कलियुगी ब्राह्मण क्यो है पथभ्रष्ट

श्रीराम!
कलियुग मे अधिकांश ब्राह्मण क्यो पथभ्रष्ट है?
एक समय की बात है, पृथ्वीवासीयो को कर्मदण्ड देने के लिये देवेन्द्र ने १५ वर्ष वर्षा नही की जिससे अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गयी। ऋषि गौतम की भक्ति से प्रसन्न होकर माता गायत्री ने उन्हे एक कल्पपात्र प्रदान किया । जिसके द्वारा इच्छित मात्रा मे अन्न धन प्राप्त कर, गौतम ऋषि ने ब्राह्म्णो की सेवा की। ब्राह्मणो का समूह वहॉ रहकर जीवन यापन करने लगा। इस प्रकार ऋषि गौतम की प्रसिद्धि की चर्चा देवलोक तक होने लगी। इस ख्याति से कुछ ब्राह्मणो को ईर्ष्या हुई। अतः षडयंत्र द्वारा ऋषि गौतम को नीचा दिखाने के उद्देश्य से , इन दुष्टस्वभाव वाले ब्राह्मणो ने एक ऐसी गाय जो मरणासन्न थी को महर्षि के आश्रम मे हॉक दिया। उस समय गौतम ऋषि पूजा कर रहे थे। उनके देखते देखते गाय ने प्राणत्याग दिया। तबतक वे नीचगण वहॉ पहुचकर गाय की गौतम ऋषि द्वारा हत्या कर देने का आरोप लगाया। ऋषि बडे दुःखित हुए। उन्होने समाधिस्थ होकर ध्यान लगाया तो सारा माजरा समझते ही अत्यंत कुपित हुए। और उन्होने ब्राह्मणो को श्राप दिया।
 अरे अधम ब्राह्मणो, अब से तुम गायत्री के अघिकारी नही रहोगे, वेदशाश्त्र मे तुम्हारा अधिकार नही होगा। तिलक, रुद्राक्ष, जनेऊ के अधिकारी नही रहोगे।पूजा पाठ कीर्तन मे अधिकार नही होगा। अतः तुम अधम ब्राहम्ण हो जाओ। तुम्हारे वंश मे जो जो स्त्री पुरुष जन्मेगें वे मेरे शाप से शापित होंगे।
तब वे लोग प्रायश्चित पुर्वक क्षमा मांगने लगे। कोमल हृदय ऋषि ने कहा मेरा श्राप मिथ्या नही होगा। अतः जबतक द्वापर मे कृष्ण का जन्म नही होजाता तब तक तुम लोग नरक मे रहो।कलियुग मे तुम लोग जन्मलेकर मेरे श्राप को भोगोगे।
गौतम ऋषि के श्राप से शापित वे ही ब्राह्मण इस कलिकाल मे त्रिकालसंध्या से रहित, गायत्रीभक्ति से हीन तिलक जनेऊ का परित्याग करने वाले ब्राह्मण जाति मे उत्पन्न हुए है। श्राप के प्रभाव से वेद मे श्रद्धा न रही। पाखण्ड का प्रचार करने वाले लम्पट और दुराचारी हुए है।
   (श्रीमद्देवीभागवत पुराण १२ वॉ स्कंध- ब्राह्मणो की कृतघ्न्ता व गौतम ऋषि का श्राप से।)

 मंत्र दीक्षा की संपुर्णज जानकारी के लिए एक विस्तृत व शाशत्रोक्त विवेचन

पूजा व मंत्र जप का सही तरीका

मंत्र सिद्धादि शोधन 

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 मंत्र ऋण धन शोधन विधि 

आयु व मंत्र के प्रकार किस आयु मे कौन सा मंत्र जपना चाहिए  

पूजा पाठ तरने वाले दुखी क्यो रहते है?

मंत्र सिद्धि के उपाय व लक्षण

क्या यज्ञोपवीत के बाद दुसरू शिक्षा लेनी चाहिये





मुसलमानो की उत्पत्ति व विस्तार

श्रीराम!
मुसलमानो की उत्पत्ति तथा विस्तार
     ।भविष्य पुराण।
हस्तिनापुर के राजा क्षेमक की हत्या म्लेच्छो ने कर दी, तब, क्षेमक के पुत्र प्रद्योत ने म्लेच्छो का संहारयज्ञ किया, जिससे उसका नाम म्लेच्छहंता पडा़।
म्लेच्छरुप मे कलि( जिसका यह युग है) ने ही राज्य किया था।तब कलि ने नारायण की पूजा कर दिव्य स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर नारायण प्रकट हुए। कलि ने उनसे कहा हेनाथ ! राजा प्रद्योत ने मेरे स्थान व प्रिय म्लेच्छो का विनाश कर दिया है। प्रभु मेरी सहायता करे!
    भगवान ने कहा - हे कले! कई कारणो से तुम अन्य युगो से श्रेष्ठ हो,अतः कई रुपो कोे धारण कर,मै तुम्हारी इच्छा पूर्ण करुगा! "आदम" नाम का पुरुष और हव्यवती ( हौवा ) नाम की स्त्री से म्लेच्छ वंश की वृद्धि करने वाले उत्पन्न होंगे। यह कर भगवान अन्तरध्यान हो गये।
    म्लेच्छो का आदि पुरुष आदम और उसकी पत्नी हौवा दोनो ने इंद्रियो का दमन कर ध्यान परायण हो रहते थे। कलियुग सर्परुप धारण कर हौवा के पासआया। उस धूर्त कलि ने गूलर के पत्ते मे लपेटकर दूषित वायुयुक्त फल धोखे से खिला दिया, जिससे हौवा का संयम भंग हो गया। इससे अनेक पुत्र हुए जो सभी म्लेच्छ कहलाए। इसी का एक वंशज न्यूह हुआ जो परम विष्णुभक्त था। भगवान ने प्रसन्न होकर उसके वंश की वृद्धि की। उसने वेदवाक्य व संस्कृत से बहिर्भूत म्लेच्छ भाषा का विस्तार किया, और कलि की वृद्धि के लिये ब्राह्मी भाषा को अपनाया। ब्राह्मी भाषा को लिपियो का मूल माना गया है। न्यूह के हृदय मे स्वंय भगवान विष्णुने प्रकट होकर उसकी बुद्धि को प्रेरित किया।इसलिये उसने अपनी लिपि को उल्टीगति से दाहिने से बॉए प्रकाशित किया। जो उर्दू, अरबी, फारसी और हिबूकी लेखन प्रक्रिया मे देखी जाती है।संस्कृत भाषा भारत मे ही किसी तरह बची रही।अन्य भागो मे म्लेच्छ भाषा मे ही लोग सुख मानने लगे।
दो हजार वर्ष कलियुग के बीतने पर विश्व की अधिकांश भूमि म्लेच्छमयी हो गयी। भॉति भॉति के मत चल पडे। मूसा नाम का व्यक्ति म्लेच्छो का आचार्य था।उसने अपने मत को सारे संसार मे फैलाया। कलियुग के आने सेभारत मे वेदभाषा व देवपूजा प्रायः नष्ट हो गयी। प्राकृत व म्लेच्छ भाषा का प्रचार हुआ। ब्रजभाषा व महाराष्ट्री ये प्राकृत भाषा के मुख्य भेद है, यावनी और गुरुकण्डिका( English) म्लेच्छ भाषा के मुख्य भेद है।
  म्लेच्छ भाषा मे षष्टी को सिक्स्टी,सूर्यवार को संडे, भ्रातृ को ब्रादर, पितृ को फादर, आहूति को आजू, जानू को जैनु, फाल्गुन को फरवरी कहते है।
   म्लेच्छदेश मे म्लेच्छलोग सुख से रहते है, यही कलियुग की बिशेषता है।
 अतः भारत और इसके द्वीपो मे म्लेच्छो का राज होगा, ऐसा समझकर आपलोग हरि का भजन करे।
      जय जय सीताराम!

कर्तव्य य अधिकार

श्रीराम!!!
         अधिकार या भार ( कर्तव्यपालन )
वर्तमान मे सभी प्रकार के संघर्ष य विरोध का एक मात्र मूल कारण है "अधिकार" , कोई कहता है, मुझे जनेऊ पहनने का अधिकार क्यो नही?, दूसरा कहता है, मुझे वेद पढ़ने का अधिकार क्यो नही?, तीसरा कहता है, मुझे मंदिर मे घुसने का अधिकार क्यो नही? चौथा कहता है, मुझे दण्डी संन्यासी बनने का अधिकार क्यो नही? सनातन धर्म मे जैसा यह अधिकार का द्वन्द चल रहा है, ठीक इसी प्रकार का द्वन्द, आर्थिक जगत मे, किसान व भूमिधर, मिल मालिक व मजदूर, विद्यार्थी व शिक्षक, इतना ही नही पत्नी और पति मे भी चल रहा है। आज अधिकार के नाम पर यहॉ वहॉ सर्वत्र बेवजह ही देवासुर संग्राम मचा हुआ है। अधिकारवाद  संघर्ष जन्य अनेक अनर्थो से डूबा मानव समाज यदि आज अधिकार वाद की रट लगाना छोड़कर कर्तव्यवाद के दृष्टिकोण से समस्त उलझी हुई समस्याओ को समाहित करने के लिये प्रयत्नशील हो जाए तो, संसार का चित्र ही बदल जायेगा।
जब हम अधिकार वाद को स्वीकार करते है, तो "कम परिश्रम मे अधिक लाभ" की प्रवृति को प्रकट करते है। यह प्रवृति जहॉ सामाजिक संगठन के लिये घातक नही, बिशेषरुप से घातक है, वही राष्ट्र के विकास मे भी बाधक सिद्ध होती है। इसलिये हमारे शाश्त्रो मे समस्त कार्यकलाप का विभाजन अधिकार के आधार पर नही बल्कि कर्तव्य पालन के आधार पर किया गया है। जैसे वेद पढ़ने का ब्राह्मण को अधिकार नही, किन्तु उसके कंधो पर यह भार है, कि वह भूखा रहकर भी वेद पढे। क्षत्रिय को युद्ध मे सर काटने का अधिकार नही, किन्तु वह देश, जाति, धर्म की रक्षा के लिये शिर कटाये यह उसक् मस्तक पर ईश्वर निहित भार है।
  अधिकार व भार का विश्लेषण करते हुए यह  बात समझ लेनी चाहिये कि अधिकार के प्रयोग मे अधिकारी स्वतन्त्र होता है, परन्तु भार तो न चाहते हुए भी कर्तव्य वशात धारण करना ही पड़ता है। यही कारण है कि ब्राह्मण जाति ने सुदामा की भॉति निर्धनता पूर्ण जीवन सहर्ष बिताते हुए भी आज के इस आधुनिक युग मे भी वेदो की पठन पाठन प्रणाली को अक्षुण्ण रखा है । यवनादि विदेशीआतताईयो से सहर्ष युद्ध मे लड़ते हुए क्षत्रिय वीरो ने अपने प्राणो की आहूति दी है। जिससे ही आज सनातन धर्म व धर्मी सुरक्षित बचे है। अन्यथा ये अधिकार की मॉग करने वाले आज न होते। इसलिये अनर्थकारी अधिकार वाद की दृष्टि से ही समस्त कार्यकलाप को देखने की प्रवृति को त्यागकर उसे कर्तव्यपालन - भार की दृष्टि से ही मनन करने की आदत डालनी चाहिये।
   कर्तव्यता के बिषय मे किसको,कब, कैसे, क्या करना चाहिये, यह सब बाते केवल शाश्त्र से ही पूछनी चाहिये। शाश्त्र जिसे जैसे कहे वह उसे वैसे ही करे जो न कहे उसे न करे। जैसे शाश्त्र द्वारा बताए कार्य न करने पर पाप होता है, वैसे ही शाश्त्र द्वारा मना किये कार्य को करने पर भी पाप होता है। सैनिक य पुलिस के लिये  जैसी वर्दी निर्धारित है, यदि वह आन डयूटी पर वैसा न पहने तो दण्ड का पात्र होता है। वैसे ही साधारण व्यक्ति पुलिस का स्वांग करके रौब गाठे तो वह भी दण्ड क पात्र होता है। इसलिये जिन द्विजाति ( ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य ) के लिये जो संस्कार समन्त्रक करने बताये है यदि वे न करेंगे तो पाप के भागी होंगे और जिन द्विजेतर पुरुषो के लिये जो संस्कार अमन्त्रक करने की या न करने की शाश्त्र ने छूट दे रखी है, वे यदि इसके विरुद्ध करेंगे तो अवश्य ही पातकी होंगे।
   कर्मलाप का विभाजन तो वर्ण और आश्रम के तारतम्य से कर्तव्यपालन के आधार पर हुआ है, परन्तु कर्म फल मे समान रुप से सभी को लाभ मिलता है।
 अधिकार व अनाधिकार से किये गये कर्म के बाहरी रुप से प्रत्यक्ष भले ही कुछ अन्तर न दिखाई पडे , परन्तु पुण्य पाप के तारतम्य से उससे उत्पन्न अदृष्ट फल मे महान अन्तर  पड़ता है, जैसे  एक अनाधिकारी पुरुष रात दिन अमुक को फॉसी दे दो पुकारे तो उसका बाल भी बाका नही होता किन्तु यदि यही शब्द जज की कुर्सी पर बैठा न्यायधीश सिर्फ एक बार कह दे तो तदनुसार उसे फॉसी दे दी जाएगी। यहॉ दोनो व्यक्तियो के वाक्य य शब्दो मे कोई अन्तर नही, केवल कर्तव्यपालन(अधिकार) का ही अन्तर है।
इस बिषय पर लिखा जाय तो एक ग्रंथ तैयार हो जाए, किन्तु आशा है,हमारा यह संक्षिप्त प्रयास पाठकोे के लिये बिषय को समझने मे सहयोगी हो सकेगा।
   जय जय सीताराम!

भक्तियोग और रामचरितमानस

सियावर रामचन्द्र की जय
भक्तियोग हीएक ऐसा सुलभ और स्वतंत्र अवलम्ब है, जिसके प्रभाव से, सर्व शक्तिमान भगवान कोभी भक्तो के प्रेमपाश मेबंधकर भक्त हृदय मे वास करना पड़ता है, अतः प्राणीमात्र के लिये भगवत प्रेमावलम्बन ही वास्तविक योग है, तथा ईश्वर के प्रति प्रेम की प्रधानता ही यथार्थ मे ज्ञान है|
 जोग कुजोग ग्यानु अग्यानु| जहँ नही राम प्रेम परधानू|
 सर्वप्रकार से चित्त को शान्तकर ईश्वर के चरणो मे, ध्यान लगाना, अर्थात अपने को ईश्वर के शरणागत करना ही भक्तियोग है|
 धर्म ते विरति योग ते ग्याना| ग्यान मोक्षप्रद वेद बखाना|
जबतक वर्णाश्रम आदि के अनुसार निजधर्म का पूर्णतः पालन नही किया जाता तबतक ( धर्म ते विरति) वैराग्य उत्पन्न न होगा, जब बैराग्य न होगा तो कर्मादिक फल का त्याग न होने से कर्मयोग न हो सकेगा जबतक कर्मयोग न होगा तबतक (योग ते ग्याना) ज्ञान न उत्पन्न होगा, और जबतक ज्ञान न होगा, तबतक मोक्ष न होगा| किन्तु भक्तियोग, भक्तो के लिये सुलभ, सुखद एवं स्वतंत्र अवलंम्ब है, जिसके द्वारा ईश्वर भक्तो के अधीन हो जाते है, फिर मोक्ष की बात ही क्या करना | प्रभु ने स्वंय कहा है,
जाते वेगि द्रवऊँ मै भाई, सो मम भगति भगत सुखदाई|
 सो सुतंत्र अवलंब न आना| तेहि ते अधीन ग्यान विग्याना|
 गृहस्थ और बैरागी दोनो ही प्रकार के लोगो हेतू, भक्ति मार्ग कैसे सुलभ है, श्री प्रभु  के मुखारविन्द से-
 संत चरण पँकज अति प्रेमा| मन क्रम बचन भजन दृढ नेमा|
 गुरु पितु मातु बंधु पतिदेवा| सब मोहि कहै जाने दृढ सेवा|
 मम गुन गावत पुलक शरीरा| गदगद गिरा नयन बह नीरा||
 काम आदि मद दंभ न जाके| तात निरंन्तर बस मै ताके||
 वचन कर्म मम मोरि गति भजन करहि निःकाम|
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करऊँ सदा विश्राम||
 सियावर रामचन्द्र की जय| |

जब गंगा जी भागीरथ द्वारा पृथ्वी पर लायी गयी तो राजा हरिश्चंद्र के समय काशी मे गंगा जी नही थी?

जब गंगा जी भागीरथ द्वारा पृथ्वी पर लायी गयी तो राजा हरिश्चंद्र के समय काशी मे गंगा जी नही थी?

जैसा की वर्तमान मे, गंगा जी के तट पर, हरिश्चंद्र घाट, मणिकिर्णकाघाट है। अतः सर्वजन के मानस पटल पर, गंगा जी का सर्वदा होना अंकित हो गया है।
 और वर्तमान मे अधिकांश श्मशान नदी तट पर होने से यह भाव सहज उत्पन्न होता है कि, राजा हरिश्चंद्र के समय भी नदी रही है। लेकिन जब आदरणीय श्री भागवत प्रवक्ता जी के विचार पर ध्यान दिया। और पुराणो मे  रोहिताश्व प्रसंग खोजना शुरु किया तो भविष्य पुराण मे, काशी के दक्षिण श्मशान का उल्लेख मिला किंतु वहा किसी नदी का होना उल्लेखित नही है। अन्य पुराणो मे भी जहा राजा हरिश्चंद्र का प्रसंग है। वहा सिर्फ काशी के दक्षिण मे श्मशान होने का ही उल्लेख है। नदी का नही । अतः यह स्पष्ट है कि गंगा जी भगीरथ के समय ही पृथ्वी पर लायी गयी है, उसके पुर्व गंगा जी धरती पर नही थी।
     कुछ धर्मद्रोही राजा हरिश्चंद्र के समय धरती पर गंगा जी के होने की मनगड़न्त बाते गढ़कर पुराणो के प्रति शंका उत्पन्न करने का दुः प्रयास कर रहे है।जबकि स्पष्ट रुप से भागीरथ के पुर्व गंगा जी के पृथ्वी पर न होने का उल्लेख पुराणो मे है।

वराहावतार दिग्दर्शन, वराहावतार रहस्य

श्रीराम!!!
#वराहावतार_दिग्दर्शन
धन ही पतन का कारण है, हम प्रायः समाज मे देखते है, उच्चतम ( धनाढ्य ) परिवारो मे, जो नये नये अमीर हुए है। पश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करने मे, सनातन सभ्यता का लोप कर, संस्कारहीन होते जाते है। और अन्य को भी पूछकटे सियार की भॉति, उसी का अनुकरण करने को बाध्य करते है। पुरुष का पुरुष से व नारी का पर पुरुष से, शारीरिक यौन संबध गौरव समझते है। विचार करते है, तो पाते है, कि इस पद्धति को गौरव मानने वाले नवीन अमीर ही अधिक है। धन को नियंत्रण न कर पाने के कारण संस्कार हीन होते जा रहे है। यहॉ कनक, कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय, पूर्णता चरितार्थ होता है। खैर, बिषय को लम्बा न खीचते हुए मुख्य बिंदु पर आते है।
हिरण्याक्ष अर्थात स्वर्ण की धुरी, धन के प्रति मोह लोभ उत्पन्न होना ही हिरण्याक्ष के जन्म का कारण है । विलासिता ही स्वर्णादि धन के लिये प्रेरित करती है।
धन से विलासिता बढ़ती है। अतः विलासिता को ही हिरण्याक्ष कहा गया है। मनुष्य विलासी होने पर संस्कार को महत्व नही देता, यह रजो गुण की वृद्धि हुई। जीव भोग विलास मे डूब गया।विलास मे खलल पडने पर क्रोध की वृद्धि हुई। जब क्रोध से खलल करने वाले को दबा दिया तो अहंकार उत्पन्न हुआ।अतः इस प्रकार उसके जीवन मे संस्कार का लोप होता है। तमोगुण की वृद्धि हुई।अर्थात तमोगुण मे जीव डूब गया। पंचतत्व निर्मित शरीररुपधारी जीव की उपमा पृथ्वी से की गयी है। मायामय संसार को अथाह सागर कहा गया है। काम, क्रोध मद लोभादि विकार ही मल मूत्र गंदगी है। विलासिता( हिरण्याक्ष), जीव( पृथ्वी) को, संसार सागर मे, मल, मूत्र, गंदगी (काम, क्रोधादि विकार)से ढक देता है!यही जीव का पतन है। इह लोक और परलोक दोनो मे ही जीव निन्दनीय हो जाता है। इसी मे पडे पडे जीव को जब काफी समय बीत जाता है। तब कभी जब जीव चिंतन करता है। अहो मेरी क्या गति हुई, जा रही है। मै परमात्मा से विमुख होता जा रहा हू। जीव छटपटा उठता है, उस स्थिति से बाहर निकलने के लिये दृढ प्रतिज्ञ होता है, उसमे सतो गुण की वृद्धि होती है। इस प्रकार दृढनिर्णय़ होना ही योग है, यही योग सतोगुण को बढानेवाला है। यह दृढ़ निर्णय ही कठोरशरीर वाला वराह है,जिसके उज्जवल दॉत सतोगुण है। यही "वराहावतार" है।यही वराह अपने उज्जवल दॉतो से मल मूत्र गंदगी को साफ करके पृथ्वी का उद्धार करता है। अर्थात वराह रुपी दृढ़निर्णय सतोगुणरुपी दॉत से मल, मूत्र , गंदगी रुपी विकार को हटाकर पृथ्वी रुपी जीव का कल्याण करता है।
  इस हेतु ही कहा गया है, कि
जो जल बाढै़ नाव मे, घर मे बाढै दाम!
दोऊ हाथ उलीचिए, यही सयानो काम!!
जय जय सीताराम!!!
पं. राजेश मिश्र 'कण'

त्रिपिण्डी श्राद्ध, का विधान

पितृदोष निवारण हेतु त्रिपिंडी श्राद्ध

ये अनुष्ठान कौन कर सकता है ?
१. ये काम्य अनुष्ठान हैं । यह कोई भी कर सकता है । जिसके माता-पिता जीवित हैं, वह भी कर सकते हैं ।

२. अविवाहित भी अकेले यह अनुष्ठान कर सकते हैं ।

निषेध-
१-घर में विवाह, यज्ञोपवीत इत्यादि शुभकार्य हो अथवा घर में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाए, तो यह अनुष्ठान एक वर्ष तक न करें ।

अनुष्ठान में लगनेवाली अवधि-
 त्रिपिंडी श्राद्ध अनुष्ठान एक दिन का होता है ।




त्रिपिंडी श्राद्ध
तीर्थस्थल पर पितरों को संबोधित कर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे त्रिपिंडी श्राद्ध कहते हैं ।
उद्देश्य
हमारे लिए अज्ञात, सद्गति को प्राप्त न हुए अथवा दुुर्गति को प्राप्त तथा कुल के लोगों को कष्ट देनेवाले पितरों को, उनका प्रेतत्व दूर होकर सद्गति मिलने के लिए अर्थात भूमि, अंतरिक्ष एवं आकाश, तीनों स्थानों में स्थित आत्माओं को मुक्ति देने हेतु त्रिपिंडी करने की पद्धति है । श्राद्ध साधारणतः एक पितर अथवा पिता-पितामह (दादा)-प्रपितामह (परदादा) के लिए किया जाता है । अर्थात, यह तीन पीढियों तक ही सीमित होता है । परंतु त्रिपिंडी श्राद्ध से उसके पूर्व की पीढियों के पितरों को भी तृप्ति मिलती है । प्रत्येक परिवार में यह विधि प्रति बारह वर्ष करें; परंतु जिस परिवार में पितृदोष अथवा पितरों द्वारा होनेवाले कष्ट हों, वे यह विधि दोष निवारण हेतु करें ।
विधि के लिए उचित काल

त्रिपिंडी श्राद्ध के लिए अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा – ये तिथियां एवं संपूर्ण पितृपक्ष उचित होता है ।

गुरु शुक्रास्त, गणेशोत्सव एवं शारदीय नवरात्र की कालावधि में यह विधि न करें । उसी प्रकार, परिवार में मंगलकार्य के उपरांत अथवा अशुभ घटना के उपरांत एक वर्ष तक त्रिपिंडी श्राद्ध न करें । अत्यंत अपरिहार्य हो, उदा. एक मंगलकार्य के उपरांत पुनः कुछ माह के अंतराल पर दूसरा मंगलकार्य नियोजित हो, तो दोनों के मध्यकाल में त्रिपिंडी श्राद्ध करें ।


 सात्विक यवपिंड (धर्मपिंड)

पितृवंश के एवं मातृवंश के जिन मृत व्याक्तियों की उत्तरक्रिया न हुई हो, संतान न होने के कारण जिनका पिंडदान न किया गया हो अथवा जो जन्म से ही अंधे-लूले थे (नेत्रहीन-अपंग होने के कारण जिनका विवाह न हुआ हो इसलिए संततीरहित), ऐसे पितरों का प्रेतत्व नष्ट हो एवं उन्हें सद्गति प्राप्त हो, इसलिए यवपिंंड प्रदान किया जाता है। इसे धर्मपिंड की संज्ञा दी गई है ।

 राजस व्रीहीपिंड

पिंड पर चीनी, मधु एवं घी मिलाकर चढाते हैं; इसे मधुरत्रय कहते हैं । इससे अंतरिक्ष में स्थित पितरों को सद्गति मिलती है ।

 तामस तिलपिंड

पृथ्वी पर क्षुद्र योनि में रहकर अन्यों को कष्ट देनेवाले पितरों को तिलपिंड से सद्गति प्राप्त होती है ।



    पितृदोष हो, तो माता-पिता के जीवित होते हुए भी पुत्र का विधि करना उचित
श्राद्धकर्ता की कुंडली में पितृदोष हो, तो दोष दूर करने हेतु माता-पिता के जीवित होते हुए भी इस विधि को करें ।
   विधि के समय केश मुंडवाने की आवश्यकता
श्राद्धकर्ता के पिता जीवित न हों, तो उसे विधि करते समय केश मुंडवाने चाहिए । जिसके पिता जीवित हैं, उस श्राद्धकर्ता को केश मुंडवाने की आवश्यकता नहीं है ।

     घर का कोई सदस्य विधि कर रहा हो, तब अन्य सदस्यों द्वारा पूजा इत्यादि होना उचित है ।
त्रिपिंडी श्राद्ध में श्राद्धकर्ता के लिए ही अशौच होता है, अन्य परिजनों के लिए नहीं । इसलिए घर का कोई सदस्य विधि कर रहा हो, तो अन्यों के लिए पूजा इत्यादि बंद करना आवश्यक नहीं है

जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...