मॉ बगलामुखी साधना

श्रीराम!!

मॉ बगलामुखी ही ब्रह्मास्त्रविद्या है। इन्हीके अनेक नाम यथा- बगलामुखी, पीताम्बरा , बगला , वल्गा, वल्गामुखी , वगलामुखी , ब्रह्मास्त्र विद्या

मॉ बगलामुखी शत्रुओं का नाश करने वाली, उनकी गति, मति, बुद्धि का स्तम्भन करने वाली, मुकदमे एवं चुनाव आदि में विजय दिलाने वाली तथा वे जगत का वशीकरण भी करने वाली हैं। यदि उनकी कृपा प्राप्त हो जाये तो साधक की ओर सभी आकर्षित होने लगते हैं, वह जंहा बोलता है, वंही उसे सुनने को जन समूह उमड़ पड़ता है। उसका दायरा बहुत व्यापक हो जाता है। कोई भी स्त्री, पुरूष, बच्चा उसके आकर्षण में ऐसा बंध जाता है कि अपनी सुध-बुध खो बैठता है और वही करने के लिए विवश हो जाता है, जो साधक चाहता है
इस साधना को करने के लिए अति गोपनीय मंत्र का उल्लेख मैं यंहा साधकों के लिए कर रहा हॅू, लेकिन साधक सदैव स्मरण रखें कि ऐसी साधनाओं का दुष्प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए अन्यथा साधक की साधना क्षीण होने लगती है। मंत्र का प्रयोग सदैव समाज कल्याण के लिए करना चाहिए, न कि समाज-विरोधी गतिविधियों के लिए ।
सर्वप्रथम भगवती बगलामुखी की मंत्र दीक्षा ग्रहण करें उसके पश्चात गुरू आज्ञानुसार साधना का माँ बगलामुखी की साधना करने के लिए सबसे पहले एकाक्षरी मंत्र ह्ल्रीं की दीक्षा अपने गुरुदेव के मुख से प्राप्त करें। एकाक्षरी मंत्र के एक लाख दस हजार
जप करने के पश्चात क्रमशः चतुराक्षरी, अष्टाक्षरी , उन्नीसाक्षरी, छत्तीसाक्षरी (मूल मंत्र ) आदि मंत्रो की दीक्षा अपने गुरुदेव से प्राप्त करें एवं गुरु आदेशानुसार मंत्रो का जाप संपूर्ण करें। कुछ ध्यान योग्य बातें बगलामुखी आराधना में निम्न बातों का विशेष ध्यान रखना जरूरी होता है। साधना में पीत वस्त्र धारण करना चाहिए एवं पीत वस्त्र का ही आसन लेना चाहिए। आराधना में पूजा की सभी वस्तुएं पीले रंग की होनी चाहिए। आराधना खुले आकाश के नीचे नहीं करनी चाहिए। आराधना काल में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए तथा साधना क्रम में स्त्री स्पर्श, चर्चा और संसर्ग कतई नहीं करना चाहिए। बगलामुखी देवी अपने साधक की परीक्षा भी लेती हैं। साधना गुरु की आज्ञा लेकर ही करनी चाहिए और शुरू करने से पहले गुरु का ध्यान और पूजन अवश्य करना चाहिए। बगलामुखी के भैरव मृत्युंजय हैं, इसलिए साधना के पूर्व महामृत्युंजय मंत्र का एक माला जप अवश्य करना चाहिए। मंत्र का जप हल्दी की माला से करना चाहिए। साधना रात्रि में ९ बजे से २ बजे के बीच करनी चाहिए। मंत्र के जप की संख्या निर्धारित होनी चाहिए और रोज उसी संख्या से जप करना चाहिए। यह संख्या साधक को स्वयं तय करना चाहिए। साधना गुप्त रूप से होनी चाहिए। साधना काल में दीप अवश्य जलाया जाना चाहिए। जो जातक इस बगलामुखी साधना को पूर्ण कर लेता है, वह अजेय हो जाता है, उसके शत्रु उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाते।

यदि एक बार आपने यह साधना पूर्ण कर ली तो इस संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जिसे आप प्राप्त नहीं कर सकत। सभी प्रकार की समस्या का समाधान और किसी भी परीक्षा में सफलता प्राप्त करने के लिए बगलामुखी साधना की जाती है। सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए, शत्रुओं का विनाश करने और कोर्ट कचहरी के मसलों में विजय होने के लिए बगलामुखी साधना की जाती है। हल्दी की माला से ८,१६ या २१बार बगलामुखी साधना की जाती है। बगलामुखी साधना का मंत्र है “ॐ ह्लीं बगलामुखी देव्यै ह्लीं ॐ नम:

1 ) कुल : – महाविद्या बगलामुखी “श्री कुल” से सम्बंधित है।

2 ) नाम : – बगलामुखी, पीताम्बरा , बगला , वल्गामुखी , वगलामुखी , ब्रह्मास्त्र विद्या

3 ) कुल्लुका : – मंत्र जाप से पूर्व उस मंत्र कि कुल्लुका का न्यास सिर में किया जाता है। इस विद्या की कुल्लुका “ॐ हूं छ्रौम्”

4) महासेतु : – साधन काल में जप से पूर्व ‘महासेतु’ का जप किया जाता है। ऐसा करने से लाभ यह होता है कि साधक प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थिति में जप कर सकता है। इस महाविद्या का महासेतु “स्त्रीं” है। इसका जाप कंठ स्थित विशुद्धि चक्र में दस बार किया जाता है।

5) कवचसेतु :- इसे मंत्रसेतु भी कहा जाता है। जप प्रारम्भ करने से पूर्व इसका जप एक हजार बार किया जाता है। ब्राह्मण व छत्रियों के लिए “प्रणव “, वैश्यों के लिए “फट” तथा शूद्रों के लिए “ह्रीं” कवचसेतु है।

6 ) निर्वाण :- “ह्रूं ह्रीं श्रीं”  से सम्पुटित मूल मंत्र का जाप ही इसकी निर्वाण विद्या है। इसकी दूसरी विधि यह है कि पहले प्रणव कर, अ , आ , आदि स्वर तथा क, ख , आदि व्यंजन पढ़कर मूल मंत्र पढ़ें और अंत में “ऐं” लगाएं और फिर विलोम गति से पुनरावृत्ति करें।

7 ) बंधन :- किसी विपरीत या आसुरी बाधा को रोकने के लिए इस मंत्र का एक हजार बार जाप किया जाता है। मंत्र इस प्रकार है ” ऐं ह्रीं ह्रीं ऐं ”

8) मुद्रा :- इस विद्या में योनि मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।

9) प्राणायाम : – साधना से पूर्व दो मूल मंत्रो से रेचक, चार मूल मंत्रो से पूरक तथा दो मूल मंत्रो से कुम्भक करना चाहिए। दो मूल मंत्रो से रेचक, आठ मूल मंत्रो से पूरक तथा चार मूल मंत्रो से कुम्भक करना और भी अधिक लाभ कारी है।

10 ) दीपन :- दीपक जलने से जैसे रोशनी हो जाती है, उसी प्रकार दीपन से मंत्र प्रकाशवान हो जाता है। दीपन करने हेतु मूल मंत्र को योनि बीज ” ईं ” से संपुटित कर सात बार जप करें

11) जीवन अथवा प्राण योग : – बिना प्राण अथवा जीवन के मन्त्र निष्क्रिय होता है, अतः मूल मन्त्र के आदि और अन्त में माया बीज “ह्रीं” से संपुट लगाकर सात बार जप करें ।

12 ) मुख शोधन : – हमारी जिह्वा अशुद्ध रहती है, जिस कारण उससे जप करने पर लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। अतः “ऐं ह्रीं ऐं ” मंत्र से दस बार जाप कर मुखशोधन करें

13 ) मध्य दृस्टि : – साधना के लिए मध्य दृस्टि आवश्यक है। अतः मूल मंत्र के प्रत्येक अक्षर के आगे पीछे “यं” (Yam) बीज का अवगुण्ठन कर मूल मंत्र का पाँच बार जप करना चाहिए।

14 ) शापोद्धार : – मूल मंत्र के जपने से पूर्व दस बार इस मंत्र का जप करें –
” ॐ हलीं बगले ! रूद्र शापं विमोचय विमोचय ॐ ह्लीं स्वाहा

15 ) उत्कीलन : – मूल मंत्र के आरम्भ में ” ॐ ह्रीं स्वाहा ” मंत्र का दस बार जप करें।

16 ) आचार :- इस विद्या के दोनों आचार हैं, वाम भी और दक्षिण भी ।

17 ) साधना में सिद्धि प्राप्त न होने पर उपाय : – कभी कभी ऐसा देखने में आता हैं कि बार बार साधना करने पर भी सफलता हाथ नहीं आती है। इसके लिए आप निम्न वर्णित उपाय करें –

a) कर्पूर, रोली, खास और चन्दन की स्याही से, अनार की कलम से भोजपत्र पर वायु बीज “यं” से मूल मंत्र को अवगुण्ठित कर, उसका षोडशोपचार पूजन करें। निश्चय ही सफलता मिलेगी।

b) सरस्वती बीज “ऐं”  से मूल मंत्र को संपुटित कर एक हजार जप करें।

c)ताडपत्र य भोजपत्र पर गौदुग्ध से मूल मंत्र लिखकर उसे दाहिनी भुजा पर बांध लें। साथ ही मूल मंत्र को “स्त्रीं” से सम्पुटित कर उसका एक हजार जप करें

18 ) विशेष : – गंध,पुष्प, आभूषण, भगवती के सामने रखें। दीपक देवता के दायीं ओर व धूपबत्ती बायीं ओर रखनी चाहिए। नैवेद्य फल, मीठा, भी देवता के दायीं ओर ही रखें। जप के उपरान्त आसन से उठने से पूर्व ही अपने द्वारा किया जाप भगवती के बायें हाथ में समर्पित कर दें।

अतः ऐसे साधक गण जो किन्ही भी कारणो से यदि अभी तक साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर सकें हैं, उपर्युक्त निर्देशों का पालन करते हुए पुनः एक बार फिर संकल्प लें, तो निश्चय ही पराम्बा पीताम्बरा की कृपा दृस्टि उन्हें प्राप्त होगी
  बिशेष नोट- *देवी जितनी जल्दी प्रसन्न होती है, उतनी ही जल्दी अनिष्ट भी कर सकती है। अतः साधना मे बिशेष सावधानी रखनी आवाश्यक है।* चूकि तंत्रशाश्त्र गोपनीय है अतः इसके दुरुपयोग को रोकने हेतु , यह लेख साधना हेतु पर्याप्त नही है, इसलेख मे  हवन विधि, हवन सामाग्री तथा समापन विधि, नही लिखी गयी है। यदि इस लेखके आधार पर कोई साधना करता है, तो किसी भी प्रकार की हानि/ बाधा के लिये वह स्वंय जिम्मेदार होगा। अतः साधना से पुर्व अपने गुरु से आज्ञा प्राप्त करे और उनके निर्देशन मे ही साधना करे।
1. बगलामुखी साधना के दौरान पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना अत्याधिक आवश्यक है. 
2. इस क्रम में स्त्री का स्पर्श, उसके साथ किसी भी प्रकार की चर्चा या सपने में भी उसका आना पूर्णत: निषेध है. अगर आप ऐसा करते हैं तो आपकी साधना खण्डित हो जाती है.
 3. किसी डरपोक व्यक्ति या बच्चे के साथ यह साधना नहीं करनी चाहिए. बगलामुखी साधना के दौरान साधक को डराती भी है. साधना के समय विचित्र आवाजें और खौफनाक आभास भी हो सकते हैं इसीलिए जिन्हें काले अंधेरों और पारलौकिक ताकतों से डर लगता है, उन्हें यह साधना नहीं करनी चाहिए.
 4. साधना से पहले आपको अपने गुरू का ध्यान जरूर करना चाहिए.
 5. मंत्रों का जाप शुक्ल पक्ष में ही करें. बगलामुखी साधना के लिए नवरात्रि सबसे उपयुक्त है.
 6. उत्तर की ओर देखते हुए ही साधना आरंभ करें.
 7. मंत्र जाप करते समय अगर आपकी आवाज अपने आप तेज हो जाए तो चिंता ना करें. 
8. जब तक आप साधना कर रहे हैं तब तक इस बात की चर्चा किसी से भी ना करें.
 9. साधना करते समय अपने आसपास घी और तेल के दिये जलाएं. 
10. साधना करते समय आपके वस्त्र और आसन पीले रंग का होना चाहिए।
*पं. राजेश मिश्र " कण"*
भास्कर ज्योतिष्य व तंत्र अनुसंधान केन्द्र आजमगढ़

agama tantra yantra vigyan totka  shaber mantra

Agori tantra kaali tantra kali tantra ravan tantra uddish tantra rahasya



ज्वालामुखी योग, मुहुर्त व ज्योतिष्य

श्रीराम!
भारतीय ज्योतिष्य मे अनेक शुभ अशुभ मुहुर्त है किन्तु इन सबमे सबसे भयानक योग है "ज्वालामुखी योग"। कहा जाता है कि-
*" जन्मे तो जीवे नही बसै तो ऊजड होय।"
कामनी पहने चूडियॉ, निश्चय विधवा होय।।""*
*"कुऐ नीर झॉके नही, खाट पडो न उठन्त।
ज्योतिषी जो जाने नही, ज्योतिष कहता ग्रंथ।।"*
 इसमे जन्म ले तो जीवे नही, घर मे बसे तो उजड जाय, सुहगिन चुडी पहने तो विधवा होय, कुऑ, बोरिंग आरंभ करे तो पानी न आये, बीमार पडे तो बीमारी ठीक न हो।
 
 यदि भूलवश भी इस योग में कोई कार्य आरंभ हो जाए तब वह सफल नहीं होता या बार-बार विघ्न-बाधाएँ व्यक्ति के समक्ष आती रहती हैं जिससे वह कार्य पूरी तरह से सिद्ध नहीं हो पाता. इसलिए इस योग में कोई भी शुभ कार्य आरंभ नहीं करना चाहिए ।

यह योग, तिथि और नक्षत्र के संयोग से बनता है, जैसे – प्रतिपदा तिथि के दिन मूल नक्षत्र हो, पंचमी तिथि को भरणी नक्षत्र हो, अष्टमी तिथि के दिन कृतिका नक्षत्र, नवमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र और दशमी तिथि को आश्लेषा नक्षत्र पड़ रहा हो तब ज्वालामुखी योग बनता है. 



2020 में बनने वाले अगामी ज्वालामुखी योग

  प्रारंभ काल          समाप्ति काल

तिथि  समय             तिथि   समय

6 जून 15:12,           6 जून 22:33,
11 अगस्त 24:57,      12 अगस्त 11:17,
 13 अगस्त 3:26,      13 अगस्त 12:59,
 7 सितंबर 05:24,       7 सितंबर 21:39,
 12 अक्तूबर 01:19,     12 अक्तूबर 16:39
 14 दिसंबर 23:26,       15 दिसंबर 19:07


पं. राजेश मिश्र "कण"
  भास्कर ज्योतिष्य व तंत्र मंत्र अनुसंधान केन्द्र, आजमगढ़।

छुआछूत व जातिवाद का जन्म

श्रीराम!!
शंका-सनातन धर्म मे जो चार वर्ण, ब्राह्मण 'क्षत्रिय, वैश्य, और शुद्र उनके सभी के जनक ब्रह्मा जी है फिर यह जातिवाद की परम्परा और छुवा छूत का जन्म कैसे हुआ है ?? यह सब वेद शास्त्र मे वर्णित है या फिर इंसान के दिमाग की उपज है "इस सत्यता पर प्रकाश डाले"
समाधान-
श्रीमद्भागवत गीता मे श्रीकृष्ण जी ने कहा है- चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
 कुछ लोग इसका शाब्दिक अर्थ अल्पबुद्धि से करते है, कि चारो वर्ण की उत्पत्ति गुण कर्म के अनुसार मैने ही की है। उत्पति और निश्चित करना दोनो मे भेद है कि नही? श्रीकृष्ण ने यह नही कहा- चातुवर्ण्यं त्वं निश्चिनु गुणकर्मविभागश: ।
बल्कि यह कहा है कि- चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश; ।
अर्थात- प्रत्येक व्यक्ति को उसके पूर्वजन्मके गुणो व कर्मो के अनुसार जिस वर्ण मे अगले जन्म मे उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त होती है, उसी मे श्रीभगवान उस् अगला जन्म दिया करते है। और इस प्रकार जन्म से ही अर्थात माता पिता के रक्त से ही जाति का निर्धारण किया गया है।
* पुरुष सूक्त* मे- *ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत:। उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्भया ्ँ शूद्रो अजायत।।*
इस श्लोक का भी अल्पबुद्धि लोग सही अर्थ नही निकालते। और कल्पित अर्थ कर लोगो मे भ्रम फैलाते रहे है। अतः इसके सत्यार्थ को ऋषिगण इस प्रकार स्पष्ट करते है।
 इसकी पुष्टि मे हारीत ऋषि ने सृष्टिकर्म का वर्णन करते हुए हारीत स्मृति मे पुरुषसूक्त के श्लोक को स्पष्ट करते हुए कहा है कि-
*यज्ञ सिद्धयर्थमनवान्ब्राह्मणान्मुखतो सृजत।। सृजत्क्षत्रियान्वार्हो वैश्यानप्यरुदेशतः।। शूद्रांश्च पादयोसृष्टा तेषां चैवानुपुर्वशः।*( १अ० १२/१३)
*यज्ञ की सिद्धि के लिये ब्राह्मणो को मुख से उत्पन्न किया। इसके बाद क्षत्रियो को भुजाओ से वैश्य को जंघाओ से, और शूद्र को चरणो से रचा।*
वशिष्ठ स्मृति चतुर्थ अध्याय मे सृष्टिक्रम का उल्लेख करते हुए वशिष्ठ जी कहते है।
- *ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत:। उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्भया ्ँ शूद्रो अजायत।।*
 *गायत्रा छंदसा ब्राह्मणमसृजत। त्रिस्टुभा राजन्यं जगत्या वैश्यं न केनाचिच्छंदसा शूद्रमित्य संस्कार्यो विज्ञायते।।*
गायत्री छंद से ब्राह्मण की सृष्टि है। त्रिष्टुभ छंद से क्षत्रिय की सृष्टि है। और जगती छंद से वैश्य की सृष्टि ईश्वर ने की है। इसलिये उपरोक्त वेदमंत्र से इनका संस्कार होता है। शूद्र की सृष्टि किसी छंदयोग से नही की इससे ही शूद्र संस्कार के हीन जाना जाता है।
 शाश्त्रो मे स्पष्ट रुप से वर्ण विभाजन ईश्वरकृत जन्माधारित ही है।
 जहॉ तक छूआछूत की बात है, तो इसे तनिक ध्यान से समझना होगा। शूद्रो को दो भाग मे बाटा गया है, सत्शूद्र व असत्शूद्र। जो कूरकर्म, निंदनीयकर्म चाण्डाल व गंदगीयुक्त कार्य करते है, तथा जो अपने वर्णाणुसार निश्चित कर्म का त्यागकर अन्य के कर्मो को करते है, परनिंदा,कलहकारी,अभक्ष्यभक्षी, म्लेच्छादि का स्पर्श वर्जित है। इनसे अलग को सत्शूद्र जाने। इनका स्पर्श वर्जित नही। स्कंद पुराण मे पैंजवन शूद्र व महर्षि गालव संवाद व शूद्र द्वारा महर्षि गालव का आतिथ्य सत्कार, प्रभु श्रीराम द्वारा शबरी के बेर खाना आदि प्रसंग। सत्शूद्र के संदर्भ मे ही है।
छूआछूत तो एक ही शरीर मे भी करना पड़ता है। हाथ की उंगली मुह मे डाल सकते है, पैर की नही। जिस हाथ से मल साफ करते है, उस हाथ से भोजन नही करते। जब एक ही शरीर मे भेद करना पड़ता है, तब ईश्वरीय विधान मे क्यो नही। जिसके पूर्वजन्म मे जैसे कर्म रहे, उसी अनुसार तो इस जन्म मे उसको वर्ण मिला है। अब तो उत्तम यही होगा कि अपने अपने वर्ण के अनुसार निश्चित कर्म करते हुए अपने अगले जन्म को सुधारने का प्रयास करे।
पं. राजेश मिश्र " कण"

शिवजी द्वारा रावण को दिया गया काली कवच

यह काली कवच शिवजी ने अपने परम भक्त रावण को बताया था। इसके प्रयोग से शांति, पुष्टि, शत्रु मारण, उच्चाटन, स्तम्भन, वशीकरण आदि अति सुलभ है। जब शत्रु का भय हो, सजा का डर हो, आर्थिक स्थिति कमजोर हो, किसी बुरी आत्मा का प्रकोप हो, घर मे आशांति हो, व्ययपार मे घाटा हो, मानसिक तनाव हो, गंभीर बिमारी हो, कही मन न लगता हो, किसी के द्वारा जादू टोना, किया कराया गया हो, तो इस काली कवच का पाठ अवश्य करना चाहिये।साधक पवित्र हो, कार्य सिद्धि के अनुसार, आसन दिशा सामाग्री का चुनाव करे। फिर आचमन, संकल्प , गुरु गणेश की वंदना करे। फिर हाथ मे जल लेकर विनियोग करे।
विनियोग मंत्र-ॐ अस्य श्री कालिका कवचस्य भैरव ऋषिः गायत्री छन्दःश्री कालिका देवता सः बैरी सन्धि नाशे विनियोगः। यह मंत्र पढ़कर जमीन पर जल छोड़ दे।भयंकर रुप धारण किये काली का ध्यान, पूजन करे। फिर कवच का पाठ आरंभ करे।
कवचम्- ॐ कालीघोररुपा सर्व कामप्रदा शुभा।सर्व देवस्तुता देवी शत्रु नाशं करोतु मे।।ह्रीं ह्रीं ह्रूं रुपणी चैव ह्रां ह्रीं ह्रीं संगनी यथा।श्रीं ह्रीं क्षौं स्वरुघायि सर्व शत्रु नाशनी।।श्रीं ह्रीं ऐं रुपणी देवीभवबन्ध विमोचनी।यथा शुम्भो हतो दैत्यो निशुम्भश्च महासुराः।।बैरि नाशाय बन्दे तां कालिकां शंकर प्रियाम।ब्राह्मी शैवी वैष्णवी न वाराही नारसिंहिका।।कौमाज्येन्द्री च चामुण्डा खादन्तु मम विद्विषः।सुरेश्वरि घोरु रुपा चण्ड मुण्ड विनाशिनी ।।मुण्डमाला वृतांगी च सर्वतः पातु मां सदा।ह्रीं ह्रीं ह्रीं कालिके घोरे द्रष्ट्वैरुधिरप्रिये, रुधिरा।।पूर्णचक्रे चरुविरेण बृत्तस्तनि, मम शत्रुन खादय खादय, हिंसय हिंसय, मारय मारय, भिंधि भिंधि, छिन्धि छिन्धि,उच्चाट्य, उच्चाट्य द्रावय द्रावय, शोषय शोषय, स्वाहा।यातुधानान चामुण्डे ह्रीं ह्रीं वां काली कार्ये सर्व शत्रुन समर्यप्यामि स्वाहा। ॐ जय विजय किरि किरि कटि कटि मर्दय मर्दय मोहय मोहय हर हर मम रिपून ध्वंसय ध्वंसय भक्षय भक्षय त्रोटय त्रोटय, यातुधानान चामुण्डे सर्वे सनान् राज्ञो राजपुरुषान् राजश्रियं मे देहि पूतन धान्य जवक्ष जवक्ष क्षां क्षों क्षें क्षौं क्षूं स्वाहा।
  यह दिव्य काली कवच रावण द्वारा शिवजी से प्राप्त किया गया है। इस कवच के भक्तिभाव से नित्य पाठ करने से शत्रुओ का नाश हो जाता है। इस कवच का १००० पाठ , १०० हवन तथा १० तर्पण १ मार्जन व एक ब्राहम्ण को भोजन कराने  से  सिद्ध हो जाता है।
 फिर इसके विविध प्रयोग भिन्न भिन्न कार्यो की सफलता के लिये करना चाहिये। सिद्धि के उपरांत इसके प्रयोग की विधि दुरुपयोग को रोकने के लिये नही दी जा रही है।
 सामान्य शांति के लिये गुरु गणेश की वंदना, माता काली का ध्यान व शोडषोपचार य पंचोपंचार, य मानसिक,पूजन करके मात्र पाठ करने से ही चमत्कारिक लाभ मिलता है। यह मेरे द्वारा परीक्षित है।
   

बाल्मीकि जन्मना शूद्र नही , जन्म से ब्राह्मण थे

श्रीराम!!
वाल्मीकि जन्मना शूद्र नही , जन्मना ब्राह्मण ही थे।
अंग्रेज साहित्यकार " बुल्के" वामपंथी विचारक व आर्यसमाजीयो की मिलीभगत से वाल्मीकि को शूद्र बतलाने का षडयंत्र किया गया। जबकि सदा की तरह जन्मना शूद्र होने का कोई प्रमाण ये दे नही पाये।
कृति वासीय रामायण मे वाल्मीकी को च्यवन का पुत्र कहा गया है, सन्तान परंपरा मे होनेवाले को भी पुत्र कहा जाता है, इस दृष्टि से च्यवन का भार्गववंश मे जन्म होने से, वाल्मिकि च्यवन के पुत्र कहे गये।
उत्तरकाण्ड मे भी वाल्मीकि को भार्गव कहा गया है-
" संनिबद्धं हि श्लोकानां चतुर्विंशत्सहस्त्रकम्।
   उपाख्यानशतं  चैव  भार्गवेण  तपस्विना।।
आदिप्रभृति वै राजन् पञ्चसर्गशतानि च  ।
काण्डानि षट् कृतानीह सोत्तराणि महात्मनां।।
     ( वा. रा. ७|९४|२५,२६)
उक्त श्लोको मे वाल्मीकि को ही भार्गव कहा गया है।
"भृगोर्भ्राता भार्गवः" भृगु के भ्राता होने से वाल्मीकि भी भार्गव हुए।
बुद्धचरित मे वाल्मीकि को च्यवन का पुत्र कहा गया है- " वाल्मीकिरादौ च ससर्ज पद्यंजग्रन्थ यन्न च्यवनो महर्षि:।" ( बुद्धचरित १|४३)
        वाल्मीकि जी ने स्वंय ही अपने को जन्मना ब्राह्मण कहा है-
"अहं पुरा किरातेषु किरातै सह वर्धित:।
जन्ममात्रं द्विजत्वं मे शूद्राचाररत: सदा।।
" शूद्रायां बहव: पुत्रा उत्पन्ना मेऽजितात्मन:।
ततश्चोरैश्च संगम्य    चोरोऽहमभवं   पुरा।।
    (अध्यात्म रामायण २/६/६४,८७)
 वाल्मीकी ने कहा, मै प्राचीनकाल मे किरातो के मध्य मे रहकर किरातप्राय हो गया था। केवल जन्ममात्र से मै द्विज (ब्राह्मण) था, परन्तु आचरण सब मेरे शूद्र के से थे । चोरो के साथ रहते रहते मै भी चोर हो गया था।
रामायण मे भी वाल्मीकी ने अपने को प्रचेता का दशवां पुत्र कहा है-
    " सुतौ तवैव दुर्धर्षो तथ्यमेतत् ब्रवीमि ते।
     प्रचेतसोऽहं दशम: पुत्रो रघुकुलोद्वह!।।
              ( वा. रा. ७|९६|१७,१८)
  इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि पहले वे प्रचेता के दशम पुत्र थे। किसी शापवशात पापयुक्त हो गये।महाभारत मे युधिष्ठर वाल्मीकि संवाद मे वाल्मीकि ने ऋषियो द्वारा शाप पाने का संकेत दिया है।
अनन्तर वे किसी भृगुवंशीय ब्राह्मण के यहॉ उत्पन्न हुए, वहॉ दस्युओ के संपर्क मे आकर दस्यु हो गये, फिर मुनिसमागम के प्रभाव से क्रमेण वाल्मीकि महर्षि हुए।  और भी बहुत से प्रमाण है, जो वाल्मीकि के जन्मना ब्राह्मण होना सिद्ध करते है, किन्तु लेख के विस्तारभय से नही दिये जा रहे।
इस प्रकार इन प्रचुर साक्ष्यो से निर्विवाद रुप से सिद्ध होता है कि वाल्मीकि जी जन्मना ब्राह्मण ही थे।
  पं.राजेश मिश्र"कण" ( स्रोत-रा.मी. स्वा. कर. )
    
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मंत्र सिद्धि के लिये, पुरश्चरण विधि, मंत्र संस्कार विधि, मंत्रशोधन के अपवाद

पुरश्चरण" के पांच अंग होते हैं-

१. जप २. हवन ३. तर्पण ४. मार्जन ५. ब्राह्मण भोज

किसी भी मन्त्र का पुरश्चरण उस मन्त्र की वर्ण संख्या को एक लाख से गुणित कर जपने पर पूर्ण माना जाता है। "पुरश्चरण" में जप संख्या निर्धारित मन्त्र के अक्षरों की संख्या पर निर्भर करती है। इसमें "ॐ" और "नम:" को नहीं गिना जाता।  अशक्त होने पर कम से कम एक लाख जप का भी पुरश्चरण किया जा सकता है। जप संख्या निश्चित होने के उपरान्त जप का दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन, मार्जन का दशांश ब्राह्मण भोज कराने से "पुरश्चरण" पूर्ण होता है।
आसन न बदले
जितने माला जप प्रथम दिन किये हो उतने माला ही प्रतिदिन करे।
- हवन के लिए मन्त्र के अन्त में ‘स्वाहा’ बोलें।

- तर्पण करते समय मन्त्र के अन्त में ‘तर्पयामी’ बोलें।

- मार्जन करते समय मन्त्र के अन्त में ‘मार्जयामि’ अथवा ‘अभिसिन्चयामी’ बोलें ।
मंत्र संस्कार की दस विधि है-
१- जनन- गोरोचन, कुंकुम या चंदन से भोजपत्र पर आत्माभिमुख एक त्रिकोण लिखे। उसके तीनो कोण पर छ:छ: समान रेखाए खीचें। इस प्रकार बने हुए ४९ त्रिकोणात्मक कोष्ठो मे ईशानकोण से क्रमशः मातृकावर्ण लिखे। फिर देवता का उसमे आवाहन करे और मंत्र के एक एक वर्ण का उद्धार करके अलग पत्र पर लिखे।
-२-दीपन-'हंस' मंत्र से सम्पुटित करके एक हजार बार मन्त्र का जप करे। यह दीपन संस्कार है।
-३-बोधन- ह्रूं बीज से सम्पुटित करके पॉच हजार बार मंत्र का जप करे। यह बोधन संस्कार है।
-४-ताड़न- फट्" से सम्पुटित करके एक हजार बार मंत्र का जप करने से ताड़न संस्कार पूर्ण होता है।
-५- अभिषेक- मंत्र को भोजपत्र पर लिखकर 'ॐ हंसःॐ" मंत्र से एक हजार अभिमंत्रित कर सम्मुख रखे जल से पीपल पत्र से मंत्र का अभिषेक करे।
-६- विमलीकरण- मंत्र को "ॐ त्रों वषट्" मंत्र से सम्पुटित कर एक हजार जप विमलीकरण कहलाता है।
-७- जीवन- मंत्र को " स्वधा - वषट्" से सम्पुटित कर एक हजार बार जप करने से जीवन संस्कार पूर्ण होता है।
-८तर्पण-मूल-मंत्र से दूध, जल और घृत द्वारा सौ बार तर्पण करने से यह संस्कार पूर्ण होता है।
-९- गोपन- मंत्र को "ह्री" बीज से सम्पुटित कर एक हजार जप करना गोपन संस्कार है।
-१०- आप्यायन- मंत्र को "ह्रौं" बीज से सम्पुटित कर उसका एक हजार जप करने से आप्यायन संस्कार होता है।
मंत्रशोधन का अपवाद- कृष्णमंत्र, एकाक्षर, त्रयाक्षर,पञ्चाक्षर, षडक्षर, सप्ताक्षर, नवाक्षर, अष्टाक्षर,एकदशाक्षर, हंसमंत्र, स्वपन मे प्राप्त मंत्र, मातृकामंत्र,सूर्यमंत्र, वराहमंत्र,मालामंत्र, आदि को शोधन की आवश्यकता नही होती।
   निष्काम भाव से जप करने के लिये भी मंत्रशोधन की आवश्यकता नही होती।

महिलाऐ, यात्रा, शुक्रदोष व गोत्र प्रभाव विचार

"शुक्रदोष विचार"
जिस दिशा में 'शुक्र "सम्मुख एवं जिस दिशा में दक्षिण हो ,उन दिशाओं में बालक ,गर्भवती स्त्री तथा नूतन विवाहिता स्त्री को यात्रा नहीं करनी चाहिए ?
    यदि बालक यात्रा करे तो विपत्ति पड़ती है। नूतन विवाहिता स्त्री यात्रा करे तो सन्तान को दिक्कत होती है।गर्भवती स्त्री यात्रा करे तो गर्भपात होने का भय होता है ।यदि पिता के घर कन्या आये तथा रजो दर्शन होने लगे तो सम्मुख "शुक्र "का दोष नहीं लगता है ।
भृगु ,अंगीरा ,वत्स ,वशिष्ठ ,भारद्वाज -गोत्र वालों को सम्मुख "शुक्र "का दोष नहीं लगता है ।
    सम्मुख "शुक्र "तीन प्रकार का होता है-१जिस दिशा में शुक्र का उदय हो।
२उत्तर दक्षिण गोल -भ्रमण वशात जिस दिशा शुक्र रहे।
३अथवा --कृतिका आदि नक्षत्रों के वश जिस दिशा में हो,उस दिशा में जाने वालों को शुक्र सम्मुख होगा ।
जिस दिशा मे उदय हो -उस दिशा में यात्रा न करें
१-जब गुरु अथवा शुक्र अस्त हो गये हों -अथवा सिंहस्त गुरु हो ,कन्या का रजो दर्शन पिता के घर में होने लगा हो ,अच्छा मुहूर्त न मिले तो --दीपावली के दिन कन्या पति के घर जा सकती है ।
२-यदि पश्चिम में उदय हो -तो पूर्व एवं उत्तर दिशाओं तथा ईशान ,वायव्य विदिशाओं में जाना शुभ रहेगा

३-यदि पूर्व में शुक्र का उदय हो -तो पश्चिम और दक्षिण दिशाओं तथा नैरित्य तथा अग्निकोण विदिशाओं को जाना शुभ होगा । ।
४-गुरु उपचय में हो ,शुक्र केंद्र में हो एवं लग्न शुभ हो तथा शुभ ग्रह से युक्त हो --तब स्त्री पति के घर की यात्रा करे।
५-जब चन्द्र रेवती से लेकर कृतिका नक्षत्र के प्रथम चरण के बीच में रहता है --तब तक शुक्र अन्धा हो जाता है --इसमें सम्मुख अथवा दक्षिण शुक्र का दोष नहीं लगता है ।
६-एक ही ग्राम या एक ही नगर में ,राज्य परिवर्तन के समय -विवाह तथा तीर्थयात्रा के समय शुक्र का दोष नहीं लगता है।
(मुहुर्तचिंतामणि,ज्योत्तिषार)
       पं.राजेश मिश्र"कण"

नाग पंचमी की पूजा विधि

 श्रीराम । नागपंचमी का त्योहार नागों की पूजा के लिए समर्पित है, जिन्हें हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है। यह त्योहार सावन महीने के शुक्ल प...