शिलान्यास विधि Shilanyas Vidhi

 




|| शिलान्यासविधिः ||


शिला स्थापन करने वाला यजमान निर्माणाधीन भूमि के आग्नेय दिशा में खोदे गये भूमि के पश्चिम की ओर बैठकर आचमन प्राणायाम आदि करे। तदनन्तर स्वस्ति वाचन आदि करते हुए संकल्प करे।


देशकालौ संकीर्त्य अमुकगोत्रोऽमुकशाऽहं करिष्यमाणस्यास्य वास्तोः शुभतासिद्धयर्थं निर्विघ्नता गृह-(प्रासाद)-सिद्धयर्थमायुरारोग्यैश्वाभिवृद्ध्यर्थ च वास्तोस्तस्य भूमिपूजनं शिलान्यासञ्च करिष्ये तदङ्गभूतं श्रीगणपत्यादिपूजनञ्च करिष्ये।


गणेश, षोडशमातृका, नवग्रह आदि का पूजन करे।


इसके बाद आचार्य


ॐ अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूमिसंस्थिताः


ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ।।99


इस मंत्र से पीली सरसों चारों ओर छींटकर पंचगव्य से भूमि को पवित्र कर वायुकोण में पांच शिलाओं को स्थापित करे। इसके बाद सर्पाकार वास्तु का आवाहन कर

ध्यान:-

ॐ वास्तोष्पते प्रतिजानीह्यस्मान्स्वावेशोऽदमीवो भवा नः।।


यत्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ।।



षोडशोपचार से पूजा कर दही और भात का बलि दे पुनः नाग की पूजा करे-

ध्‍यान-

ॐ वासुकि धृतराष्ट्रञ्च कर्कोटकधनञ्जयौ ।


तक्षकैरावतौ चैव कालेयमणिभद्रकौ ।।


इससे आठों नागों के लिए पृथक्-पृथक् अथवा एक ही साथ नाम मंत्रों से आवाहन पूजन करें। पुनः धर्म रूप वृष का आवाहन पूजन कर हाथ जोड़कर प्रार्थना करें-

ध्यान-:

ॐ धर्मोसि धर्मदैवत्यवृषरूप नमोस्तु ते ।


सुखं देहि धनं देहि देहि 7 ।।


गृहे गृहे निधिं देहि वृषरूप नमोस्तु ते ।


आयुर्वृद्धिं च धान्यं च आरोग्यं देहि गेहयोः।।


आरोग्यं मम भार्याया पितृमातृसुखं सदा ।


भ्रातृणां परमं सौख्यं पुत्राणां सौख्यमेव च ।।


सर्वस्वं देहि मे विष्णो! गृहे संविशतां प्रभो!।


नवग्रहयुतां भूमिं पालयस्व वरप्रद! ।।


पुनः पञ्चशिलाओं को-


ॐ आपः शुद्धा ब्रह्मरूपाः पावयन्ति जगत्त्रयम् ।


चाभिरद्भिः शिला स्नाप्य स्थापयामि शुभे स्थले ।


यह पढ़कर शुद्ध जल से धो दें। पुनः


ॐ गजाश्वरथ्यावल्मीकसद्भिर्मुद्भिः शिलेष्टकान्


प्रक्षालयामि शद्ध्यर्थं गृहनिर्माणकर्मणि ।।


इसे पढ़कर सप्तमृतिका से प्रक्षालन करें।


पुनः पञ्चगव्य, दही और तीर्थ के जल से धोकर शुद्ध वस्त्र से पोंछ दें और उन शिलाओं का कुंकुम चन्दन से लेपन कर स्वस्तिक चिह्न बनाकर वस्त्र से ढककर मन्त्र पढ़ें-


ॐ नन्दायै नमः

ॐ भद्रायै नमः

ॐ जयायै नमः

ॐ रिक्तायै नमः

ॐ पूर्णायै नमः

उन शिलाओं के आगे इन पांचों कुम्भों (घड़ा) की स्थापना करे-


ॐ पद्माय नमः

ॐ महापद्माय नमः

ॐ शंखाय नमः

ॐ मकराय नमः

ॐ समुद्राय नमः

उसके बाद आचार्य गड्डे की भूमि को लेपकर कछुआ के पीठ के ऊपर स्थित श्वेत वर्ण वाले चार भुजाओं में पद्म, शंख, चक्र और शूल धारण किये भूमि का ध्यान करे।


कूर्माय नमः इति कूर्ममम्

ॐ अनन्ताय नमः इति अनन्तम्

ॐ वराहाय नमः इति वराहम्

इस प्रकार आवाहन, पूजन कर दोनों घुटनों से पृथ्वी का स्पर्श कर जल, दूध, तिल, अक्षत जौ, सरसों और पुष्प अर्घ्य पात्र में रखकर भूमि के के निमित्त मंत्र से अर्घ्य दें-


ॐ हिरण्यगर्भे वसुधे शेषस्योपरि शायिनि ।


उद्धृतासि वराहेण सशैलवनकानना ।।

प्रासादं (गृहं वा) कारयाम्यद्य त्वदूर्ध्न शुभलक्षणम् ।।

गृहाणार्घ्य मया दत्तं प्रसन्ना शुभदा भव ।।;

भूम्यै नमः इदमर्घ्य समर्पयामि ।


पुनः आम्र या पलाश के पत्ते के ऊपर दीपक सहित घी और भात की बलि देकर प्रार्थना करे-

ॐ समुद्रमेखले देवि पर्वतस्तनमण्डले ।

विष्णु-पलि नमस्तुभ्यं शस्त्रपातं क्षमस्व मे ।।

इष्टं मेत्वं प्रयच्छेष्टं त्वामहं शरणं गतः।


पुत्रदारधनायुष्य-धर्मवृद्धिकरी भव ।।


पुनः गड्ढे में तेल डालकर उसके ऊपर सफेद सरसों छोड़े।मन्त्र-


ॐ भूतप्रेतपिशाचाद्या अपक्रामन्तु राक्षसाः।


स्थानादस्माद्वजन्त्वन्यत्स्वीकरोमि भूवं त्विमाम्।।


उसके ऊपर दही लिपटा चावल उड़द की बलि देकर उसके ऊपर 7 पत्ते स्थापित कर एवं उसके ऊपर बारह अंगुलि लोहे की कील गाड़ दे। 

मन्त्र-

ॐ विशन्तु भूतले नागाः लोकपालाश्च सर्वतः।

अस्मिन् स्थानेऽवतिष्ठन्तु आयुर्बलकराः सदा ।।

उसके ऊपर मधु, घी, पारद, सुवर्ण (अथवा रुपया) ढके हुए मुख वाले ताम्र आदि से निर्मित पद्म नामक कुम्भ में पञ्चरत्न रख, चन्दन लगाकर वस्त्र लिपटाकर मध्य में रख दे तथा उस पर नारियल भी रख दे।


इसी प्रकार पूर्व आदि दिशाओं में चार घड़ा स्थापित करे।



पूर्वादि के क्रम से महापद्म 2, शंख 6, मकर 4, समुद्र 5, की पूजा कर कुम्भ के बराबर मिट्टी देकर अक्षत छोड़े। पुनः अच्छे मुहूर्त में सुपूजित ‘पूर्णा’ नामक ईंट स्थापित करे।

मन्त्र-

पूर्णे त्वं सर्वदा भद्रे! सर्वसन्दोहलक्षणे ।

सर्व सम्पूर्णमेवात्र कुरुष्वाङ्गिरसः सुते ।।

तदनन्तर पूर्व दिशा में-

ॐ नन्दे त्वं नन्दिनी पुंसां त्वामत्र स्थापयाम्यहम् ।

अस्मिन् रक्षा त्वया कार्या प्रासाद यत्नतो मम ।।

तदनन्तर दक्षिण दिशा में-

ॐ भद्रे! त्वं सर्वदा भद्रं लोकानां कुरु काश्यपि ।

आयुर्दा कामदा देवि ! सुखदा च सदा भव ।।


पश्चिम दिशा में-

ॐ जये ! त्वं सर्वदा देवि तिष्ठ त्वं स्थापिता मया ।

नित्यं जयाय भूत्यै च स्वामिनो! भव भार्गवि!।।


उत्तर दिशा में-

रिक्ते त्वरिक्तेदोषघ्ने सिद्धिवृद्धिप्रदे शुभे!।

सर्वदा सर्वदोषने तिष्ठास्मिन्मम मन्दिरे ।।


इस मंत्र से स्थापित कर पूर्णादि नाम मन्त्रों से गन्धादि द्वारा पूजा करें।


पुन: चारों ओर दिक्पालों की पूजा कर दीपक के साथ दही, उड़द एवं भात की बलि दे।


विश्वकर्मणे नमः


इस प्रकार आयुध की पूजा कर प्रार्थना करे-


ॐ अज्ञानाज्ज्ञानतो वापि दोषाः स्युश्च यदुद्भवाः।


नाशयन्त्वहितान्सर्वान् विश्वकर्मन्नमोऽस्तु ते ।।


उसके बाद फावड़े की पूजा कर प्रार्थना करे-


ॐ त्वष्ट्रा त्वं निर्मितः पूर्व लोकानां हितकाम्यया ।


पूजितोऽसि खनित्र ! त्वं सिद्धिदो भव नो ध्रुवम् ।।


वाष्पोष्पति, मृत्युञ्जय आदि देवताओं के जप हेतु प्रतिज्ञा संकल्प करे


अद्येत्याधुक्त्वा अनवधिवर्षावच्छिन्नबहुकालपर्यन्तं पुत्रकलत्रारोग्यधनादिसमृद्धिप्राप्तिकामो गृहनिर्माणार्थ कर्त्तव्यशिलास्थापनाङ्गत्वेन वास्तुदेवतामृत्युञ्जयादिप्रसादलाभाय यथासंख्यापरिमितं ब्राह्मणद्वारा जपमहं कारयिष्ये।


वरण सामग्री लेकर-


अद्येत्यादि गृहनिर्माणार्थ कर्तव्यशिलास्थापनांगभूतब्राह्मणद्वारावास्तोष्पतिमृत्युंजयजपं कारयितुमेभिर्वरणद्रव्यैरमुकामुकगोत्रान् अमुकामुकशर्मणः ब्राह्मणान् जापकत्वेन युष्मानहं वृणे ।


तदनन्तर मिष्ठान वितरण करे।


इति शिलान्यासविधिः।




राधा कृष्ण का संबंध क्या है

 

श्रीराम ।
बहुत से लोग राधा को काल्पनिक कहते है। कुछ राधाजी को श्रीकृष्ण की पत्नी मानने से इंकार करते है। कुछ लोग राधा का वृंदावन से संबंध होने पर सशंकित है।

इसलिये अब हम यथापूर्व वेदादि शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा राधाकृष्ण की जुगल जोड़ी का निरूपण करते हैं :-

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वैदिक-स्वरूप

(क) राधे ! विशाखे ! सुहवानु राधा (ख) इन्द्रं वयमनुराधं हवामहे | ( १२/१५२)

(अथर्व० ११७३)

अर्थात् (क) हे राधे ! हे विशाले! श्री राधाजी हमारे लिये सुखदाविती हों। (ख) हम सब भक्तजन राचासहित श्रीकृष्ण भगवान की स्तुति करते हैं।

पौराणिक - स्वरूप

- (ख) तद्वामांशसमुद्भूतं गौरं तेजः स्फुरत्प्रभम् । लीला ह्यतिप्रिया तस्य तां राधां तु विदुः परे ॥

(क) त्वं ब्रह्म चेयं प्रकृतिस्तटस्था, कालो यदेमां च विदुः प्रधानम् । महान्यदा त्वं जगदङ्करोऽसि, राधा तदेयं सगुणा च माया ॥

(गर्गसंहिता गो० १६ । २५ )

(गर्गसंहिता गो० ९ । २३ )

(ग) परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् । असंख्य ब्रह्माण्डपतिर्गोलोकेशः परात्परः ।।

(गर्गसंहिता गो० १५ ५२-५३ )

(घ) श्रीकृष्णपटराज्ञी या गोलोके राधिकाऽभिघा । त्वद्गृहे सापि संजाता त्वं न जानासि तां पराम् ।।

( गगं० गो० १५ ५६ )

(ङ) राधाकृष्णेति हे गोपा ये जपन्ति पुनः पुनः । चतुष्पदार्थः किं तेषाँ साक्षात्कृष्णोऽपि लभ्यते ॥

( गगं० गो० १५। ७१ )

(च) ये राधिकायां मयि केशवे मनाक्, भेदन पश्यन्ति हि दुग्धशौक्लवत् ।

त एव मे ब्रह्मपदं प्रयान्ति त दहेतु कस्फूर्जितभक्तिलक्षणाः ॥

( ० वृ० १२ । ३२ ) पर्थ - ( क ) [ देवगण स्तुति करते हुए कहते हैं कि ] हे भगवन् !" आप साक्षात् ब्रह्म हैं और श्री राधाजी आपकी तटस्थ प्रकृति हैं। आप काल है यह प्रधान माया है। जब भाप महदादिक गुण होकर जगत् के अंकुर (बीज) होते हो तब यह सगुण माया है । (ख) भगवान् के वाम भाग से उत्पन्न होने वाला जो प्रभायुक्त गौर तेज है वह भगवान् को aata प्रियतमा सीला है जिसे भक्तजन श्रीराधा कहते हैं। (ग) श्रीकृष्ण जी परिपूर्णतम स्वयं भगवान् हैं और अगणित ब्रह्माण्डों के पति एवं गोलोक के सर्वोपरि अधिष्ठाता है। (घ) [ नारदजी कहते हैं, कि है वृषभानो ! ] गोलोक में श्रीकृष्ण भगवान् की 'राधा' नामक जो पटरानी है वही तुम्हारे घर में उत्पन्न हुई है तुम उसका भेद नहीं जानते। (ङ) हे गोपगण ! जो लोग 'राधाकृष्ण' ऐसा जाप करते हैं चार पदार्थों का तो कहना ही क्या है साक्षात् कृष्ण भगवान् भी उनको प्राप्त हो जाते हैं। (च) दूध और उसकी सफेद कान्ति की तरह जो लोग मुझ कृष्ण में और श्री राधिका जी में भेद नहीं देखते हैं अर्थात् एक ही समझते हैं वे ही ज्ञानीजन ब्रह्मपद को प्राप्त होते हैं ।

इस प्रकार वेदादि ग्रन्थों में श्रीकृष्ण भगवान् को ब्रह्म और श्री राधिका जी को विशुद्ध प्रकृति के नाम से स्मरण किया गया है। उपर्युक्त सिद्धान्त के समर्थक सहस्रों प्रमाण आर्ष ग्रन्थों में भरे पड़े पड़े हैं, जो इस लघु कलेवर लेख में उध्दृत करना न केवल असम्भव हैं, अपितु अनावश्यक भी हैं

प्राचीन भाष्यों में राधा और कृष्ण

हमारी पूर्वोक्त स्थापना को पढ़कर कदाचित् किसी महाशय को 'कोरी कल्पना' कहने का अवसर न मिले एतदर्थं हम 'गोपालसहस्रनाम' नामक प्रसिद्ध स्तोत्र के पं० दुर्गादत्त कृत प्राचीनतम संस्कृत भाष्य के कुछ उद्धरण यहां उद्धृत करते हैं जिससे पाठक यह अनुमान कर सकेंगे कि राधा और कृष्ण का प्रकृति और पुरुष के रूप में अनादि काल से उल्लेख विद्यमान है, यथा-

राधयति साधयति — उत्पादनरूपेण सृष्टिकार्याणीति

राधा प्रकृतिः" । कृषिर्भवाचकः शब्दो पश्च निवृति- वाचकः तयोरेवयं परब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ॥

अर्थात् उत्पादन रूप से सृष्टि कार्यों के सम्पादन करने वाली होने से श्रीराधा प्रकृति रूपा हैं तथा 'कृष्' शब्द सत्ता का वाचक है और 'ए' शब्द आनन्द वाचक है। इन दोनों की एकता सत् आनन्द-रूप परब्रह्म 'कृष्ण' शब्द का अर्थ है। इन्ही ब्रह्म और पाक्तिरूपा प्रकृति के रूप में श्रीराधा-कृष्ण के सहस्रनाम 'गोपालसहस्रनाम' में लिखे हैं। गया-

राधारतिसुखोपेतो राधामोहनतत्परः ।

राधावशीकरो राधाहृदयाम्भोजषट्पदः ॥

( दौगिभाष्य) राधाया- उपादानभूतायाः प्रकृत्या: ( प्रकृति- माधित्येति व्यव लोपे पञ्चमी) या रतिः सृष्टिक्रियारूपाक्रीडा तंत्र स्वरूप भूतेनानन्ताख्येनोपेतः । श्रत्र रतिशब्दः सृष्टिक्रियावचनः "स के ने रेमे" इत्यादि बृहदारण्यकश्रुत्या सृष्टि-क्रियाया ब्रह्मणः क्रोडारूपेण प्रतिपादितत्वात् । राधायाः प्रकृत्या यो मोहनो मोहोत्पादको गुणस्तत्र तस्मात् परस्तत्परः । राधायाः प्रकृतेबंशी-करस्तदपोश्वर इत्यर्थ । राधायाः प्रकृतेपद हृदयं हृदयाजित महदहङ्कारादिकार्यं तदेवाम्भोजं कारणसलिलोत्पन्नत्वात् षट्पदो भ्रमर इव तद्रहस्य रूपरसज्ञ इत्यर्थः ।

अर्थात् — श्री गोपाल ( कृष्ण ) जो राधा अर्थात् उत्पादन रूप प्रकृति का आश्रय लेकर जो सृष्टि-क्रिया रूप ( पति) क्रीड़ा उसमें स्वरूपभूत सुख से मुक्त है। अर्थात सांसारिक पदार्थों में जो कुछ सुख है वह परमात्मा का ही है। यहां रति शब्द क्रीडारूप सुष्टिवाचक है, क्योंकि "स वै नैव रेमे इत्यादि वृहदारण्यकश्रुति द्वारा सृष्टिनिया को ब्रह्म की क्रीड़ारूप से प्रतिपादन किया है। राधा प्रकृति का जो मोहन जीवों को मोह में डालने वाला गुण है उससे वे पर है अर्थात् प्राकृतिक पदार्थ उनको मोह में नहीं डाल सकते। वे राधा अर्थात् प्रकृति को वश में रखने वाले है। अर्थात् उसके अधीश्वर हैं।

अब अधिक विस्तार न करते हुए आगे राधा और कृष्ण के संबंध को अधिक स्पष्ट करते है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण सृष्टि खण्ड में इस प्रकार वर्णन है कि
आविभूव कन्येका कृष्णस्य वामपार्श्वतः । धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्षं प्रभोः पदे ॥ तेन राधा समाख्याता पुराविद्भिर्द्विजोत्तम । प्राणाधिष्ठात्री सा देवी कृष्णस्य परमात्मनः ।।

( २५ । २६ । २६ )

अर्थात् परमात्मा कृष्ण से बाएं ब्रज से एक कमनीया स्त्री उत्पन्न

हुई। उसने भगवान् कृष्ण के चरणों को धोकर फूल लाकर अर्घ्य दिया,

विद्वानों ने उसका नाम ( आराधनात् ) राधा कहा है। वह कृष्ण की प्राणादिष्ठात्री देवी थी। प्रत्यत्र कहा है- योगेनात्मा सृष्टिविध द्विधारूपो बभूव सः । पुमांश्च दक्षिणार्द्धाङ्गो वामाङ्गः प्रकृतिः स्मृतः ॥

( ब्रह्म वे० प्रकृ० [सं० आ० १२ श्लो० ६) अर्थात् परमात्मा श्रीकृष्ण सृष्टि रचना के समय दो रूप वाले हो गये । दाहिना आधा अङ्ग पुरुष और बांया अंग प्रकृति रूपा स्त्री हुई। ब्रहावर्त पुराण का यह वर्णन वेद एवं उपनिषदों के द्वारा प्रति- पादित है। जैसे-

स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीय- मैच्छत् स तावानास यथा स्त्रीपुमा सौ संपरिष्वक्तौ
स इममेवात्मानं द्वेधापातयत् ततः पतिश्च पत्नी

चाभवताम् ।

( बृहदारण्यक १।४३ ) अर्थात् उस ब्रह्म ने रमण (सृष्टि उत्पादन रूप खेल) नहीं किया या इस कारण कि वह प्रकेला रमण नहीं करता। उसने दूसरे की इच्छा की। जिस प्रकार परस्पर बालङ्गित स्त्री पुरुष होते हैं, बेसा उसका स्वरूप हो गया। उसने अपने को ही दो भागों में विभक्त कर डाला। वे पति और पत्नी हुवे भगवान् श्रीकृष्ण के वामाङ्ग से श्रीराधा की उत्पत्ति का भाव है कि वे एक से दो अर्थात् पति-पत्नी रूप में हो गये।

मागे प्रकरण को देखिये-

वृषभानोश्च वैश्यस्य सा च कन्या बभूव ह । योनिसम्भवा देवी वायुगर्भा कलावती ॥ सुषुवे मायया वायुं स तत्राविर्बभूव ह । अती द्वादशाब्दे तु दृष्ट्वा तां नवयौवनाम् ॥ सार्धं रायणवैश्येन तत्सम्बन्धं चकार सः । छायां संस्थाप्य तद्गेहे सान्तर्धानमवाप ह || बभूव तस्य वैश्यस्य विवाहश्छायया सह । कृष्ण माता यशोदा या रायणस्तत् सहोदरः ॥ गोलो के गोपकृष्णांशः सम्बन्धात्कृष्णमातुलः ॥ कृष्णेन सह राधायाः पुण्ये वृन्दावने वने । विवाहं कारयामास विधिना जगतां विधिः ॥ ( ब्रह्म बं० [सं० २० ४६ श्लो० ३२ से ४२ )

अर्थात् ब्रजभूमि में अवतार लेने पर वह राधा वषभानु वैश्य की कन्या हुई || २६ ॥ वृषभानु की स्त्री कलावती वायुगर्भा ( जिसके गर्भ में केवल बाबु मात्र थी ) थी उसने वायु प्रसव किया। प्रसव होते ही श्री राधा देवी प्रयोनिजा (गर्भ से उत्पन्न न होने वाली ) प्रकट हो गई। ||३७|| बारह वर्ष व्यतीत होने पर उसके पिता ने उसे नवयुवती होने वाली देख कर रामण वैश्य के साथ उसका सम्बन्ध - सगाई कर  दी ॥ ३८ ॥ किन्तु राधा जी अपने प्रभाव से अपने ही अनुरूप एक 'छाया' नाम की कन्या को उत्पन्न कर और उसे घर में स्थापित कर स्वयं अन्तर्धान हो गई, रायण वैश्य का विवाह उसी 'छाया' नाम की कन्या के साथ हुआ ||३०|| श्रीकृष्ण की धायस्य माता को यशोदा थीं, रागण उनका भाई था। वह गोलोक में गोप कृष्ण का अंश (अर्थात्--- उन कृष्ण के अंश से गोलोक के सृष्टि प्रकरण में जिस प्रकार अन्य अनेक व्यक्तियों की उत्पत्ति हुई थी उसी प्रकार उत्पन्न होने वाला) सखा था। ब्रज में उनकी घाव रूप माता यशोदा का भाई होने के नाते श्रीकृष्ण जी का वह मामा हुधा पवित्र वृन्दावन में श्री ब्रह्मा जी ने कृष्ण जी के साथ श्री राधा जी का विधिपूर्वक दिव्य विवाह कराया ||४०|

उपर के ब्रह्म० पुराण प्रकरण से स्पष्ट है कि रायण वैश्य के साथ दिव्य 'छाया' का विवाह हुआ था और श्रीकृष्ण जी के साथ श्री राधा जी का दिव्य विवाह हुआ। अतः आक्षेपकर्ताओं को राधा जी की श्रीकृष्ण जी की पुत्री, पुत्र वधू व मामी कहना सरासर झूठ है ।

जय जय सीताराम।
माधवाचार्य कृति
पं. राजेश मिश्र "कण"

बलि विधान का अर्थ

 श्रीराम ।

यह बिषय संवेदनशील है।

यह प्रकृति त्रिगुणात्मक है। सत्व रज व तम। जिस जीव के अन्दर जिस गुण की अधिकता रहती है, उसका स्वभाव , संस्कार व आचरण भी वैसा होता है ।

  त्रिगुणानुसार पूजन विधि भी अलग है, निगम व आगम ।

बलि शब्द का अर्थ बिशिष्ट पूजा के लिए है।

निगम व आगम दोनो मे बलि विधान है, किन्तु निगम मे बलि का अर्थ किसी जीव की हत्या करना नही है।

मूलत: शब्दो के अर्थ न समझ पाने के कारण वैदिक भी ऐसा करने लगे है।

अब वेदिक व वाममार्गी दोनो की पद्धति में भिन्नता को देखते है।


देशकाल, परिस्थिति के अनुसार उपलब्धता के अनुसार भोज्य पदार्थ का निर्णय भक्ष्य य अभक्ष्य के रुप मे होता है।

सारी सृष्टि मे जितने भी चर, अचर है, सभी जीव है। व सभी जीव अन्नरुप है। चूकि यह बिषय लम्बा है अतः इसे छोड़कर आगे बढ़ते है।

जीवबलि  वाममार्गी पूजन पद्धति मे विहित है इसलिए वाममार्ग को निन्दित कहा है, । देवी भगवती युद्धक्षेत्र मे  क्रोधयुक्त होकर शत्रुओ का मांसभक्षण करती है रक्तपान करती है, अतः वाममार्गी साधक इसी को आधार मानकर रक्तबलि चढा़ते है। उनका ऐसा मानना है कि इससे देवी शीघ्र प्रसन्न होती है। दुर्गाशप्तशती में क्षत्रियादि के लिए रक्तबलि विधान का निर्देश है, किन्तु ब्राह्मण को वर्जित किया है, ब्राह्मण के लिए कुष्माण्ड बलि लिखा गया है । इस प्रकार वाममार्ग व कुलपरंपरा से बलि विधान होता आया है।

 अब निगम अर्थात वेद के विधान के लिए देखिए।

मांस का अर्थ क्या है?


     शास्त्रों में तथा आयुर्वेद में भी अनेक ऐसे शब्द प्रयुक्त हैं, जिनके अर्थ वर्तमान में सञ्कुचित हो चुके हैं। मांस सम्भोग आदि कुछ ऐसे ही शब्द हैं। प्राचीन पद्धति में शब्दों के अर्थ बहु आयामी होते थे। वैसे ही प्रयुक्त भी होते थे। प्रशंग आदि के आधार पर अर्थ निर्णय हुआ करते हैं। आधुनिक काल में आधुनिक पाश्चात्य शैली से भावित या अपने व्यक्तिगत जीवन के आचरण में ही मुग्ध या अमुक अमुक विषय में लोलुप होने के कारण प्रायः अपने मनोनुकूल, यथा श्रुत, प्रशङ्ग आदि का विचार किये विना ही अर्थ  स्वयं लगा लेते हैं, अन्यों को भी आग्रह पूर्वक वही समझाने का यत्न करते हैं। कभी कभी इसी क्रम में इतने उग्र हो जाते हैं, कि बश चले तो विरोधी को भी भकोस लें।।

   मांस शब्द के भी जन्तु मांस (सृग् उडद आदि अनेक अर्थ हैं। जो मांसाहारी हैं, वे सर्वत्र जन्तु मांस ही अर्थ लेकर शरीर को मोटा करते रहते हैं। जो शास्त्रीय सात्विक बुद्धि वाले हैं, वे प्रकरण आदि तथा अन्य शास्त्र से अविरुद्ध अर्थ लगाकर तदनुरूप ग्रहण या त्याग करते/ कराते हैं।

      यज्ञ इत्यादि वैदिक कर्मों में प्रयुक्त शब्दों/ पदार्थों का स्पष्टीकरण, परिभाषा भी शास्त्रों में ही दी हुई हैं।।अतः शास्त्रीय परिभाषा/ अर्थ ही मान्य होना चाहिए।

देखें शतपथ ब्रा. में मांस का क्या अर्थ किया गया है---


१--#ब्रीहियवौ..#यदा_पिष्टान्यथ_लोमानि_भवन्ति-- (शतपथ.ब्रा.१/२/१/८)।

अर्थ:--ब्रीहि (शालि/धान/ चावल) जब पिष्ट होते हैं ( जब इनका आटा बन जाता है), तब ये #लोम( रोम) होते हैं/ कहलाते हैं।


२--#यदापः_आनयत्यथ_त्वग्_भवति (शत. ब्रा.१/२/१/८)।

 जब वह आटा जल से युक्त होता है, अर्थात् जब उसकी पीठी बनाई जाती है, तब उसे #त्वक् कहते हैं।


३--#यदा_स_यौत्यथ_मांसं_भवति (शत. ब्रा.१/२/१/८)।

जब वह पीठी पका दी जाती है, तब उसे #मांस कहते हैं।


४--#एतद्_ह_वै_परममन्नाद्यं_यन्मांसम् (शत. ब्रा.१/१/७)--

जो यह परम अन्न है, वही निश्चित रूपसे #मांस है।


५--#पृषदाज्यं_सदध्याज्ये_परमान्नं_तु_पायसम्।

#हव्यकव्ये_दैवपित्र्ये_अन्ने_पात्रं_स्रुवादिकम्.।

(अमर को.२/७/२४)--परमान्न तो #पायस (खीर) ही है।। 


६--#यदिमा_आपः_एतानि_मांसानि (शत. ब्रा.७/४/२)--

जो ये जल हैं, वे #मांस  हैं।


७-- 

#तोक्मानि_मांसम् (शत. ब्रा.८/३)--तोक्म मांस है।

८--

#तोक्म_शब्देन_यवा_निरूढा_उच्यन्ते ( कात्यायन सू. कर्क भाष्य १८)-- हरे जौ (यव) को तोक्म कहते हैं। अतः हरे यव मांस हैं।।


९--#तस्य_यन्मांसं_समासोत्तत्_गुग्गुल्वभवत् (ताड्य ब्रा.२४/१३/५)--उस (पादप विशेष) का जो मांस है, वह गुग्गुलु हुआ/ उस मांस से गूग्गुल बनाता है। यहां मांस का अर्थ #गूदा (गोंद/गादु) है।

       इस प्रकार अनेक अर्थों में  मांस शब्द का प्रयोग शास्त्रों में प्रचलित है।।

#ऋषभक नामक एक कन्द  विशेष के उक्षा, गो बृषभ धेनु आदि कई नाम हैं। पर लोलुप लोग अपने च्यवनप्राश में बैल ही डलबायेंगे।।

#अजवाइन को अज, अजा कहते हैं। अब कहीं आयुर्वेद में अजा का उल्लेख हो तो मांसाहारी लोग बकरी ही खायेंगे।। 

#मुनक्के का नाम गो स्तनी है। पर कोई अमुक टाइप का व्यक्ति गोस्तन ही .....

गो से उत्पन्न दूध घृत आदि को गव्य ही कहते हैं।

अजा/छागा (बकरी ) से उत्पन्न दुग्ध घृत आदि को छाग ही कहते हैं।। अब यदि कहीं छाग शब्द आता है, तो मांसाशी लोग सीधे बकरी को ही काट दलाते हैं।।

      वस्तुतः जैसे मनुष्य पशु आदि में  अस्थि मांस मज्जा मेद त्वचा आदि शब्दों का प्रयोग होता है, ठीक उसी प्रकार संस्कृत वाङ्मय में-- 

*बृक्ष आदि के ऊपरी भाग (छाल) को त्वचा , 

*उसके गूदे को मांस, 

*फल की गुठली को अस्थि ,

*गेहूँ आदि के सार भाग को मेद (मैदा),

*बृक्षों की लाख व गोंद को मज्जा", 

      इन नामों से भी कहा जाता है।

    इस प्रकार शास्त्रों में मांस मज्जा मेद आदि शब्द देख कर  सर्वत्र पशु का मांस समझ लेना  देवानां प्रियता/पशुता ही है।

    ऐसे ही वाल्मीकीय रामायण में वन गमन के प्रशङ्ग में श्रीराम  जी माता जानकी से कहते हैं--तुम यहीं महल में रहकर माता कौशल्या की #सम्भोग (सर्वतोभावेन पालन) आदि से सेवा करना।। अब केवल आधुनिक दृष्टि वाला व्यक्ति इसका अर्थ यह करे कि महिला का महिला से संसर्ग (मैथुन) रामायण काल में होता था। तो ऐसे पॉजी के ऊपर दया भी नहीं आयेगी। पादुका प्रहार ही समाधान है।।

पं. राजेश मिश्र "कण"

जय जय सीताराम

अपराजिता स्तोत्र, त्रैलोक्यविजयी अपराजिता स्तोत्र

 



अपराजिता स्तोत्र / त्रैलोक्यविजयी अपराजिता स्तोत्र

 नियम से सावधानी पुर्वक पवित्रावस्था मे पाठ करना चाहिए। पाठ करने का नियम, अपराजिता स्तोत्र की महिमा व लाभ आदि विस्तृत जानकारी पाठ के अन्त मे दी गई है।

सीधे हाथ में जल लेकर विनियोग करे:

विनियोग : ॐ अस्या: वैष्ण्व्या: पराया: अजिताया: महाविद्ध्या: वामदेव-ब्रहस्पतमार्कणडेया ॠषयः।गाय्त्रुश्धिगानुश्ठुब्ब्रेहती छंदासी। लक्ष्मी नृसिंहो देवता। ॐ क्लीं श्रीं हृीं बीजं हुं शक्तिः सकल्कामना सिद्ध्यर्थ अपराजित विद्द्य्मंत्र पाठे विनियोग:। (जल भूमि पर छोड़ दे)


अपराजिता देवी ध्यान 

ॐ निलोत्पलदलश्यामां भुजंगाभरणानिव्तं ।


शुद्ध्स्फटीकंसकाशां चन्द्र्कोटिनिभाननां ।। १।।


शड़्खचक्रधरां देवीं वैष्णवीं अपराजितं ।


बालेंदुशेख्रां देवीं वर्दाभाय्दायिनीं ।। २।।


नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कंडेय महातपा: ।। ३।।


श्री मार्कंडेय उवाच

शृणुष्वं मुनय: सर्वे सर्व्कामार्थ्सिद्धिदाम् ।


असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीं अपराजितम्। । ४। ।


ॐ नमो नारायणाय, नमो भगवते वासुदेवाय,


नमोऽस्त्वनंताय सह्स्त्रिशीर्षायणे, क्षिरोदार्णवशायिने,


शेषभोगपययड़्काय,गरूड़वाहनाय, अमोघाय अजाय अजिताय पीतवाससे,


ॐ वासुदेव सड़्कर्षण प्रघुम्न, अनिरुद्ध, हयग्रीव, मत्स्य, कुर्म, वाराह,


नृसिंह, अच्युत, वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर,राम राम राम ।


वरद, वरद, वरदो भव, नमोस्तुते, नमोस्तुते स्वाहा,


ॐ असुर- दैत्य- यक्ष- राक्षस- भूत-प्रेत- पिशाच- कुष्मांड-


सिद्ध- योगिनी- डाकिनी- शाकिनी- स्क्न्गद्घान,


उपग्रहानक्षत्रग्रहांश्रचान्या हन हन पच पच मथ मथ


विध्वंस्य विध्वंस्य विद्रावय विद्रावय चूणय चूणय शंखेंन


चक्रेण वज्रेण शुलेंन गदया मुसलेन हलेंन भास्मिकुरु कुरु स्वाहा ।


ॐ सहस्त्र्बाहो सह्स्त्रप्रहरणायुध, जय जय, विजय विजय, अजित, अमित, अपराजित, अप्रतिहत,सहत्स्र्नेत्र, ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल, विश्वरूप, बहुरूप, मधुसुदन,महावराह, महापुरुष, वैकुण्ठ, नारायण, पद्द्नाभ, गोविन्द, दामोदर, हृषिकेश, केशव, सर्वसुरोत्सादन, सर्वभूतवशड़्कर, सर्वदु:स्वप्न्प्रभेदन, सर्वयन्त्रप्रभ्जज्न, सर्वनागविमर्दन, सर्वदेवमहेश्वर,सर्व्बन्धविमोक्षण, सर्वाहितप्रमर्दन, सर्वज्वरप्रणाशन, सर्वग्रहनिवारण, सर्वपापप्रशमन, जनार्दंन, नमोस्तुते स्वाहा ।


ॐ विष्णोरियमानुपप्रोकता सर्वकामफलप्रदा ।


सर्वसौभाग्यजननी सर्वभितिविनाशनी । । ५। ।


सवैश्र्च पठितां सिद्धैविष्णो: परम्वाल्लभा ।


नानया सदृशं किन्चिदुष्टानां नाशनं परं। । ६। ।


विद्द्या रहस्या कथिता वैष्ण्व्येशापराजिता ।


पठनीया प्रशस्ता वा साक्शात्स्त्वगुणाश्रया । । ७। ।


ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजं ।


प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये । । ८। ।


अथात: संप्रवक्ष्यामी हृाभ्यामपराजितम् ।


यथाशक्तिमार्मकी वत्स रजोगुणमयी मता । । ९। ।


सर्वसत्वमयी साक्शात्सर्वमन्त्रमयी च या ।


या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता ।


सर्वकामदुधा वत्स शृणुश्वैतां ब्रवीमिते। । १०। ।


य इमां पराजितां परम्वैष्ण्वीं प्रतिहतां


पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्द्यां


जपति पठति श्रृणोति स्मरति धारयति किर्तयती वा


न तस्याग्निवायुवज्रोपलाश्निवर्शभयं


न समुद्रभयं न ग्रह्भयं न चौरभयं


न शत्रुभयं न शापभयं वा भवेत् ।


क्वाचिद्रत्र्यधकारस्त्रीराजकुलविद्वेषी


विषगरगरदवशीकरण विद्वेशोच्चाटनवध बंधंभयं वा न भवेत्।


एतैमर्न्त्रैरूदाहृातै: सिद्धै: संसिद्धपूजितै:। ॐ नमोस्तुते ।


अभये, अनघे, अजिते, अमिते, अमृते, अपरे, अपराजिते, पठत सिद्धे, जयति सिद्धे, स्मरति सिद्धे, एकोनाशितितमे, एकाकिनी, निश्चेतसी, सुद्र्मे, सुगन्धे, एकान्न्शे, उमे, ध्रुवे, अरुंधती, गायत्री, सावित्री, जातवेदसी, मास्तोके, सरस्वती,धरणी, धारणी, सौदामिनी, अदीति, दिति, विनते, गौरी ,गांधारी, मातंगी, कृष्णे , यशोदे, सत्यवादिनी, ब्र्म्हावादिनी, काली ,कपालिनी, कराल्नेत्र, भद्रे, निद्रे, सत्योप्याचकरि, स्थाल्गंत, जल्गंत,अन्त्रख्सिगतं वा माँ रक्षसर्वोप्द्रवेभ्य: स्वाहा।


यस्या: प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि ।


भ्रियते बालको यस्या: काक्बन्ध्या च या भवेत् । । ११। ।


धारयेघा इमां विधामेतैदोषैन लिप्यते।


गर्भिणी जीवव्त्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशय: । । १२। ।


भूर्जपत्रे त्विमां विद्धां लिखित्वा गंध्चंदनैः ।


एतैदोषैन लिप्यते सुभगा पुत्रिणी भवेत् । । १३। ।


रणे राजकुले दुते नित्यं तस्य जयो भवेत् ।


शस्त्रं वारयते हृोषा समरे काडंदारूणे । । १४। ।


गुल्मशुलाक्शिरोगाणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम् । । १५। ।


इत्येषा कथिता विद्द्या अभयाख्या अपराजिता ।


एतस्या: स्म्रितिमात्रेंण भयं क्वापि न जायते । । १६। ।


नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्करा: ।


न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रव: । । १७। ।


यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहा: ।


अग्नेभ्र्यं न वाताच्च न स्मुद्रान्न वै विषात् । । १८। ।


कामणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च ।


उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा । । १९। ।


न किन्चितप्रभवेत्त्र यत्रैषा वर्ततेऽभया ।


पठेद वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा । । २०। ।


हृदि वा द्वार्देशे व वर्तते हृाभय: पुमान् ।


ह्रदय विन्यसेदेतां ध्यायदेवीं चतुर्भुजां । । २१। ।


रक्त्माल्याम्बरधरां पद्दरागसम्प्रभां ।


पाशाकुशाभयवरैरलंकृतसुविग्रहां । । २२। ।


साध्केभ्य: प्र्यछ्न्तीं मंत्रवर्णामृतान्यापि ।


नात: परतरं किन्च्चिद्वाशिकरणमनुतम्ं। । २३। ।


रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा ।


प्रात: कुमारिका: पूज्या: खाद्दैराभरणैरपि ।


तदिदं वाचनीयं स्यातत्प्रिया प्रियते तू मां। । २४। ।


ॐ अथात: सम्प्रक्ष्यामी विद्दामपी महाबलां ।


सर्व्दुष्टप्रश्मनी सर्वशत्रुक्षयड़्करीं । । २५। ।


दारिद्र्य्दुखशमनीं दुभार्ग्यव्याधिनाशिनिं ।


भूतप्रेतपिशाचानां यक्श्गंध्वार्क्षसां । । २६। ।


डाकिनी शाकिनी स्कन्द कुष्मांडनां च नाशिनिं ।


महारौदिं महाशक्तिं सघ: प्रत्ययकारिणीं । । २७। ।


गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वंपार्वतीपते: ।


तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः श्रृणु । । २८। ।


एकाहिृकं द्वहिकं च चातुर्थिकर्ध्मासिकं ।


द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्थ्मासिकं । । २९। ।


पाँचमासिक षाड्मासिकं वातिक पैत्तिक्ज्वरं ।


श्रैष्मिकं सानिपातिकं तथैव सततज्वरं । । ३०। ।


मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरं ।


द्वहिंकं त्रयहिन्कं चैव ज्वर्मेकाहिकं तथा ।


क्षिप्रं नाशयेते नित्यं स्मरणाद्पराजिता। । ३१। ।


ॐ हीं हन हन कालि शर शर गौरि धम धम


विद्धे आले ताले माले गन्थे बन्धे पच पच विद्दे


नाशाय नाशाय पापं हर हर संहारय वा दु:स्वप्नविनाशनी कमलस्थिते


विनायकमात: रजनि संध्ये दुन्दुभिनादे मानसवेगे शड़्खिनी चक्रिणी


गदिनी वज्रिणी शूलिनी अपमृत्युविनाशिनी विश्रेश्वरी द्रविणी


द्राविणी केश्वद्यिते पशुपतिसहिते दुन्दुभिदमनी दुम्मदमनी शबरि


किराती मातंगी ॐ द्रं द्रं ज्रं ज्रं क्रं क्रं तुरु तुरु ॐ द्रं कुरु कुरु ।


ये मां द्विषन्ति प्रत्यक्षं परोक्षं वा तान सर्वान दम दम मर्दय मर्दय तापय तापय गोपय गोपय पातय पातय शोषय शोषय उत्सादय उत्सादय ब्रम्हाणी ब्रम्हाणी माहेश्वरी कौमारि वाराहि नारसिंही एंद्री चामुंडे महालक्ष्मी वैनायिकी औपेंद्री आग्नेयी चंडी नैॠति वायव्ये सौम्ये ऐशानि ऊध्र्व्मधोरक्ष प्रचंद्विद्दे इन्द्रोपेन्द्रभगिनि ।

ॐ नमो देवी  जये विजये शान्ति स्वस्ति तुष्ठी पुष्ठी विवर्द्धिनी कामांकुशे कामदुद्दे सर्वकामवर्प्रदे सर्वभूतेषु माँ प्रियं कुरु कुरु स्वाहा ।

आकर्षणी आवेशनि ज्वालामालिनी रमणी रामणि धरणी धारणी तपनि तापिनी मदनी मादिनी शोषणी सम्मोहिनी।


नीलपताके महानीले महागौरि महाश्रिये ।


महाचान्द्री महासौरी महामायुरी आदित्यरश्मि जाहृवि ।


यमघंटे किणी किणी चिन्तामणि ।


सुगन्धे सुर्भे सुरासुरोत्प्त्रे सर्वकाम्दुद्दे ।


यद्द्था मनिषीतं कार्यं तन्मम सिद्धतु स्वाहा ।


ॐ स्वाहा ।  ॐ भू: स्वाहा ।  ॐ  भुव: स्वाहा ।  ॐ स्व: स्वाहा ।


ॐ मह: स्वाहा ।  ॐ जन: स्वाहा ।  ॐ तप: स्वाहा ।  ॐ सत्यं स्वाहा ।  ॐ भूभुर्व: स्वाहा ।


यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छ्तु स्वाहेत्यों ।


अमोघैषा महाविद्दा वैष्णवी चापराजिता । । ३२। ।


स्वयं विश्नुप्रणीता च सिद्धेयं पाठत: सदा ।


एषा महाबला नाम कथिता तेऽपराजित । । ३३। ।


नानया सदृशी रक्षा त्रिषु लोकेषु विद्दते ।


तमोगुणमयी साक्षद्रोद्री शक्तिरियं मता । । ३४। ।


कृतान्तोऽपि यतोभीत: पाद्मुले व्यवस्थित: ।


मूलाधारे न्यसेदेतां रात्रावेन च संस्मरेत । । ३५। ।


नीलजीतमूतसंड़्काशां तडित्कपिलकेशिकाम् ।


उद्ददादित्यसंकाशां नेत्रत्रयविराजिताम् । । ३६। ।


शक्तिं त्रिशूलं शड़्खं चपानपात्रं च बिभ्रतीं ।


व्याघ्र्चार्म्परिधानां किड़्किणीजालमंडितं । । ३७। ।


धावंतीं गगंस्यांत: पादुकाहितपादकां ।


दंष्टाकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषितां । । ३८। ।


व्यात्वक्त्रां ललजिहृां भुकुटिकुटिलालकां ।


स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पान्पात्रत: । । ३९। ।


सप्तधातून शोषयन्तीं क्रूरदृष्टया विलोकनात् ।


त्रिशुलेन च तज्जिहृां कीलयंतीं मुहुमुर्हु: । । ४०। ।


पाशेन बद्धा तं साधमानवंतीं तन्दिके ।


अर्द्धरात्रस्य समये देवीं ध्यायेंमहबलां । । ४१। ।


यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मंत्रं निशांतके ।


तस्य तस्य तथावस्थां कुरुते सापियोगिनी । । ४२। ।


ॐ बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति ।


अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्णवीं । ।  ४३। ।


श्रीमद्पाराजिताविद्दां    ध्यायते ।


दु:स्वप्ने दुरारिष्टे च दुर्निमिते तथैव च ।


व्यवहारे भवेत्सिद्धि: पठेद्विघ्नोपशान्त्ये । । ४४। ।


यदत्र पाठे जगदम्बिके मया, विसर्गबिन्द्धऽक्षरहीमीड़ितं ।


तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रयान्तु मे, सड़्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायतां । । ४५। ।


ॐ तव तत्वं न जानामि किदृशासी महेश्वरी ।


यादृशासी महादेवी ताद्रिशायै नमो नम: । । ४६। ।




देवी अपराजिता की महिमा, अपराजिता का अर्थ है, जो कभी पराजित नहीं होता। देवी अपराजिता के सम्बन्ध में कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्य भी जानने योग्य है, जैसे की उनकी मूल प्रकृति क्या है? देवी अपराजिता का पुज्नारम्भ तब से हुआ जब देवासुर संग्राम के दौरान नवदुर्गाओ ने दानवों के सम्पूर्ण वंश का नाश कर दिया था,तब माँ दुर्गा अपनी मूल पीठशक्तिओं में से अपनी आदि शक्ति अपराजिता स्तोत्र को पूजने के लिए, शमी की घास लेकर हिमालय में अंतर्ध्यान हो गई।-





 साधना करने से पूर्व पाठ का शुद्ध अभ्यास आवश्यक है जिससे अशुद्धिओं और गलतिओं से कुछ हद तक छुटकारा पाया जा सके हालांकि शत-प्रतिशत शुद्धता ला पाना सर्वसाधारण के वश की बात नही है, किन्तु अल्प अशुद्धियाँ सफलता में बड़ा विघ्न नही है। साथ ही भावयुक्त साधना भी अशुद्धियों को तिरोहित कर देती है। जिससे अधिक अच्छे परिणाम मिल ही जाते है। देवी अपराजिता शक्ति की नौ पीठ शक्तियों में से एक है।


माँ शक्ति की बहुत संहारकारी शक्ति है- अपराजिता, जो कभी पराजित नहीं हो सकती और  अपने साधको को कभी भी पराजय का मुख नही देखने देती है –विषम परिस्थिति में जब भी रास्ते बंद हो उस स्थिति में भी हंसी-खेल में अपने साधको को बचा ले जाना माता अपराजिता के लिए बहुत ही सामान्य बात है। 


अपराजिता स्तोत्र  पाठ की विधि:

अपराजिता स्तोत्र  को निरंतर 40 दिन तक प्रतिदिन तीनों काल पाठ करने से सभी कार्य सफल होते है, अपराजिता स्तोत्र का 1200 पाठ का अनुष्टान करने से स्तोत्र सिद्ध होता है, इसके लिए प्रतिदिन इस स्तोत्र का 120 पाठ, 10 दिन  करना चाहियें। 


पाठ सिद्धि कै लिए, बिशिष्ट मार्गदर्शन गुरुमुख से प्राप्त करे। अथवा पं.राजेश मिश्र "कण" से निवेदन करे


 रात्री के 9 बजे से लेकर 1 बजे के बीच, अपने सामने माँ  काली य दुर्गा की मूर्ति के सामने एक शुद्ध घी का दीपक प्रज्वलित करें और विनियोग कर पाठ आरम्भ करे, स्तोत्र का पाठ शुद्ध व स्पष्ट स्वर से करे, यदि स्वंय पाठ करना सम्भव ना हो, तो  योग्य ब्रम्हाण द्वारा पाठ  कराएँ।


अपराजिता स्तोत्र के लाभ:

जैसा इस स्तोत्र का नाम है, वैसा हि इस स्तोत्र का काम है। त्रैलोक्य विजया अर्थात तीनों लोको में जो पराजित ना होने दे, तीनो लोकों में जो विजय प्रदान करें ऐसा स्तोत्र है, इस स्तोत्र के पाठ से नवग्रह दोष समाप्त हो जाते है, भूत-प्रेत आदि बाधाओं से मुक्ति मिलती है, नकारात्मक शक्तिओं का नाश हो जाता है, मनुष्य की सभी मनोकामना सिद्ध हो जाति है, जाने-अनजाने किये गए या हुए पापों का विनाश हो जाता है, विद्यार्थियो को विद्या प्रदान करता है, नि:सन्तान को सन्तान प्राप्ति के द्वार खुल जाते है। सरकारी कामो में सफलता प्राप्त होती है, किसी भी प्रकार का कोई भय नहीं होता, सभी प्रकार के उपद्रव शांत हो जाते है, शत्रु के द्वारा किये हुए मारण, मोहन, उच्चाटन आदि क्रियाओं को नष्ट कर देने में यह स्तोत्र समर्थ है, ।


सभी प्रकार के विघ्न शांत हो जाते है  इससे दु:स्वप्न भी शांत हो जाते है, सामाजिक मान सम्मान देने भी यह समर्थ है। राज नेताओं को राजनितिक सफलता प्राप्ति के लिए इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। इस स्तोत्र के निरंतर जाप करने से विभिन्न संक्रामक रोग (बर्डफ्लू, सॉर्स, स्वाइनफ्लू, करोनावायरस आदि) से रक्षा होती है तथा अनेक असाध्य रोग (कैंसर, एड्स,हृदय रोग , त्वचा रोग आदि) शांत होते है। 




हनुमान बाहुक

 

श्रीगणेशाय नमः

श्रीजानकीवल्लभो विजयते

श्रीमद्-गोस्वामी-तुलसीदास-कृत

 

 

छप्पय

सिंधु-तरन, सिय-सोच-हरन, रबि-बाल-बरन तनु ।

भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको काल जनु ।।

गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव ।

जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवनसुव ।।

कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट ।

गुन-गनत, नमत, सुमिरत, जपत समन सकल-संकट-विकट ।।१।।

 

 

स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रबि-तरुन-तेज-घन ।

उर बिसाल भुज-दंड चंड नख-बज्र बज्र-तन ।।

पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन ।

कपिस केस, करकस लँगूर, खल-दल बल भानन ।।

कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति बिकट ।

संताप पाप तेहि पुरुष पहिं सपनेहुँ नहिं आवत निकट ।।२।।

 

 

झूलना

पंचमुख-छमुख-भृगु मुख्य भट असुर सुर, सर्व-सरि-समर समरत्थ सूरो ।

बाँकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैजपूरो ।।

जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासुबल, बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो ।

दुवन-दल-दमनको कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रुरो ।।३।।

 

घनाक्षरी

भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन-अनुमानि सिसु-केलि कियो फेरफार सो ।

पाछिले पगनि गम गगन मगन-मन, क्रम को न भ्रम, कपि बालक बिहार सो ।।

कौतुक बिलोकि लोकपाल हरि हर बिधि, लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो।

बल कैंधौं बीर-रस धीरज कै, साहस कै, तुलसी सरीर धरे सबनि को सार सो ।।४।।

 

भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज, गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो ।

कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर, बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो ।।

बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि, फलँग फलाँग हूँतें घाटि नभतल भो ।

नाई-नाई माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जोहैं, हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ।।५

 

 

गो-पद पयोधि करि होलिका ज्यों लाई लंक, निपट निसंक परपुर गलबल भो ।

द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ।।

संकट समाज असमंजस भो रामराज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।

साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बाँह, लोकपाल पालन को फिर थिर थल भो ।।६

 

 

कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो, नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो ।

जातुधान-दावन परावन को दुर्ग भयो, महामीन बास तिमि तोमनि को थल भो ।।

कुम्भकरन-रावन पयोद-नाद-ईंधन को, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो ।

भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान, सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ।।७

 

 

दूत रामराय को, सपूत पूत पौनको, तू अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो ।

सीय-सोच-समन, दुरित दोष दमन, सरन आये अवन, लखन प्रिय प्रान सो ।।

दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो, प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो ।

ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान, साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ।।८

 

 

दवन-दुवन-दल भुवन-बिदित बल, बेद जस गावत बिबुध बंदीछोर को ।

पाप-ताप-तिमिर तुहिन-विघटन-पटु, सेवक-सरोरुह सुखद भानु भोर को ।।

लोक-परलोक तें बिसोक सपने न सोक, तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को ।

राम को दुलारो दास बामदेव को निवास, नाम कलि-कामतरु केसरी-किसोर को ।।९।।

 

महाबल-सीम महाभीम महाबान इत, महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को ।

कुलिस-कठोर तनु जोरपरै रोर रन, करुना-कलित मन धारमिक धीर को ।।

दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को, सुमिरे हरनहार तुलसी की पीर को ।

सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को, सेवक सहायक है साहसी समीर को ।।१०।।

 

रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि, हर मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो ।


धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को, सोखिबे कृसानु, पोषिबे को हिम-भानु भो ।।

खल-दुःख दोषिबे को, जन-परितोषिबे को, माँगिबो मलीनता को मोदक सुदान भो ।

आरत की आरति निवारिबे को तिहुँ पुर, तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो ।।११।।

 

 

सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि, सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को ।

देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ, बापुरे बराक कहा और राजा राँक को ।।

जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद, ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को ।

सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ-तहाँ ताहि, जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को ।।१२।।

 

 

सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि, लोकपाल सकल लखन राम जानकी ।

लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि, तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ।।

केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब, कीरति बिमल कपि करुनानिधान की ।

बालक-ज्यों पालिहैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको, जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की ।।१३।।

 

 

करुनानिधान, बलबुद्धि के निधान मोद-महिमा निधान, गुन-ज्ञान के निधान हौ ।

बामदेव-रुप भूप राम के सनेही, नाम लेत-देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ।।

आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील, लोक-बेद-बिधि के बिदूष हनुमान हौ ।

मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार, तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ।।१४।।

 

 

मन को अगम, तन सुगम किये कपीस, काज महाराज के समाज साज साजे हैं ।

देव-बंदी छोर रनरोर केसरी किसोर, जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं ।

बीर बरजोर, घटि जोर तुलसी की ओर, सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे हैं ।

बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं, जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं ।।१५।।

 

 

सवैया

जान सिरोमनि हौ हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो ।

ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो ।।

साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहाँ तुलसी को न चारो ।

दोष सुनाये तें आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तौ हिय हारो ।।१६।।

 

 

तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे घर घाले ।

तेरे निवाजे गरीब निवाज बिराजत बैरिन के उर साले ।।

संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले ।

बूढ़ भये, बलि, मेरिहि बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ।।१७।।

 

सिंधु तरे, बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवा से ।

तैं रनि-केहरि केहरि के बिदले अरि-कुंजर छैल छवा से ।।

तोसों समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से ।

बानर बाज ! बढ़े खल-खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवा-से ।।१८।।

 

अच्छ-विमर्दन कानन-भानि दसानन आनन भा न निहारो ।

बारिदनाद अकंपन कुंभकरन्न-से कुंजर केहरि-बारो ।।

राम-प्रताप-हुतासन, कच्छ, बिपच्छ, समीर समीर-दुलारो ।

पाप-तें साप-तें ताप तिहूँ-तें सदा तुलसी कहँ सो रखवारो ।।१९।।

 

घनाक्षरी

जानत जहान हनुमान को निवाज्यौ जन, मन अनुमानि बलि, बोल न बिसारिये ।

सेवा-जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी, साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये ।।

अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति, मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये ।

साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के, बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये ।।२०।।

 

 

बालक बिलोकि, बलि बारेतें आपनो कियो, दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये ।

रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल, आस रावरीयै दास रावरो बिचारिये ।।

बड़ो बिकराल कलि, काको न बिहाल कियो, माथे पगु बलि को, निहारि सो निवारिये ।

केसरी किसोर, रनरोर, बरजोर बीर, बाँहुपीर राहुमातु ज्यौं पछारि मारिये ।।२१।।

 

 

उथपे थपनथिर थपे उथपनहार, केसरी कुमार बल आपनो सँभारिये ।

राम के गुलामनि को कामतरु रामदूत, मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये ।।

साहेब समर्थ तोसों तुलसी के माथे पर, सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये ।

पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर, मकरी ज्यौं पकरि कै बदन बिदारिये ।।२२।।

 

राम को सनेह, राम साहस लखन सिय, राम की भगति, सोच संकट निवारिये ।

मुद-मरकट रोग-बारिनिधि हेरि हारे, जीव-जामवंत को भरोसो तेरो भारिये ।।

कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम-पब्बयतें, सुथल सुबेल भालू बैठि कै बिचारिये ।

महाबीर बाँकुरे बराकी बाँह-पीर क्यों न, लंकिनी ज्यों लात-घात ही मरोरि मारिये ।।२३।।

 

 

लोक-परलोकहुँ तिलोक न बिलोकियत, तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये ।

कर्म, काल, लोकपाल, अग-जग जीवजाल, नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये ।।

खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर, तुलसी सो देव दुखी देखियत भारिये ।

बात तरुमूल बाँहुसूल कपिकच्छु-बेलि, उपजी सकेलि कपिकेलि ही उखारिये ।।२४।।

 

करम-कराल-कंस भूमिपाल के भरोसे, बकी बकभगिनी काहू तें कहा डरैगी ।

बड़ी बिकराल बाल घातिनी न जात कहि, बाँहूबल बालक छबीले छोटे छरैगी ।।

आई है बनाइ बेष आप ही बिचारि देख, पाप जाय सबको गुनी के पाले परैगी ।

पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपिकान्ह तुलसी की, बाँहपीर महाबीर तेरे मारे मरैगी ।।२५।।

 

 

भालकी कि कालकी कि रोष की त्रिदोष की है, बेदन बिषम पाप ताप छल छाँह की ।

करमन कूट की कि जन्त्र मन्त्र बूट की, पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँह की ।।

पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि, बाबरी न होहि बानि जानि कपि नाँह की ।

आन हनुमान की दुहाई बलवान की, सपथ महाबीर की जो रहै पीर बाँह की ।।२६।।

 

 

सिंहिका सँहारि बल, सुरसा सुधारि छल, लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है ।

लंक परजारि मकरी बिदारि बारबार, जातुधान धारि धूरिधानी करि डारी है ।।

तोरि जमकातरि मंदोदरी कढ़ोरि आनी, रावन की रानी मेघनाद महँतारी है ।

भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर, कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है ।।२७।।

 

तेरो बालि केलि बीर सुनि सहमत धीर, भूलत सरीर सुधि सक्र-रबि-राहु की ।

तेरी बाँह बसत बिसोक लोकपाल सब, तेरो नाम लेत रहै आरति न काहु की ।।

साम दान भेद बिधि बेदहू लबेद सिधि, हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की ।

आलस अनख परिहास कै सिखावन है, एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की ।।२८।।

 

 

टूकनि को घर-घर डोलत कँगाल बोलि, बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है ।

कीन्ही है सँभार सार अँजनी कुमार बीर, आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है ।।

इतनो परेखो सब भाँति समरथ आजु, कपिराज साँची कहौं को तिलोक तोसो है ।

सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास, चीरी को मरन खेल बालकनि को सो है ।।२९।।

 

 

आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें, बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है ।

औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये, बादि भये देवता मनाये अधिकाति है ।।

करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल, को है जगजाल जो न मानत इताति है ।

चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत, ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ।।३०।।

 

 

दूत राम राय को, सपूत पूत बाय को, समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को ।

बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत, रावन सो भट भयो मुठिका के घाय को ।।

एते बड़े साहेब समर्थ को निवाजो आज, सीदत सुसेवक बचन मन काय को ।

थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को, कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को ।।३१।।

 

 

देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग, छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं ।

पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाम, राम दूत की रजाइ माथे मानि लेत हैं ।।

घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग, हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं ।


क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को, सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं ।।३२।।

 

 

तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों, तेरे घाले जातुधान भये घर-घर के ।

तेरे बल रामराज किये सब सुरकाज, सकल समाज साज साजे रघुबर के ।।

तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत, सजल बिलोचन बिरंचि हरि हर के ।

तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीसनाथ, देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के ।।३३।।

 

पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये न, कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये ।

भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष, पोषि तोषि थापि आपनी न अवडेरिये ।।

अँबु तू हौं अँबुचर, अँबु तू हौं डिंभ सो न, बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये ।

बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि, तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये ।।३४।।

 

 

घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है ।

बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष धूम-मूल मलिनाई है ।।

करुनानिधान हनुमान महा बलवान, हेरि हँसि हाँकि फूँकि फौजैं ते उड़ाई है ।

खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है ।।३५।।

 

सवैया

राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो ।

पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ।।

बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो ।

श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो ।।३६।।

 

घनाक्षरी

काल की करालता करम कठिनाई कीधौं, पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे ।

बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन, सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे ।।

लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि, सींचिये मलीन भो तयो है तिहुँ तावरे ।

भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान, जानियत सबही की रीति राम रावरे ।।३७।।

 

 

पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुँह पीर, जरजर सकल पीर मई है ।

देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहि पर दवरि दमानक सी दई है ।।

हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारेही तें, ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है ।

कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि, हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है ।।३८।।

 

 

बाहुक-सुबाहु नीच लीचर-मरीच मिलि, मुँहपीर केतुजा कुरोग जातुधान हैं ।

राम नाम जगजाप कियो चहों सानुराग, काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान हैं ।।

सुमिरे सहाय राम लखन आखर दोऊ, जिनके समूह साके जागत जहान हैं ।

तुलसी सँभारि ताड़का सँहारि भारि भट, बेधे बरगद से बनाइ बानवान हैं ।।३९।।

 

 

बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो, राम नाम लेत माँगि खात टूकटाक हौं ।

परयो लोक-रीति में पुनीत प्रीति राम राय, मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हौं ।।

खोटे-खोटे आचरन आचरत अपनायो, अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं ।

तुलसी गुसाँई भयो भोंडे दिन भूल गयो, ताको फल पावत निदान परिपाक हौं ।।४०।।

 

 

असन-बसन-हीन बिषम-बिषाद-लीन, देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को ।

तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो, दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को ।।

नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो, बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को ।

ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस, फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को ।।४१।।

 

 

जीओं जग जानकी जीवन को कहाइ जन, मरिबे को बारानसी बारि सुरसरि को ।

तुलसी के दुहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँउ, जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को ।।

मोको झूटो साँचो लोग राम को कहत सब, मेरे मन मान है न हर को न हरि को ।

भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत, सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को ।।४२।।


सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित, हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै ।

मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय, तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै ।।

ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की, समाधि कीजे तुलसी को जानि जन फुर कै ।

कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ, रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कै ।।४३।।

 

कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों, कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये ।

हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई, बिरची बिरञ्ची सब देखियत दुनिये ।।

माया जीव काल के करम के सुभाय के, करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये ।

तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहि, हौं हूँ रहों मौनही बयो सो जानि लुनिये ।।४४।।


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संपुर्ण बजरंग बाण


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पूजा व मंत्र जप का सही तरीका

मंत्र सिद्धादि शोधन 

मंत्र शोधन के अपवाद 

 मंत्र ऋण धन शोधन विधि 

आयु व मंत्र के प्रकार किस आयु मे कौन सा मंत्र जपना चाहिए  

पूजा पाठ तरने वाले दुखी क्यो रहते है?

मंत्र सिद्धि के उपाय व लक्षण

क्या यज्ञोपवीत के बाद दुसरू शिक्षा लेनी चाहिये







यज्ञोपवीत दीक्षा के बाद भी गुरु दीक्षा आवश्यक है

 श्रीराम ।

एक जिज्ञासा:-विप्र को यज्ञोपवित संस्कार के समय गुरुदीक्षा हो जाती है।तो क्या बाद में भी वैष्णव परंपरा आदि संतों से दीक्षित होना चाहिए??कृपया शास्त्र सम्वत आज्ञा से जिज्ञासा शांत करने की कृपा करें। एक जिज्ञासु🙏🏻🙏🏻


पं.राजेश मिश्र 'कण' का उत्तर

*यथा सिंहम द्रष्टवा भीतो याति वने गजः अधिक्षीतो अर्चये लिंग तथा भीतो महेश्वरी ।।*


जिस प्रकार हाथी  वन में सिंह को देखकर भय भीत होता है। उसी प्रकार अदिक्षित व्यक्ति भवअरण्य में भय से

कांपता है यानि गुरु के बगैर शिष्य का भव भय मुक्त होना

असंभव है।

  


दीयते च शिव ज्ञानम क्षीयते पाश बंधनम स्मादातः समाख्याता दिक्षेतियंम विचक्षणैः । 


दीक्षा का अर्थ है :-


दीयते लिंग समधः क्षीयते मलत्रयम दीयते क्षीयते तस्मात् सा दिक्षेती निगद्यते ।।


 अगर हम दीक्षा शब्द को देखें तो इसमें दो व्यंजन और दो स्वर मिले हुए हैं। -

 "द'

'ई'


"क्ष"


"आ"


द का अर्थ-


"द" का अर्थ है दमन है।  इन्द्रियों का निग्रह मन का निग्रह का नाम दमन है।


ई का अर्थ-


"ई" का अर्थ ईश्वर उपासना है। विषयातीत मानसिक बुद्धि को गुरु और शास्त्र के द्वारा बतायी हुई विधि के अनुसार परमात्मा में एक ही भाव से स्थिर रखने का नाम ईश्वर उपासना है।


"क्ष" का अर्थ-


"क्ष" का अर्थ क्षय करना है। उपासना करते करते जब हमारी मनोस्थिति परमात्मा में लीन होने लगती है उस क्षण में जो वासना जलकर नष्ट होती है, उसे क्षय कहते हैं।


आ का अर्थ-


"आ" का अर्थ आनंद है। मन, बुद्धि, चित्त आदि के विषय काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, इन सभी विकारों का अवकाश जब हमारे जीवन में होने लगता है और अंतःकरण में दिव्य चेतना का प्रकाश होते ही प्रसन्नता, समता, प्रेम प्रकट होने लगता है, उस क्षण का नाम आनंद है। जब हमारा जीव भाव, परमात्मा भाव में परिणित होता है, उस अवस्था का नाम आनंद है, जो शब्द का नहीं अनुभव का विषय होता है।


*उपनयनसंस्कार में गुरुदीक्षा हो जाती है, तो क्या पुन: किसी दीक्षा की आवश्यकता है?*

*शाश्त्रो में चौसठ प्रकार की दीक्षा का वर्णन है। 

*जबकि मूलरुप से तीन प्रकार की दीक्षा कही गई है।

*इस का प्रमाण सिद्धांत शिखामणि में  श्लोक स्पष्ट है-

*सादीक्षा त्रिविधाप्रोक्ता शिवागम विशारदैः वैधारूपा क्रियारूपा मंत्ररूपा च तापस ।।*

मलत्रय (अशुद्ध से जीव ) को नाश (बंधन मुक्त ) करके लिंगय (शुद्ध शिव) सम्बन्ध बनना ही दीक्षा है। दीक्षा तिन प्रकार है १) वेध दीक्षा- सिद्ध गुरु द्वारा समर्थ शिष्य में शक्तिपात द्वारा षटचक्रो का वेधन किया जाता है।

 २) मंत्र दीक्षा - गुरु द्वारा  शिष्य के कल्याण के लिए योग्य मंत्र का अभ्यास कराना मंत्र दीक्षा है।

 ३) क्रिया दीक्षा -योगादि 

इस प्रकार ये मूल तीन दीक्षा है, इसके अतिरिक्त संप्रदाय बिशेष से भिन्नता मिलती है। जन्मसे मृत्युपर्यन्त तकदीक्षा का विधान है ।

यथा-

वीरशैवस्थितानाम च स्त्रीणानं गर्भाष्टमे गुरुः पंचसूत्रकत लिंगं धारयेत विधि वच्छुभम ।।


स्वयंभू अागम में जन्म दीक्षा के विषय पर य श्लोक है-


इति बध्वा चेष्टलिंग प्रतिक्षेत शिशोर्जनिम संस्कुर्यत्तनयम जातकर्मणा जननात्परम ।।


जात कर्म करते समय यह लिंग दीक्षा जन्म दीक्षा कहलाता है। शिशु के जन्म होते ही जब तक जन्म दीक्षा धारण नही किया जाता है तब तक शिशु को माँ में अपना दूध नहीं पिलाती। इस कारण जन्म के पश्यात २ घंटे के अंदर शिशु को जन्म दीक्षा धारण कराया जाता है।


*उपनयन मे प्राप्त दीक्षा गायत्री , यज्ञ,पूजन व शिक्षा की अधिकारी बनाती है। किन्तु सैकडो प्रकार की कामनाओ के लिए, कुल परंपरा के निर्वाह के लिए, अध्यात्मिक व सामाजिक उन्नति के लिए सद्गति की प्राप्ति के लिए अलग से दीक्षा का विधान है ।* इन बिषयो का बिस्तृत अध्ययन करने के उपरांत पं.राजेश मिश्र 'कण' का यह विचार है कि

*अपने कुलगुरु के कुल से ही, योग्य ब्राह्मण  गुरु हेतु निवेदन करे ।किन्तु यदि योग्य व सदाचारी न मिलने पर अन्य किसी योग्य विद्वान सदाचारी ब्राह्मण से दीक्षा का विनम्र निवेदन करना चाहिए।

 जय जय सीताराम ।

 

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पूजा व मंत्र जप का सही तरीका

मंत्र सिद्धादि शोधन 

मंत्र शोधन के अपवाद 

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आयु व मंत्र के प्रकार किस आयु मे कौन सा मंत्र जपना चाहिए  

पूजा पाठ तरने वाले दुखी क्यो रहते है?

मंत्र सिद्धि के उपाय व लक्षण

क्या यज्ञोपवीत के बाद दुसरू शिक्षा लेनी चाहिये






नाड़ी दोष संपुर्ण शास्त्रीय चिन्तन



नाड़ी दोष संपुर्ण शास्त्रीय चिन्तन

पं.राजेश मिश्र "कण" भास्कर ज्योतिष्य अनुसंधान केन्द्र बरईपुर आजमगढ़।

भारतीय सनातन परम्परामे विवाह चतुर्पुरुषार्थ सिद्धि के लिए अनिवार्य व्यवस्था है।

 विवाह पूर्व वर एवं बधू के जन्मनक्षत्रों का ज्योतिषीय विधि से विविध प्रकार का परीक्षण किया जाता है जिसे हम मेलापक, आनुकूल्य या प्रीति कहते हैं। विवाह मेलापक में विविध स्थानो पर क्षेत्रिय व्यवस्था के अनुसार  विविध प्रकार के कूटों का अनुप्रयोग किया जाता है जिनकी संख्या 8, 10, 12, 18, 20, 23 अब तक के व्यक्तिगत शोध अध्ययन से यह ज्ञात हुआ है कि विवाह में समवेत रूप से अधिकतम 23 प्रकार के मेलापक का विचार विवाह पूर्व वर एवं वधू में किया जाता है किन्तु इन सबका प्रयोग सम्बन्धित क्षेत्रों तक ही सीमित है तथा विशेष परिस्थितियों में इनका प्रयोग किया जाता है। जिसमे 4 मेलापक राशि से, 1 मेलापक ग्रह से, 16 मेलापक नक्षत्रों से, तथा आयु एवं शक्ति (प्रेम मेलापक से करते हैं। प्रश्नमार्ग में है -



*चत्वारिभिर्भपेनैकं सक्त्या च वयसोडुभिः ।

शोडषेत्यनुकूलानां त्रयोविंशतिरीरिता ।।*


इन विविध कूटों के होते हुये भी सम्पूर्ण ज्योतिष वाङ्मय में अष्ट कूटों की ही प्राधानता स्वीकार है। इन सभी कूटों में भी नाडी कूट का विशेष महत्व है क्योंकि ब्रह्मा ने इस स्त्रियों के मंगलसूत्र की तरह बनाया है जिस प्रकार स्त्रियों के कण्ठ में आजीवन पर्यन्त सर्वदा मंलगसूत्र विराजमान रहता है उसी प्रकार विविध कूटों में प्रधान रूप से नाडी कूट विराजमान रहता है -


*नाडीकूटं तु संग्राह्यं कूटानां तु शिरोमणिः ।

ब्रह्मणा कन्यकाकण्ठसूत्रत्वेन विनिर्मितम् ।।*


अतः सभी कूटों में नाडी कूट का अवश्य ही विचार करना चाहिये। प्रायः सभी ग्रन्थों में अश्विन्यादि क्रम से आदि मध्य एवं अन्त्य नाडी का ही उल्लेख प्राप्त होता है तथा दैवज्ञ लोग भी इसी त्रिनाडी का प्रयोग विवाह मेलापक में करते हैं किन्तु शास्त्रीय गन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि इसके अतिरिक्त भी और दो प्रकार का नाडी कूट होता है । जिसका सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करना चाहिये। प्रथम है त्रिनाडी, द्वितीय है चतुर्नाडी तथा तृतीय है पंचनाड़ी। इस सभी प्रकार के नाडी कूटों का हम विशेष रूप से वर्णन क्रमशः करेंगे।


त्रिनाड़ी कूट -

त्रिनाडी कूट का ही सर्वत्र प्रचार एवं प्रसार दिखाई देता है। क्योंकि यह ज्ञान विधि में अत्यन्त सरल एवं सहज है समाज में यह देखा जाता है कि जो वस्तु सरल है उसी का प्रयोग प्रायः सभी लोग करते हैं जैसे विंशोत्तरी दशा। दशायें तो बहुविध है किन्तु सरल एवं सहज होने के कारण प्रायः सर्वत्र इसी का प्रयोग लोग करते हैं। वराहमिहिर ने भी विंशोत्तरी दशा का उल्लेख नहीं किया है। उन्होनें ग्रहानीत आयु को ही ग्रह दशा प्रमाण स्वीकार्य किया है। त्रिनाडी कूट का सम्बन्ध जीवन दायी श्वास एवं प्रश्वास से है । आयुर्वेद शास्त्र में प्रतिपादित इडा पिंगला सुषुम्ना नाडी का प्रयोग किया जाता है जिसके प्रतिकूल होने पर शरीर में विभिन्न प्रकार की व्याधियां उत्पन्न होती है। अतः यदि वरवधू के जन्म नक्षत्र जन्य नाडीयों में भी प्रतिकूलता होती है तो विवाह अशुभ होता है। त्रिनाडी कूट में आदि मध्य एवं अन्त्य तीन प्रकार के नक्षत्रों का विभाजन क्रमशः अश्विन्यादि क्रम से सर्पाकार स्वरूप में किया जाता है। जैसा कि अधोलिखित चक्र से स्पष्ट है।


त्रिनाडी चक्र -

आदि अश्विनी आद्र्रा पुनर्वसु उ0 फा0 हस्त ज्येष्ठा मूल शतभिषा पू0भा0

मध्य भरणी मृगशिरा पुष्य पू0 फा0 चित्रा अनुराधा पू0 षा0 धनिष्ठा उ0 भा0

अन्त्य कृत्तिका रोहिणी आश्लेषा मघा स्वाती विशाखा उ0 षा0 श्रवण रेवती

उपर्युक्त चक्र के आधार पर किसी की भी नाडी सरलता से जानी जा सकती है यदि किसी का जन्म नक्षत्र आद्र्रा है तो उसकी नाडी आदि होगी। इसी प्रकार अन्य का भी जानना चाहिये। नाडी कूट मिलान में यदि वर एवं वधू की एक ही नाडी हो जाये तो अनिष्ट करने वाली होती है यदि दोनों का जन्मनक्षत्र आदि नाडी में पडे तो पति पत्नी का परस्पर वियोग होता है। यदि दोनों की मध्य नाडी हो तो वर एवं वधू दोनों को मृत्यु तुल्य कष्ट या मृत्यु होती है तथा यदि दोनों की अन्त्यैक नाडी हो जाये तो वैधव्य एवं दुःख करने वाली नाडी होती है। इसी प्रकार मेलापक में नाडी कूट का विचार किया जाता है। यदि दोनों की नाडी भिन्न हो जाये तो किसी प्रकार का दोष नही होता है और वैवाहिक जीवन सुखमय व्यतीत होता है। जैसे पुरूष की नाडी आदि तथा स्त्री की नाडी अन्त्य या मध्य या पुरूष की नाडी मध्य कन्या की अन्त्य या आदि हो । वराह वचन है -


आद्यैकनाडी कुरूते वियोगं मध्याख्यनाड्यमुभयोर्विनाशः ।

अन्त्या च वैधव्यमतीवदुःखं तस्माच्च तिस्रः परिवर्जनीयाः ।।


इसी प्रकार त्रिनाडी कूट का विचार विवाह में किया जाता है किन्तु सूक्ष्म अध्ययन से यह पता चलता है कि जिस पुरुष या स्त्री का जन्म नक्षत्र के चारों चरण एक ही राशि में हो केवल उसी के लिये त्रिनाडी चक्र का विचार करना चाहिये । जैसे अश्विनी एवं भरणी नक्षत्र का चारों चरण मेष राशि में होता है। इसी प्रकार रोहिणी, आद्र्रा, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पू.फा. हस्त, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, श्रवण, शतभिषा, उ.भा., रेवती नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातकों का ही त्रिनाडी चक्र से विचार किया जाता है अन्य नक्षत्रोत्पन्न जातकों का नहीं क्योंकि इन नक्षत्रों के चारों चरण एक ही राशि में पडते हैं। प्रमाण है कि -


चतुस्त्रिद्वयङ्घ्रिभोत्थायाः कन्यायाः क्रमशोऽश्विभात् ।

वह्निभादिन्दुभान्नाडी त्रिचतुःपंचपर्वसु ।।


चतुर्नाडी कूट -

जिस प्रकार विवाह मेलापक में त्रिनाडी कूट का विचार किया जाता है उसी प्रकार भिन्न नक्षत्रों में उत्पन्न जातकों के लिये चतुर्नाडी का प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार त्रिनाडी कूट से तीन प्रकार के नक्षत्रों का विभाजन होता है ठीक उसी प्रकार चतुर्नाडी में 28 नक्षत्रों का विभाजन चार प्रकार से किया जाता है। उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि जिस जातक का जन्म तीन चरणों वाले नक्षत्रों में हो उसी के लिये चतुर्नाडी कूट का विचार करना चाहिये। चतुर्नाडी कूट का चक्र इस प्रकार बनता है। जैसे अश्विनी नक्षत्र के चारों चरण मेष राशि में होने से त्रिनाडी कूट का प्रारम्भ अश्विनी से होता है ठीक उसी प्रकार नक्षत्रमाला में जिस प्रथम नक्षत्र का तीनों चरण एक ही राशि में पड़ता हो उससे ही चतुर्नाडी कूट का प्रारम्भ होता है। जैसे सर्वप्रथम कृत्तिका नक्षत्र का तीनों चरण वृष राशि में होने से चतुर्नाडी कूट का प्रारम्भ कृत्तिका से होता है। चक्र इस प्रकार है


-कृत्तिका मघा पू. फा. ज्येष्ठा मूल श्रवण धनिष्ठा

रोहिणी आश्लेषा उ.फा. अनुराधा पूर्वाषाढा उ.भाद्रपद रेवती

मृगशिरा पुष्य हस्त विशाखा उत्तराषाढा पूर्वा भाद्रपद अश्विनी

आद्र्रा पुनर्वसु चित्रा स्वाती अभिजित् शतभिषा भरणी

जिस प्रकार त्रिनाडी चक्र में वर एवं वधू दोनों का जन्म नक्षत्र एक नाडी में पड़ने से अनिष्ट कारक होता है उसी प्रकार चतुर्नाडी कूट में भी वर एवं वधू दोनों का जन्म नक्षत्र एक नाडी में हो तो अनिष्ट कारक होता है। यह चतुर्नाडी विचार सूक्ष्म रूप से उन जातकों के लिये किया जाता है जिन जातकों का जन्म नक्षत्र तीन चरणों वाला हो अर्थात् जिन नक्षत्रों का तीनों चरण एक ही राशि में पड़ता हो। इस प्रकार कृत्तिका, पुनर्वसु, उ.फा., विशाखा, उत्तराषाढा, पूर्वा भाद्रपद नक्षत्रों में जन्मे जातकों के लिये ही चतुर्नाडी कूट का प्रयोग किया जाता है। पुनश्च देश भेद से अहल्या क्षेत्रों में (दिल्ली के आस पास स्थित कुरूदेश का समवर्ती प्रदेश उत्पन्न हुये वर एवं वधू के लिये विशेष रूप से चतुर्नाडी का प्रयोग करना चाहिये ऐसा शास्त्रवचन प्रमाण है क्योकि ज्योतिष शास्त्र को बिना शास्त्रप्रमाण से कहने वाले लोगों को ब्रह्म हत्या का दोष लगता है। अतः उपरोक्त दोनों विधि से जन्म लेने वाले पुरूष एवं स्त्री के लिये चतुर्नाडी का प्रयोग करना चाहिये। एक नाडी से भिन्न नाडी में विवाह शुभ होता है ।


*चतुर्नाडी त्वहल्यायां पांचाले पंचनाडीका ।

त्रिनाडी सर्वदेशेषु वर्जनीया प्रयत्नतः ।।*


पंचनाडी कूट -

त्रिनाडी कूट एवं चतुर्नाडी कूट की तरह ही पंच नाडी कूट का प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार त्रिनाडी कूट में नक्षत्रों को तीन भागों मे बांटा गया था और चतुर्नाडी कूट में चार भागों में बाटा गया था ठीक उसी प्रकार पंचनाडी कूट में नक्षत्रों का पांच भागों में बांटकर वर्गीकरण किया गया है। पूर्वोक्त श्लोक से स्पष्ट है कि जिस नक्षत्र को दो चरण एक ही राशि में पडते हो उसी नक्षत्र से पंच नाड़ी की गणना प्रारम्भ की जाती है। जैसे नक्षत्रमाला में सर्वप्रथम मृगशिरा नक्षत्र का दो चरण एक ही राशि में पडता है अतः पंच नाडी कूट का गणना भी मृगशिरा से प्रारम्भ किया जाता है । पंचनाड़ी कूट का चक्र इस प्रकार है -


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मृगशिरा हस्त चित्रा श्रवण धनिष्ठा रोहिणी

आद्र्रा उ.फा. स्वाती उ. षा. शतभिषा कृत्तिका

पुनर्वसु पू.फा. विशाखा पू. षाढा पूर्वाभाद्रपद भरणी

पुष्य मघा अनुराधा मूल उत्तराभाद्रपद अश्विनी

आश्लेषा > ज्येष्ठा > रेवती >

इस प्रकार से पंचनाड़ी कूट का विभाजन किया जाता है जिस प्रकार त्रिनाड़ी एवं चतुर्नाड़ी में एक ही नाड़ी में वर एवं वधू के जन्म नक्षत्र होने से अनिष्टकर होता है ठीक उसी प्रकार पंचनाड़ी में भी एक ही नाड़ी में दोनों के जन्म नक्षत्र होने से नाडी कूट अनिष्टकर होता है भिन्न नक्षत्र होने से विवाह शुभ होता है। जिस वर एवं वधू का जन्म दो चरणों वाले नक्षत्रों में हो केवल उन्हीं के लिये पंच नाडी कूट का प्रयोग करना चाहिये जैसे मृगशिरा, चित्रा, एवं धनिष्ठा में जन्म लेने वाले जातको के लिये पंच नाड़ी कूट का प्रयोग करना चाहिये तथा चश्देश भेद से भी पंच नाडी का प्रयोग क्षेत्र विशेष में करना चाहिये उपर्युक्त वचन से स्पष्ट है कि पंचनाडी का प्रयोग केवल पांचाल देश (आधुनिक रूहेलखण्ड में उत्पन्न वर एवं वधू के लिये करना चाहिये अन्य देशोत्पन्न जातकों के लिये नहीं करना चाहिये। केवल इन दोनों परिस्थितियों में ही पंच नाड़ी का प्रयोग करना चाहिये। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्रीय शोध विश्लेषण के आधार पर विभिन्न परिस्थितियों विभिन्न नाडी कूट का प्रयोग करना चाहिये ऐसा ज्योतिष शास्त्र का निर्देश है ।


सर्वनाडी कूट परिहार -

विवाह मेलापक मे नाड़ी कूट की महत्ता को स्वीकार्य करते हुये अनुकूल मिलान होने पर इसे सर्वोत्तम अंक 8 प्रदान किया गया है तथा यदि वर एवं वधू दोनों का प्रतिकूल नाड़ी कूट मिलान होने पर 0 अंक प्रदान किया जाता है। ऐसी परिस्थिति में नाडी कूट के दोष से बचने के लिये हमें विविध प्रकार के परिहारों की आवश्यकता पड़ती है जिससे नाडी कूट के दोषों से तो नहीं बचा जा सकता किन्तु उसके गुण धर्म में विशेष प्रकार की अल्पता अनुभव प्रयोग में दिखाई पडती है। अतः नाडी कूट के कतिपय परिहार यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं जिनके आधार पर नाड़ी कूट जन्य दोषों का निवारण शास्त्रीय आधार पर सुलभ हो जाता है। वर एवं वधू दोनों का एक ही नक्षत्र नाड़ी विभाग में जन्म नक्षत्र होने पर नाडी दोष होता है अतः उसका सर्वप्रथम परिहार नक्षत्र एवं राशि द्वारा ही किया जाता है।


यदि दोनों का जन्म नक्षत्र एक पाश्र्व नाडी गत (भिन्न नक्षत्र हो तथा एक राशि हो तो नाडी दोष का परिहार हो जाता है जैसे कृत्तिका एवं रोहिणी की अन्त्य नाडी है किन्तु राशि मिथुन हो जाने से इसका परिहार हो जाता है ।

यदि दोनों का नक्षत्र एक हो किन्तु राशि भिन्न हो तो नाडी दोष का परिहार हो जाता है जैस कृत्तिका नक्षत्र में दोनों का जन्म होने से अन्त्य नाडी है किन्तु राशि मिथुन एवं कर्क भिन्न हो जाने से परिहार हो जाता है। ये दोनों परिस्थिति केवल पास के नक्षत्रों मे ही संभव दूर के नक्षत्रों मे नही जैसे भरणी एव मृगशिरा नक्षत्र।

यदि पूर्वोक्त प्रकार से दूर का नक्षत्र हो तो अर्थात् दोनों का जन्म नक्षत्र एक हो (चारों चरण एक राशि में हो तो चरण भेद से नाडी कूट का परिहार हो जाता है। जैसे अश्विनी नक्षत्र मे जन्म होने पर दोनों की आदि नाड़ी होती है। पूर्वोक्त दोनों प्रकार से उसका परिहार नहीं हो पाता है अतः यदि दोनों का चरण भिन्न हो तो नाडी कूट का परिहार हो जाता है जैसा कि मुहूत्र्तचिन्तामणि में कहा है -

*राश्यैक्ये चेद् भिन्नमृक्षं द्वयोः नक्षत्रैक्ये राशीयुग्मं तथैव ।

नाडी दोषो न गणानां च दोषः नक्षत्रैक्ये पादभेदे शुभं स्यात् ।।*


कुछ नक्षत्र ऐसे होते हैं जो पूर्णतः नाडी दोष से मुक्त होते हैं इन नक्षत्रों मे नाडी दोष प्रभावी नही होता है। जैसे रोहिणी आद्र्रा, मृगशिरा, कृत्तिका, पुष्य, ज्येष्ठा, श्रवण, उत्तरा भाद्रपद, रेवती, नक्षत्रों मे जन्मे पुरूष एवं स्त्री के लिये नाडी दोष प्रभावी नहीं होता है ।


रोहिण्याद्र्रा मृगेन्द्राग्नी पुष्यश्रवणपौष्णभम् ।

अहिर्बुध्न्यक्र्षमेतेषां नाडी दोषो न जायते ।।


इस प्रकार शास्त्रीय वचनों को प्रमाण मान कर के यदि नाड़ी कूट का परिहार किया जाये तो नाड़ी दोष से पूर्णतः मुक्ति मिल सकती है। अतः हमें ज्योतिष शास्त्रीय प्रामाणिक ग्रन्थों का विशेष अध्ययन करने के पश्चात् ही किसी निष्कर्ष पर निर्णय देना चाहिये। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो न जाने कितने ही वैवाहिक दम्पती का जीवन अन्धेरे में डाल देते हैं नाड़ी दोष समाज में सभी जनमानस में समान रूप से विराजमान है किन्तु तथा कथित ज्योतिषीयों द्वारा गलत निर्णय देने से समाज में इस ज्योतिष शास्त्र की प्रतिष्ठा धूमिल होती है। अतः यह हमारा परम दायित्व है कि हम शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन करें तथा उसका व्यवहारिक प्रयोग करके ही उसे लागु करें। क्योंकि ज्योतिष शास्त्र को भास्कराचार्य ने आदेश शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित किया है यदि आदेश गलत होगा तो ज्योतिष शास्त्र के वास्तविक स्वरूप में विकृति आयेगी ।


।।ज्योतिः शास्त्रफलं पुराणगणकैरादेश इत्युच्यते।।


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