महिलाऐ, यात्रा, शुक्रदोष व गोत्र प्रभाव विचार

"शुक्रदोष विचार"
जिस दिशा में 'शुक्र "सम्मुख एवं जिस दिशा में दक्षिण हो ,उन दिशाओं में बालक ,गर्भवती स्त्री तथा नूतन विवाहिता स्त्री को यात्रा नहीं करनी चाहिए ?
    यदि बालक यात्रा करे तो विपत्ति पड़ती है। नूतन विवाहिता स्त्री यात्रा करे तो सन्तान को दिक्कत होती है।गर्भवती स्त्री यात्रा करे तो गर्भपात होने का भय होता है ।यदि पिता के घर कन्या आये तथा रजो दर्शन होने लगे तो सम्मुख "शुक्र "का दोष नहीं लगता है ।
भृगु ,अंगीरा ,वत्स ,वशिष्ठ ,भारद्वाज -गोत्र वालों को सम्मुख "शुक्र "का दोष नहीं लगता है ।
    सम्मुख "शुक्र "तीन प्रकार का होता है-१जिस दिशा में शुक्र का उदय हो।
२उत्तर दक्षिण गोल -भ्रमण वशात जिस दिशा शुक्र रहे।
३अथवा --कृतिका आदि नक्षत्रों के वश जिस दिशा में हो,उस दिशा में जाने वालों को शुक्र सम्मुख होगा ।
जिस दिशा मे उदय हो -उस दिशा में यात्रा न करें
१-जब गुरु अथवा शुक्र अस्त हो गये हों -अथवा सिंहस्त गुरु हो ,कन्या का रजो दर्शन पिता के घर में होने लगा हो ,अच्छा मुहूर्त न मिले तो --दीपावली के दिन कन्या पति के घर जा सकती है ।
२-यदि पश्चिम में उदय हो -तो पूर्व एवं उत्तर दिशाओं तथा ईशान ,वायव्य विदिशाओं में जाना शुभ रहेगा

३-यदि पूर्व में शुक्र का उदय हो -तो पश्चिम और दक्षिण दिशाओं तथा नैरित्य तथा अग्निकोण विदिशाओं को जाना शुभ होगा । ।
४-गुरु उपचय में हो ,शुक्र केंद्र में हो एवं लग्न शुभ हो तथा शुभ ग्रह से युक्त हो --तब स्त्री पति के घर की यात्रा करे।
५-जब चन्द्र रेवती से लेकर कृतिका नक्षत्र के प्रथम चरण के बीच में रहता है --तब तक शुक्र अन्धा हो जाता है --इसमें सम्मुख अथवा दक्षिण शुक्र का दोष नहीं लगता है ।
६-एक ही ग्राम या एक ही नगर में ,राज्य परिवर्तन के समय -विवाह तथा तीर्थयात्रा के समय शुक्र का दोष नहीं लगता है।
(मुहुर्तचिंतामणि,ज्योत्तिषार)
       पं.राजेश मिश्र"कण"

हनुमान महामंत्रराज, सर्वसिद्धिप्रद

श्रीराम! , हनुमान कृपा, हनुमान मंत्र, हनुमान प्रत्यक्ष दर्शन के लिए, यह तांत्रिक विधि बहुत ही उपयोगी है।
विद्यां वापि धनं वापि राज्यं वा शत्रुविग्रहम्।
तत्क्षणादेव चाप्नोति सत्यं सत्यं सुनिश्चितम्।।

 आय से अधिक खर्च, पारिवारिक विवाद, बीमारी, अकस्मात किसी संकट का उपस्थित होना, भूत- प्रेत बाधा, पितर दोष, वास्तुदोष, ग्रहो की पीडा़, किसी के द्वारा तांत्रिक क्रिया ( मारण,उच्चाटन) आदि किया जाना।  इन सभी दोषो का एक विश्वसनीय व परीक्षित उपाय है। "हनुमतमहामंत्रराज" का बारह हजार जप व तद्दशांश हवन,  तर्पण, मार्जन। यह एक तांत्रिक अनुष्ठान है। जिसमे श्रीहनुमानजी के द्वादशाक्षर तांत्रिक मंत्र " हौं हस्फ्रे ख्फ्रे हस्रौं हंस्ख्फ्रे ह्स्रौं हनुमते नमः।" का जप किया जाता है।
तेल, बेसन व उड़द के आटे से निर्मित हनुमान जी की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा करके तेल और घी का दीपक जलाये, विधिवत पूजन कर पूआ, भात, शाक, मिठाई, बडे़, पकौडी़ आदि का भोग लगाये।
यहॉ हनुमान साधना की संपुर्ण सामग्री देखिए।
 जप से पूर्व मंत्र का विनियोग षडंगन्यास, वर्णन्यास, पदन्यास तथा अष्टदलकमलयंत्र में विमलाआदि शक्तियोवाली पीठ पर हनुमान् का पूजन करना चाहिये। पीठ देवताओ का  विविध नियतस्थानो मे पूजन करना चाहिये। केसरो मे अंगपूजा, तथा दलो पर विविधनामो वाले हनुमान का पूजन करना चाहिये। दिकपाल सहित प्रमुख वानरो की पूजा कर आवरण पूजा करनी चाहिये। विधि के सभी मंत्र लेख के अधिक विस्तार भय से नही लिखे जा रहे है। अलग अलग कामना के लिये हवन सामाग्री अलग अलग होती है। जहॉ अन्माय लाभोपयोगी अनुष्त्रठान मे लाखो खर्च होते है, वही मात्र ५००० रु के खर्च मे यह अनुष्ठान सम्पन्न हो सकता है।
    यह अनुष्ठान मेरे द्वारा कई लोगो पर परिक्षित है, जिससे लोगो को प्रत्यक्ष लाभ मिला है।

वर्णाश्रम जातिभेद क्यो?


श्रीराम!!
#वर्णाश्रम
पश्चिमी देश आज पशु पक्षी व वृक्षो की नस्ल को सुरक्षित व उनकी वृद्धि के लिये लगातार प्रयत्नशील है। किन्तु दुर्भाग्यवश समाजीयो की खोपडी मे यह बात नही बैठ पा रही है, कि मनुष्य की भी कोई खास नस्ल होती है, और उसकी रक्षा करना भी आवश्यक है।
   यह तो सभी जानते है कि आम कहने के लिये तो मात्र एक साधारण वृक्ष है, परन्तु उसमे भी कलमी , लगंडा, दशहरी, तोतापरी, सिन्दुरी आदि अनेकानेक जातिया पाई जाती है। जिनका आकार प्रकार, रंग रुप और स्वाद मे भिन्नता पाई जाति है। लंगडा के वृक्ष पर तोतापरी तो नही उगता, सफेदा सिन्दूरी हो सकता है क्या? पशुओ मे गाय व घोडो की बिशेष नस्ले पाई जाति है।
कुत्तो की नस्ल को सुरक्षित रखने के लिये  "बुलडाग" और "पप्पीडाग" जन्मानेवाली कुतिया को वर्णसंकरता से बचाने के लिये, (दुसरे कुत्ते के संपर्क से) रबड़ के जॉघिये पहनाए जाते है । अहो यह कितने आश्चर्य व शोक का बिषय है, कि आज मानव नस्ल की सुरक्षा की न केवल उपेक्षा की जा रही है, बल्कि जातिगत बिशेषताओ की रक्षा के किले- जन्मना वर्ण व्यवस्था, गोत्र प्रवर विचार, जाति उपजाति मे विवाह सम्बन्ध तथा भोजन सम्बन्ध आदि आदि वैज्ञानिक विधानो की धज्जियॉ उडाई जा रही है।
हिन्दू जाति ही एकमात्र ऐसी जाति है कि जिसने अपने वर्ण मे ही यौन सम्बन्ध को यथा तथा सुरक्षित रखा है। सात सौ वर्षो के मुस्लिम शाशनकाल मे हजारो क्षत्राणियो ने जौहर व्रत धारण कर सहर्ष जलती चिता मे प्रवेश किया। कालकूट का पान किया लेकिन अकबर महान की साम दाम भेद पुर्ण और औरंगजेब की दण्डपूर्ण सारी नीति व्यर्थ सिद्ध हुई। आर्यललनाओ ने अपनी  विशुद्ध कोख को गोमॉसभक्षक अनार्यो क् संसर्ग से दूषित नही होने दिया। फलस्वरुप हिन्दू हृदय सम्राट राणाप्रताप, छत्रपति शिवाजी महराज, श्री गुरु गोविन्द सिंह और वीर बन्दा बैरागी जैसो की नस्ल सुरक्षित रह सकी।
  1947 पाकिस्तान के जन्मकालीन हत्याकाण्ड के समय अनेको देविये अपने सतीत्व की रक्षा के लिये हँसते हँसते चिताओ पर चढ़ गयी। पुरे गॉव के गॉव सती हो गयी। इन कष्टपूर्ण कथाओ ने जहॉ हमारे हृदय को भस्म कर डाला वही इन बलिदानो के प्रकाश मे एक आशा की किरण भी सुस्पष्ट झलक पडी। आस्तिक जगत को पुनः यह निश्चित समझने का अवसर मिला कि हिन्दू जाति की "नस्ल " अभी सुरक्षित है।
सीता सावित्री और पद्मिनी का परम्परागत रक्त आज भी हिन्दू नारियो मे ठाठे मार रहा है। जब तक हमारी यह नस्ल सुरक्षित है तब तक हिन्दू जाति का बाल भी बॉका नही हो सकता इसप्रकार का उदात्त विचार एक बार फिर हमारे हृदय मे उद्बुद्ध हुए।
  यदि यह नस्ल समाप्त हो गयी तो एक बार फिर यहॉ भी जर्मनी के प्रसिद्ध नाजी नेता फील्ड मार्शल गोयरिंग की लाश पर उन्ही की विधवा पत्नी फिल्मस्टार  के रुप मे थिरक कर, पति के जानी दुश्मन, अंग्रेज, रसियन, अमेरिकन सैनिको से " वंस मोर हियर" वंस मोर हियर" की दाद चाहने वाली नचनिये देखने मे आयेंगी। मानवता मृत हो जाऐगी।
     दो विभिन्न जातियो के सांकर्य
छआछूत व जातिवाद का जन्म इस लिकं पर पढि़ए

कलियुगी ब्राह्मण क्यो है पथभ्रष्ट

श्रीराम!
कलियुग मे अधिकांश ब्राह्मण क्यो पथभ्रष्ट है?
एक समय की बात है, पृथ्वीवासीयो को कर्मदण्ड देने के लिये देवेन्द्र ने १५ वर्ष वर्षा नही की जिससे अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गयी। ऋषि गौतम की भक्ति से प्रसन्न होकर माता गायत्री ने उन्हे एक कल्पपात्र प्रदान किया । जिसके द्वारा इच्छित मात्रा मे अन्न धन प्राप्त कर, गौतम ऋषि ने ब्राह्म्णो की सेवा की। ब्राह्मणो का समूह वहॉ रहकर जीवन यापन करने लगा। इस प्रकार ऋषि गौतम की प्रसिद्धि की चर्चा देवलोक तक होने लगी। इस ख्याति से कुछ ब्राह्मणो को ईर्ष्या हुई। अतः षडयंत्र द्वारा ऋषि गौतम को नीचा दिखाने के उद्देश्य से , इन दुष्टस्वभाव वाले ब्राह्मणो ने एक ऐसी गाय जो मरणासन्न थी को महर्षि के आश्रम मे हॉक दिया। उस समय गौतम ऋषि पूजा कर रहे थे। उनके देखते देखते गाय ने प्राणत्याग दिया। तबतक वे नीचगण वहॉ पहुचकर गाय की गौतम ऋषि द्वारा हत्या कर देने का आरोप लगाया। ऋषि बडे दुःखित हुए। उन्होने समाधिस्थ होकर ध्यान लगाया तो सारा माजरा समझते ही अत्यंत कुपित हुए। और उन्होने ब्राह्मणो को श्राप दिया।
 अरे अधम ब्राह्मणो, अब से तुम गायत्री के अघिकारी नही रहोगे, वेदशाश्त्र मे तुम्हारा अधिकार नही होगा। तिलक, रुद्राक्ष, जनेऊ के अधिकारी नही रहोगे।पूजा पाठ कीर्तन मे अधिकार नही होगा। अतः तुम अधम ब्राहम्ण हो जाओ। तुम्हारे वंश मे जो जो स्त्री पुरुष जन्मेगें वे मेरे शाप से शापित होंगे।
तब वे लोग प्रायश्चित पुर्वक क्षमा मांगने लगे। कोमल हृदय ऋषि ने कहा मेरा श्राप मिथ्या नही होगा। अतः जबतक द्वापर मे कृष्ण का जन्म नही होजाता तब तक तुम लोग नरक मे रहो।कलियुग मे तुम लोग जन्मलेकर मेरे श्राप को भोगोगे।
गौतम ऋषि के श्राप से शापित वे ही ब्राह्मण इस कलिकाल मे त्रिकालसंध्या से रहित, गायत्रीभक्ति से हीन तिलक जनेऊ का परित्याग करने वाले ब्राह्मण जाति मे उत्पन्न हुए है। श्राप के प्रभाव से वेद मे श्रद्धा न रही। पाखण्ड का प्रचार करने वाले लम्पट और दुराचारी हुए है।
   (श्रीमद्देवीभागवत पुराण १२ वॉ स्कंध- ब्राह्मणो की कृतघ्न्ता व गौतम ऋषि का श्राप से।)

 मंत्र दीक्षा की संपुर्णज जानकारी के लिए एक विस्तृत व शाशत्रोक्त विवेचन

पूजा व मंत्र जप का सही तरीका

मंत्र सिद्धादि शोधन 

मंत्र शोधन के अपवाद 

 मंत्र ऋण धन शोधन विधि 

आयु व मंत्र के प्रकार किस आयु मे कौन सा मंत्र जपना चाहिए  

पूजा पाठ तरने वाले दुखी क्यो रहते है?

मंत्र सिद्धि के उपाय व लक्षण

क्या यज्ञोपवीत के बाद दुसरू शिक्षा लेनी चाहिये





मुसलमानो की उत्पत्ति व विस्तार

श्रीराम!
मुसलमानो की उत्पत्ति तथा विस्तार
     ।भविष्य पुराण।
हस्तिनापुर के राजा क्षेमक की हत्या म्लेच्छो ने कर दी, तब, क्षेमक के पुत्र प्रद्योत ने म्लेच्छो का संहारयज्ञ किया, जिससे उसका नाम म्लेच्छहंता पडा़।
म्लेच्छरुप मे कलि( जिसका यह युग है) ने ही राज्य किया था।तब कलि ने नारायण की पूजा कर दिव्य स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर नारायण प्रकट हुए। कलि ने उनसे कहा हेनाथ ! राजा प्रद्योत ने मेरे स्थान व प्रिय म्लेच्छो का विनाश कर दिया है। प्रभु मेरी सहायता करे!
    भगवान ने कहा - हे कले! कई कारणो से तुम अन्य युगो से श्रेष्ठ हो,अतः कई रुपो कोे धारण कर,मै तुम्हारी इच्छा पूर्ण करुगा! "आदम" नाम का पुरुष और हव्यवती ( हौवा ) नाम की स्त्री से म्लेच्छ वंश की वृद्धि करने वाले उत्पन्न होंगे। यह कर भगवान अन्तरध्यान हो गये।
    म्लेच्छो का आदि पुरुष आदम और उसकी पत्नी हौवा दोनो ने इंद्रियो का दमन कर ध्यान परायण हो रहते थे। कलियुग सर्परुप धारण कर हौवा के पासआया। उस धूर्त कलि ने गूलर के पत्ते मे लपेटकर दूषित वायुयुक्त फल धोखे से खिला दिया, जिससे हौवा का संयम भंग हो गया। इससे अनेक पुत्र हुए जो सभी म्लेच्छ कहलाए। इसी का एक वंशज न्यूह हुआ जो परम विष्णुभक्त था। भगवान ने प्रसन्न होकर उसके वंश की वृद्धि की। उसने वेदवाक्य व संस्कृत से बहिर्भूत म्लेच्छ भाषा का विस्तार किया, और कलि की वृद्धि के लिये ब्राह्मी भाषा को अपनाया। ब्राह्मी भाषा को लिपियो का मूल माना गया है। न्यूह के हृदय मे स्वंय भगवान विष्णुने प्रकट होकर उसकी बुद्धि को प्रेरित किया।इसलिये उसने अपनी लिपि को उल्टीगति से दाहिने से बॉए प्रकाशित किया। जो उर्दू, अरबी, फारसी और हिबूकी लेखन प्रक्रिया मे देखी जाती है।संस्कृत भाषा भारत मे ही किसी तरह बची रही।अन्य भागो मे म्लेच्छ भाषा मे ही लोग सुख मानने लगे।
दो हजार वर्ष कलियुग के बीतने पर विश्व की अधिकांश भूमि म्लेच्छमयी हो गयी। भॉति भॉति के मत चल पडे। मूसा नाम का व्यक्ति म्लेच्छो का आचार्य था।उसने अपने मत को सारे संसार मे फैलाया। कलियुग के आने सेभारत मे वेदभाषा व देवपूजा प्रायः नष्ट हो गयी। प्राकृत व म्लेच्छ भाषा का प्रचार हुआ। ब्रजभाषा व महाराष्ट्री ये प्राकृत भाषा के मुख्य भेद है, यावनी और गुरुकण्डिका( English) म्लेच्छ भाषा के मुख्य भेद है।
  म्लेच्छ भाषा मे षष्टी को सिक्स्टी,सूर्यवार को संडे, भ्रातृ को ब्रादर, पितृ को फादर, आहूति को आजू, जानू को जैनु, फाल्गुन को फरवरी कहते है।
   म्लेच्छदेश मे म्लेच्छलोग सुख से रहते है, यही कलियुग की बिशेषता है।
 अतः भारत और इसके द्वीपो मे म्लेच्छो का राज होगा, ऐसा समझकर आपलोग हरि का भजन करे।
      जय जय सीताराम!

कर्तव्य य अधिकार

श्रीराम!!!
         अधिकार या भार ( कर्तव्यपालन )
वर्तमान मे सभी प्रकार के संघर्ष य विरोध का एक मात्र मूल कारण है "अधिकार" , कोई कहता है, मुझे जनेऊ पहनने का अधिकार क्यो नही?, दूसरा कहता है, मुझे वेद पढ़ने का अधिकार क्यो नही?, तीसरा कहता है, मुझे मंदिर मे घुसने का अधिकार क्यो नही? चौथा कहता है, मुझे दण्डी संन्यासी बनने का अधिकार क्यो नही? सनातन धर्म मे जैसा यह अधिकार का द्वन्द चल रहा है, ठीक इसी प्रकार का द्वन्द, आर्थिक जगत मे, किसान व भूमिधर, मिल मालिक व मजदूर, विद्यार्थी व शिक्षक, इतना ही नही पत्नी और पति मे भी चल रहा है। आज अधिकार के नाम पर यहॉ वहॉ सर्वत्र बेवजह ही देवासुर संग्राम मचा हुआ है। अधिकारवाद  संघर्ष जन्य अनेक अनर्थो से डूबा मानव समाज यदि आज अधिकार वाद की रट लगाना छोड़कर कर्तव्यवाद के दृष्टिकोण से समस्त उलझी हुई समस्याओ को समाहित करने के लिये प्रयत्नशील हो जाए तो, संसार का चित्र ही बदल जायेगा।
जब हम अधिकार वाद को स्वीकार करते है, तो "कम परिश्रम मे अधिक लाभ" की प्रवृति को प्रकट करते है। यह प्रवृति जहॉ सामाजिक संगठन के लिये घातक नही, बिशेषरुप से घातक है, वही राष्ट्र के विकास मे भी बाधक सिद्ध होती है। इसलिये हमारे शाश्त्रो मे समस्त कार्यकलाप का विभाजन अधिकार के आधार पर नही बल्कि कर्तव्य पालन के आधार पर किया गया है। जैसे वेद पढ़ने का ब्राह्मण को अधिकार नही, किन्तु उसके कंधो पर यह भार है, कि वह भूखा रहकर भी वेद पढे। क्षत्रिय को युद्ध मे सर काटने का अधिकार नही, किन्तु वह देश, जाति, धर्म की रक्षा के लिये शिर कटाये यह उसक् मस्तक पर ईश्वर निहित भार है।
  अधिकार व भार का विश्लेषण करते हुए यह  बात समझ लेनी चाहिये कि अधिकार के प्रयोग मे अधिकारी स्वतन्त्र होता है, परन्तु भार तो न चाहते हुए भी कर्तव्य वशात धारण करना ही पड़ता है। यही कारण है कि ब्राह्मण जाति ने सुदामा की भॉति निर्धनता पूर्ण जीवन सहर्ष बिताते हुए भी आज के इस आधुनिक युग मे भी वेदो की पठन पाठन प्रणाली को अक्षुण्ण रखा है । यवनादि विदेशीआतताईयो से सहर्ष युद्ध मे लड़ते हुए क्षत्रिय वीरो ने अपने प्राणो की आहूति दी है। जिससे ही आज सनातन धर्म व धर्मी सुरक्षित बचे है। अन्यथा ये अधिकार की मॉग करने वाले आज न होते। इसलिये अनर्थकारी अधिकार वाद की दृष्टि से ही समस्त कार्यकलाप को देखने की प्रवृति को त्यागकर उसे कर्तव्यपालन - भार की दृष्टि से ही मनन करने की आदत डालनी चाहिये।
   कर्तव्यता के बिषय मे किसको,कब, कैसे, क्या करना चाहिये, यह सब बाते केवल शाश्त्र से ही पूछनी चाहिये। शाश्त्र जिसे जैसे कहे वह उसे वैसे ही करे जो न कहे उसे न करे। जैसे शाश्त्र द्वारा बताए कार्य न करने पर पाप होता है, वैसे ही शाश्त्र द्वारा मना किये कार्य को करने पर भी पाप होता है। सैनिक य पुलिस के लिये  जैसी वर्दी निर्धारित है, यदि वह आन डयूटी पर वैसा न पहने तो दण्ड का पात्र होता है। वैसे ही साधारण व्यक्ति पुलिस का स्वांग करके रौब गाठे तो वह भी दण्ड क पात्र होता है। इसलिये जिन द्विजाति ( ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य ) के लिये जो संस्कार समन्त्रक करने बताये है यदि वे न करेंगे तो पाप के भागी होंगे और जिन द्विजेतर पुरुषो के लिये जो संस्कार अमन्त्रक करने की या न करने की शाश्त्र ने छूट दे रखी है, वे यदि इसके विरुद्ध करेंगे तो अवश्य ही पातकी होंगे।
   कर्मलाप का विभाजन तो वर्ण और आश्रम के तारतम्य से कर्तव्यपालन के आधार पर हुआ है, परन्तु कर्म फल मे समान रुप से सभी को लाभ मिलता है।
 अधिकार व अनाधिकार से किये गये कर्म के बाहरी रुप से प्रत्यक्ष भले ही कुछ अन्तर न दिखाई पडे , परन्तु पुण्य पाप के तारतम्य से उससे उत्पन्न अदृष्ट फल मे महान अन्तर  पड़ता है, जैसे  एक अनाधिकारी पुरुष रात दिन अमुक को फॉसी दे दो पुकारे तो उसका बाल भी बाका नही होता किन्तु यदि यही शब्द जज की कुर्सी पर बैठा न्यायधीश सिर्फ एक बार कह दे तो तदनुसार उसे फॉसी दे दी जाएगी। यहॉ दोनो व्यक्तियो के वाक्य य शब्दो मे कोई अन्तर नही, केवल कर्तव्यपालन(अधिकार) का ही अन्तर है।
इस बिषय पर लिखा जाय तो एक ग्रंथ तैयार हो जाए, किन्तु आशा है,हमारा यह संक्षिप्त प्रयास पाठकोे के लिये बिषय को समझने मे सहयोगी हो सकेगा।
   जय जय सीताराम!

भक्तियोग और रामचरितमानस

सियावर रामचन्द्र की जय
भक्तियोग हीएक ऐसा सुलभ और स्वतंत्र अवलम्ब है, जिसके प्रभाव से, सर्व शक्तिमान भगवान कोभी भक्तो के प्रेमपाश मेबंधकर भक्त हृदय मे वास करना पड़ता है, अतः प्राणीमात्र के लिये भगवत प्रेमावलम्बन ही वास्तविक योग है, तथा ईश्वर के प्रति प्रेम की प्रधानता ही यथार्थ मे ज्ञान है|
 जोग कुजोग ग्यानु अग्यानु| जहँ नही राम प्रेम परधानू|
 सर्वप्रकार से चित्त को शान्तकर ईश्वर के चरणो मे, ध्यान लगाना, अर्थात अपने को ईश्वर के शरणागत करना ही भक्तियोग है|
 धर्म ते विरति योग ते ग्याना| ग्यान मोक्षप्रद वेद बखाना|
जबतक वर्णाश्रम आदि के अनुसार निजधर्म का पूर्णतः पालन नही किया जाता तबतक ( धर्म ते विरति) वैराग्य उत्पन्न न होगा, जब बैराग्य न होगा तो कर्मादिक फल का त्याग न होने से कर्मयोग न हो सकेगा जबतक कर्मयोग न होगा तबतक (योग ते ग्याना) ज्ञान न उत्पन्न होगा, और जबतक ज्ञान न होगा, तबतक मोक्ष न होगा| किन्तु भक्तियोग, भक्तो के लिये सुलभ, सुखद एवं स्वतंत्र अवलंम्ब है, जिसके द्वारा ईश्वर भक्तो के अधीन हो जाते है, फिर मोक्ष की बात ही क्या करना | प्रभु ने स्वंय कहा है,
जाते वेगि द्रवऊँ मै भाई, सो मम भगति भगत सुखदाई|
 सो सुतंत्र अवलंब न आना| तेहि ते अधीन ग्यान विग्याना|
 गृहस्थ और बैरागी दोनो ही प्रकार के लोगो हेतू, भक्ति मार्ग कैसे सुलभ है, श्री प्रभु  के मुखारविन्द से-
 संत चरण पँकज अति प्रेमा| मन क्रम बचन भजन दृढ नेमा|
 गुरु पितु मातु बंधु पतिदेवा| सब मोहि कहै जाने दृढ सेवा|
 मम गुन गावत पुलक शरीरा| गदगद गिरा नयन बह नीरा||
 काम आदि मद दंभ न जाके| तात निरंन्तर बस मै ताके||
 वचन कर्म मम मोरि गति भजन करहि निःकाम|
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करऊँ सदा विश्राम||
 सियावर रामचन्द्र की जय| |

जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...