अक्षय तृतीया पुणयफल पितृदोष कालसर्प दोष निवारण

श्राीराम ।

अक्षय तृतीया के दिन किये गये कार्य का फल अक्षय होता है। पुण्यार्जन के लिए अपनी शक्ति अनुसार दान करना चाहिए।

अक्षय तृतीया एक खगोलीय/ ज्योतिषीय योग है, जिसमे सूर्य अपनी उच्च राशि मेष, तथा चन्द्रमा अपनी उच्चराशि वृष मे स्थित होते है। यह अत्यंत ही प्रभावशाली योग माना गया है।

रम्भा तृतीया को छोड़कर अन्य,  तृतीया तिथि का निर्णय करते हुए ब्रह्मवैवर्त मे, माधव  व अन्य मत से भी चतुर्थीयुक्त तृतीया ही ग्रहण करनी चाहिये। ( निर्णय- सिन्धु)

काशी विश्वनाथ पंचांग के अनुसार अक्षय तृतीया - 

तृतीया तिथि प्रारंभ – ३ मई २०२२ को अहोरात्र है। 


इस दिन किये हुये सभी पुण्य शुभकर्म अक्षय हो जाते है। सभी मांगलिक कार्य बिशेष लाभदायी होते है। जलपूरित कुंभ व पंखा का दान बिशेष पुण्यदायी है।  नवीन शैय्या का प्रयोग, नवीन वस्त्राभूषण स्वर्ण, रत्न, धारण करना, खरीदना, बनवाना, बागवानी, व्यापार आदि बिशेष लाभदायी है।  वेदपाठी, नित्य सन्ध्याकर्म रत विद्वान विनम्र ब्राह्मण को अन्न वस्त्र धन भोजन मिष्टान आदि देने का बिशेष पुण्य प्राप्त होता है।


“न माधव समो मासो न कृतेन युगं समम्।


न च वेद समं शास्त्रं न तीर्थ गंगयां समम्।।”


वैशाख के समान कोई मास नहीं है, सत्ययुग के समान कोई युग नहीं हैं, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं है और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। उसी तरह अक्षय तृतीया के समान कोई तिथि नहीं है। 


जिस जातक की जन्मपत्रिका मे कालसर्पदाेंष  हो वह अष्टनाग के निमित्त घर का बना मिष्ठान व एक मटकी में शुद्ध जल रखें। पीपल के नीचे धूप-दीप प्रज्ज्वलित कर अष्टनाग की संतुष्टि के लिए प्रार्थना करें।

        अथवा

जिस जातक की कुण्डली मे 'पितृ-दोष' है वे अपने पितर के निमित्त 'अक्षय-तृतीया' के दिन प्रात:बेला मे किसी  पीपल की जड के ऊपर, पितृगणों के निमित्त घर का बना मिष्ठान व एक मटकी में शुद्ध जल रखें। पीपल के नीचे धूप-दीप प्रज्ज्वलित कर अपने पितृगणों की संतुष्टि के लिए प्रार्थना करें।


तत्पश्चात् बिना पीछे देखे सीधे अपने घर लौट आएं, ध्यान रखें इस प्रयोग को करते समय अन्य किसी व्यक्ति की दृष्टि ना पड़ें। इस प्रयोग को करने से  अष्टनाग व पितृगण शीघ्र ही संतुष्ट होकर अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं।  

यदि नौकरी, व्यवसाय में बाधाएं आ रही हों या पदोन्नति में रुकावट हो तो 'अक्षय-तृतीया' के दिन शिवालय में शिवलिंग पर ११ गोमती चक्र अपनी मनोकामना का स्मरण करते हुए अर्पित करने से लाभ होता है।

भाग्योदय हेतु 'अक्षय-तृतीया' के दिन प्रात:काल उठते ही सर्वप्रथम ७ गोमती चक्रों को पीसकर उनका चूर्ण बना लें, फिर इस चूर्ण को अपने घर के मुख्य द्वार के सामने अपने ईष्ट देव का स्मरण करते हुए बिखेर दें। इस प्रयोग से कुछ ही दिनों में साधक का दुर्भाग्य समाप्त होकर भाग्योदय होता है।

   आप सभी को अक्षय तृतीया की हार्दिक शुभकामना। जय जय सीताराम ।

 भास्कर ज्योतिष व तंत्र अनुसंधान केन्द्र

     पं.राजेश मिश्र "कण"

सर्वारिष्ट निवारण स्तोत्र ग्रहपीडा़, भूत प्रेत कृत्या निवारण प्रयोग

 सभी प्रकार के अरिष्ट निवारण हेतु

Sarvarishth_Nivaran_Stotra–(सर्वारिष्ट निवारण स्तोत्र-)—


ॐ गं गणपतये नमः । सर्व-विघ्न-विनाशनाय, सर्वारिष्ट निवारणाय, सर्व-सौख्य-प्रदाय, बालानां बुद्धि-प्रदाय, नाना-प्रकार-धन-वाहन-भूमि-प्रदाय, मनोवांछित-फल-प्रदाय रक्षां कुरू कुरू स्वाहा ।।

ॐ गुरवे नमः, ॐ श्रीकृष्णाय नमः, ॐ बलभद्राय नमः, ॐ श्रीरामाय नमः, ॐ हनुमते नमः, ॐ शिवाय नमः, ॐ जगन्नाथाय नमः, ॐ बदरीनारायणाय नमः, ॐ श्री दुर्गा-देव्यै नमः ।।

ॐ सूर्याय नमः, ॐ चन्द्राय नमः, ॐ भौमाय नमः, ॐ बुधाय नमः, ॐ गुरवे नमः, ॐ भृगवे नमः, ॐ शनिश्चराय नमः, ॐ राहवे नमः, ॐ पुच्छानयकाय नमः, ॐ नव-ग्रह ! रक्षां कुरू कुरू नमः ।।


ॐ मन्येवरं हरिहरादय एव दृष्ट्वा द्रष्टेषु येषु हृदयस्थं त्वयं तोषमेति विविक्षते न भवता भुवि येन नान्य कश्विन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि । ॐ नमो मणिभद्रे ! जय-विजय-पराजिते ! भद्रे ! लभ्यं कुरू कुरू स्वाहा ।।

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्-सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।। सर्व विघ्नं शांन्तं कुरू कुरू स्वाहा ।।

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीबटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय महान्-श्याम-स्वरूपाय दीर्घारिष्ट-विनाशाय नाना-प्रकार-भोग-प्रदाय मम (यजमानस्य वा) सर्वारिष्टं हन हन, पच पच, हर हर, कच कच, राज-द्वारे जयं कुरू कुरू, व्यवहारे लाभं वृद्धिं वृद्धिं, रणे शत्रुन् विनाशय विनाशय, पूर्णा आयुः कुरू कुरू, स्त्री-प्राप्तिं कुरू कुरू, हुम् फट् स्वाहा ।।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः । ॐ नमो भगवते, विश्व-मूर्तये, नारायणाय, श्रीपुरूषोत्तमाय । रक्ष रक्ष, युग्मदधिकं प्रत्यक्षं परोक्षं वा अजीर्णं पच पच, विश्व-मूर्तिकान् हन हन, ऐकाह्निकं द्वाह्निकं त्राह्निकं चतुरह्निकं ज्वरं नाशय नाशय, चतुरग्नि वातान् अष्टादश-क्षयान् रोगान्, अष्टादश-कुष्ठान् हन हन, सर्व दोषं भञ्जय-भञ्जय, तत्-सर्वं नाशय-नाशय, शोषय-शोषय, आकर्षय-आकर्षय, मम शत्रुं मारय-मारय, उच्चाटय-उच्चाटय, विद्वेषय-विद्वेषय, स्तम्भय-स्तम्भय, निवारय-निवारय, विघ्नं हन-हन, दह-दह, पच-पच, मथ-मथ, विध्वंसय-विध्वंसय, विद्रावय-विद्रावय, चक्रं गृहीत्वा शीघ्रमागच्छागच्छ, चक्रेण हन-हन, पर-विद्यां छेदय-छेदय, चौरासी-चेटकान् विस्फोटान् नाशय-नाशय, वात-शुष्क-दृष्टि-सर्प-सिंह-व्याघ्र-द्विपद-चतुष्पद अपरे बाह्यं ताराभिः भव्यन्तरिक्षं अन्यान्य-व्यापि-केचिद् देश-काल-स्थान सर्वान् हन हन, विद्युन्मेघ-नदी-पर्वत, अष्ट-व्याधि, सर्व-स्थानानि, रात्रि-दिनं, चौरान् वशय-वशय, सर्वोपद्रव-नाशनाय, पर-सैन्यं विदारय-विदारय, पर-चक्रं निवारय-निवारय, दह दह, रक्षां कुरू कुरू, ॐ नमो भगवते, ॐ नमो नारायणाय, हुं फट् स्वाहा ।।

ठः ठः ॐ ह्रीं ह्रीं । ॐ ह्रीं क्लीं भुवनेश्वर्याः श्रीं ॐ भैरवाय नमः । हरि ॐ उच्छिष्ट-देव्यै नमः । डाकिनी-सुमुखी-देव्यै, महा-पिशाचिनी ॐ ऐं ठः ठः । ॐ चक्रिण्या अहं रक्षां कुरू कुरू, सर्व-व्याधि-हरणी-देव्यै नमो नमः । सर्व-प्रकार-बाधा-शमनमरिष्ट-निवारणं कुरू कुरू फट् । श्रीं ॐ कुब्जिका देव्यै ह्रीं ठः स्वाहा ।।

शीघ्रमरिष्ट-निवारणं कुरू-कुरू शाम्बरी क्रीं ठः स्वाहा ।।

शारिका-भेदा महा-माया पूर्णं आयुः कुरू । हेमवती मूलं रक्षा कुरू । चामुण्डायै देव्यै शीघ्रं विध्नं सर्वं वायु-कफ-पित्त-रक्षां कुरू । मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र-कवच-ग्रह-पीडा नडतर, पूर्व-जन्म-दोष नडतर, यस्य जन्म-दोष नडतर, मातृ-दोष नडतर, पितृ-दोष नडतर, मारण-मोहन-उच्चाटन-वशीकरण-स्तम्भन-उन्मूलनं भूत-प्रेत-पिशाच-जात-जादू-टोना-शमनं कुरू । सन्ति सरस्वत्यै कण्ठिका-देव्यै गल-विस्फोटकायै विक्षिप्त-शमनं महान् ज्वर-क्षयं कुरू स्वाहा ।।

सर्व-सामग्री-भोगं सप्त-दिवसं देहि-देहि, रक्षां कुरू, क्षण-क्षण अरिष्ट-निवारणं, दिवस-प्रति-दिवस दुःख-हरणं मंगल-करणं कार्य-सिद्धिं कुरू कुरू । हरि ॐ श्रीरामचन्द्राय नमः । हरि ॐ भूर्भुवः स्वः चन्द्र-तारा-नव-ग्रह-शेष-नाग-पृथ्वी-देव्यै आकाशस्य सर्वारिष्ट-निवारणं कुरू कुरू स्वाहा ।।

१॰ ॐ ऐं ह्रीं श्रीं बटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय सर्व-विघ्न-निवारणाय मम रक्षां कुरू-कुरू स्वाहा।।

२॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीवासुदेवाय नमः, बटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय मम रक्षां कुरू-कुरू स्वाहा।।

३॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीविष्णु-भगवान् मम अपराध-क्षमा कुरू कुरू, सर्व-विघ्नं विनाशय, मम कामना पूर्णं कुरू कुरू स्वाहा ।।

४॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीबटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय सर्व-विघ्न-निवारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा ।।

५॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ श्रीदुर्गा-देवी रूद्राणी-सहिता, रूद्र-देवता काल-भैरव सह, बटुक-भैरवाय, हनुमान सह मकर-ध्वजाय, आपदुद्धारणाय मम सर्व-दोष-क्षमाय कुरू कुरू सकल विघ्न-विनाशाय मम शुभ-मांगलिक-कार्य-सिद्धिं कुरू-कुरू स्वाहा।।



एष विद्या-माहात्म्यं च, पुरा मया प्रोक्तं ध्रुवं । शम-क्रतो तु हन्त्येतान्, सर्वांश्च बलि-दानवाः।।१

य पुमान् पठते नित्यं, एतत् स्तोत्रं नित्यात्मना । तस्य सर्वान् हि सन्ति, यत्र दृष्टि-गतं विषं ।।२

अन्य दृष्टि-विषं चैव, न देयं संक्रमे ध्रुवम् । संग्रामे धारयेत्यम्बे, उत्पाता च विसंशयः ।।३

सौभाग्यं जायते तस्य, परमं नात्र संशयः । द्रुतं सद्यं जयस्तस्य, विघ्नस्तस्य न जायते।।४

किमत्र बहुनोक्तेन, सर्व-सौभाग्य-सम्पदा। लभते नात्र सन्देहो, नान्यथा वचनं भवेत् ।।५

ग्रहीतो यदि वा यत्नं, बालानां विविधैरपि । शीतं समुष्णतां याति, उष्णः शीत-मयो भवेत् ।।६

नान्यथा श्रुतये विद्या, पठति कथितं मया । भोज-पत्रे लिखेद् यन्त्रं, गोरोचन-मयेन च ।।७

इमां विद्यां शिरो बध्वा, सर्व-रक्षा करोतु मे । पुरूषस्याथवा नारी, हस्ते बध्वा विचक्षणः ।।८

विद्रवन्ति प्रणश्यन्ति, धर्मस्तिष्ठति नित्यशः । सर्व-शत्रुरधो यान्ति, शीघ्रं ते च पलायनम् ।।९

‘श्रीभृगु संहिता’ के सर्वारिष्ट निवारण खण्ड में इस अनुभूत स्तोत्र के 40 पाठ करने की विधि बताई गई है। इस पाठ से सभी बाधाओं का निवारण होता है। इस पाठ के फल-स्वरुप पुत्र-हीन को पुत्र-प्राप्ति होती है और जिसका विवाह नहीं हो रहा हो, उसका विवाह हो जाता है । इसके अतिरिक्त इस स्तोत्र के पाठ के प्रभाव से सभी प्रकार के दोषों – ज्वर, क्षय, कुष्ठ, वात-पित्त-कफ की पीड़ाओं और भुतादिक सभी बाधाओं का निवारण होता है ।

इस स्तोत्र का पाठ यदि स्वयं अपने लिए करना हो, तो ‘मम’ या ‘मम स-कुटुम्बस्य’ का उच्चारण करे और यदि किसी अन्य (यजमान) के लिए पाठ करना हो तो स्तोत्र में जहाँ ‘यजमान’ -शब्द लिखा है, वहाँ उसके नाम, गोत्रादि का उच्चारण करना चाहिए ।

किसी भी देवता या देवी की प्रतिमा या यन्त्र के सामने बैठकर धूप दीपादि से पूजन कर इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये । विशेष लाभ के लिये ‘स्वाहा’ और ‘नमः’ का उच्चारण करते हुए ‘घृत मिश्रित गुग्गुल’ से आहुतियाँ दे सकते हैं । ऐसा करने से अभीष्ट कामना की पूर्ति शीघ्र और अवश्य होती है । इसके पाठ से निर्धन को धन और बेकार को जीविका का साधन – नौकरी, व्यापार आदि की सुविधा प्राप्त होती है ।


यन्त्रः- इस सर्वारिष्ट-निवारण-यन्त्र को लिखने के लिए गोरोचन, कुंकुम या चन्दन और कर्पूर उपयोग में लें । “रवि-पुष्य”, “गुरु-पुष्य” या अन्य शुभ दिवस पर लिखकर सफेद धागे से लपेटें तथा रेशमी वस्त्र से आच्छादित करें । विधिवत् पूजन हेतु कलश स्थापित करें । गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, धूप, दीपादि से पूजन करें और फिर चाँदी के ताबीज में भरकर धारण करें अथवा इसको समक्ष रखकर उक्त स्तोत्र का नित्य पाठ करें ।

विशेषः- पूर्व में यह स्तोत्र मेरे द्वारा परीक्षित है तथा सर्व-प्रथम इन्टरनेट पर प्रकाशित किया गया था, लेकिन उसमें कुछ अशुद्धि थी, एतद् यहाँ सर्व-शुद्ध पाठ दिया गया है ।

  पं.राजेश मिश्र कण द्वारा संकलित भृगुप्रोक्त भृगुसंहितायां सर्वारिष्टनिवारण स्तोत्र

 मंत्र दीक्षा की संपुर्णज जानकारी के लिए एक विस्तृत व शाशत्रोक्त विवेचन

पूजा व मंत्र जप का सही तरीका

मंत्र सिद्धादि शोधन 

मंत्र शोधन के अपवाद 

 मंत्र ऋण धन शोधन विधि 

आयु व मंत्र के प्रकार किस आयु मे कौन सा मंत्र जपना चाहिए  

पूजा पाठ तरने वाले दुखी क्यो रहते है?

मंत्र सिद्धि के उपाय व लक्षण

क्या यज्ञोपवीत के बाद दुसरू शिक्षा लेनी चाहिये





स्त्रीयो के व्यासगद्दी पर बैठने का अधिकार आरोप खण्डन

 

श्रीराम ।
*क्या स्त्रियाँ व्यासपीठ की अधिकारी है*

सप्रमाण आरोप खण्डन

भागवत महापुराण का महात्मय देखे,
श्री वेद व्यास जी ने कहा है कि विरक्तो वैष्णवो, विप्रो वेदशास्त्र विशुद्ध कृत, दृष्टांत कुशलो धीर: वक्ता कार्यो निस्पृह:। वेदव्यास जी कहते हैं कि वक्ता संसार से विरक्त हो, उसकी संसार में कोई आसक्ति न हो, वैष्णव हो यानि भगवान का भक्त हो, विप्रो यानि ब्राह्मण हो, चौथी विशेषता बताई गई कि वेदशास्त्र विशुद्ध कृत यानि वेद शास्त्र को उसने शुद्ध रुप से परंपरा से अध्ययन किया हो।  भागवत कथा कहने का अधिकार ब्राह्मण को, वैष्णव को,और जिसने वेद शास्त्र का अध्ययन किया, उसको है। उस श्लोक में कहीं भी स्त्री की चर्चा नहीं आई है। जितने शब्द प्रयोग किये गये हैं पुल्लिंग शब्द प्रयोग किये गये हैं, पुरुषों के लिये प्रयोग किये गये हैं। और चौथा जो विशेषण कहा गया वेद शास्त्र विशुद्ध कृत, भागवत की कथा वही सुनावे जो वेद शास्त्र को पढ़ा हो, कारण की भागवत वेद रुपी वृक्ष का फल है। निगम कल्पतरु है, तो बिना वेद पढ़े कोई अगर भागवत की कथा सुनाता है, तो वेद के किन मंत्रों का कहां पर क्या तात्पर्य है, इसकी संगति वह नहीं बता सकता है। इसलिये वेद पढ़ना अनिवार्य है। और स्त्री के लिये शास्त्रों में वेद पढ़ने का सर्वत्र निषेध है। उसका कारण कि स्त्री का कहीं यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होता और बिना यज्ञोपवीत संस्कार के स्त्री को वेद पढ़ने का कोई अधिकार नहीं है। और जब स्त्री वेद पढ़ नहीं सकती तो वह श्रीमद्भागवत में वेद की व्याख्या कैसे करेगीं? ये शास्त्र सम्मत नहीं है। और सबसे बड़ी बात कि भागवत कथा वक्ता में शुकदेव जी का नाम आता है नारद जी नाम आता है लेकिन किसी महिला कथा वक्ता के व्यासपीठ पर बैठकर भागवत कथा सुनाने जैसा कोई उदाहरण भी नहीं मिलता है।
किंतु महिला पुराणो कोपढ सकती है, इस पर कोई रोक नही। सनातन धर्म मे यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता आदि से नारी के पूज्य होने का उल्लेख है, किंतु सबका अधिकार क्षेत्र भिन्न है।
(शास्त्रार्थ  शैली में) आक्षेप व खण्डन सहित। लेख लम्बा है, कृपया पूरा लेख पढे।
प्राय: भ्रमित लोग इस प्रकार का आक्षेप य कुतर्क है जिसका यथाविस्तार खण्डन किया जा रहा है।
पराशर-संहिता के भाष्यकार तथा वैष्णव परंपरा के परम आचार्य मध्वाचार्य जी ने अपनी टीका में लिखा है -“द्विविधा स्त्रियो ब्रह्मवादिन्यः सद्योवधवश्च| तत्र ब्रह्वादिनीनाम् उपनयनम् अग्निबन्धनम् वेदाध्ययनम् स्वगृहे भिक्षा इति, वधूनाम् तु उपस्थिते विवाहे कथंचित् उपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः|” अर्थात् दो प्रकार की स्त्रियाँ होती हैं- एक ब्रह्मवादिनी जिनका उपनयन होता है और जो अग्निहोत्र, वेदाध्ययन तथा अपने घर में भिक्षावृत्ति (घर के लोगों की निष्काम सेवा तथा स्वेच्छा से मिले अन्न-धन से जीवन यापन) करती हैं | दूसरी श्रेणी (सद्योवधु) की स्त्रियाँ वे हैं जिनका शीघ्र ही विवाह होना होता है और इनका भी उपनयन-संस्कार करने के उपरांत ही विवाह करना चाहिए| गोभिलीय गृह्यसूत्र चर्चा आती है :”प्रावृतां यज्ञोपवीतिनीम् अभ्युदानयन् जपेत्, सोमोsददत् गन्धर्वाय इति” अर्थात् कन्या को कपडा पहने हुए, यज्ञोपवीत पहना कर पति के निकट लाकर कहे :”सोमोsददत्”|साथ ही, एक श्लोक है (सन्दर्भ ग्रन्थ मुझे याद नहीं आ रहा) : “पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते| अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा||” अर्थात् प्राचीन-काल में स्त्रियों का यज्ञोपवीत होता था, वे वेद शास्त्रों का अध्ययन करती थीं| ७ वीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन की रानी महाश्वेता का वर्णन करते हुए अपने महाकाव्य कादम्बरी में बाणभट्ट ने लिखा है : “ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम्” अर्थात् ब्रह्मसूत्र को धारण करने के कारण पवित्र शरीर वाली | मालवीय जी भी स्त्रियों की वेदादि शिक्षा के प्रबल पक्षधर रहे | लक्ष्मी ने विष्णु भगवान को भागवत सुनाई |ऋग्वेद १०| ८५ में सम्पूर्ण मन्त्रों की ऋषिका ‘सूर्या- सावित्री’ है| ऋषि का अर्थ निरुक्त में इस प्रकार किया है—‘‘ऋषिर्दर्शनात्| स्तोमान् ददर्शेति (२.११)| ऋषयो मन्त्रद्रष्टर: (२.११ दु. वृ.)|’’ अर्थात् मन्त्रों का द्रष्टा उनके रहस्यों को समझकर प्रचार करने वाला ऋषि होता है| ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची बृहद् देवता के दूसरे अध्याय में इस प्रकार है— घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू), अगस्त्य की भगिनी, अदिति, इन्द्राणी और इन्द्र की माता, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा और नदियाँ, यमी, शश्वती, श्री, लाक्षा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्री और सूर्या- सावित्री आदि सभी ब्रह्मवादिनी हैं| ऋग्वेद के १०- १३४, १०- ३९, ४०, १०- ९१, १०- ९५, १०- १०७, १०- १०९, १०- १५४, १०- १५९, १०- १८९, ५- २८, ८- ९१ आदि सूक्त की मन्त्रदृष्टा ये ऋषिकाएँ हैं| ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह वेदाध्ययन व यज्ञ करती और कराती थीं| वे यज्ञ- विद्या और ब्रह्म- विद्या में पारंगत थीं| तैत्तिरीय ब्राह्मण’’ में सोम द्वारा ‘सीता- सावित्री’ ऋषिका को तीन वेद देने का वर्णन विस्तारपूर्वक आता है— तं त्रयो वेदा अन्वसृज्यन्त| अथ ह सीता सावित्री| सोमँ राजानं चकमे| तस्या उ ह त्रीन् वेदान् प्रददौ| -तैत्तिरीय ब्रा०२/३/१०/१,३ इस मन्त्र में बताया गया है कि किस प्रकार सोम ने सीता- सावित्री को तीन वेद दिये|

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ब्रह्मवादिनी शब्द का अर्थ वेद वादिनी नहीं क्योंकि मन्वादि प्रबल शास्त्रप्रमाणों से उसका सर्वथा निषेध प्राप्त है | ब्रह्म शब्द अनेकार्थावाची होता है इसका अर्थ तप वेद , ब्रह्मा , विप्र प्रजापति (ब्रह्मशब्दं तपो वेदो ब्रह्मा विप्रः) आदि होता है | वैसे भी सामान्य दृष्टि से ब्रह्म + वादिनी = ब्रह्म को कहने वाली यह अर्थ हुआ , ब्रह्म तो वस्तुतः आत्मतत्त्व को कहते हैं आत्मेति तु उपगच्छन्ति ग्राहयन्ति च ब्रह्मसूत्र ४/१/३ ) , यह ॐकारमय वेद भी उसी का वाचक है ( तस्य वाचकः प्रणवः – योगसूत्र १/२७) तूने ये वेदान्तप्रसिद्ध अर्थ क्यों न लिया; वेद ही क्यों लिया बांकी क्यों नहीं ? क्योंकि तुझे मर्कट -उत्पात मचाना है न इसलिए | इतना ही नहीं अपितु अन्न , प्राण , मन , विज्ञान , आनंद , सब को भी प्रसंग प्रकरण से ब्रह्म ही कहते हैं (तैत्तिरीयोप ० भृगुवल्ली ) संस्कृत के किसी भी शब्द का अर्थ करने से पूर्व उसके पूर्वापर प्रकरण , उसके मर्म को , उसके बह्वार्थों को जानना अत्यंत आवश्यक है , अन्यथा वही स्थिति होगी कि भोजनार्थ प्रवृत्त हो रहे व्यक्ति द्वारा नमक मंगाने के लिए सैन्धवमानय ! कहा गया और श्रोता लाया घोड़ा ! (क्योंकि सैन्धव शब्द के नमक और घोडा दो दो अर्थ होते हैं ) अस्तु , उक्त मर्म को समझाने से पूर्व पहले तुम्हारा ध्यान ‘ब्रह्म’ शब्द पर लाते हैं कि ब्रह्म कहते किसको हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में स्वयं वेद कहता है कि – ये समस्त प्राणी जिस निरतिशयं निर्विशेषं महत् तत्त्वम् तत्त्व से पैदा होते हैं , जिसमें स्थित रहते और जिस में प्रविष्ट होते हैं ,

वही जिज्ञास्य तत्त्व ब्रह्म है , उपनिषत्सु प्रतिपादितस्य तत्त्वस्य ‘ब्रह्म’ इति नाम |
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते | येन जातानि जीवन्ति |
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति | तद्विजिज्ञासस्व | तद् ब्रह्मेति || – तैत्तिरीयोपनिषत् ३-१-३

इमानि भूतानि यतो जायन्ते, जातानि येन जीवन्ति, यदेव अभिसंविशन्ति प्रयन्ति, तदेव ब्रह्म,
तदेव विजिज्ञासस्व | अर्थात् – समस्तम् इदम् विश्वं यस्माद् उत्पद्यते, येनैव जीवति, यस्मिन्नेव च लीयते तदेव ब्रह्म | एवं समस्तस्यापि जगतः सृष्टिस्थितिलयकारणभूतं तत्त्वं वेदान्तेषु ब्रह्मशब्देन गीयते | सकलस्यास्य विश्वस्य ब्रह्म उपादानं निमित्तं च कारणं भवति | अतः ब्रह्म नैव कार्यं भवेत् | जगत्कारणत्वेन ब्रह्मण एव प्रतिपादितत्वात् कापिलसांख्यदर्शने प्रतिपादितं प्रधानं वा वैशेषिकदर्शने प्रतिपादितः परमाणुर्वा जगतः कारणं नैव भवति इत्यभिप्रायः ||
अस्तु , अब प्रश्न ये है कि ब्रह्म का ज्ञान कैसे होता है ? अब इसके उत्तर में आगे देखो –

वेद कहता है तपस्या से ब्रह्म को जानो क्योंकि तप ही ब्रह्म है – तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व| तपो ब्रह्मेति| – तैत्तिरीयोपनिषत् / भृगुवल्ली / ० १

अपनी तपस्या से पूर्वकाल में स्त्रियाँ वेद मन्त्रों का साक्षात्कार कर लेतीं थी, उनकी तपस्या क्या है ? स्वधर्म पर चलने से उनको वेद्य तत्त्व का ज्ञान हो जाता था वो तपस्या है स्वधर्मपालन, देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञों का पूजन , आर्जव , इन्द्रियों पर निग्रह , अहिंसा , इसी से वे पापदेहा स्त्रियाँ शुद्धता को प्राप्त होती हैं | (देवस्य द्विजस्य आचार्यस्य पण्डितस्य च अर्चनम्, शुद्धता, आर्जवम्, ब्रह्मचर्यम्, अहिंसा च शारीरं तपः इत्युच्यते) –
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् | ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || (-भगवद्गीता १४/१४ ) ऋषन्ति ज्ञानसंसारयोः पारं गच्छन्ति ऋषयः| ऋषी श गतौ नाम्नीति किः| रिषिर्हसादिश्च| विद्याविदग्धमतयो रिषयः प्रसिद्धाः| इति प्रयोगात्| स्त्रियां ऋषी च| इत्यमरटीकायां भरतः इति हि श्रूयते |अथवा ऋषन्ति अवगच्छन्ति इति ऋषयो मन्त्राः| · ऋषि दर्शनात् (नि०२|१९|१). · स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यवः| · तद् यद् एतांस्तपस्यमानान् ब्रह्म (वेदं) स्वयम्भवभ्यानर्षत्, त ऋषयोऽभवन्, तद् ऋषिणामृषित्वम्| -निरुक्त २/१९/१ ऋषि गोत्र प्रवर्तक , दीर्घायु , मन्त्रसाक्षात्कर्ता, दिव्यद्रष्टा आदि हुए | दीर्घायुषो मन्त्रकृत ईश्वरा दिव्यचक्षुषः| बुद्धाः प्रत्यक्षधर्माणो गोत्रप्रवर्तकाश्च ये || (वायुपु० पूर्वार्ध ६१/९४ ) ऋषि शब्द का ही स्त्रीत्व विवक्षा में प्रयोग हुआ है ऋषिका , क्यों कहा है ऋषिका ? क्योंकि किसी एक समानधर्म से उसे वह कहा गया , यथा लोक में शौर्य या क्रौर्य आदि किसी सामान धर्म के आधार पर बालक को भी सिंह कह दिया जाता है (सिंहोsयं माणवकः) | क्या समानता है ? समानता है दीर्घायुत्व की , दिव्य-द्रष्टृत्व की , प्रत्यक्षा धर्मा होने की | स्त्रियाँ भी तो दिव्यदर्शिणी हो सकती हैं | किन्तु क्या कभी तुमने किसी ऋषिका के नाम से गोत्र सुना ? नहीं न ! क्यों ? क्या किसी शास्त्र में कभी स्त्रियों की शिष्या परम्परा सुनी ? कोई स्थान विशेष में पाठ शाला पढी , जहां उनको वेदाध्ययन कराया जाता था ? नहीं न ! वो इसलिए क्योंकि उनका ऋषिका होना ऋषियों के मार्ग की भांति न रहा | उनका सिद्धि प्राप्ति का मार्ग दूसरा है | इसी प्रकार वेदोक्य सीता , सावित्री आदि सभी शब्द लौकिक अर्थ तुल्य ग्राह्य नहीं , लौकिक शब्दों तथा वैदिक शब्दों के अर्थ में बहुत भेद होता है | जैसे लोक में कवि शब्द का अर्थ कविता करने वाला होता है किन्तु वेद में त्रिकालज्ञ , लोक में क्रतु का अर्थ यज्ञ होता है किन्तु वेद में इसी शब्द का अर्थ बुद्धि हो जाता है – अग्निर्होता कविक्रतु: (ऋग्वेद , अग्निसूक्त ५ ) वेद के एक ही शब्द का ब्राह्मण ग्रन्थ अनेक अर्थ प्रकाशित करते हैं, विचक्षणता के बिना इसे नहीं समझा जा सकता | बहुभक्तिवादीनि हि ब्राह्मणानि भवन्ति | पृथिवी वैश्वानर:, संवत्सरो वैश्वानरो, ब्राह्मणो वैश्वानर इति” (- निरुक्त ७/७/२४ ) अस्तु ,
शास्त्रकारों का कथन है कि मनुस्मृति के विरुद्ध जो स्मृति वचन है वह प्रशस्त नहीं माना गया है क्योंकि वेदार्थ के अनुसार निबद्ध होने से सर्वप्रथम मनु की मान्यता है (सर्वधर्ममयो मनु : ) , जैसा कि –

मनुस्मृति विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते |
वेदार्थोपनिबद्धत्त्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतेः | | तथाहि ——–>

यद् वै किञ्च मनुरवदत् तद् भेषजम् | ( तैत्तिरीय सं०२/२/१०/२)

मनु र्वै यत् किञ्चावदत् तत् भेषज्यायै | (- ताण्ड्य-महाब्रा०२३/१६/१७)

अथापि निष्प्रचमेव मानव्यो हि प्रजाः | ऋग्वे० १/८०/१६ अपि द्रष्टव्यम् |

……..ये तो हो गया पाराशर संहिता पर द्विविधा स्त्रियो ० और “पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्ध ० आदि का उत्तर |

अब सुनिए ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम् का उत्तर —>

ब्रह्मसूत्र शब्द विविध अर्थों

वाला है , ब्रह्म शब्द के अर्थ तप , वेद , ब्रह्मा , विप्र , प्रजापति आदि माने गए हैं | अतः महाश्वेता स्वधर्म पालन रूप तपस्या से ही पवित्र काया हुई थी ऐसा सिद्ध होता है —->

ब्रह्मशब्दं तपो वेदो ब्रह्मा विप्रः प्रजापतिः इति वचनेन अत्र ब्रह्मसूत्रशब्दस्य तपः सूत्रेण पवित्रीकृतकायामिति तात्पर्यं समीचीनम् | बह्वर्थको हि ब्रह्मसूत्रशब्दः, तथाहि यज्ञोपवीतभिन्नार्थे – ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैरिति गीतायाम् |

अब आगे देखिये –

स्त्री का पति ही उसका गुरु है | शास्त्र कहता है –

गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः |
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ||
(-पद्मपुराण स्वर्ग॰५१/५१, ब्रह्मपुराण ८०/४७ )
अग्नि द्विजातियोँ का गुरु है, ब्राह्मण चारोँ वर्णोँ का गुरु है, एकमात्र पति ही स्त्रियोँ का गुरु है और अतिथि सबका गुरु है |’ स्त्रियों का जनेऊ संस्कार घोर पाखंड है , किं च –

वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः |
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोँऽग्निपरिक्रिया || (मनुस्मृति २/६७ )

‘स्त्रियोँ के लिये वैवाहिक विधि का पालन ही वैदिक-संस्कार (यज्ञोपवीत), पति की सेवा ही गुरुकुलवास और गृह-कार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है |’

इस महामूर्ख मालवीय का परम पूज्य धर्मसम्राट् स्वामि श्री करपात्री जी महाराज ने ऐसा भ्रम भंग किया था कि याद कर गया था | ऋषिकेश में तीन दिन तक अपने सुई से लेकर सब्बल तक के सारे तर्क शास्त्रार्थ में ( जिसके मध्यस्थ जयदयाल गोयन्दका आदि रहे ) इसने प्रस्तुत किये , अंततः इस पाखंडी का वही हाल हुआ जो सिंह की खाल पहने हुए सिंह के सम्मुख आकर उसे ललकारने वाले सियार का होता है | पर बेशर्मों का क्या है भला ! अस्तु ,
लक्ष्मी ने भागवत विष्णु को सुनाई तो भला इससे स्त्रियों के व्यासासन पर भागवत की सिद्धि कैसे हो गयी लक्ष्मी कोइ स्त्री देह धारिणी मानव तो हैं नही , वे तो सबके हृदय मे व्याप्त स्वयं परमात्मतत्त्व हैं, और आत्मा को लौकिक स्त्रियों के तुल्य किसी एक जाति विशेष से जोड़ लेना ही मूर्खता है, ( त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारीति श्वेताश्वतरोप० ४/३ ) दूसरी बात ये है कि लक्ष्मी भी व्यासासन पर बैठकर विष्णु को भागवत नहीं सुनातीं अपितु भागवती वार्त्ता वे करती हैं , जिसका अभिप्राय है , भगवान की लीला कथाओं का परस्पर संवाद करना | संवाद अलग चीज है और व्यासासन पूर्वक भागवत अनुष्ठान संपन्न करना अलग | स्वयं श्री भगवान् गीता में कहते हैं कि – येषां चित्तं मयि संलग्नं भवति, येषाम् इन्द्रियाणि मयि सन्ति तादृशाः बुधाः भावसमन्विताः अन्योन्यं मां बोधयन्तः कीर्तयन्तः च सदा सन्तोषं प्राप्नुवन्ति, मय्येव च विहरन्ति यथा – –

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || (-श्रीमद्भागवद्गीता १०/९ )

वे दृढ निश्चयवाले मेरे भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्य प्रेमसे मेरी उपासना करते हैं |
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः |
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते || (-श्रीमद्भागवद्गीता ९/१४)

स्वयं को वेद की अधिकारिणी बना कर जिस भागवत को ये स्त्रियां व्यासासन से सुनाना चाहती है, वह किस मुख से उसका पारायण करती हैं ? क्योंकि स्वयं श्रीमद्भागवत ही उनको अनधिकारिणी बता रही है यथा – स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा| (- श्रीमद्भागवत १/४/२५) महर्षि वेदव्यास से अधिक जानकार तो होंगे नहीं आप !

प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं| इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया| पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य , चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए| इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए| समय-समय पर वेदों का विभाजन किस प्रकार से हुआ, इसके लिए यह एक उदाहरण प्रस्तुत है| कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने ब्रह्मा की प्रेरणा से चार शिष्यों को चार वेद पढ़ाये—
(१) मुनि पैल को ॠग्वेद
(२) वैशंपायन को यजुर्वेद
(३) जैमिनि को सामवेद
(४) सुमन्तु को अथर्ववेद

महर्षि वेदव्यास के ये उत्तराधिकारी पुरुष ही थे , स्त्री नहीं और इनकी जो परम्परा चली वह भी पुरुषों में ही चली , जो अद्यावधि पर्यन्त स्व-स्व शाखाध्यायी ब्राह्मण पुरुषों में विस्तार को प्राप्त होकर व्याप्त है | केवल महर्षि वेदव्यास के साक्षात् शिष्यों अथवा उनकी शिष्य परम्परा में आने वाले पुरुषों को ही व्यास आसन पर बैठने का अधिकार है |
मनुस्मृति ने स्पष्ट किया है कि स्त्रियाँ निरिन्द्रिय, मन्त्ररहिता, असत्यस्वरूपिणी हैं- निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रियोऽनृतमिति स्थिति:| —म

नु० ९/१८
स्त्री पापयोनि है , उसके जन्म का कारण पाप है , इस विषय में गीता का यह श्लोक स्पष्ट प्रमाण है –

हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र या पापयोनि- चाण्डालादि चाहे जो कोई भी हों, वे यदि मेरे आश्रित हो, तो परमगतिको ही प्राप्त होते हैं –

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः |
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् || (- श्रीमद्भगवद्गीता९/ ३२)

आक्षेप – यहाँ ‘पापयोनि’ –यह शब्द स्त्रियों वैश्यों आदि का विशेषण मानना आयुक्त है क्योंकि छान्दोग्योपनिषद् में वैश्य को उत्तमयोनि कहा अतः श्रुति विरुद्ध अर्थ अग्राह्य है |

समाधान – “रमणीयां योनिम्” विशेषण ही कहा है , “पुण्ययोनिम्” नहीं कह दिया है जो शुरू हो गए हो खंडन करने ; गीतोक्त “पापयोनि” का निषेध नहीं हुआ है यहाँ ! पापयोनि शब्द का अर्थ ही तुमको ज्ञात नहीं अन्यथा ये भारी भूल न करते ! स्त्री वैश्य तथा शूद्र के प्रति “पापयोनि” विशेषण की संगति करने वाले आचार्य शंकर स्वयं यहाँ स्पष्ट करते हैं कि द्विजत्व की प्राप्ति में पुण्यत्व नहीं है -ऐसी बात नहीं पुण्यत्व तो है , तभी तो द्विजत्व मिला | इसलिये वे इस मन्त्र पर लिखते हैं – /// रमणीयचरणेनोपलक्षितः शोभनोऽनुशयः पुण्यं कर्म येषां ते रमणीयचरणा: ////, //// ये तु रमणीयचरणा द्विजातयस्ते // आदि (तत्रैव शांकरभाष्य )
……………… अतः ज्ञातव्य ये है कि मानव योनि में जन्म लेने वाला जीव , स्त्री वैश्य और शूद्र – इन तीन के रूप में पाप के प्रभाव से जन्म लेता है और ब्राह्मण – इस योनि में पुण्य के प्रभाव से | याने पूर्वपुण्य का प्रभाव इनको मानव तो बना देता है किन्तु पाप का प्रभाव ही इनको ब्राह्मण पुरुष नहीं बनने देता , ये सिद्धान्त है अन्यथा तो ब्राह्मण ही होते वैश्य या शूद्र क्यों होते ? इसलिए पापयोनि हैं |जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता-इत्यादिपूर्वक यही मर्म भगवान् शंकर ने विवेकचूडामणि में समझाया है अर्थात् संसार में जन्म लेने वालों में पहले तो नर जन्म ही दुर्लभ होता है, फिर पुरुषत्व मिलना दुर्लभ है , मानव जन्म हो गया , पुरुष भी हो गया तो फिर ब्राह्मण होना तो और भी दुर्लभ होता है |

अभी अभिधारणा और दृढ होगी , आगे देखो –

प्रश्न – उत्तम योनि कह दिया तो स्पष्ट है अधम योनि तो है नहीं ! दिन है कह दिया तो स्पष्ट है कि रात नहीं है |

उत्तर – ये तर्क तो तब काम करता जब श्रुति ने पुण्ययोनि विशेषण श्रुति ने दिया होता , सो तो दिया नहीं | तो फिर कैसे कहते हो कि पापयोनि का न होना सिद्ध हुआ ? यहाँ रमणीय विशेषण पर “शास्त्रीयचरणम् आचरणम् कर्मं येषां तथाभूताः ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यसम्बन्धिनीं रमणीयां निजोद्धारक्षमां योनिम् आपद्यन्ते ” ऐसा राघवकृपाभाष्यकार का कथन है , (तत्रैव, राघवकृपाभाष्य पृष्ठ ५६०) याने के जिनको शास्त्रीय आचरणपूर्वक स्वयं का उद्धार करने की सक्षमता है वे हैं रमणीयचरण – ऐसा कह रहे हैं अर्थात् स्पष्ट है कि द्विजत्वप्राप्तिपूर्वक शास्त्रीय विधि-निषेध कासम्पादन करने वाली योनियाँ – ये अभिप्राय राघवकृपाभाष्यकार कहना चाहते हैं| (अर्थात् पुण्ययोनि के स्थान पर शास्त्रीय आचरण में सक्षम योनि -ऐसा अभिप्राय स्वीकृत किया है ) अब बताइये क्या कहोगे ?

पुनश्च यहाँ तो द्विजत्वप्राप्ति में सक्षम या कहिये शास्त्रीयविधिनिषेधों के पालन के अधिकारी योनियों का ही पृथकीकरण हुआ ! तो कहाँ पर गीतोक्त “पापयोनि ” विशेषण का खंडन हुआ है यहाँ भला ? ये पापयोनि द्विजत्व प्राप्ति की अधिकारिणी योनियाँ नहीं हैं ऐसा तो आचार्य शंकर ने कहा नहीं ! (अर्थात् न हैं कहा न नहीं हैं कहा ), वे तो उतना ही बोल रहे हैं जितना कि अखण्डनीय सिद्धान्त है , फिर आक्षेप किस आधार पर ?

पापयोनि, पुण्ययोनि , पापकर्मा , पुण्यकर्मा – प्रत्येक शब्द स्वयं में अलग -अलग अभिप्राय लिए है | पुण्यकर्मा होकर पाप – प्राधान्यत्वेन पापयोनि हो सकता है, पापकर्मा होकर पुण्य-प्राधान्यत्वेन पुण्ययोनि हो सकता है | -ये शास्त्रीय सिद्धान्त है |

अस्तु , आगे चलिए –

क्या ये सिद्धांत है कहीं वर्णित कि द्विजत्व की अधिकारिणी योनि पापयोनि हो ही नहीं सकती ? “पुण्ययोनि” विशेषण यदि द्विजमात्र को प्राप्त हो जावे तब तो आपका मत संगतहो सकता है किन्तु ऐसा भी नहीं ; ये तो केवल ब्राह्मण को ही श्री भगवान द्वारा स्वीकृत है |

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या ——तत्रैव गीतायाम् ९/३३

यहाँ पुण्या से पुण्ययोनयः – ऐसा ही अर्थ उचित है क्योंकि पीछे से पापयोनि विषयकपूर्वार्ध स्पष्ट हुआ है |

बांकी इस स्त्रियो वैश्यास्तथा० पर वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक ने इस श्लोक की व्याख्या पर देखो कैसे समझाते हैं आप हठधर्मियों को –

///त्रैवर्णिकस्य विद्यादिमतोsपि वैश्यस्य शूद्रादिभिः सह पापयोनित्वेन परिगणनं सत्रानधिकारित्वात् /// ……इस प्रकार सविस्तार आप आक्षेपकर्त्ताओं की हठधर्मिता की धज्जियां वेदान्तदेशिकाचार्य ने सविस्तार उडाई ही है ,

पुरुष सूक्त तथा रुद्रसूक्त

 Purusha Suktam


ॐ सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र पात्। 

स भूमिम् सर्वत स्पृत्वा ऽत्यतिष्ठद् दशांगुलम्॥1॥ 

पुरुषऽ एव इदम् सर्वम् यद भूतम् यच्च भाव्यम्। 

उत अमृत त्वस्य ईशानो यद् अन्नेन अतिरोहति॥2॥ 

एतावानस्य महिमातो ज्यायान्श्र्च पुरुषः। 

पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्य अमृतम् दिवि॥3॥ 

त्रिपाद् उर्ध्व उदैत् पुरूषः पादोस्य इहा भवत् पुनः। 

ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशनेऽ अभि॥4॥ 

ततो विराड् अजायत विराजोऽ अधि पुरुषः। 

स जातोऽ अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिम् अथो पुरः॥5॥ 

तस्मात् यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतम् पृषदाज्यम्। 

पशूँस्ताँश् चक्रे वायव्यान् आरण्या ग्राम्याश्च ये॥6॥ 

तस्मात् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे॥ 

छन्दाँसि जज्ञिरे तस्मात् यजुस तस्माद् अजायत117॥ 

तस्मात् अश्वाऽ अजायन्त ये के चोभयादतः। 

गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्मात् जाता अजावयः॥8॥ 

तम् यज्ञम् बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषम् जातम अग्रतः। 

तेन देवाऽ अयजन्त साध्याऽ ऋषयश्च ये॥9॥ 

यत् पुरुषम् व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्॥ 

मुखम् किमस्य आसीत् किम् बाहू किम् ऊरू पादाऽ उच्येते॥10॥ 

ब्राह्मणो ऽस्य मुखम् आसीद् बाहू राजन्यः कृतः। 

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रो अजायत॥11॥ 

चन्द्रमा मनसो जातः चक्षोः सूर्यो अजायत। 

श्रोत्राद् वायुश्च प्राणश्च मुखाद् ऽग्निर अजायत॥12॥ 

नाभ्याऽ आसीद् अन्तरिक्षम् शीर्ष्णो द्यौः सम-वर्तत। 

पद्भ्याम् भूमिर दिशः श्रोत्रात् तथा लोकान्ऽ अकल्पयन्॥13॥ 

यत् पुरुषेण हविषा देवा यज्ञम् ऽतन्वत। 

वसन्तो अस्य आसीद् आज्यम् ग्रीष्मऽ इध्मः शरद्धविः॥14॥ 

सप्तास्या आसन् परिधय त्रिः सप्त समिधः कृताः। 

देवा यद् यज्ञम् तन्वानाः अबध्नन् पुरुषम् पशुम्॥15॥ 

यज्ञेन यज्ञम ऽयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्य आसन्। 

ते ह नाकम् महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥16॥ 




Rudrasuktam  ॥ रूद्र-सूक्तम् ॥ 


नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतो तऽ इषवे नमः। 

बाहुभ्याम् उत ते नमः॥1॥ 

या ते रुद्र शिवा तनूर-घोरा ऽपाप-काशिनी। 

तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशंताभि चाकशीहि ॥2॥ 

यामिषुं गिरिशंत हस्ते बिभर्ष्यस्तवे । 

शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिन्सीः पुरुषं जगत् ॥3॥ 

शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छा वदामसि । 

यथा नः सर्वमिज् जगद-यक्ष्मम् सुमनाऽ असत् ॥4॥ 

अध्य वोचद-धिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् । 

अहींश्च सर्वान जम्भयन्त् सर्वांश्च यातु-धान्यो ऽधराचीः परा सुव ॥5॥ 

असौ यस्ताम्रोऽ अरुणऽ उत बभ्रुः सुमंगलः। 

ये चैनम् रुद्राऽ अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशो ऽवैषाम् हेड ऽईमहे ॥6॥ 

असौ यो ऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः। 

उतैनं गोपाऽ अदृश्रन्न् दृश्रन्नु-दहारयः स दृष्टो मृडयाति नः ॥7॥ 

नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे। 

अथो येऽ अस्य सत्वानो ऽहं तेभ्यो ऽकरम् नमः ॥8॥ 

प्रमुंच धन्वनः त्वम् उभयोर आरत्न्योर ज्याम्। 

याश्च ते हस्तऽ इषवः परा ता भगवो वप ॥9॥ 

विज्यं धनुः कपर्द्दिनो विशल्यो बाणवान्ऽ उत। 

अनेशन्नस्य याऽ इषवऽ आभुरस्य निषंगधिः॥10॥ 

या ते हेतिर मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः । 

तया अस्मान् विश्वतः त्वम् अयक्ष्मया परि भुज ॥11॥ 

परि ते धन्वनो हेतिर अस्मान् वृणक्तु विश्वतः। 

अथो यऽ इषुधिः तवारेऽ अस्मन् नि-धेहि तम् ॥12॥ 

अवतत्य धनुष्ट्वम् सहस्राक्ष शतेषुधे। 

निशीर्य्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव ॥13॥ 

नमस्तऽ आयुधाय अनातताय धृष्णवे। 

उभाभ्याम् उत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने ॥14॥ 

मा नो महान्तम् उत मा नोऽ अर्भकं मा नऽ उक्षन्तम् उत मा नऽ उक्षितम्। 

मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास् तन्वो रूद्र रीरिषः॥15॥ 

मा नस्तोके तनये मा नऽ आयुषि मा नो गोषु मा नोऽ अश्वेषु रीरिषः। 

मा नो वीरान् रूद्र भामिनो वधिर हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे॥16॥ 

विवाह मुहुर्त निर्धारण संपुर्ण विवरण, त्याज्य मास तिथि वार नक्षत्र

 

विवाह मुहुर्त निर्धारण करने की संपुर्ण विधि का विवरण देने का प्रयास किया जा रहा है। विवाह मे क्या त्याग व ग्रहण करना हैइसकी भी जानकारी दी जा रही है।

विवाह मुहूर्त का निर्धारण करते समय निम्न नियमों का पालन किया जाना चाहिए :

मास शुद्धि - माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ व मार्गशीर्ष विवाह के लिए शुभ मास हैं। विवाह के समय  देव शयन (आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी) उत्तम नहीं होता। यदि मकर संक्रांति पौष में हो तो पौष में तथा मेष संक्रांति के बाद चैत्र में विवाह हो सकता है। अर्थात धनु व मीन की संक्रांति (सौर मास पौष व चैत्र) विवाह के लिए शुभ नहीं है। पुत्र के विवाह के बाद 6 मासों तक कन्या का विवाह वर्जित है। पुत्री विवाह के बाद 6 मासों में पुत्र का विवाह हो सकता है। परिवार में विवाह के बाद 6 मास

तक छोटे मंगल कार्य  (मुंडन आदि) नहीं किए जाते।

जन्म मासादि निषेध

पहले गर्भ से उत्पन्न संतान के विवाह में उसका जन्म और मास, जन्मतिथि तथा जन्म नक्षत्र का त्याग करे। शेष के लिए जन्म नक्षत्र छोड़ कर मास व तिथि में विवाह किया जा सकता है।


ज्येष्ठादि विचार

ज्येष्ठ मास में उत्पन्न व्यक्ति का ज्येष्ठा नक्षत्र हो तो ज्येष्ठ मास में विवाह वर्जित होता है। वर और कन्या दोनों का जन्म ज्येष्ठ मास में हुआ हो, तो इस स्थिति में भी ज्येष्ठ मास में विवाह वर्जित है। विवाह के समय तीन ज्येष्ठों का एक साथ होना वर्जित है। दो या चार या छह ज्येष्ठा होने से विवाह हो सकता है।

ज्येष्ठ वर ज्येष्ठ कन्या का विवाह सौर ज्येष्ठ मास में न करें, यदि दोनों में से कोई एक ही ज्येष्ठ हो तो ज्येष्ठ मास में विवाह हो सकता हे

ग्राह्य तिथि : अमावस्या तथा कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी, त्रयोदशी और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को छोड़ कर सभी तिथियां।

ग्राह्य नक्षत्र : अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, मघा, उ.फा., हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, मूल, ऊ.षा.,श्रवण धनिष्ठा, उ.भा. रेवती।

योग विचार : भुजंगपात व विषकुंभादि योग विचार लिया जाना चाहिए।

करण शुद्धि : विष्टि करण (भद्रा) को छोड़ कर सभी पर करण शुभ तथा स्थिर करण मध्यम है।

वार शुद्धि : मंगलवार व शनिवार मध्यम है अन्य शेष शुभ वार है।

वर्जित काल : होलाष्टक, पितृपक्ष, मलमास, धनुस्थ और मीनस्थ सूर्य।

गुरु-शुक्र अस्त : गुरु शुक्र के अस्त होने के 2 दिन पूर्व और उदय होने के 2 दिन पश्चात तक का समय।

ग्रहण काल : पूर्ण ग्रहण दोष के समय एक दिन पहले व 3 दिन पश्चात का समय अर्थात कुल 5 दिन।

विशेष त्याज्य : संक्रांति, मासांत, अयन प्रवेश, गोल प्रवेश, युति दोष, पंचशलाका वैद्य दोष, मृत्यु बाण दोष, सूक्ष्म क्रांतिसाम्य, सिंहस्थ गुरु, सिंह नवांश में तथा नक्षत्र गंडांत।

योग : प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, सुकर्मा, धृति, वृद्धि, ध्रुव, सिद्धि, वरीयान, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, हर्षण, इंद्र एवं ब्रह्म योग विवाह के लिए प्रशस्त है। अर्थात सभी शुभ योग विवाह के लिए प्रशस्त हैं।

विवाह के शुभ लग्र

विवाह में लग्र शोधन को प्राथमिकता दी गई है। अतएव दूसरे विचारों के साथ ही साथ लग्र शुद्धि का विशेष रूप से विचार करना चाहिए।


मिथुन, कन्या और तुला लग्र सर्वोत्तम लग्र है, वृषभ, धनु लग्र उत्तम है।, कर्क और मीन मध्यम लग्र है।



लतादि दोष: विवाह मुहूर्त में निम्रलिखित 10 लतादि दोषों का विचार विशेष रूप से किया जाता है। प्रत्येक दोष मुक्त होने पर एक रेखा शुद्ध मानी जाती है और सभी लतादि दोष मुक्त हो तो अधिकतम 10 शुद्ध रेखाएं संभव होती हैं। किसी भी शुभ विवाह मुहूर्त के लिए 10 में से कम से कम 6 दोष मुक्त अर्थात 6 शुद्ध रेखाएं प्राप्त होनी चाहिएं। अन्यथा 6 से कम शुद्ध रेखा होने पर विवाह मुहूर्त त्याग दिया जाता है।  


10 लतादि दोष निम्रांकित हैं: 1. लता, 2. पात, 3. युति, 4. वैध, 5.यामित्र, 6.  बाण, 7 एकर्गल, 8. उपग्रह, 9. क्रांतिसाम्य, 10. दग्धा तिथि।



1 लत्ता :  लत्ता शब्द का आशय लात मारना है।  यह दोष नक्षत्रो और ग्रहो से निर्धारित किया जाता है। सूर्य जिस नक्षत्र पर होता है उससे आगे के बारहवे नक्षत्र पर, मंगल तीसरे पर, शनि आठवे पर एवं गुरु छठवे नक्षत्र पर लात मारता है। ठीक इसी प्रकार कुछ ग्रह अपने से पिछले नक्षत्र पर लात मारते है जैसे बुध सातवे, राहु नौवे, चन्द्र बाईसवे, शुक्र पांचवे नक्षत्र पर लात मारता है।

राहु केतु वक्री होने के कारण इसकी गणना अगले नक्षत्र को मानकर ही की जाती है। लत्तादोष मे विवाह के नक्षत्र से गणना कर नक्षत्रो मे स्थित ग्रहो का विवेचन कर उनकी लत्ता का निर्धारण किया जाता है। वैसे तो सभी ग्रहो की लत्ता को अशुभ माना जाता है किन्तु कुछ विद्वान केवल पाप व क्रूर ग्रहो की लत्ता को ही त्याज़्य मानते है। अत: विवाह का मुहूर्त निकालते समय लत्तादोष का विवेचन अवश्य करे।  तालिकानुसार फल इस प्रकार है।

                               लतादोषविचार

ग्रह                    लता  नक्षत्र                           प्रभाव               

सूर्य                   आगे 12 वा                           धननाश 

चन्द्र                  पीछे 22 वा                           सुखनाश 

मंगल                आगे 3 रा                              प्राणहानि 

बुध                   पीछे 7 वा                             बुद्धिहानि 

गुरु                   आगे 6 ठे                             बंधुहानि 

शुक्र                  पीछे 5 वे                             सुखबाधा 

शनि                 आगे 8 वा                             कुलक्षय 

राहु                   पीछे 9 वे                             नित्यदुःख 


2 पातदोष :  यह दोष सूर्य और चन्द्रमा की गति के कारण बनता है। शूल, गण्ड, वैघृति, साध्य, व्यतिपात और हर्षण इन योगो का जिस नक्षत्र मे अंत हो उस नक्षत्र मे पात दोष लगता है। यह पात दोष वंग और कलिंग देश मे वर्जित है। अतः पात दोष का आकलन के लिए विवाह वाले दिन के नक्षत्र और सूर्य नक्षत्र की तुलना की जाती है।

 १. चंद्र रोहिणी नक्षत्र मे हो और सूर्य आर्द्रा, पुनर्वसु, शतभिषा, पूर्वाफाल्गुनी,  चित्रा  और मूल नक्षत्र मे हो तो पात दोष लगता है। 

२. चन्द्र अगर मृगशिरा नक्षत्र मे हो और सूर्य भी मृगशिरा अथवा आर्दा, ज्येष्ठा, घनिष्ठा, मघा अथवा हस्त नक्षत्र मे हो तो पात दोष बनता है।

३. चन्द्र अगर मघा नक्षत्र मे हो और सूर्य अश्विनी, मृगशिरा, ज्येष्ठा, पुष्य, हस्त अथवा रेवती नक्षत्र मे हो तो पात दोष लगता है।

४. उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र मे चन्द्रमा हो और कृतिका, आर्द्रा, विशाखा, पू. फा., उ. फा. अथवा पूर्वाभाद्रपद मे सूर्य हो तो पात दोष बनता है जिससे विवाह संस्कार नही किया जाना चाहिए।

५. हस्त नक्षत्र मे चन्द्रमा हो सूर्य नक्षत्र मे भरणी, मृगशिरा, शतभिषा, पूर्वाभाद्र, स्वाती या मघा हो तो पात दोष उत्पन्न होता है।

६. स्वाति नक्षत्र मे चन्द्र विराजमान हो और कृतिका, श्रवण, घनिष्ठा, पुष्य, हस्त या रेवती नक्षत्र मे सूर्य विराजमान हो तो पात दोष बनता है।

७. अनुराधा नक्षत्र मे चन्द्रमा हो और सूर्य नक्षत्र मे अश्विनी, आर्दा, उ.षा. पूर्वाफाल्गुनी, पू.षा., पूर्वाभाद्रपद हो तो विवाह मुहुर्त पात दोष से पीड़ित होता है।

८. चन्द्रमा अगर शादी वाले दिन मूल नक्षत्र मे हो और सूर्य उस दिन रोहिणी, ज्येष्ठा, घनिष्ठा, आश्लेषा, मूल, उत्तराभाद्रपद मे हो तो यह विवाह का शुभ मुहुर्त नही होता है क्योकि इसमे पात दोष लगता है।

९. विवाह के दिन चन्द्रमा अगर उत्तराषाढ़ा नक्षत्र मे हो और सूर्य भरणी, पुनर्वसु, शतभिषा, विशाखा, अनुराधा अथवा उ.षा. नक्षत्र मे  हो तो विवाह मुहुर्त में पात दोष पैदा करता है

१०. विवाह के दिन अगर चन्द्रमा उत्तराभाद्रपद मे हो और सूर्य भरणी, शतभिषा, विशाखा, उ.फा., मूल या पूर्वा फा. नक्षत्र में हो तो विवाह मुहुर्त पात दोष से पीड़ित होता है।

११, विवाह के दिन चन्द्रमा रेवती नक्षत्र मे स्थित हो और सूर्य अश्वनी, मघा, घनिष्ठा, ज्येष्ठा, स्वाति या पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र मे हो तो इस मुहुर्त के पात दोष से पीड़ित होने के कारण विवाह नही करने की सलाह दी जाती है।

3 युतिदोष : जिस भाव या घर मे चन्द्रमा हो उस भाव मे यदि कोई गृह है तो युतिदोष होता है। शुक्र से युति शुभ होती है।  सूर्य संयुक्त हो तो हानि, मंगल युक्त हो तो मृत्यु और राहु, केतु, शनि युत हो तो सर्वनाशप्रद होती है। चन्द्रमा वर्गोत्तम, उच्च या मित्रक्षेत्री हो तो  युति दोष नही होता है, दम्पत्ति को कल्याणकारी होता है अर्थात स्त्री-पुरुष सुखी होते है।  अशुभ ग्रहो की युति विशेष अशुभ होती है।  चन्द्रमा के नक्षत्र मे तो युति नही होना चाहिए। 

4 जामित्र-दोष :  ज्योतिष शास्त्र मे सप्तम भाव से दाम्पत्यसुख और जीवनसाथी का विचार किया जाता है। इसे जाया या जामित्र भाव कहा जाता है इसे यामित्र भाव भी कहते है इससे सम्बन्धित दोष को जामित्र दोष कहते है। विवाह मुहूर्त निर्धारित करते समय लग्न या चन्द्रमा से सातवे स्थान पर कोई ग्रह होने पर जामित्र दोष होता है।  चाहे वह ग्रह चन्द्रमा ही क्यो न हो। या विवाह के नक्षत्र से 14 वे नक्षत्र पर कोई ग्रह हो तो जामित्रदोष होता है। यह सर्वथा धातक है।  यह जामित्रदोष निन्द्य है यानि वर्जित है। 55 वे नवांश मे यह यह विशेषकर नही हो।

5 पञ्चकदोष (मृत्युबाण दोष) इसे बाण दोष भी कहते है, बाण पांच होते है इनमे मृत्यु बाण विवाह मे वर्जित है। सूर्य के गतान्श 1, 10, 19, 28 हो तो मृत्युबाण होता है यह विवाह मे वर्जित होता है। 

सूर्य के गतांश और पंद्रह व बारह व दश व आठ व चार इनको अलग अलग रखकर जोड़ना, उन अंको मे नौ का भाग देना, शेष पांच बचे तो क्रमशः पांचो स्थान मे पांच पञ्चक १ रोग, २ अग्नि, ३ राज, ४ चोर, ५ मृत्यु होते है। यह पंचक विवाह मे वर्जित है। 

 संक्रांति के व्यतीत दिनो (लगभग 16 दिन) मे चार  जोड़कर नौ का भाग देने पर शेष पांच बचे तो मृत्यु पंचक होता है। उपरोक्त विधि मे और इसमें कोई अंतर नही है परन्तु यह विधि स्थूल है। 

रात्रि को चोर और रोग पंचक वर्जित है, दिन मे नृप पञ्चक, अग्नि पञ्चक हमेशा और मृत्यु पंचक संध्याओ मे वर्जित है। वार परक परिहार - शनिवार को नृप, बुधवार को मृत्यु, मंगलवार को अग्नि व चोर, रविवार को रोग पञ्चक वर्जित है। कार्य भेद से विवाह मे मृत्यु  पंचक वर्जित है।

6. एकार्गलदोष : इसे खर्जूर दोष भी कहते है। यह विष्कुम्भ, वज्र, परिध, व्यतिपात, शूल, व्याघात, वैघृति, गण्ड और अतिगण्ड इन योगो से एकार्गल होता है। सूर्य नक्षत्र से चंद्र नक्षत्र अभिजीत सहित गिने। जो नक्षत्र विषम संज्ञक हो और पूर्वोक्त योग भी हो तो एकार्गल नामक दोष होता है। यह विवाह मे ताज्य है। यह दोष भंग हो जाता है यदि चन्द्रमा सम संख्यक नक्षत्र मे  पडे़. अर्थ यह है कि सूर्य के नक्षत्र से चन्द्रमा का नक्षत्र विषम स्थानो मे पड़ने तथा उपरोक्त लिखे अशुभ योग भी उसी समय हो तो एकार्गल दोष बनता है।  

अन्य प्रकार एकार्गल की गणना थोड़ी जटिल है।  निम्न चक्र मे 01 से 28 तक संख्या मे अभिजीत की गणना की गई है। आमने सामने जो अंक दिए है उन नक्षत्रो पर सूर्य चंद्र नही होना चाहिए।  यदि ऐसा हो तो एकार्गल दोष बनता है।  जैसे दूसरा नक्षत्र भरणी है और इस पर सूर्य है, इसके सामने अट्ठाईस यानि रेवती नक्षत्र पर चन्द्रमा हो तो यह एकार्गल दोष होगा। यह विवाह मे वर्जित है। 

7. उपग्रह दोष : सूर्य नक्षत्र से चंद्र नक्षत्र यानि विवाह नक्षत्र तक गिने, यदि पांच, सात, आठ, दस, चौदह, पंद्रह, उन्नीस, इक्कीस, बाईस, तेवीस, चौवीस, पच्चीस वा हो तो उपग्रह दोष होता है। यह विवाह मे     त्याज्य है।                                                                                                                                                                                                           

8. वेध दोष : वेधदोष  निर्धारण पंचशलाका या सप्तशलाका चक्र से किया जाता है। 

सात रेखा खड़ी और 


सप्तशलाका चक्र 

सात रेखा आड़ी खीचकर सप्तशलाका चक्र बनावे। इसमे ईशान दिशा से कृतिका आदि अट्ठाईस नक्षत्र लिखे। शास्त्रानुसार एक लाइन मे आने वाले नक्षत्रो का परस्पर वेध माना गया है। विवाह नक्षत्र का जिस नक्षत्र से भी वेध हो, यदि उसमे कोई भी ग्रह हो तो वेध माना जायगा। जैसे सप्तशलाका चक्र मे उत्तराफाल्गुनी का रेवती से वेध है।  अब यदि विवाह नक्षत्र रेवती है और उत्तराफाल्गुनी मे कोई ग्रह है तो वेध माना जायगा और वेधदोष होगा।  विवाह मे यह दोष सर्वत्र वर्जित है।  यह वरन और वधु प्रवेश मे भी विचारणीय और त्याज्य माना जाता है। 

इसमे भी यदि चन्द्रमा नक्षत्र के प्रथम चरण मे है तो सामने वाले वेध नक्षत्र का चौथा चरण ज्यादा अनिष्टकारी होगा।  इसी प्रकार चन्द्रमा का दूसरा चरण हो तो वेध वाले नक्षत्र का तीसरा चरण या चन्द्र का तीसरा चरण हो तो वेध वाले नक्षत्र का    दूसरा चरण ज्यादा अनिष्टकारक होगा।




9. क्रांतिसाम्य दोष :  इस दोष को महापात दोष भी कहते है। सूर्य,  चंद्रमा की क्रांति सामान होने पर यह दोष होता है। शुभ कार्यो मे इस दोष की बड़ी निंदा की गई है और इसमे विवाह करना सर्वत्र वर्जित है।  सिंह और मेष, वृषभ और मकर, तुला और कुम्भ, कन्या और मीन, कर्क और वृश्चिक, धनु और मिथुन इन दो-दो राशियो मे एक मे सूर्य और दूसरी मे चन्द्रमा हो तो क्रांतिसाम्य दोष होता है। 


10. दग्धातिथि दोष : सूर्य निम्न राशियो पर निम्न तिथियो पर हो तो दग्धा तिथि होती है।  इनमे समस्त शुभ कार्य और विवाह  त्याज्य है। धनु और मीन के सूर्य में द्वितीया, वृषभ और कुम्भ के सूर्य मे चतुर्थी, मेष और कर्क के सूर्य मे षष्ठी, कन्या और मिथुन के सूर्य मे अष्टमी, वृश्चिक और सिंह के सूर्य मे दशमी दग्धा है। ये विवाह लग्न मे त्याज्य है। 

त्याज्य तिथियॉ - कृष्ण पक्ष की दशमी से लेकर अमावस्या, शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तथा दोनो पक्ष की 4, 6, 8, 9, 14 त्याज्य है। विद्जन रिक्ता तिथि 4, 9, 14 पूर्णा और अमावस को भी त्याज्य मानते है। 


विवाह मे सूर्य, गुरु, चंद्र  (त्रिबल) शुद्धि विचार 

विवाह लग्न मे वर के लिए सूर्य का बल, वधु के लिए गुरु का बल और दोनो के लिए चंद्र का बल आवश्यक है। इसके लिए जन्म राशि से ही विचार करे। 

विवाह मे गुरुबल विचार- वधु की जन्म चंद्र राशि से गुरु नवम, पंचम, एकादश, द्वितीय, सप्तम राशि मे शुभ, दशम, तृतीय, षष्ठ, प्रथम राशि मे दान और पूजा से  शुभ और चतुर्थ, अष्टम, द्वादश राशि मे नेष्ट  या अशुभ है। गुरु की पूजा को पीली पूजा कहते है। 

 विवाह मे सूर्यबल विचार - वर की जन्म चंद्र राशि से सूर्य तृतीय, षष्ठ, दशम, एकादश राशि मे शुभ, प्रथम, द्वितीय, सप्तम, नवम राशि मे दान व पूजा से शुभ तथा चार, आठ, बारह राशि में अशुभ या नेष्ट होता है।  सूर्य की पूजा को धोली पूजा कहते है।  

विवाह मे चन्द्रबल विचार - वर-वधु दोनो की जन्म चन्द्र राशि से चन्द्रमा तीसरा, छठा, सातवा, दसवा, ग्यारहवा शुभ, पहला, दूसरा, पांचवा, नवमा  दान पूजा से शुभ, और चौथा, आठवा बारहवा अशुभ/नेष्ट होता है।   


Yogni dasha योगनी दशा क्या है योगनी दशा के स्वामी कौन है योगनी दशा का निर्धारण कैसे करते है

 श्रीराम ।

जन्मकुंडली मे फलादेश के लिए विंशोत्तरी दशा, चर दशा व योगनी दशा का प्रयोग होता है।

विंशोत्चरी की तरह २७ नक्षत्र के अनुसार ही योगनी दशा का भी निर्धारण किया जाता है। अलग अलग नक्षत्र की अलग अलग योगनी दशा है। जन्मकाल मे जो नक्षत्र होता है। उस नक्षत्र की स्वामी जो योगनी है वही योगनी दशा का आरंभ माना जायेगा।

कुल आठ योगिनी दशाएं हैं मंगला, पिंगला, धान्या, भ्रामरी, भद्रिका, उल्का, सिद्धा और संकटा। इनकी समयावधि क्रमश: 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8 वर्ष होती है। इन सबका कुल योग 36 वर्ष होता है।

योगनी दशा का निर्धारण व उनके नक्षत्र तथा स्वामी

मंगला : योगिनी दशा की पहली दशा है मंगला। यह एक वर्ष की होती है। इसके स्वामी चंद्र हैं और जिन जातकों का जन्म आद्र्रा, चित्रा, श्रवण नक्षत्र में होता है, उन्हें मंगला दशा होती है। यह दशा अच्छी मानी जाती है। मंगला योगिनी की कृपा जिस जातक पर हो जाती है उसे हर प्रकार के सुख-संपन्नता प्राप्त होती है। उसके संपूर्ण जीवन में मंगल ही मंगल होता है।


पिंगला : क्रमानुसार दूसरी योगिनी दशा पिंगला की होती है। यह दो वर्ष की होती है। इसके स्वामी सूर्य हैं। जिनका जन्म पुनर्वसु, स्वाति, धनिष्ठा नक्षत्र में होता है उन्हें पिंगला दशा होती है। यह दशा भी शुभ होती है। पिंगला दशा में जातक के जीवन के सारे संकट शांत हो जाते हैं। उसकी उन्नति होती है और सुख-संपत्ति प्राप्त होती है।


धान्या : तीसरी योगिनी दशा धान्या की होती है और यह तीन वर्ष की होती है। इसके स्वामी बृहस्पति हैं। जिनका जन्म पुष्य, विशाखा, शतभिषा नक्षत्र में होता है उन्हें धान्या दशा से जीवन प्रारंभ होता है। यह दशा जिनके जीवन में आती है उन्हें अपार धन-धान्य प्राप्त होता है।


भ्रामरी : चौथी योगिनी दशा भ्रामरी की होती है और यह चार वर्ष की होती है। इसके स्वामी मंगल हैं। जिनका जन्म अश्विनी, अश्लेषा, अनुराधा, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में होता है उनकी जन्मकालिक योगिनी दशा भ्रामरी होती है। इस दशा के दौरान व्यक्ति क्रोधी हो जाता है। कई प्रकार के संकट आने लगते हैं। आर्थिक और संपत्ति का नुकसान होता है। व्यक्ति भ्रमित हो जाता है।


.भद्रिका : पांचवीं योगिनी दशा भद्रिका की होती है और यह पांच वर्ष की होती है। इसके स्वामी बुध हैं। जिनका जन्म भरणी, मघा, ज्येष्ठा, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में होता है उनकी जन्मकालिक योगिनी दशा भद्रिका होती है। इस दशाकाल में जातक के सुकर्मो का शुभ फल प्राप्त होता है। शत्रुओं का शमन होता है और जीवन के व्यवधान समाप्त हो जाते है।

उल्का : छटी योगिनी दशा उल्का की होती है और यह छह वर्ष की होती है। इसके स्वामी शनि हैं। जिनका जन्म कृतिका, पूर्वा फाल्गुनी, मूल, रेवती नक्षत्र में होता है उनकी जन्मकालिक योगिनी दशा उल्का होती है। इस दशाकाल में जातक को मेहनत अधिक करनी पड़ती है। जीवन में दौड़भाग बनी रहती है। कार्यो में शिथिलता आ जाती है। कई तरह के संकट आते हैं।


सिद्धा : सातवीं योगिनी दशा सिद्ध की होती है औ इसके स्वामी शुक्र हैं। जिनका जन्म रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में होता है उनकी जन्मकालिक योगिनी दशा सिद्धा होती है। इस दशा के भोग काल में जातक की संपत्ति, भौतिक सुख, प्रेम, आकर्षण प्रभाव आदि में वृद्धि होती है। जिन लोगों पर सिद्धा योगिनी की कृपा होती है उनके जीवन में कोई अभाव नहीं रह जाता है।


संकटा : योगिनी दशा चक्र की आठवीं और अंतिम दशा संकटा की होती है और इसके स्वामी राहू हैं। जिनका जन्म मृगशिर, हस्त, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में होता है उनकी जन्मकालिक दशा संकटा की होती है। संकटा योगिनी दशाकाल में जातक हर ओर से परेशानियों और संकटों से घिर जाता है। संकटों के नाश के लिए इस दशा के भोगकाल में मातृरूप में योगिनी की पूजा करें।

योगनी दशा की अनुकूलता के लिए

योगिनी दशाओं को अनुकूल बनाने के लिए किसी भी शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि से प्रारंभ करके पूर्णिमा तक प्रत्येक योगिनी दशा के कारक ग्रह के दिन से संबंधित योगिनी के पांच हजार मंत्रों का जाप करें। संकटा दशा के कारक ग्रह राहू के लिए रविवार तथा केतु के लिए मंगलवार चुनें। संकटा दशा दरअसल राहू-केतु दोनों के लिए मानी जाती है।


 योगिनियों को अनुकूल करने के मंत्र

मंगला : ऊं नमो मंगले मंगल कारिणी, मंगल मे कर ते नम:

पिंगला : ऊं नमो पिंगले वैरिकारिणी, प्रसीद प्रसीद नमस्तुभ्यं

धान्या : ऊं धान्ये मंगल कारिणी, मंगलम मे कुरु ते नम:

भ्रामरी : ऊं नमो भ्रामरी जगतानामधीश्वरी भ्रामर्ये नम:

भद्रिका : ऊं भद्रिके भद्रं देहि देहि, अभद्रं दूरी कुरु ते नम:

उल्का : ऊं उल्के विघ्नाशिनी कल्याणं कुरु ते नम:

सिद्धा : ऊं नमो सिद्धे सिद्धिं देहि नमस्तुभ्यं

संकटा : ऊं ह्रीं संकटे मम रोगंनाशय स्वाहा

पं.राजेश मिश्र 'कण'

तंत्र मंत्र यंत्र ज्योतिष शाबर मंत्र विज्ञान सिद्धांत 


जाति वर्ण व ब्राह्मण की शाशत्रीय प्रमाणिक विवेचना


हारीत ऋषि ने सृष्टिकर्म का वर्णन करते हुए हारीत स्मृति मे पुरुषसूक्त के श्लोक को स्पष्ट करते हुए कहा है कि-

*यज्ञ सिद्धयर्थमनवान्ब्राह्मणान्मुखतो सृजत।। सृजत्क्षत्रियान्वार्हो वैश्यानप्यरुदेशतः।। शूद्रांश्च पादयोसृष्टा तेषां चैवानुपुर्वशः।*( १अ० १२/१३)

*यज्ञ की सिद्धि के लिये ब्राह्मणो को मुख से उत्पन्न किया। इसके बाद क्षत्रियो को भुजाओ से वैश्य को जंघाओ से, और शूद्र को चरणो से रचा।*

वशिष्ठ स्मृति चतुर्थ अध्याय मे सृष्टिक्रम का उल्लेख करते हुए वशिष्ठ जी कहते है।

- *ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत:। उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्भया ्ँ शूद्रो अजायत।।*

 *गायत्रा छंदसा ब्राह्मणमसृजत। त्रिस्टुभा राजन्यं जगत्या वैश्यं न केनाचिच्छंदसा शूद्रमित्य संस्कार्यो विज्ञायते।।*

गायत्री छंद से ब्राह्मण की सृष्टि है। त्रिष्टुभ छंद से क्षत्रिय की सृष्टि है। और जगती छंद से वैश्य की सृष्टि ईश्वर ने की है। इसलिये उपरोक्त वेदमंत्र से इनका संस्कार होता है। 


तत्र मित्र न वस्तव्यं यत्र नास्ति चतुष्टयं । ऋणदाता च वैद्यश्च श्रोत्रियः सजला नदी ॥


मित्रो , जिस स्थान पर ऋणदाता, वैद्य, वेद पारंगत श्रोत्रिय ब्राह्मण, व जलयुक्त नदी न हो वहॉ नही बसना चाहिये।


जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः | संस्कारै: द्विज उच्चते ||

विद्यया याति विप्रत्वम् | त्रिभि: श्रोत्रिय उच्चते ||१||.....

जाति शब्द ही जन्म से को सूचित करती है, ब्राह्म्ण व ब्राह्मणी के संयोग से उत्पन्न ब्राह्मण जाना जाता है, संस्कार से द्विज संज्ञा होती है, विद्या प्राप्त कर विप्र संज्ञा होती है। इन तीन प्रकार के गुणो से युक्त व्यक्ति को श्रोत्रिय कहा जाता है।

प्रस्तुत श्लोक अत्रि संहिता व पद्यपुराण मे वर्णित है।

पद्यपुराण- उत्तम ब्राह्मण व गायत्री मंत्र की महिमा शीर्षकाध्याय ब्रह्मा नारद संवाद श्लोक संख्या १३४ पर देखे।


स्कन्द पुराण के आधार पर ब्राह्मण आठ प्रकार के होते है-


अथ ब्राह्मणभेदांस्तवष्टौ विप्रावधारय ||

मात्रश्च ब्रारह्मणश्चैव श्रोत्रियश्च ततः परम् |

अनूचनस्तथा भ्रूणो ऋषिकल्प ऋषिमुनि: ||

इत्येतेष्टौ समुद्ष्टा ब्राह्मणाः प्रथमं श्रुतौ |

तेषां परः परः श्रेष्ठो विद्या वृत्ति विशेषतः ||

[ स्कन्द पुराण : महेश्वर खण्ड ]

"विद्या" "वंश" "वृत्त" की महिमा से ब्राह्मण 8 प्रकार के बताए गये हैं।

और इनमें से उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं

१-मात्र          २-ब्राह्मण

३-श्रोत्रिय       ४-अनूचान

५- भ्रूण         ६- ऋषिकल्प

७-ऋषि          ८-मुनि

इन के लक्षण इस प्रकार हैं।

१-मात्र :- 

जो ब्राह्मणों के कुल में उत्पन्न हुआ हो किन्तु उनके गुणों से युक्त न हो आचार और क्रिया से रहित हो वह "मात्र" कहलाता है।

२-ब्राह्मण :-

जो वेदों में पारंगत हो आचारवान हो सरल-स्वभाव शांतप्रकृति एकांतसेवी सत्यभाषी और दयालु हो वह "ब्राह्मण" कहा जाता है!

३-श्रोत्रिय :-

जो वेदों की एक शाखा छ: अंगों और श्रौत विधियों के सहित अध्ययन करके अध्ययन अध्यापन यजन-याजन दान और प्रतिग्रह इन छ: कर्मों में रत रहता हो उस धर्मविद ब्रह्मण को "श्रोत्रिय" कहते हैं।

४-अनूचान :-

जो ब्राह्मण वेदों और वेदांगों के तत्त्व को जाननेवाला, शुद्धात्मा, पाप रहित, शोत्रिय के गुणों से संपन्न, श्रेष्ठ और प्राज्ञ हो, उसे "अनूचान" कहा गया है।

५ भ्रूण :- 

जो अनूचान के गुणों से युक्त हो, नियमित रूप से यज्ञ और स्वाध्याय करने वाला, यज्ञ शेष का ही भोग करने वाला और जितेन्द्रिय हो उसे शिष्टजनों ने "भ्रूण" की संज्ञा दी है!

६- ऋषिकल्प :- 

जो समस्त वैदिक और लौकिक ज्ञान प्राप्त करके आश्रम व्यवस्था का पालन करे, नित्य आत्मवशी रहे, उसे ज्ञानीजन "ऋषिकल्प" नामसे स्मरण किया है।

७- ऋषि :-

जो ब्राह्मण ऊर्ध्वरेता, अग्रासन का अधिकारी, नियत आहार करनेवाला, संशय रहित, शहप देने और अनुग्रह करने में समर्थ और सत्य-प्रतिज्ञा हो, उसे "ऋषि" की पदवी दी गयी है।

८- मुनि :-

जो कर्मों से निवृत्त, सम्पूर्ण तत्त्व का ज्ञाता, काम-क्रोध से रहित, ध्यानस्थ, निष्क्रिय और शान्त हो, मिट्टी और सोने में समभाव रखता हो, उसे "मुनि" के नाम से सम्मानित किया है।

इस प्रकार ब्राह्मणों के 8 प्रकार भेद कहे गये हैं।

इस प्रकार से 

"वंश विद्या और वृत्त" सदाचार के द्वारा उत्कर्ष को प्राप्त "त्रिशुक्ल" कहलाते हैं। 

ये ही यज्ञ आदि में पूजित भी होते हैं।

जय जय सीताराम!!

पं. राजेश मिश्र " कण"

जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...