस स्थानपर द्वार बनानेसे चोरीका भय तथा हानि होती है।


दक्षिण


९. अनिल- इस स्थानपर द्वार बनानेसे सन्तानकी कमी तथा मृत्यु होती है।


१०. पूषा - इस स्थानपर द्वार बनानेसे दासत्व तथा बन्धनकी प्राप्ति होती है।


११. वितथ- इस स्थानपर द्वार बनानेसे नीचता तथा भयकी प्राप्ति होती है।


१२. बृहत्क्षत- इस स्थानपर द्वार बनानेसे धन तथा पुत्रकी प्राप्ति होती है।


१३. यम- इस स्थानपर द्वार बनानेसे धनकी वृद्धि होती है। ( मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनानेसे भयंकरता होती है।) १४. गन्धर्व इस स्थानपर द्वार बनानेसे निर्भयता तथा पशकी प्राप्ति होती है।


(मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनानेसे कृतघ्रता होती है।) 

१५. भृंगराज- इस स्थानपर द्वार बनानेसे निर्धनता, चोरभय तथा व्याधिभय प्राप्त होता है।


१६. मृग- इस स्थानपर द्वार बनाने से पुत्र के बल का नाश निर्बलता तथा रोगभय होता है।


पश्चिम




१७. पिता- इस स्थानपर द्वार बनानेसे पुत्रहानि, निर्धनता तथा शत्रुओंकी वृद्धि होती है। 

१८. दौवारिक- इस स्थानपर द्वार बनाने स्त्रीदुःख तथा शत्रुवृद्धि होती है।


१९. सुग्रीव- इस स्थानपर द्वार बनानेसे लक्ष्मीप्राप्ति होती है।

 २०. पुष्पदन्त- इस स्थानपर द्वार बनानेसे पुत्र तथा धनकी प्राप्ति होती है।


२१. वरुण- इस स्थानपर द्वार बनानेसे धन तथा सौभाग्यको प्राप्ति होती है।


२२. असुर- इस स्थानपर द्वार बनानेसे राजभय तथा दुर्भाग्य प्राप्त होता है।


(मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनानेसे धनलाभ होता है।)

 २३. शोष- इस स्थानपर द्वार बनानेसे धनका नाश एवं दुःखोकी प्राप्ति होती है।


२४. पापयक्ष्मा- इस स्थानपर द्वार बनानेसे रोग तथा शोककी प्राप्ति होती है।


उत्तर


२५. रोग- इस स्थानपर द्वार बनाने से मृत्यु बन्धन, स्त्रीहानि,शत्रुवृद्धि तथा निर्धनता होती है।


२६. नाग- इस स्थानपर द्वार बनानेसे शत्रुवृद्धि, निर्बलता दुःख तथा स्त्रोदोष होता है। २७. मुख्य इस स्थानपर द्वार बनानेसे हानि होती है।


(मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनानेसे पुत्र धन-लाभ होता है।)

 २८. भट- इस स्थानपर द्वार बनानेसे धन-धान्य तथा सम्पत्तिकी प्राप्ति होती है।

  २९. सोम– इस स्थानपर द्वार बनानेसे पुत्र, धन तथा सुखकी प्राप्ति होती है।


३०. भुजग- इस स्थानपर द्वार बनानेसे पुत्रोंसे शत्रुता तथा दुःखोंकी प्राप्ति होती है। (मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनाने से सुख सम्पत्तिकी वृद्धि


होती है।)


३१. अदिति- इस स्थानपर द्वार बनाने से स्त्रियों में दोष, शत्रुओंसे बाधा तथा भय एवं शोकको प्राप्ति होती है।


३२. दिति- इस स्थानपर द्वार बनानेसे निर्धनता, रोग, दुःख तथा विघ्न बाधा होती है।



मुखय द्वारकी स्थिति ठीक जानने की अन्य विधियाँ इस प्रकार है।


(क) जिस दिशामें द्वार बनाना हो, उस ओर मकान की लम्बाईको बराबर नौ भागों में बाँटकर पाँच भाग दायें और तीन भाग बायें छोड़कर शेष (बायीं ओरसे चौथे) भाग द्वार बनाना चाहिये।


दायाँ और वाय भाग उसको मानना चाहिये, जो घरसे बाहर निकलते समय हो।

वास्तु सिद्धि, वास्तुदोष दूर करने के 51 सरल उपाय

संभवतः वास्तुदोष अनेकानेक घरो मे होता ही है, जिसके कारण विविध प्रकार की समस्याये आती रहती है। इस लेख के माध्यम से वास्तुदोष का निराकरण बताया जा रहा है। कुछ ऐसे उपाय जिन्हे अपनाकर आप सरलता से वास्तुदोष दूर कर सकते है।

सामान्यत: गृह से दक्षिण जाने का स्पष्ट निषेध है, इससे धन जन की हानि हेती है। ऐसा प्रत्यक्ष उदाहरण अनेको देखने भी मिले है। 

१-अत्यंत आवश्यक होने पर शांति विधान कर लेना चाहिए।

२- जिस जातक का मंगल उच्च का हो, य शुभग्रहे से दृष्ट होकर शुभभाव मे अपनी अथवा अपने मित्र की राशि मे मार्गी होकर बैठा हो ,  उनको दक्षिण दिशा मे निवास करना उत्तम माना गया है।

  1 घर में अखंडित रूप से 9 बार श्री रामचरितमानस का पाठ य की अखंड कीर्तन करने से वास्तुदोष का निवारण होता है।

2 स्कंदपुराण के अनुसार, हाटकेश्वर-क्षेत्र में शेरुपद नामक तीर्थ के दर्शन मात्र से ही वास्तुजनित दोषों का निवारण होता है

3 मुख्य द्धार के उपर सिंदूर से नौ अंगुल लंबा और नौ अंगुल चौडा स्वास्तिक का प्रतीक बनाये और जहाँ -२ भी वास्तु दोष है वहाँ इस चिन्ह का निर्माण करें तो वास्तुदोष का निवारण हो जाता है।

4 रसोई घर गलत स्थान पर हो तो अग्निकोण में एक बल्ब लगा दें और सुबह-शाम अनिवार्य रूप से जलाये।  


5 बीम के दोष को शांत करने के लिए बीम को सीलिंग टायल्स से ढंक दें। बीम के दोनों ओर बांस की बांसुरी लगायें।


6 घर के दरवाजे पर घोड़ा की नाल (लोहे की) लगाए। यह अपने आप की गिरी होनी चाहिए

7 घर के सभी प्रकार के वास्तु दोष दूर करने के लिए मुख्य द्धार पर  तुलसी का पौधा गमले में लगायें।


8 दुकान की शुभता बढ़ाने के लिए प्रवेश द्धार के दोनों ओर गणपति की मूर्ति या स्टिकर लगीं। एक गणपति की दृष्टि दुकान पर पड़ेगी, दूसरे गणपति की बाहर की ओर।


9 यदि दुकान में चोरी होती हो या अग्नि लगती हो तो भौम यंत्र की स्थापना करें। यह यंत्रवत कोण या पूर्व दिशा में, फर्श से नीचे दो फीट गहरा गढ्ढा खोदकर स्थापित किया जाता है।


10 यदि पॉट खरीदे गए तो बहुत समय हो गए और मकान बनने का योग ना आ रहा हो तो उसमे अनार का पेड़ लगाये।


12   यदि मकान चारो ओर से दुसरे उचे मकानो से घिरा हो तो बॉस की ध्वजा लगाए।

 

13 फैक्ट्री-कारखाने के उद्घाटन के समय चांदी का सर्प पूर्व दिशा में जमीन में स्थापित करें।


14 अपने घर के उतर के कोण में तुलसी का पौधा पाते हैं


15 हल्दी को जल में घोलकर एक पान के पत्ते की सहायता से अपने सम्पूर्ण घर में छिडकाव करें। इससे घर में लक्ष्मी का वास और शांति भी बनी रहती है।


16 अपने घर के मन्दिर में घी का एक दीपक नियमित जलाएँ और शंख की ध्वनि तीन बार सुबह और शाम के समय करने से नकारात्मक ऊर्जा घर से बहार निकलती है।


17 घर में सफाई के लिए झाडू को रास्ता के पास नहीं रखें। यदि झाडू के बार-बार पैर का स्पर्थ होता है, तो यह धन-नाश का कारण होता है। झाडू के ऊपर कोई भारदार वास्तु भी नहीं रखें।


18 अपने घर में दीवारों पर सुंदर, हरियाली से युक्त और मन को प्रसन्न करने वाले चित्र मिलते हैं। इससे घर के मुखिया को होने वाली मानसिक परेशानियों से मुक्ति मिलती है।


19 वास्तुदोष के कारण यदि घर में किसी सदस्य को रात में नींद नहीं आती या स्वभाव चिडचिडा रहता है, तो उसे दक्षिण दिशा की ओर सिर करके शयन कराएं। इससे उसके स्वभाव में बदलाव होंगे और अनिद्रा की स्थिति में भी सुधार होगा।


20 अपने घर के ईशान कोण को साफ सुथरा और खुला रखें। इससे घर में शुभत्व की वृद्धि होती है।


21 अपने घर के मन्दिर में देवी-देवताओं पर चढ़ाए गए पुष्प-हार दूसरे दिन हटा देना चाहिए और भगवान को नए पुष्प-हार अर्पित करना चाहिए।


22 घर के उत्तर-पूर्व में कभी-कभी इकट्ठा होने वाले न होने दें और न ही इहार भारी सामान रखें।


23 अपने वंश की उन्नति के लिए घर के मुख्य द्धार पर अशोक के वृक्ष की ओर से पाते हैं।


24 यदि आपके घर में उत्तर दिशा में स्टोररूम है, तो उसे यहाँ से हटा दें। इस स्टोररूम को अपने घर के पश्चिम भाग या नैऋत्य कोण में स्थापित करें।



 

25 घर में उत्पन्न वास्तुदोष गृह के मुखिया को कष्टदायक होते हैं। इसके निवारण के लिए घर के मुखिया को सातमुखी रूद्राक्ष धारण करना चाहिए।


26 यदि आपके घर का मुख्य द्धार दक्षिणमुखी है, तो यह भी मुखिया के के लिए हानिकारक होता है। इसके लिए मुख्य द्वाद पर श्वेतार्क गणपति की स्थापना करनी चाहिए।


27 अपने घर के पूजा घर में भगवान के चित्र भूलकर भी आमने-सामने नहीं रखना चाहिए इससे बड़ा दोष उत्पन्न होता है।


28 अपने घर के ईशान कोण में स्थित पूजा-घर में अपने घर की वस्तुओं को नहीं रखना चाहिए।


29 पूजा घरों की दीवारों का रंग सफ़ेद हल्का पीला या हल्का नीला होना चाहिए।


30 यदि आपका रसोई घर में रेफ्रिजरेटर नैऋत्य कोण में रखा गया है, तो इसे वहां से हटाकर उत्तर या पश्चिम में रखें।


31 दीपावली या अन्य किसी शुभ मुहूर्त में अपने घर में पूजास्थल में वास्तुदोष नाशक कवच की स्थापना करें और नित्य इसकी पूजा करें। इस कवच को दोषपूर्ण स्थान पर भी स्थापित करके आप वास्तुदोषों से सरलता से मुक्ति पा सकते हैं।


32 अपने घर में ईशान कोण या ब्रह्मस्थल में स्फटिक श्रीयंत्र की शुभ मुहूर्त में स्थापना करें। यह यन्त्र लक्ष्मीप्रदायक भी होता ही है, साथ ही साथ घर में स्थित वास्तुदोषों का भी निवारण करता है।


33 प्रातःकाल के समय एक कंडे / उपले पर थोड़ा अग्नि जलाकर उस पर थोड़ा गुग्गल रखें और 'ाय नारायणाय नम:' मंत्र का उच्चारण करते हुए तीन बार घी की कुछ बूँदें डालें। अब गुग्गल से जो धुँआ उत्पन्न हो, उसे अपने घर के प्रत्येक कमरे में जाने दें। इससे घर की नकारात्मक ऊर्जा ख़त्म होगी और वास्तुदोषों का नाश होगा।


34 घर में किसी भी कमरे में सूखे हुए बाढ़ ना रखें। यदि छोटे गुलदस्ते में रखे हुए फूल सूख जाते हैं, तो नए पुष्प लगा दें और सूखे पुष्पों को निकालकर बाहर फेंक दें।


35 सुबह के समय थोड़ी देर तक लगातार बजने वाली गायत्री मंत्र की धुन चल रही है। इसके अतिरिक्त कोई अन्य धुन भी आप बजा सकते हैं।


36 सायंकाल के समय घर के सदस्य सामूहिक आरती करें। इससे भी वास्तुदोष दूर होते हैं।


37 अगर आपके घर के पास कोई नाला या कोई नदी इस प्रकार बहती हो कि उसके बहाव की दिशा उत्तर-पूर्व को छोड़कर कोई और दिशा में है, या उसका घुमाव घडी कि विपरीत दिशा में है, तो यह वास्तु दोष है। इसका निवारण यह है कि घर के उत्तर-पूर्व कोने में पश्चिम की ओर मुख किए गए, नृत्य करते हुए गणेश की मूर्ति रखें।


38 यदि घर में जल निकालने का स्थान / बोरिंग गलत दिशा में हो तो भवन में दक्षिण-पश्चिम की ओर मुख किए गए पंचमुखी हनुमानजी की तस्वीर लगाएं


39 यदि आपकी इमारत के ऊपर से विद्धयुत तरंगे (उच्च सवेंदी) तार गुजरती हो तो ये तारो से प्रवाहित होने वाली ऊर्जा का घर से निकलने वाली ऊर्जा से प्रतिरोध होता है। इस प्रकार के भवन में नींबुओ से भरी प्लास्टिक मेप को फर्श से सटाकर या थोड़ी जमीन में गाड़ कर घर के इस पार से उस पार बिछा दें, नींबुओं से भरी हुईप दोनों और कम-से-कम तीन फिट बाहर निकलना।



 

40 यदि भवन में प्रवेश करते ही सामने खाली दीवार पड़े तो उस पर भावभंगिमापूर्ण गणेशजी की तस्वीर ढूंढें या स्वास्तिक यंत्र का प्रयोग करके घर के ऊर्जा प्रवाह को बढ़ाया जा सकता है। पर, अनुकूल वास्तुशिल्प सागर के द्वारा ही करवाना चाहिए।


41 अगर टॉयलेट घर के पूर्वी कोने में है तो टॉयलेट शीट इस प्रकार लगवाएं कि उस पर उत्तर की ओर मुख करके बैठें या पश्चिम की ओर।



वास्तु के अनुसार निम्नलिखित बातों का भी ध्यान रखना जरुरी है 

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42 घर के प्रवेश द्वार पर स्वस्तिक या 'आकृति' की आकृति लगाने से घर-परिवार में सुख-शांति बनी रहती है।


43 जो भूखंड या घरों पर मंदिर की पीठ गिरनेती है, वहां रहने वाले दिन-ब-दिन आर्थिक व शारीरिक परेशानियों में घिर जाते हैं।


44 समृद्धि की प्राप्ति के लिए नार्थ-पूर्व दिशा में पानी का कलश अवश्य रखना चाहिए।


45 घर में ऊर्जापूर्ण वातावरण बनाने में सूर्य की रोशनी का विशेष महत्व होता है इसलिए घर की आंतरिक साज-सज्जा ऐसी होनी चाहिए कि सूर्य की रोशनी घर में पर्याप्त रूप में प्रवेश करे।

46 घर में कलह या अशांति का वातावरण हो तो ड्राइंग रूम में फूलों का गुलदस्ता रखना श्रेष्ठ होता है।

47 अशुद्ध वस्त्रों को घर के प्रवेश द्वार के मध्य में नहीं रखना चाहिए।

48 वास्तु के अनुसार रसोई में देवस्थान नहीं होना चाहिए।

49 गृहस्थ के बेडरूम में भगवान के चित्र या धार्मिक महत्व की वस्तुएँ नहीं होनी चाहिए।

50 घरानों देवस्थान की दीवार से शौचालय की दीवार का संपर्क नहीं होना चाहिए।

51 वेध दोष दूर करने के लिए शंख, सीप, समुद्र झाग, कौड़ी लाल कपड़े में या मोली में बांधकर दरवाजे पर लटकते हुए

 


 


 


त्रिपिण्डी श्राद्ध सामाग्री सूची

 बैठने के लिये कुशा आसन- य कम्बल,  दिया मिट्टी का-४०, 

मिट्टी का कलश -३, मिट्टी की हंडिया-१, मिट्टी की परई य कोशा-३, 

पंचपञ्लव-( पीपल, पाकड़, आम, बरगद, गूलर), 

 पलाश पत्तल २०, पलाश का दोनियॉ,२०, 

नया पीढा़-१,

लाल पताका छोटी-१, सफेद पताका छोटी -१, काली पताका छोटी-१, तीन डंडा पताका के लिये, 

फल -२४ (केला छोड़कर कोई भी), 

सफेद पेडा. ५०० ग्रा, बताशा छोटा,१०० ग्रा,

कुश, दूब,तुलसी, फूल (सफेद, लाल, नीला), फूलमाला ५, पानपत्ता १०, घी ५००ग्रा, दूध ५०० ग्रा, दही १००ग्रा,

चावल- १ किलो, तिल काला २५० ग्रा, तिल सफेद, ५० ग्रा, तिल लाल,५० ग्रा, जौ २५० ग्रा, रुई, कच्चा सूत,

 जौ का आटा २५० ग्रा, चावल का आटा २५० ग्रा, सफेद तिल का आटा २५० ग्रा, माचिस, 

 खजूर ५० ग्रा, कागजी नींबू १, बिजौरा नींबू १,

रोरी, लंवग, इलाईची,  सफेद चंदन, कुमकुम, मधु, ईत्र, मौली, जनेउ २० जोडी़, धूपबत्ती, सप्तधान्य, सर्वौषधि, सप्तमृतिका, पंचरत्न, सुपाडी़ १५, पीली सरसो ५० ग्रा, नारियल य गरी गोला ३, 

तिल का तेल १००ग्रा, 

  विष्णु प्रतिमा स्वर्ण की १, ब्रह्मा प्रतिमा चॉदी की,१, रुद्र प्रतिमा तॉबे की १,  सोने की कील २

  कॉसे का लोटा १, कॉसे की कटोरी १, कॉसे की थाली १, तॉबे का लोटा १, काला जूता १, काला छाता १, 

  लाल वस्त्र १ मीटर, सफेद वस्त्र १ मीटर, काला वस्त्र १ मीटर, 

  यजमान के लिये - धोती -गमछा,

  आचार्य व तीन सहायक ब्राह्मण के लिये वरण सामाग्री -  ( धोती, गमछा, कुर्ता बन्डी आदि)

  

 नोट- सभी सामान अपनी सामर्थ्य अनुसार जुटा लेवें।

  जो सामान न मिल सके उसके लिये पहले ही आचार्य को अवगत करा देवे, ताकि आचार्य वैकल्पिक व्यवस्था कर सके।

नारायणबलि की सामाग्री

 बैठने के लिये कुशा आसन- य कम्बल, पलाश (ढाक) की दोनिया य दिया मिट्टी का-६०

मिट्टी का कलश -६,  मिट्टी की हंडिया-४ ढक्कन सहित, मिट्टी की परई २,

पंचपञ्लव-( पीपल, पाकड़, आम, बरगद, गूलर), 

 पलाश पत्तल २०, 

नया पीढा़ य छोटीचौकी-१,


फल -५० (केला छोड़कर कोई भी), 

सफेद पेडा य मिश्री. ५० नग, बताशा छोटा,५० नगा,

कुश, दूब,तुलसी, फूल (सफेद,, फूलमाला ५, पानपत्ता ५०, घी ५००ग्रा, दूध सवा किलो० ग्रा, दही १००ग्रा,

जौ का आटा य चावल- सवा किलो, तिल काला ७५० ग्रा, , जौ २५० ग्रा, रुई, कच्चा सूत,, माचिस, 

 

रोरी १० ग्रा, लंवग२०, इलाईची,२०,   सफेद चंदन२५ग्रा,  कुमकुम१०ग्रा,  मधु ५०ग्रा, ईत्र, मौली, जनेउ २० जोडी़, धूपबत्ती, सप्तधान्य५००ग्रा,  सर्वौषधि १० ग्रा, सप्तमृतिका६ पुडिया,  पंचरत्न६ पुडिया, सुपाडी़ ५०नग,  पीली सरसो ५० ग्रा, नारियल य गरी गोला ६नग,  

तिल का तेल २००ग्रा, कपूर १० ग्रा, रुई १० ग्रा,


सत्येश की स्वर्ण प्रतिमा १,

  विष्णु प्रतिमा स्वर्ण की १, ब्रह्मा प्रतिमा चॉदी की,१, रुद्र प्रतिमा तॉबे की १, प्रेत प्रतिमा रांगा की १, यम प्रतिमा लोहे की १, सोने की कील २

   , कॉसे की कटोरी २, , तॉबे का लोटा १, 

  लाल वस्त्र १ मीटर, सफेद वस्त्र ३ मीटर, काला वस्त्र १ मीटर, पीला वस्त्र १ मीटर, हरा वस्त्र १ मीटर, 

  अष्टशक्ति के लिए-चूडी १६नग, आलता ८नग, नेल पालीश८नग, काजल८ नग, शीशा ८ नग, कंघी ८नग, फीता ८नग, 

  बिष्णु पूजन के लिए सफेद १धोती,  गमछा १

  

  यजमान के लिये - धोती -गमछा,

  आचार्य व पॉच सहायक ब्राह्मण के लिये वरण सामाग्री - अपनी सामर्थ्य अनुसार, सूती वस्त्र पीले रंग का ( धोती, गमछा, कुर्ता बन्डी आदि)

  

 नोट- सभी सामान अपनी सामर्थ्य अनुसार जुटा लेवें।

  जो सामान न मिल सके उसके लिये पहले ही आचार्य को अवगत करा देवे, ताकि आचार्य वैकल्पिक व्यवस्था कर सके।

दुर्गासप्तशती के सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का बृहद स्वरुप, पुर्ण कुंजिका स्तोत्र

 दुर्गाशप्तशती मे दी गई कुंजिका स्तोत्र लघुरुप मे है। रुद्रामल के गौरीतंत्र मे इसका पुरा विवरण दिया गया है।

यह परम दुर्लभ व गोपनीय है।

विनियोग :

 

ॐ  अस्य श्री कुन्जिका स्त्रोत्र मंत्रस्य  सदाशिव ऋषि: ।

अनुष्टुपूछंदः ।

श्रीत्रिगुणात्मिका  देवता ।

ॐ ऐं बीजं ।

ॐ ह्रीं शक्ति: ।

ॐ क्लीं कीलकं ।

मम सर्वाभीष्टसिध्यर्थे जपे विनयोग: ।

 

ऋष्यादि न्यास:

 

श्री सदाशिव ऋषये नमः शिरसि ।

अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे ।

त्रिगुणात्मक देवतायै नमः हृदि ।

ऐं बीजं नमः नाभौ ।

ह्रीं शक्तयो नमः पादौ ।

क्लीं कीलकं नमः सर्वांगे ।

सर्वाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः नमः अंजलौ।


करन्यास:

 

ऐं अंगुष्ठाभ्यां नमः ।

ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा ।

क्लीं मध्यमाभ्यां वषट ।

चामुण्डायै अनामिकाभ्यां हुं ।

विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां वौषट ।

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकर प्रष्ठाभ्यां फट ।


हृदयादिन्यास:

 

ऐं हृदयाय नमः ।

ह्रीं शिरसे स्वाहा ।

क्लीं शिखायै वषट ।

चामुण्डायै कवचाय हुं ।

विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट ।

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरप्रष्ठाभ्यां फट ।

 

ध्यानं: सिंहवाहिन्यै त्रिगुणात्मिका चामुंडा

रक्तनेत्री, रक्तप्रिया, रक्तपुष्पमालाधारिणी

लालवस्त्र भूषिता रक्तनेत्रा मधुपात्रधारणी

मेघगर्जिनि अट्टटाहसिनी दानवकुलघातिनी

दासरक्षिणी रणप्रिया खेटक खड़गधारिणी

कल्याणी जगतजननी देवी भव-भयहारिणी।

                     

श्री-बृहत्-महा-सिद्ध-कुञ्जिका-स्तोत्रम् ॥शिव उवाच॥ शृणु देवि! प्रवक्ष्यामि, कुञ्जिका-स्तोत्रमुत्तमम्। येन मन्त्र-प्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत्॥1॥

 न कवचं नार्गला तु, कीलकं न रहस्यकम्। न सूक्तं नापि ध्यानं च, न न्यासो न च वाऽर्चनम्॥2॥ 

कुञ्जिका-पाठ-मात्रेण, दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्। अति गुह्यतरं देवि! देवानामपि दुर्लभम्॥3॥

 गोपनीयं प्रयत्‍‌नेन, स्वयोनिरिव पार्वति! मारणं मोहनं वश्यं, स्तम्भनोच्चाटनादिकम्। पाठमात्रेण संसिद्धयेत्, कुञ्जिका-स्तोत्रमुत्तमम्॥4॥ 

ॐ श्रूं श्रूं श्रूं श्रं फट् ऐं ह्रीं ज्वालोज्ज्वल, प्रज्वल, ह्रीं ह्रीं क्लीं स्रावय स्रावय। वशीष्ठ-गौतम-विश्वामित्र-दक्ष-प्रजापति-ब्रह्मा ऋषयः। सर्वैश्वर्य-कारिणी श्री दुर्गा देवता। गायत्र्या शापानुग्रह कुरु कुरु हूं फट्। ॐ ह्रीं श्रीं हूं दुर्गायै सर्वैश्वर्य-कारिण्यै, ब्रह्म-शाप-विमुक्ता भव। ॐ क्लीं ह्रीं ॐ नमः शिवायै आनन्द-कवच-रुपिण्यै, ब्रह्म-शाप-विमुक्ता भव। ॐ काल्यै काली ह्रीं फट् स्वाहायै, ऋग्वेद-रुपिण्यै, ब्रह्म-शाप-विमुक्ता भव। शापं नाशय नाशय, हूं फट्॥ श्रीं श्रीं श्रीं जूं सः आदाय स्वाहा॥ ॐ श्लों हुं क्लीं ग्लौं जूं सः ज्वलोज्ज्वल मन्त्र प्रबल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा। नमस्ते रुद्र-रूपायै नमस्ते मधु-मर्दिनि। नमस्ते कैटभारि च नमस्ते महिषार्दिनि॥1॥ नमस्ते शुम्भहन्त्री च, निशुम्भासुर-घातिनि॥2॥ नमस्ते जाग्रते देवि! जपं सिद्धिं कुरुष्व मे। ॐ ऐंकारी सृष्टि-रूपायै ह्रींकारी प्रति-पालिका॥3॥ क्लींकारी काम-रूपिण्यै बीजरूपे! नमोऽस्तु ते। चामुण्डा चण्ड-घाती च यैङ्कारी वर-दायिनी॥4॥ विच्चे त्व-भयदा नित्यं नमस्ते मन्त्र-रूपिणि॥5॥ ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हंसः-सोऽहं अं आं ब्रह्म-ग्रन्थि भेदय भेदय। इं ईं विष्णु-ग्रन्थि भेदय भेदय। उं ऊं रुद्र-ग्रन्थि भेदय भेदय। अं क्रीं, आं क्रीं, इं क्रीं, इं हूं, उं हूं, ऊं ह्रीं, ऋं ह्रीं, ॠं दं, लृं क्षिं, ॡं णें, एं कां, ऐं लिं, ओं कें, औं क्रीं, अं क्रीं, अः क्रीं, अं हूं, आं हूं, इं ह्रीं, ईं ह्रीं, उं स्वां, ऊं हां, यं हूं, रं हूं, लं मं, बं हां, शं कां, षं लं, सं प्रं, हं सीं, ळं दं, क्षं प्रं, यं सीं, रं दं, लं ह्रीं, वं ह्रीं, शं स्वां, षं हां, सं हं लं क्षं॥ महा-काल-भैरवी महा-काल-रुपिणी क्रीं अनिरुद्ध-सरस्वति! हूं हूं, ब्रह्म-ग्रह-बन्धिनी, विष्णु-ग्रह-बन्धिनी, रुद्र-ग्रह-बन्धिनी, गोचर-ग्रह-बन्धिनी, आदि-व्याधि-ग्रह-बन्धिनी, सर्व-दुष्ट-ग्रह-बन्धिनी, सर्व-दानव-ग्रह-बन्धिनी, सर्व-देवता-ग्रह-बन्धिनी, सर्वगोत्र-देवता-ग्रह-बन्धिनी, सर्व-ग्रहोपग्रह-बन्धिनी! ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ॐ क्रीं हूं मम पुत्रान् रक्ष रक्ष, ममोपरि दुष्ट-बुद्धिं दुष्ट-प्रयोगाना् कुर्वन्ति, कारयन्ति, करिष्यन्ति, तान् हन। मम मन्त्र-सिद्धिं कुरु कुरु। मम दुष्टं विदारय विदारय। दारिद्रयं हन हन। पापं मथ मथ। आरोग्यं कुरु कुरु। आत्म-तत्त्वं देहि देहि। हंसः सोहम्। क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा॥ नव-कोटि-स्वरुपे, आद्ये, आदि-आद्ये अनिरुद्ध-सरस्वति! स्वात्म-चैतन्यं देहि देहि। मम हृदये तिष्ठ तिष्ठ। मम मनोरथं कुरु कुरु स्वाहा॥ धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नीः! वां वीं वागेश्वरी तथा। क्रां क्रीं क्रूं कुञ्जिका देवि! शां शीं शूं में शुभं कुरू॥ हूं हूं हूङ्कार-रूपायै, जां जीं जूं भाल-नादिनीं। भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे ! भवान्यै ते नमो नमः॥7 ॐ अं कं चं टं तं पं सां विदुरां विदुरां, विमर्दय विमर्दय ह्रीं क्षां क्षीं क्षीं जीवय जीवय, त्रोटय त्रोटय, जम्भय जम्भय, दीपय दीपय, मोचय मोचय, हूं फट्, जां वौषट्, ऐं ह्रीं क्लीं रञ्जय रञ्जय, सञ्जय सञ्जय, गुञ्जय गुञ्जय, बन्धय बन्धय। भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे ! संकुच संकुच, सञ्चल सञ्चल, त्रोटय त्रोटय, म्लीं स्वाहा॥ पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा॥8 म्लां म्लीं म्लूं मूल-वीस्तीर्णा-कुञ्जिकायै नमो नमः॥ सां सीं सप्तशती देव्या मन्त्र-सिद्धिं कुरूश्व मे॥9 ॥फल श्रुति॥ इदं तु कुंजिका स्तोत्रं मन्त्र-जागर्ति हेतवे। अभक्ते नैव दातव्यं, गोपितं रक्ष पार्वति॥ विहीना कुञ्जिका-देव्या,यस्तु सप्तशतीं पठेत्। न तस्य जायते सिद्धिः ह्यरण्ये रुदतिं यथा॥ ॥इति श्रीरुद्रयामले, गौरीतन्त्रे, काली तन्त्रे शिव-पार्वती संवादे कुञ्जिका-स्तोत्रं॥



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