पुरुष सूक्त तथा रुद्रसूक्त

 Purusha Suktam


ॐ सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र पात्। 

स भूमिम् सर्वत स्पृत्वा ऽत्यतिष्ठद् दशांगुलम्॥1॥ 

पुरुषऽ एव इदम् सर्वम् यद भूतम् यच्च भाव्यम्। 

उत अमृत त्वस्य ईशानो यद् अन्नेन अतिरोहति॥2॥ 

एतावानस्य महिमातो ज्यायान्श्र्च पुरुषः। 

पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्य अमृतम् दिवि॥3॥ 

त्रिपाद् उर्ध्व उदैत् पुरूषः पादोस्य इहा भवत् पुनः। 

ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशनेऽ अभि॥4॥ 

ततो विराड् अजायत विराजोऽ अधि पुरुषः। 

स जातोऽ अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिम् अथो पुरः॥5॥ 

तस्मात् यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतम् पृषदाज्यम्। 

पशूँस्ताँश् चक्रे वायव्यान् आरण्या ग्राम्याश्च ये॥6॥ 

तस्मात् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे॥ 

छन्दाँसि जज्ञिरे तस्मात् यजुस तस्माद् अजायत117॥ 

तस्मात् अश्वाऽ अजायन्त ये के चोभयादतः। 

गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्मात् जाता अजावयः॥8॥ 

तम् यज्ञम् बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषम् जातम अग्रतः। 

तेन देवाऽ अयजन्त साध्याऽ ऋषयश्च ये॥9॥ 

यत् पुरुषम् व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्॥ 

मुखम् किमस्य आसीत् किम् बाहू किम् ऊरू पादाऽ उच्येते॥10॥ 

ब्राह्मणो ऽस्य मुखम् आसीद् बाहू राजन्यः कृतः। 

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रो अजायत॥11॥ 

चन्द्रमा मनसो जातः चक्षोः सूर्यो अजायत। 

श्रोत्राद् वायुश्च प्राणश्च मुखाद् ऽग्निर अजायत॥12॥ 

नाभ्याऽ आसीद् अन्तरिक्षम् शीर्ष्णो द्यौः सम-वर्तत। 

पद्भ्याम् भूमिर दिशः श्रोत्रात् तथा लोकान्ऽ अकल्पयन्॥13॥ 

यत् पुरुषेण हविषा देवा यज्ञम् ऽतन्वत। 

वसन्तो अस्य आसीद् आज्यम् ग्रीष्मऽ इध्मः शरद्धविः॥14॥ 

सप्तास्या आसन् परिधय त्रिः सप्त समिधः कृताः। 

देवा यद् यज्ञम् तन्वानाः अबध्नन् पुरुषम् पशुम्॥15॥ 

यज्ञेन यज्ञम ऽयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्य आसन्। 

ते ह नाकम् महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥16॥ 




Rudrasuktam  ॥ रूद्र-सूक्तम् ॥ 


नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतो तऽ इषवे नमः। 

बाहुभ्याम् उत ते नमः॥1॥ 

या ते रुद्र शिवा तनूर-घोरा ऽपाप-काशिनी। 

तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशंताभि चाकशीहि ॥2॥ 

यामिषुं गिरिशंत हस्ते बिभर्ष्यस्तवे । 

शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिन्सीः पुरुषं जगत् ॥3॥ 

शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छा वदामसि । 

यथा नः सर्वमिज् जगद-यक्ष्मम् सुमनाऽ असत् ॥4॥ 

अध्य वोचद-धिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् । 

अहींश्च सर्वान जम्भयन्त् सर्वांश्च यातु-धान्यो ऽधराचीः परा सुव ॥5॥ 

असौ यस्ताम्रोऽ अरुणऽ उत बभ्रुः सुमंगलः। 

ये चैनम् रुद्राऽ अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशो ऽवैषाम् हेड ऽईमहे ॥6॥ 

असौ यो ऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः। 

उतैनं गोपाऽ अदृश्रन्न् दृश्रन्नु-दहारयः स दृष्टो मृडयाति नः ॥7॥ 

नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे। 

अथो येऽ अस्य सत्वानो ऽहं तेभ्यो ऽकरम् नमः ॥8॥ 

प्रमुंच धन्वनः त्वम् उभयोर आरत्न्योर ज्याम्। 

याश्च ते हस्तऽ इषवः परा ता भगवो वप ॥9॥ 

विज्यं धनुः कपर्द्दिनो विशल्यो बाणवान्ऽ उत। 

अनेशन्नस्य याऽ इषवऽ आभुरस्य निषंगधिः॥10॥ 

या ते हेतिर मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः । 

तया अस्मान् विश्वतः त्वम् अयक्ष्मया परि भुज ॥11॥ 

परि ते धन्वनो हेतिर अस्मान् वृणक्तु विश्वतः। 

अथो यऽ इषुधिः तवारेऽ अस्मन् नि-धेहि तम् ॥12॥ 

अवतत्य धनुष्ट्वम् सहस्राक्ष शतेषुधे। 

निशीर्य्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव ॥13॥ 

नमस्तऽ आयुधाय अनातताय धृष्णवे। 

उभाभ्याम् उत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने ॥14॥ 

मा नो महान्तम् उत मा नोऽ अर्भकं मा नऽ उक्षन्तम् उत मा नऽ उक्षितम्। 

मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास् तन्वो रूद्र रीरिषः॥15॥ 

मा नस्तोके तनये मा नऽ आयुषि मा नो गोषु मा नोऽ अश्वेषु रीरिषः। 

मा नो वीरान् रूद्र भामिनो वधिर हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे॥16॥ 

विवाह मुहुर्त निर्धारण संपुर्ण विवरण, त्याज्य मास तिथि वार नक्षत्र

 

विवाह मुहुर्त निर्धारण करने की संपुर्ण विधि का विवरण देने का प्रयास किया जा रहा है। विवाह मे क्या त्याग व ग्रहण करना हैइसकी भी जानकारी दी जा रही है।

विवाह मुहूर्त का निर्धारण करते समय निम्न नियमों का पालन किया जाना चाहिए :

मास शुद्धि - माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ व मार्गशीर्ष विवाह के लिए शुभ मास हैं। विवाह के समय  देव शयन (आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी) उत्तम नहीं होता। यदि मकर संक्रांति पौष में हो तो पौष में तथा मेष संक्रांति के बाद चैत्र में विवाह हो सकता है। अर्थात धनु व मीन की संक्रांति (सौर मास पौष व चैत्र) विवाह के लिए शुभ नहीं है। पुत्र के विवाह के बाद 6 मासों तक कन्या का विवाह वर्जित है। पुत्री विवाह के बाद 6 मासों में पुत्र का विवाह हो सकता है। परिवार में विवाह के बाद 6 मास

तक छोटे मंगल कार्य  (मुंडन आदि) नहीं किए जाते।

जन्म मासादि निषेध

पहले गर्भ से उत्पन्न संतान के विवाह में उसका जन्म और मास, जन्मतिथि तथा जन्म नक्षत्र का त्याग करे। शेष के लिए जन्म नक्षत्र छोड़ कर मास व तिथि में विवाह किया जा सकता है।


ज्येष्ठादि विचार

ज्येष्ठ मास में उत्पन्न व्यक्ति का ज्येष्ठा नक्षत्र हो तो ज्येष्ठ मास में विवाह वर्जित होता है। वर और कन्या दोनों का जन्म ज्येष्ठ मास में हुआ हो, तो इस स्थिति में भी ज्येष्ठ मास में विवाह वर्जित है। विवाह के समय तीन ज्येष्ठों का एक साथ होना वर्जित है। दो या चार या छह ज्येष्ठा होने से विवाह हो सकता है।

ज्येष्ठ वर ज्येष्ठ कन्या का विवाह सौर ज्येष्ठ मास में न करें, यदि दोनों में से कोई एक ही ज्येष्ठ हो तो ज्येष्ठ मास में विवाह हो सकता हे

ग्राह्य तिथि : अमावस्या तथा कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी, त्रयोदशी और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को छोड़ कर सभी तिथियां।

ग्राह्य नक्षत्र : अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, मघा, उ.फा., हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, मूल, ऊ.षा.,श्रवण धनिष्ठा, उ.भा. रेवती।

योग विचार : भुजंगपात व विषकुंभादि योग विचार लिया जाना चाहिए।

करण शुद्धि : विष्टि करण (भद्रा) को छोड़ कर सभी पर करण शुभ तथा स्थिर करण मध्यम है।

वार शुद्धि : मंगलवार व शनिवार मध्यम है अन्य शेष शुभ वार है।

वर्जित काल : होलाष्टक, पितृपक्ष, मलमास, धनुस्थ और मीनस्थ सूर्य।

गुरु-शुक्र अस्त : गुरु शुक्र के अस्त होने के 2 दिन पूर्व और उदय होने के 2 दिन पश्चात तक का समय।

ग्रहण काल : पूर्ण ग्रहण दोष के समय एक दिन पहले व 3 दिन पश्चात का समय अर्थात कुल 5 दिन।

विशेष त्याज्य : संक्रांति, मासांत, अयन प्रवेश, गोल प्रवेश, युति दोष, पंचशलाका वैद्य दोष, मृत्यु बाण दोष, सूक्ष्म क्रांतिसाम्य, सिंहस्थ गुरु, सिंह नवांश में तथा नक्षत्र गंडांत।

योग : प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, सुकर्मा, धृति, वृद्धि, ध्रुव, सिद्धि, वरीयान, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, हर्षण, इंद्र एवं ब्रह्म योग विवाह के लिए प्रशस्त है। अर्थात सभी शुभ योग विवाह के लिए प्रशस्त हैं।

विवाह के शुभ लग्र

विवाह में लग्र शोधन को प्राथमिकता दी गई है। अतएव दूसरे विचारों के साथ ही साथ लग्र शुद्धि का विशेष रूप से विचार करना चाहिए।


मिथुन, कन्या और तुला लग्र सर्वोत्तम लग्र है, वृषभ, धनु लग्र उत्तम है।, कर्क और मीन मध्यम लग्र है।



लतादि दोष: विवाह मुहूर्त में निम्रलिखित 10 लतादि दोषों का विचार विशेष रूप से किया जाता है। प्रत्येक दोष मुक्त होने पर एक रेखा शुद्ध मानी जाती है और सभी लतादि दोष मुक्त हो तो अधिकतम 10 शुद्ध रेखाएं संभव होती हैं। किसी भी शुभ विवाह मुहूर्त के लिए 10 में से कम से कम 6 दोष मुक्त अर्थात 6 शुद्ध रेखाएं प्राप्त होनी चाहिएं। अन्यथा 6 से कम शुद्ध रेखा होने पर विवाह मुहूर्त त्याग दिया जाता है।  


10 लतादि दोष निम्रांकित हैं: 1. लता, 2. पात, 3. युति, 4. वैध, 5.यामित्र, 6.  बाण, 7 एकर्गल, 8. उपग्रह, 9. क्रांतिसाम्य, 10. दग्धा तिथि।



1 लत्ता :  लत्ता शब्द का आशय लात मारना है।  यह दोष नक्षत्रो और ग्रहो से निर्धारित किया जाता है। सूर्य जिस नक्षत्र पर होता है उससे आगे के बारहवे नक्षत्र पर, मंगल तीसरे पर, शनि आठवे पर एवं गुरु छठवे नक्षत्र पर लात मारता है। ठीक इसी प्रकार कुछ ग्रह अपने से पिछले नक्षत्र पर लात मारते है जैसे बुध सातवे, राहु नौवे, चन्द्र बाईसवे, शुक्र पांचवे नक्षत्र पर लात मारता है।

राहु केतु वक्री होने के कारण इसकी गणना अगले नक्षत्र को मानकर ही की जाती है। लत्तादोष मे विवाह के नक्षत्र से गणना कर नक्षत्रो मे स्थित ग्रहो का विवेचन कर उनकी लत्ता का निर्धारण किया जाता है। वैसे तो सभी ग्रहो की लत्ता को अशुभ माना जाता है किन्तु कुछ विद्वान केवल पाप व क्रूर ग्रहो की लत्ता को ही त्याज़्य मानते है। अत: विवाह का मुहूर्त निकालते समय लत्तादोष का विवेचन अवश्य करे।  तालिकानुसार फल इस प्रकार है।

                               लतादोषविचार

ग्रह                    लता  नक्षत्र                           प्रभाव               

सूर्य                   आगे 12 वा                           धननाश 

चन्द्र                  पीछे 22 वा                           सुखनाश 

मंगल                आगे 3 रा                              प्राणहानि 

बुध                   पीछे 7 वा                             बुद्धिहानि 

गुरु                   आगे 6 ठे                             बंधुहानि 

शुक्र                  पीछे 5 वे                             सुखबाधा 

शनि                 आगे 8 वा                             कुलक्षय 

राहु                   पीछे 9 वे                             नित्यदुःख 


2 पातदोष :  यह दोष सूर्य और चन्द्रमा की गति के कारण बनता है। शूल, गण्ड, वैघृति, साध्य, व्यतिपात और हर्षण इन योगो का जिस नक्षत्र मे अंत हो उस नक्षत्र मे पात दोष लगता है। यह पात दोष वंग और कलिंग देश मे वर्जित है। अतः पात दोष का आकलन के लिए विवाह वाले दिन के नक्षत्र और सूर्य नक्षत्र की तुलना की जाती है।

 १. चंद्र रोहिणी नक्षत्र मे हो और सूर्य आर्द्रा, पुनर्वसु, शतभिषा, पूर्वाफाल्गुनी,  चित्रा  और मूल नक्षत्र मे हो तो पात दोष लगता है। 

२. चन्द्र अगर मृगशिरा नक्षत्र मे हो और सूर्य भी मृगशिरा अथवा आर्दा, ज्येष्ठा, घनिष्ठा, मघा अथवा हस्त नक्षत्र मे हो तो पात दोष बनता है।

३. चन्द्र अगर मघा नक्षत्र मे हो और सूर्य अश्विनी, मृगशिरा, ज्येष्ठा, पुष्य, हस्त अथवा रेवती नक्षत्र मे हो तो पात दोष लगता है।

४. उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र मे चन्द्रमा हो और कृतिका, आर्द्रा, विशाखा, पू. फा., उ. फा. अथवा पूर्वाभाद्रपद मे सूर्य हो तो पात दोष बनता है जिससे विवाह संस्कार नही किया जाना चाहिए।

५. हस्त नक्षत्र मे चन्द्रमा हो सूर्य नक्षत्र मे भरणी, मृगशिरा, शतभिषा, पूर्वाभाद्र, स्वाती या मघा हो तो पात दोष उत्पन्न होता है।

६. स्वाति नक्षत्र मे चन्द्र विराजमान हो और कृतिका, श्रवण, घनिष्ठा, पुष्य, हस्त या रेवती नक्षत्र मे सूर्य विराजमान हो तो पात दोष बनता है।

७. अनुराधा नक्षत्र मे चन्द्रमा हो और सूर्य नक्षत्र मे अश्विनी, आर्दा, उ.षा. पूर्वाफाल्गुनी, पू.षा., पूर्वाभाद्रपद हो तो विवाह मुहुर्त पात दोष से पीड़ित होता है।

८. चन्द्रमा अगर शादी वाले दिन मूल नक्षत्र मे हो और सूर्य उस दिन रोहिणी, ज्येष्ठा, घनिष्ठा, आश्लेषा, मूल, उत्तराभाद्रपद मे हो तो यह विवाह का शुभ मुहुर्त नही होता है क्योकि इसमे पात दोष लगता है।

९. विवाह के दिन चन्द्रमा अगर उत्तराषाढ़ा नक्षत्र मे हो और सूर्य भरणी, पुनर्वसु, शतभिषा, विशाखा, अनुराधा अथवा उ.षा. नक्षत्र मे  हो तो विवाह मुहुर्त में पात दोष पैदा करता है

१०. विवाह के दिन अगर चन्द्रमा उत्तराभाद्रपद मे हो और सूर्य भरणी, शतभिषा, विशाखा, उ.फा., मूल या पूर्वा फा. नक्षत्र में हो तो विवाह मुहुर्त पात दोष से पीड़ित होता है।

११, विवाह के दिन चन्द्रमा रेवती नक्षत्र मे स्थित हो और सूर्य अश्वनी, मघा, घनिष्ठा, ज्येष्ठा, स्वाति या पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र मे हो तो इस मुहुर्त के पात दोष से पीड़ित होने के कारण विवाह नही करने की सलाह दी जाती है।

3 युतिदोष : जिस भाव या घर मे चन्द्रमा हो उस भाव मे यदि कोई गृह है तो युतिदोष होता है। शुक्र से युति शुभ होती है।  सूर्य संयुक्त हो तो हानि, मंगल युक्त हो तो मृत्यु और राहु, केतु, शनि युत हो तो सर्वनाशप्रद होती है। चन्द्रमा वर्गोत्तम, उच्च या मित्रक्षेत्री हो तो  युति दोष नही होता है, दम्पत्ति को कल्याणकारी होता है अर्थात स्त्री-पुरुष सुखी होते है।  अशुभ ग्रहो की युति विशेष अशुभ होती है।  चन्द्रमा के नक्षत्र मे तो युति नही होना चाहिए। 

4 जामित्र-दोष :  ज्योतिष शास्त्र मे सप्तम भाव से दाम्पत्यसुख और जीवनसाथी का विचार किया जाता है। इसे जाया या जामित्र भाव कहा जाता है इसे यामित्र भाव भी कहते है इससे सम्बन्धित दोष को जामित्र दोष कहते है। विवाह मुहूर्त निर्धारित करते समय लग्न या चन्द्रमा से सातवे स्थान पर कोई ग्रह होने पर जामित्र दोष होता है।  चाहे वह ग्रह चन्द्रमा ही क्यो न हो। या विवाह के नक्षत्र से 14 वे नक्षत्र पर कोई ग्रह हो तो जामित्रदोष होता है। यह सर्वथा धातक है।  यह जामित्रदोष निन्द्य है यानि वर्जित है। 55 वे नवांश मे यह यह विशेषकर नही हो।

5 पञ्चकदोष (मृत्युबाण दोष) इसे बाण दोष भी कहते है, बाण पांच होते है इनमे मृत्यु बाण विवाह मे वर्जित है। सूर्य के गतान्श 1, 10, 19, 28 हो तो मृत्युबाण होता है यह विवाह मे वर्जित होता है। 

सूर्य के गतांश और पंद्रह व बारह व दश व आठ व चार इनको अलग अलग रखकर जोड़ना, उन अंको मे नौ का भाग देना, शेष पांच बचे तो क्रमशः पांचो स्थान मे पांच पञ्चक १ रोग, २ अग्नि, ३ राज, ४ चोर, ५ मृत्यु होते है। यह पंचक विवाह मे वर्जित है। 

 संक्रांति के व्यतीत दिनो (लगभग 16 दिन) मे चार  जोड़कर नौ का भाग देने पर शेष पांच बचे तो मृत्यु पंचक होता है। उपरोक्त विधि मे और इसमें कोई अंतर नही है परन्तु यह विधि स्थूल है। 

रात्रि को चोर और रोग पंचक वर्जित है, दिन मे नृप पञ्चक, अग्नि पञ्चक हमेशा और मृत्यु पंचक संध्याओ मे वर्जित है। वार परक परिहार - शनिवार को नृप, बुधवार को मृत्यु, मंगलवार को अग्नि व चोर, रविवार को रोग पञ्चक वर्जित है। कार्य भेद से विवाह मे मृत्यु  पंचक वर्जित है।

6. एकार्गलदोष : इसे खर्जूर दोष भी कहते है। यह विष्कुम्भ, वज्र, परिध, व्यतिपात, शूल, व्याघात, वैघृति, गण्ड और अतिगण्ड इन योगो से एकार्गल होता है। सूर्य नक्षत्र से चंद्र नक्षत्र अभिजीत सहित गिने। जो नक्षत्र विषम संज्ञक हो और पूर्वोक्त योग भी हो तो एकार्गल नामक दोष होता है। यह विवाह मे ताज्य है। यह दोष भंग हो जाता है यदि चन्द्रमा सम संख्यक नक्षत्र मे  पडे़. अर्थ यह है कि सूर्य के नक्षत्र से चन्द्रमा का नक्षत्र विषम स्थानो मे पड़ने तथा उपरोक्त लिखे अशुभ योग भी उसी समय हो तो एकार्गल दोष बनता है।  

अन्य प्रकार एकार्गल की गणना थोड़ी जटिल है।  निम्न चक्र मे 01 से 28 तक संख्या मे अभिजीत की गणना की गई है। आमने सामने जो अंक दिए है उन नक्षत्रो पर सूर्य चंद्र नही होना चाहिए।  यदि ऐसा हो तो एकार्गल दोष बनता है।  जैसे दूसरा नक्षत्र भरणी है और इस पर सूर्य है, इसके सामने अट्ठाईस यानि रेवती नक्षत्र पर चन्द्रमा हो तो यह एकार्गल दोष होगा। यह विवाह मे वर्जित है। 

7. उपग्रह दोष : सूर्य नक्षत्र से चंद्र नक्षत्र यानि विवाह नक्षत्र तक गिने, यदि पांच, सात, आठ, दस, चौदह, पंद्रह, उन्नीस, इक्कीस, बाईस, तेवीस, चौवीस, पच्चीस वा हो तो उपग्रह दोष होता है। यह विवाह मे     त्याज्य है।                                                                                                                                                                                                           

8. वेध दोष : वेधदोष  निर्धारण पंचशलाका या सप्तशलाका चक्र से किया जाता है। 

सात रेखा खड़ी और 


सप्तशलाका चक्र 

सात रेखा आड़ी खीचकर सप्तशलाका चक्र बनावे। इसमे ईशान दिशा से कृतिका आदि अट्ठाईस नक्षत्र लिखे। शास्त्रानुसार एक लाइन मे आने वाले नक्षत्रो का परस्पर वेध माना गया है। विवाह नक्षत्र का जिस नक्षत्र से भी वेध हो, यदि उसमे कोई भी ग्रह हो तो वेध माना जायगा। जैसे सप्तशलाका चक्र मे उत्तराफाल्गुनी का रेवती से वेध है।  अब यदि विवाह नक्षत्र रेवती है और उत्तराफाल्गुनी मे कोई ग्रह है तो वेध माना जायगा और वेधदोष होगा।  विवाह मे यह दोष सर्वत्र वर्जित है।  यह वरन और वधु प्रवेश मे भी विचारणीय और त्याज्य माना जाता है। 

इसमे भी यदि चन्द्रमा नक्षत्र के प्रथम चरण मे है तो सामने वाले वेध नक्षत्र का चौथा चरण ज्यादा अनिष्टकारी होगा।  इसी प्रकार चन्द्रमा का दूसरा चरण हो तो वेध वाले नक्षत्र का तीसरा चरण या चन्द्र का तीसरा चरण हो तो वेध वाले नक्षत्र का    दूसरा चरण ज्यादा अनिष्टकारक होगा।




9. क्रांतिसाम्य दोष :  इस दोष को महापात दोष भी कहते है। सूर्य,  चंद्रमा की क्रांति सामान होने पर यह दोष होता है। शुभ कार्यो मे इस दोष की बड़ी निंदा की गई है और इसमे विवाह करना सर्वत्र वर्जित है।  सिंह और मेष, वृषभ और मकर, तुला और कुम्भ, कन्या और मीन, कर्क और वृश्चिक, धनु और मिथुन इन दो-दो राशियो मे एक मे सूर्य और दूसरी मे चन्द्रमा हो तो क्रांतिसाम्य दोष होता है। 


10. दग्धातिथि दोष : सूर्य निम्न राशियो पर निम्न तिथियो पर हो तो दग्धा तिथि होती है।  इनमे समस्त शुभ कार्य और विवाह  त्याज्य है। धनु और मीन के सूर्य में द्वितीया, वृषभ और कुम्भ के सूर्य मे चतुर्थी, मेष और कर्क के सूर्य मे षष्ठी, कन्या और मिथुन के सूर्य मे अष्टमी, वृश्चिक और सिंह के सूर्य मे दशमी दग्धा है। ये विवाह लग्न मे त्याज्य है। 

त्याज्य तिथियॉ - कृष्ण पक्ष की दशमी से लेकर अमावस्या, शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनो पक्ष की 4, 6, 8, 9, 14 त्याज्य है। विद्जन रिक्ता तिथि 4, 9, 14 पूर्णा और अमावस को भी त्याज्य मानते है। 


विवाह मे सूर्य, गुरु, चंद्र  (त्रिबल) शुद्धि विचार 

विवाह लग्न मे वर के लिए सूर्य का बल, वधु के लिए गुरु का बल और दोनो के लिए चंद्र का बल आवश्यक है। इसके लिए जन्म राशि से ही विचार करे। 

विवाह मे गुरुबल विचार- वधु की जन्म चंद्र राशि से गुरु नवम, पंचम, एकादश, द्वितीय, सप्तम राशि मे शुभ, दशम, तृतीय, षष्ठ, प्रथम राशि मे दान और पूजा से  शुभ और चतुर्थ, अष्टम, द्वादश राशि मे नेष्ट  या अशुभ है। गुरु की पूजा को पीली पूजा कहते है। 

 विवाह मे सूर्यबल विचार - वर की जन्म चंद्र राशि से सूर्य तृतीय, षष्ठ, दशम, एकादश राशि मे शुभ, प्रथम, द्वितीय, सप्तम, नवम राशि मे दान व पूजा से शुभ तथा चार, आठ, बारह राशि में अशुभ या नेष्ट होता है।  सूर्य की पूजा को धोली पूजा कहते है।  

विवाह मे चन्द्रबल विचार - वर-वधु दोनो की जन्म चन्द्र राशि से चन्द्रमा तीसरा, छठा, सातवा, दसवा, ग्यारहवा शुभ, पहला, दूसरा, पांचवा, नवमा  दान पूजा से शुभ, और चौथा, आठवा बारहवा अशुभ/नेष्ट होता है।   


Yogni dasha योगनी दशा क्या है योगनी दशा के स्वामी कौन है योगनी दशा का निर्धारण कैसे करते है

 श्रीराम ।

जन्मकुंडली मे फलादेश के लिए विंशोत्तरी दशा, चर दशा व योगनी दशा का प्रयोग होता है।

विंशोत्चरी की तरह २७ नक्षत्र के अनुसार ही योगनी दशा का भी निर्धारण किया जाता है। अलग अलग नक्षत्र की अलग अलग योगनी दशा है। जन्मकाल मे जो नक्षत्र होता है। उस नक्षत्र की स्वामी जो योगनी है वही योगनी दशा का आरंभ माना जायेगा।

कुल आठ योगिनी दशाएं हैं मंगला, पिंगला, धान्या, भ्रामरी, भद्रिका, उल्का, सिद्धा और संकटा। इनकी समयावधि क्रमश: 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8 वर्ष होती है। इन सबका कुल योग 36 वर्ष होता है।

योगनी दशा का निर्धारण व उनके नक्षत्र तथा स्वामी

मंगला : योगिनी दशा की पहली दशा है मंगला। यह एक वर्ष की होती है। इसके स्वामी चंद्र हैं और जिन जातकों का जन्म आद्र्रा, चित्रा, श्रवण नक्षत्र में होता है, उन्हें मंगला दशा होती है। यह दशा अच्छी मानी जाती है। मंगला योगिनी की कृपा जिस जातक पर हो जाती है उसे हर प्रकार के सुख-संपन्नता प्राप्त होती है। उसके संपूर्ण जीवन में मंगल ही मंगल होता है।


पिंगला : क्रमानुसार दूसरी योगिनी दशा पिंगला की होती है। यह दो वर्ष की होती है। इसके स्वामी सूर्य हैं। जिनका जन्म पुनर्वसु, स्वाति, धनिष्ठा नक्षत्र में होता है उन्हें पिंगला दशा होती है। यह दशा भी शुभ होती है। पिंगला दशा में जातक के जीवन के सारे संकट शांत हो जाते हैं। उसकी उन्नति होती है और सुख-संपत्ति प्राप्त होती है।


धान्या : तीसरी योगिनी दशा धान्या की होती है और यह तीन वर्ष की होती है। इसके स्वामी बृहस्पति हैं। जिनका जन्म पुष्य, विशाखा, शतभिषा नक्षत्र में होता है उन्हें धान्या दशा से जीवन प्रारंभ होता है। यह दशा जिनके जीवन में आती है उन्हें अपार धन-धान्य प्राप्त होता है।


भ्रामरी : चौथी योगिनी दशा भ्रामरी की होती है और यह चार वर्ष की होती है। इसके स्वामी मंगल हैं। जिनका जन्म अश्विनी, अश्लेषा, अनुराधा, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में होता है उनकी जन्मकालिक योगिनी दशा भ्रामरी होती है। इस दशा के दौरान व्यक्ति क्रोधी हो जाता है। कई प्रकार के संकट आने लगते हैं। आर्थिक और संपत्ति का नुकसान होता है। व्यक्ति भ्रमित हो जाता है।


.भद्रिका : पांचवीं योगिनी दशा भद्रिका की होती है और यह पांच वर्ष की होती है। इसके स्वामी बुध हैं। जिनका जन्म भरणी, मघा, ज्येष्ठा, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में होता है उनकी जन्मकालिक योगिनी दशा भद्रिका होती है। इस दशाकाल में जातक के सुकर्मो का शुभ फल प्राप्त होता है। शत्रुओं का शमन होता है और जीवन के व्यवधान समाप्त हो जाते है।

उल्का : छटी योगिनी दशा उल्का की होती है और यह छह वर्ष की होती है। इसके स्वामी शनि हैं। जिनका जन्म कृतिका, पूर्वा फाल्गुनी, मूल, रेवती नक्षत्र में होता है उनकी जन्मकालिक योगिनी दशा उल्का होती है। इस दशाकाल में जातक को मेहनत अधिक करनी पड़ती है। जीवन में दौड़भाग बनी रहती है। कार्यो में शिथिलता आ जाती है। कई तरह के संकट आते हैं।


सिद्धा : सातवीं योगिनी दशा सिद्ध की होती है औ इसके स्वामी शुक्र हैं। जिनका जन्म रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में होता है उनकी जन्मकालिक योगिनी दशा सिद्धा होती है। इस दशा के भोग काल में जातक की संपत्ति, भौतिक सुख, प्रेम, आकर्षण प्रभाव आदि में वृद्धि होती है। जिन लोगों पर सिद्धा योगिनी की कृपा होती है उनके जीवन में कोई अभाव नहीं रह जाता है।


संकटा : योगिनी दशा चक्र की आठवीं और अंतिम दशा संकटा की होती है और इसके स्वामी राहू हैं। जिनका जन्म मृगशिर, हस्त, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में होता है उनकी जन्मकालिक दशा संकटा की होती है। संकटा योगिनी दशाकाल में जातक हर ओर से परेशानियों और संकटों से घिर जाता है। संकटों के नाश के लिए इस दशा के भोगकाल में मातृरूप में योगिनी की पूजा करें।

योगनी दशा की अनुकूलता के लिए

योगिनी दशाओं को अनुकूल बनाने के लिए किसी भी शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि से प्रारंभ करके पूर्णिमा तक प्रत्येक योगिनी दशा के कारक ग्रह के दिन से संबंधित योगिनी के पांच हजार मंत्रों का जाप करें। संकटा दशा के कारक ग्रह राहू के लिए रविवार तथा केतु के लिए मंगलवार चुनें। संकटा दशा दरअसल राहू-केतु दोनों के लिए मानी जाती है।


 योगिनियों को अनुकूल करने के मंत्र

मंगला : ऊं नमो मंगले मंगल कारिणी, मंगल मे कर ते नम:

पिंगला : ऊं नमो पिंगले वैरिकारिणी, प्रसीद प्रसीद नमस्तुभ्यं

धान्या : ऊं धान्ये मंगल कारिणी, मंगलम मे कुरु ते नम:

भ्रामरी : ऊं नमो भ्रामरी जगतानामधीश्वरी भ्रामर्ये नम:

भद्रिका : ऊं भद्रिके भद्रं देहि देहि, अभद्रं दूरी कुरु ते नम:

उल्का : ऊं उल्के विघ्नाशिनी कल्याणं कुरु ते नम:

सिद्धा : ऊं नमो सिद्धे सिद्धिं देहि नमस्तुभ्यं

संकटा : ऊं ह्रीं संकटे मम रोगंनाशय स्वाहा

पं.राजेश मिश्र 'कण'

तंत्र मंत्र यंत्र ज्योतिष शाबर मंत्र विज्ञान सिद्धांत 


जाति वर्ण व ब्राह्मण की शाशत्रीय प्रमाणिक विवेचना


हारीत ऋषि ने सृष्टिकर्म का वर्णन करते हुए हारीत स्मृति मे पुरुषसूक्त के श्लोक को स्पष्ट करते हुए कहा है कि-

*यज्ञ सिद्धयर्थमनवान्ब्राह्मणान्मुखतो सृजत।। सृजत्क्षत्रियान्वार्हो वैश्यानप्यरुदेशतः।। शूद्रांश्च पादयोसृष्टा तेषां चैवानुपुर्वशः।*( १अ० १२/१३)

*यज्ञ की सिद्धि के लिये ब्राह्मणो को मुख से उत्पन्न किया। इसके बाद क्षत्रियो को भुजाओ से वैश्य को जंघाओ से, और शूद्र को चरणो से रचा।*

वशिष्ठ स्मृति चतुर्थ अध्याय मे सृष्टिक्रम का उल्लेख करते हुए वशिष्ठ जी कहते है।

- *ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत:। उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्भया ्ँ शूद्रो अजायत।।*

 *गायत्रा छंदसा ब्राह्मणमसृजत। त्रिस्टुभा राजन्यं जगत्या वैश्यं न केनाचिच्छंदसा शूद्रमित्य संस्कार्यो विज्ञायते।।*

गायत्री छंद से ब्राह्मण की सृष्टि है। त्रिष्टुभ छंद से क्षत्रिय की सृष्टि है। और जगती छंद से वैश्य की सृष्टि ईश्वर ने की है। इसलिये उपरोक्त वेदमंत्र से इनका संस्कार होता है। 


तत्र मित्र न वस्तव्यं यत्र नास्ति चतुष्टयं । ऋणदाता च वैद्यश्च श्रोत्रियः सजला नदी ॥


मित्रो , जिस स्थान पर ऋणदाता, वैद्य, वेद पारंगत श्रोत्रिय ब्राह्मण, व जलयुक्त नदी न हो वहॉ नही बसना चाहिये।


जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः | संस्कारै: द्विज उच्चते ||

विद्यया याति विप्रत्वम् | त्रिभि: श्रोत्रिय उच्चते ||१||.....

जाति शब्द ही जन्म से को सूचित करती है, ब्राह्म्ण व ब्राह्मणी के संयोग से उत्पन्न ब्राह्मण जाना जाता है, संस्कार से द्विज संज्ञा होती है, विद्या प्राप्त कर विप्र संज्ञा होती है। इन तीन प्रकार के गुणो से युक्त व्यक्ति को श्रोत्रिय कहा जाता है।

प्रस्तुत श्लोक अत्रि संहिता व पद्यपुराण मे वर्णित है।

पद्यपुराण- उत्तम ब्राह्मण व गायत्री मंत्र की महिमा शीर्षकाध्याय ब्रह्मा नारद संवाद श्लोक संख्या १३४ पर देखे।


स्कन्द पुराण के आधार पर ब्राह्मण आठ प्रकार के होते है-


अथ ब्राह्मणभेदांस्तवष्टौ विप्रावधारय ||

मात्रश्च ब्रारह्मणश्चैव श्रोत्रियश्च ततः परम् |

अनूचनस्तथा भ्रूणो ऋषिकल्प ऋषिमुनि: ||

इत्येतेष्टौ समुद्ष्टा ब्राह्मणाः प्रथमं श्रुतौ |

तेषां परः परः श्रेष्ठो विद्या वृत्ति विशेषतः ||

[ स्कन्द पुराण : महेश्वर खण्ड ]

"विद्या" "वंश" "वृत्त" की महिमा से ब्राह्मण 8 प्रकार के बताए गये हैं।

और इनमें से उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं

१-मात्र          २-ब्राह्मण

३-श्रोत्रिय       ४-अनूचान

५- भ्रूण         ६- ऋषिकल्प

७-ऋषि          ८-मुनि

इन के लक्षण इस प्रकार हैं।

१-मात्र :- 

जो ब्राह्मणों के कुल में उत्पन्न हुआ हो किन्तु उनके गुणों से युक्त न हो आचार और क्रिया से रहित हो वह "मात्र" कहलाता है।

२-ब्राह्मण :-

जो वेदों में पारंगत हो आचारवान हो सरल-स्वभाव शांतप्रकृति एकांतसेवी सत्यभाषी और दयालु हो वह "ब्राह्मण" कहा जाता है!

३-श्रोत्रिय :-

जो वेदों की एक शाखा छ: अंगों और श्रौत विधियों के सहित अध्ययन करके अध्ययन अध्यापन यजन-याजन दान और प्रतिग्रह इन छ: कर्मों में रत रहता हो उस धर्मविद ब्रह्मण को "श्रोत्रिय" कहते हैं।

४-अनूचान :-

जो ब्राह्मण वेदों और वेदांगों के तत्त्व को जाननेवाला, शुद्धात्मा, पाप रहित, शोत्रिय के गुणों से संपन्न, श्रेष्ठ और प्राज्ञ हो, उसे "अनूचान" कहा गया है।

५ भ्रूण :- 

जो अनूचान के गुणों से युक्त हो, नियमित रूप से यज्ञ और स्वाध्याय करने वाला, यज्ञ शेष का ही भोग करने वाला और जितेन्द्रिय हो उसे शिष्टजनों ने "भ्रूण" की संज्ञा दी है!

६- ऋषिकल्प :- 

जो समस्त वैदिक और लौकिक ज्ञान प्राप्त करके आश्रम व्यवस्था का पालन करे, नित्य आत्मवशी रहे, उसे ज्ञानीजन "ऋषिकल्प" नामसे स्मरण किया है।

७- ऋषि :-

जो ब्राह्मण ऊर्ध्वरेता, अग्रासन का अधिकारी, नियत आहार करनेवाला, संशय रहित, शहप देने और अनुग्रह करने में समर्थ और सत्य-प्रतिज्ञा हो, उसे "ऋषि" की पदवी दी गयी है।

८- मुनि :-

जो कर्मों से निवृत्त, सम्पूर्ण तत्त्व का ज्ञाता, काम-क्रोध से रहित, ध्यानस्थ, निष्क्रिय और शान्त हो, मिट्टी और सोने में समभाव रखता हो, उसे "मुनि" के नाम से सम्मानित किया है।

इस प्रकार ब्राह्मणों के 8 प्रकार भेद कहे गये हैं।

इस प्रकार से 

"वंश विद्या और वृत्त" सदाचार के द्वारा उत्कर्ष को प्राप्त "त्रिशुक्ल" कहलाते हैं। 

ये ही यज्ञ आदि में पूजित भी होते हैं।

जय जय सीताराम!!

पं. राजेश मिश्र " कण"

श्रीराम ने लक्ष्मण जी को सहोदर भ्राता क्यो कहा


सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥ ७ ॥ अस बिचारि जिय जागहु ताता मिलै न जगत सहोदर भ्राता॥

  इस पर अनावश्यक रुप से तूल दिया जा रहा है। यह कोई नया प्रश्न नही , वर्षो से इसके उत्तर मे तरह तरह के तर्क जोडे जाते रहे है। विविध विद्वानो ने अपना अपना पक्ष रखा है, जिसमे- पायस से उत्पत्ति के कारण, कौशल्या के गर्भ मे आठ मास रहने की बात, एक पिता से उत्पन्न होने के कारण आदि तरह तरह की बाते कही जाती रही है। किन्तु जब इन कथित प्रमाणो को शब्दार्थ की कसौटी पर कसते है, तो ये सभी कथन स्वतः ही निर्मूल हो जाते है।

  अतैव जिज्ञासुगण से निवेदन है कि इस लेख को ध्यान पुर्वक मनन करते हुए शान्तचित्त से पढ़े।

     तुलसी जी ने प्रसंग आरंभ करने के पहले ही एक संकेत स्पष्टरुप से किया है, जिसपर ध्यान देना आवश्यक है।

उहाँ राम लछिमनहि निहारी बोले बचन मनुज अनुसारी ।।

शब्दार्थ- अनुसारी-सदृश, समान अनुसरण करते हुए।


अर्थ-उधर लक्ष्मणजीको देखकर श्रीरामजी प्राकृत मनुष्योंके समान वचन बोले ॥ 

 नोट-१ इस स्थानपर 'उहाँ' पद देकर जनाया कि कवि इस समय श्रीहनुमानजी के साथ हैं। जहाँका चरित अब लिखते हैं, वहाँसे वे बहुत दूर हैं।


नोट-२ आगे उत्पन्न होनेवाली शङ्काओंकी निवृत्तिके लिये यहाँ प्रसङ्ग आदिमें ही 'मनुज अनुसारी' पद देकर जनाया कि 'जस काछिय तस चाहिय नाचा'; अतः शङ्काएँ न करना दोहा ६० देखिये। 

नोट-३ 'निहारी' से जनाया कि आधी रात्रितक सावधान रहे कि पवनसुत शीघ्र ही ओषधि लेकर आते हैं। आधी रात बीतनेपर चिन्ता हुई भाईकी ओर देखा तो शोकका उद्दीपन हो आया


नोट-४ यहाँ भाईको देखकर दुःखके वचन बोलने में 'लछिमन' नाम दिया

 यहॉ मुख्यबिन्दु जो ध्यान देने योग्य है वह है कि *बोले बचन मनुज अनुसारी*

 अब आते है मूल प्रसंग पर

सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥ ७ ॥ अस बिचारि जिय जागहु ताता मिलै न जगत सहोदर भ्राता॥


अर्थ- पुत्र, धन, स्त्री परिवार (कुटुम्ब) संसारमें आरंवार होते और जाते हैं ॥ ७॥

 जगत्‌में सहोदर भ्राता (बार-बार) नहीं मिलते, ऐसा जीसे विचारकर होशमें आ जाओ ॥ ८॥ 


नोट-१ 'सहोदर' का अर्थ है एक पेट से , एक मातासे उत्पन्न यथा-समानोदर्यसोदयंसगसहजा समाः इति (अमरकोश)- (पु०रा० फु०) वाल्मीकीयमें इन चौपाइयोंका समानार्थक श्लोक है। उसमें भी 'सहोदर' शब्द आया है। यथा-'देशे देशे कलत्राणि देशे देशे च बान्धवाः तं तु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदरः ॥ (१०१।१४)

जो एक ही गर्भ से उत्पन्न है वही सहोदर है।


   'सहोदर भ्राता का प्रश्न उठाकर जमीन आसमानके कुलाबे मिलाये जाते हैं। श्रीरामजी यह नहीं कहते कि तुम मेरे सहोदर भ्राता हो' या 'हे सहोदर भ्राता।

 प्रत्युत वे कहते हैं- 'सो अपलोक सोक सुत तोरा।' इसमें स्पष्टरूपसे वे 'सुत' सम्बोधन कर रहे हैं तो क्या श्रीलक्ष्मणजी श्रीरामजी के पुत्र थे? वस्तुतः उस पूरे प्रसङ्गपर विचार करनेसे यही निश्चित होता है कि यह सब विलाप प्रलाप नर-गति है।


'मर्यादापुरुषोत्तमका वचन है 'पूषा न कहउँ मोर यह बाना' तब वे असत्य कैसे कहेंगे?" ऐसा तर्क लोग करते हैं पर वे यह नहीं विचारते कि मर्यादापुरुषोत्तमता है क्या चीज? सुष्टधारम्भ कालसे जगत्के लिये लोक वेद के अनुसार बँधे नियमका नाम मर्यादा है। उन सामयिक नियमोंक ठीक-ठीक पालन करनेका नाम मर्यादापुरुषोत्तमता है। अनेक नियमोंमें एक यह भी प्रख्यात नियम है कि 'विषादे विस्मये कोपे हास्ये दैन्यमेव च गोब्राह्मणरक्षायां वृत्यर्थे प्राणसंकटे स्त्रीषु नर्मविवाहेषु नानृतं स्याजुगुप्सितम्॥ (धर्मविवेकमाला) विषादकी दशामें मनुष्य मूर्छित तो कम होते हैं, परन्तु विक्षिप्त प्रायः हो जाते हैं और


कविने आदिमें कह दिया है कि बोले वचन मनुज अनुसारी और अन्तमें 'नरगति भगत कृपालु देखाई' कहकर तब प्रभुके इन वचनोंको 'प्रलाप' विशेषण दिया है- *'प्रभु प्रलाप सुनि कान विकल भए बानर निकर।* ' 'प्रलाप ' का अर्थ है- 'निरर्थक बात, अनाप शनाप प्रलापोऽनर्थकं वचः' (अमरकोश)। ज्वर आदिके वेगमें लोग कभी-कभी प्रलाप करते हैं। वियोगियोंकी दस दशाओंमेंसे एक यह भी है। इति (हिन्दी- -शब्द-सागर)


 'विद्वानोंकी राय है कि देवता मनुष्यका आदर्श नहीं हो सकता। मनुष्योंका अनुकरणीय होनेके लिये देवता और ईश्वरको भी अपना देवत्व एक ओर रखकर मनुष्य सदृश बर्ताव करना पड़ता है। इसीके अनुसार तुलसीदासजीके श्रीरामचन्द्र ईश्वर होते हुए भी मनुष्योचित कार्य करते हैं। उनका देवत्व उनके मनुष्यत्वको दवा नहीं देता। यही चित्रण चातुरी है। 


यहाँ रघुनाथजीने जो कुछ कहा है वह नरत्व और प्रलाप दशामें कहा है। इसलिये पाठकोंको विषयकी सचाईपर ध्यान नहीं देना चाहिये, वरन् रघुनाथजीको नरलीला और काव्यके रसाङ्गपर ध्यान देना चाहिये। फिर किसी प्रकारकी शङ्काकी गुंजाइश ही नहीं रह जाती।' 'यहाँ मानुषीय प्रकृतिके अनुसार रामचन्द्रजीकी व्याकुलता और शोक प्रदर्शित करना कविको अभीष्ट है, इसीसे उन्होंने जान-बूझकर कुछ ऐसी असङ्गत बातें कहलायी हैं, जिनका ठीक-ठीक अर्थ करना असम्भव सा प्रतीत होता है।'


ईश्वरमें प्रलाप नहीं हो सकता। इसीसे 'मनुज' और 'नर' पद दिया है, जिसका भाव ही है कि मनुष्य ऐसा प्रलाप करते हैं। रावणकी मृत्यु नरके हाथ है। ब्रह्माके वचन सत्य करनेके लिये यहाँ नरवत् प्रलाप दिखाया है।

 और इसलिए ही आरंभ मे ही  *मनुज अनुसारी* व अन्त मे *नरगति भगत कृपालु देखाई* *प्रभु प्रलाप* कहकर सभी भ्रान्ति का उन्मूलन कर दिया है।

     जय जय सीताराम

     पं़ राजेश मिश्र कण

संपुर्ण बजरंग बाण

 पवित्र होकर हनुमानजी का पूजन करे। ध्यान करे।

हेमशैलाभदेहं

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् सकल गुण निधानं वानराणामधीशं, रघुपति प्रियभक्त वातजातं नमामि ।। 

बंजरंगबाण

निश्चय प्रेम प्रतीत ते. विनय करें सनमान तेहि के कारज सकल शुभ सिद्ध करें हनुमान।। जय हनुमंत संत हितकारी सुन लीजै प्रभु अरज हमारी जन के काज विलंब न कीजें आतुर दौर महासुख दीजै ।। जैसे कूदि सिंधु के पारा , सुरसा बदन पैठि विस्तारा।  आगे जाय लंकिनी रोका मारेहु लात गई सुरलोका।।  जाय विभीषण को सुख दीन्हा सीता निरखि परम पद लीन्हा। बाग उजारि सिंधु मह बोरा अति आतुर यमकातर तोरा ।। अक्षय कुमार मार संहारा , लुमि लपेटि लंक को जारा।।  लाह समान लंक जरि गई , जय-जय धुनि सुरपुर नभ भई।


अब बिलंब केहि कारण स्वामी कृपा करहु प्रभु अन्तरयामी,  जय-जय लक्ष्मण प्राण के दाता आतुर होइ दुःख करहू निपाता।

जय गिरधर जय-जय सुख सागर सुर समूह समरथ भटनागर ।। ॐ हनु हनु हनुमंत हठीले बैरिहिं मारू वज्र के कीले ।।


गदा व्रज लै बैरहिं मारौ महाराज निज दास उबारौ।। सुनि हुंकार हुंकार दै धावो वज्र गदा हनु विलंब न लावौ।।


ॐ ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीशा ॐ हुं हुं अरि उर शीशा ।। सत्य होय हरि शपथ पायके रामदूत धरू मारू धायके । जय जय जय हनुमान अगाधा दुःख पावत जन केहि अपराधा। पूजा जप तप नेम अचारा । नहिं जानत हौं दास तुम्हारा। वन उपवन मग गिरी गृह मांही तुम्हरें बल हो डरपत नाही... पायं परौं कर जोरि मनावौं, अपने काज लागि गुण गावौं।।


जय अंजनी कुमार बलवंता शंकर सुवन बीर हनुमंता ।। बदन कराल काल कुल घालक राम सहाय सदा प्रतिपालक ।। भूत प्रेत पिसाच निसाचार अग्नि वैताल काल मारीमर ।।


इन्हें मारू तोहि सपथ राम की राखु नाथ मर्यादा राम की। जनक सुतापति दास कहावौ ताकी सपथ विलंब न लावौ ।। चरण पकरि कर तोहि मनायौ एहि अवसर अब केहि गुहरावौ।। उठु उठु उठु चलु राम दोहाई पाय परौं कर जोरि मनाई।। ॐ चं. चं. चं. चं चपल चलन्ता, ऊँ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता । ऊँ हं हं हांक देत कपि चंचल

ॐ सं सं. सहमि पराने खलदल ।। अपने जन को तुरंत उबारौ सुमिरत होत आनंद हमारो ।। ताते विनती करौं पुकारी हरहु सकल दुःख विपत्ति हमारी। परम प्रबल प्रभाव प्रभु धायौ मेटि सकल दुःख दरस दिखावौ।।


हे कपिराज काज कब ऐहौ अवसर चूकि अंत पछितेहौ।। जन की लाज जात एहि बारा धावहु हे कपि पवन कुमारा।। जयति जयति जय जय हनुमाना जयति जयति गुणज्ञान निधाना ।। जयति जयति जय जय कपिराई जयति जयति जय जय सुखदाई। जयति जयति जय राम पियारे जयति जयति जय सिया दुलारे।। जयति जयति जय मंगलदाता जयति जयति त्रिभुवन विख्याता । यहि प्रकार गावत गुण शेषा । पावत पार नही लवलेषा ।।


राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।। विधि शारदा सहित दिन-राती। गावत कपि के गुण-बहु भॉति।। तुम समान नहिं जग बलवाना करि विचार देखउ विधि नाना। यह जिय जानि शरण हम आये ताते विनय करौं मन लाए। सुनि कपि आरत वचन हमारे हरहु सकल दुःख कष्ट हमारे।। यहि प्रकार विनती कपि केरी जौ जन करे लहै सुख ढेरीं।।

याके पढ़़त वीर हनुमाना। धावत बाण तुल्य बलवाना।। मेटत आय दुःख क्षण माहीं । दे दर्शन प्रभु ढिग जाहीं । पाठ करें बजरंग बाण की हनुमंत रक्षा करैं प्राण की।। डीठ मूठ टोनादिक नाशै,पर कृत यंत्र मंत्र नही त्रासै। भैरवादि सूर करें मिताई आयसु मानि करै सेवकाई ।।


प्रण करि पाठ करै मन लाई । अल्प मृत्यु ग्रह दोष नसाई।


आवृत ग्यारह प्रतिदिन जापै ताकी छांह काल नहि चापै।। दै गूगल की धूप हमेशा करे पाठ तन मिटै कलेशा || यह बजरंग बाण जेहि मारे, ताहि कहो फिर कौन उबारै।। शत्रु समूह मिटै सब आपै। देखत ताहि सुरा सुर कापै।। तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई रहे सदा कपिराज सहाई

दोह

प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।।

तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान।


agama tantra yantra vigyan totka  shaber mantra

Agori tantra kaali tantra kali tantra ravan tantra uddish tantra rahasya



घर का द्वार मुख्यद्वार कहॉ किस दिशा मे होना चाहिए

 मुख्य द्वार


(१) वास्तुचक्रको चारों दिशाओं में कुल बत्तीस देवता स्थित


हैं। किस देवता के स्थान में मुख्य द्वार बनानेसे क्या शुभाशुभ फल होता है, इसे बताया जाता है


पूर्व


१. शिखी- इस स्थानपर द्वार बनाने दुःख, हानि और असे भय होता है। 

२. पर्जन्य- इस स्थानपर द्वार बनानेसे परिवार में कन्याओंकी वृद्धि, निर्धनता तथा शोक होता है।


३. जयन्त- इस स्थानपर द्वार बनानेसे धनको प्राप्ति होती है।

४. इन्द्र-इस स्थानपर द्वार बनाने राज-सम्मान प्राप्त होता है।

 ५. सूर्य इस स्थानपर द्वार बनानेसे धन प्राप्त होता है। (मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनानेसे क्रोधको अधिकता


६. सत्य- इस स्थानपर द्वार बनानेसे चोरी कन्याओ की वृद्धि तथा असत्यभाषणकी अधिकता होती है। 


७भृश- इस स्थानपर द्वार बनाने से क्रूरता अति क्रोध तथा अपुत्रता होती है।


 ८. अन्तरिक्ष- इस स्थानपर द्वार बनानेसे चोरीका भय तथा हानि होती है।


दक्षिण


९. अनिल- इस स्थानपर द्वार बनानेसे सन्तानकी कमी तथा मृत्यु होती है।


१०. पूषा - इस स्थानपर द्वार बनानेसे दासत्व तथा बन्धनकी प्राप्ति होती है।


११. वितथ- इस स्थानपर द्वार बनानेसे नीचता तथा भयकी प्राप्ति होती है।


१२. बृहत्क्षत- इस स्थानपर द्वार बनानेसे धन तथा पुत्रकी प्राप्ति होती है।


१३. यम- इस स्थानपर द्वार बनानेसे धनकी वृद्धि होती है। ( मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनानेसे भयंकरता होती है।) १४. गन्धर्व इस स्थानपर द्वार बनानेसे निर्भयता तथा पशकी प्राप्ति होती है।


(मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनानेसे कृतघ्रता होती है।) 

१५. भृंगराज- इस स्थानपर द्वार बनानेसे निर्धनता, चोरभय तथा व्याधिभय प्राप्त होता है।


१६. मृग- इस स्थानपर द्वार बनाने से पुत्र के बल का नाश निर्बलता तथा रोगभय होता है।


पश्चिम




१७. पिता- इस स्थानपर द्वार बनानेसे पुत्रहानि, निर्धनता तथा शत्रुओंकी वृद्धि होती है। 

१८. दौवारिक- इस स्थानपर द्वार बनाने स्त्रीदुःख तथा शत्रुवृद्धि होती है।


१९. सुग्रीव- इस स्थानपर द्वार बनानेसे लक्ष्मीप्राप्ति होती है।

 २०. पुष्पदन्त- इस स्थानपर द्वार बनानेसे पुत्र तथा धनकी प्राप्ति होती है।


२१. वरुण- इस स्थानपर द्वार बनानेसे धन तथा सौभाग्यको प्राप्ति होती है।


२२. असुर- इस स्थानपर द्वार बनानेसे राजभय तथा दुर्भाग्य प्राप्त होता है।


(मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनानेसे धनलाभ होता है।)

 २३. शोष- इस स्थानपर द्वार बनानेसे धनका नाश एवं दुःखोकी प्राप्ति होती है।


२४. पापयक्ष्मा- इस स्थानपर द्वार बनानेसे रोग तथा शोककी प्राप्ति होती है।


उत्तर


२५. रोग- इस स्थानपर द्वार बनाने से मृत्यु बन्धन, स्त्रीहानि,शत्रुवृद्धि तथा निर्धनता होती है।


२६. नाग- इस स्थानपर द्वार बनानेसे शत्रुवृद्धि, निर्बलता दुःख तथा स्त्रोदोष होता है। २७. मुख्य इस स्थानपर द्वार बनानेसे हानि होती है।


(मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनानेसे पुत्र धन-लाभ होता है।)

 २८. भट- इस स्थानपर द्वार बनानेसे धन-धान्य तथा सम्पत्तिकी प्राप्ति होती है।

  २९. सोम– इस स्थानपर द्वार बनानेसे पुत्र, धन तथा सुखकी प्राप्ति होती है।


३०. भुजग- इस स्थानपर द्वार बनानेसे पुत्रोंसे शत्रुता तथा दुःखोंकी प्राप्ति होती है। (मतान्तरसे इस स्थानपर द्वार बनाने से सुख सम्पत्तिकी वृद्धि


होती है।)


३१. अदिति- इस स्थानपर द्वार बनाने से स्त्रियों में दोष, शत्रुओंसे बाधा तथा भय एवं शोकको प्राप्ति होती है।


३२. दिति- इस स्थानपर द्वार बनानेसे निर्धनता, रोग, दुःख तथा विघ्न बाधा होती है।



मुखय द्वारकी स्थिति ठीक जानने की अन्य विधियाँ इस प्रकार है।


(क) जिस दिशामें द्वार बनाना हो, उस ओर मकान की लम्बाईको बराबर नौ भागों में बाँटकर पाँच भाग दायें और तीन भाग बायें छोड़कर शेष (बायीं ओरसे चौथे) भाग द्वार बनाना चाहिये।


दायाँ और वाय भाग उसको मानना चाहिये, जो घरसे बाहर निकलते समय हो।

जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...