नर कौन है ? मनुष्य किसे कहते है?


नर कौन है?


नित्यानुष्ठाननिरतः सर्वसंस्कारसंस्कृतः ।

वर्णाश्रम- सदाचार-सम्पन्नो 'नर' उच्यते ॥


अर्थात् नित्य कर्म करनेवाला, सब संस्कारों से पुनीत देह, और वर्ण आश्रम, एवं सदाचार से सम्पन्न व्यक्ति ही (उक्त श्लोककी परिभाषा में) नर कहा जाने योग्य है।


यूँ तो जन गणना की पुस्तक में नामाङ्कित करानेवाले अन्यून तीन अर्व नर-मनुष्य-प्रादमी आज संसार में विद्यमान हैं, परन्तु काली स्याही के साथ रजिस्टर की खाना पूरी करने मात्र से कोई व्यक्ति 'नर' प्रमाणित नहीं हो सकता किन्तु वेदादि शास्त्रों में नर की एक विशेष परिभाषा निश्चित की गई है तदनुसार तादृश आचार, विचार, व्यवहार और रहन-सहन रखनेवाला व्यक्ति ही उक्त उपाधि का वास्तविक अधिकारी हो सकता है।


यह बात सर्व विदित है कि संस्कृत देवभाषा का प्रत्येक शब्द यौगिक होने के कारण अपनी मूल धातु के अनुरूप किसी विशिष्ट अर्थ का द्योतक होता है। इस तरह संस्कृत के प्रत्येक शब्द के साथ धर्यवाङ्मय के अनेक तत्व नितरी सुसम्बद्ध

रहते हैं। जैसे—मनुष्य, मानुष, मर्त्य, मनुज, मानव और नर आदि मनुष्य शब्द के सभी पर्यायों में जहाँ मानवता का एक खास संकेत मिलता है यहां उसकी इतिकर्तव्यता का भी सुस्पष्ट आभास दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिये हम यहाँ एक दो शब्दों का दिग्दर्शन कराते हैं।


पहिले 'नर' शब्द को ही लीजिये। यह 'तृ नये' धातु से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है नयनीति सम्पन्न व्यक्ति, अथवा अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि पर नेतृत्व की क्षमता रखने वाला नेता । अब यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि वह नीति क्या है जिससे कि सम्पन्न हो जाने पर कोई व्यक्ति 'नर' बन सकता है और शरीर इंद्रिय आदि क्या हैं और उन पर शासन करने के क्या क्या उपाय किंवा अपाय हैं ? इन सब प्रश्नों का साङ्गोपाङ्ग रहस्य जानने के लिये वेद से लेकर हनुमान चालीसा पर्यन्त समस्त प्रासाहित्य का आलोड़न करना होगा। इस तरह संस्कृत भाषा के किसी भी एक शब्द का अनुसन्धान करने पर समस्त शास्त्र उसी का उपबृंहण जान पड़ेंगे।

इसी प्रकार 'मनुष्य' शब्द भी 'मनु ज्ञाने' और 'सिदु तन्तु सन्ताने' इन दो धातुओं से निष्पन्न माना है। निरुक्तकार यास्काचार्य इसका निर्वचन करते हुए लिखते हैं कि-


'मत्वा कर्माणि सोव्यन्ति इति मनुष्याः (निरुवत 


अर्थात् जो व्यक्ति (मत्वा) मनन विवेकपूर्ण (कर्माणि) = समस्त क्रिया कलाप को (सीव्यन्ति) सीते हैं कटे फटे एक दूसरे से जुदा हुए मानव समाज को विधिवत् सुसंगठित बनाते हैं ये 'मनुष्य' कहे जाते हैं ।

तात्पर्य यह हुआ कि जिस व्यक्ति की समस्त हलचल ज्ञान पर आधारित हो, जो पहिले समझता है और फिर करता है- पहिले तोलता है फिर बोलता है-पहिले सोचता है फिर कदम उठाता है- वही बुद्धिजीवी जन्तु 'मनुष्य' पदवी का अधिकारी है।


तत्तत् कार्य कलाप की औौचित्य किंवा अनौचित्य सीमा को निर्धारित करने वाले मानबिन्दु का ही अपर नाम 'मर्यादा' है । मर्यादा का पालन करने वाला जन्तु ही तादृश आचरण के प्रताप से अपने जन्मजात पाशविक दुर्गुणों से उन्मुक्त हो जाने के कारण 'नर' बन जाता है।

जय सीताराम ।

ईश्वर कौन है ईश्वर कैसा है?



जैसे मानव पिण्ड जड़ तथा स्थूल है और उसमें रहने वाला जीव चेतन और सूक्ष्म है ठीक इसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड जड तथा स्थूल है किन्तु तद् व्यापक परमात्मा चेतन और सूक्ष्म है। अन्तर केवल इतना है कि साढ़े तीन हाथ के मानव पिण्ड में रहने वाले चेतन का नाम 'जीव + आत्मा' है और एक अर्व योजन प्रमाण वाले ब्रह्माण्ड में रहने वाले चेतन का नाम 'परम + आत्मा' है एक के साथ 'जीव' विशेषण लगा है दूसरे के साथ परम' विशेषण लगा है। यदि दोनों विशेषरणों को हटा 'दिया जाए तो 'आत्मा' अण्ड और पिण्ड दोनों में समान है यही विशिष्ट अर्द्धतवाद का मौलिक रहस्य है। इसलिए जो यह पूछता है कि ईश्वर के अस्तित्व में क्या प्रमाण है ? मानो यह


ईश्वर कहाँ रहता है और कैसा है ?




अपनी ही सत्ता में स्वयं संदेह करता है। इसलिये 'ईश्वरसद्भावे किं मानम्' का अण्ड पिण्ड-वाद' सिद्धान्त के अनुसार सीधा उत्तर हुवा कि sexसद्भावे त्वमेव प्रमाणम्' । इसी ढंग से इस सम्बन्ध के अन्यान्य प्रश्नों को क्षण मात्र में समाहित किया जा सकता है, यथा-


ईश्वर कहां रहता है ?


( स श्रोतः प्रोतश्च विभुः प्रजासु )


ईश्वर कहां रहता है ? ऐसा प्रश्न करने वाले को कहो कि


'तुम' कहां रहते हो ? उत्तर में पूर्व प्रदर्शित शङ्का-समाधान के


अनुसार उसे अन्ततो गत्वा यही कहना पड़ेगा कि 'मैं' नामक


मेरा चेतन मेरे इस पिण्ड में सर्वत्र व्यापक है, बस ! उसे भी कह


दो कि जैसे- 'तुम' इस पिण्ड में सर्वत्र हो, ठीक इसी प्रकार


ईश्वर भी इसी ब्रह्माण्ड में सर्वत्र ताने बाने की तरह स्रोतप्रोत है।


ईश्वर कैसा है ?


तुम कैसे हो ?' मैं तो शरीर की दृष्टि से जड़ हूँ और जीव की दृष्टि से चेतन हूँ, अर्थात् मेरा शरीर जड़ है और आत्मा चेतन है। इन दोनों के संघात का नाम 'मैं' हूं। कह दो कि बस ठीक इसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड जड़ है और इस में व्यापक परमात्मा चेतन है। दोनों के संघात का नाम ईश्वर है, 'हरिश्व जगद् जगदेव हरिः ।




इसी प्रकार स्थूल सूक्ष्म, विपरिणामी शाश्वत् अनित्य-नित्य आदि २ समस्त विशेषणों को पिण्ड की भान्ति ब्रह्माण्ड पर और जीव की भान्ति परमात्मा पर घटाया जा सकता है।


ईश्वर दीखता क्यों नहीं ?


( न तत्र चक्षु गच्छति )


'तुम' क्यों नहीं दीखते ? - अर्थात् जैसे तुम्हारा पिण्ड दीखता है परन्तु तद् व्यापक चेतना नहीं दीखता तथापि उसकी सत्ता में कभी सन्देह नहीं होता, ठीक इसी प्रकार जब ब्रह्माण्ड दीखता है, तब तद् व्यापक चेतन के न दीखने पर उसमें सन्देह क्यों ? जैसे पिण्ड की नानाविध चेष्टाओं से तद्गत चेतन का अनुमान होता है ठीक इसी प्रकार ब्रह्माण्ड गत अनेक अमानवीय चमत्कारों द्वारा तद्गत चेतन का सुतरां अनुमान होता है इसी लिये न्यायदर्शन में लिखा है कि-


नानुमीयमानस्य प्रत्यक्षोऽनुपलब्धिरभावहेतुः ।


(न्यायदर्शन ३ । १ ३४)


अर्थात् जो प्रत्यक्ष न दीखता हो परन्तु अमुक कारण से

जिसकी सत्ता का अनुमान किया जा सकता हो उस पदार्थ का अभाव नहीं माना जा सकता ।


ईश्वर का रूप रंग तोल वजन ?


अरूप: सर्वरूपधृक् )


'तुम्हारा रूप रङ्ग तोल बजन है या नहीं ?- जैसे मानव


परमात्मा निराकार है या साकार ?

पिण्ड का रूप रङ्ग तोल वजन सब कुछ है परन्तु तद्गत चेतन का रूप रङ्ग तोल बजन कुछ नहीं, ठोक इसी प्रकार विराट के शरीर भूत इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु का तोल वजन रङ्ग रूप सब कुछ है, परन्तु तद्गत चेतन का रूप रंग तोल वजन कुछ नहीं ।


परमात्मा निराकार है या साकार उभयं वा एतत्प्रजापतिः )


'तुम' निराकार हो या साकार ? - जैसे साकार पिण्ड और निराकार जीव दोनों के संघात का नाम 'तुम' हो, ठीक इसी प्रकार साकार ब्रह्माण्ड और निराकार तदुव्यापक चेतन दोनों के संघात का नाम भगवान् है इनमें केवल अन्तर इतना है कि सर्व साधारण जीव अल्प शक्ति होने के कारण अपने नानाविध रूप बनाने में असमर्थ है परन्तु परमात्मा सर्व-शक्तिमान् होने के कारण जब जैसा चाहे रूप धारण कर सकता है। कदाचित् जीव भी योग साधना द्वारा परमात्मा से नैकट्य स्थापन कर ले तो वह भी लोकान्तर-गमन, परकाय प्रवेश, अनेक शरीर बनाना आदि सिद्धियों का स्वामी वन सकता है- यह हमारे 'पुराण- दिग्दर्शन' में द्रष्टव्य है ।


वस्तुतः 'निराकार' शब्द ही परमात्मा के साकार होने


में प्रबल प्रमाण है, क्योंकि 'निराकार' शब्द का अक्षरार्थ है


कि निर्गत प्राकारो यस्मात् अर्थात्-निकल गया है, पृथक


हो गया है- प्राकार जिससे । 'निरादयः कान्ताद्य पंचम्या


प्र. निर् आदि उपसर्ग क्रान्त आदि अर्थों में पञ्चमी विभक्ति से समस्त हो जाते हैं। इस व्याकरण नियम के अनुसार आकार तभी पृथक हो सकता है जबकि वह पहिले विद्यमान हो। जैसे- पहिले से ही दिगम्बर (नग्न) पुरुष से कपड़े छीनने की बात उपहासास्पद है, ठीक इसी प्रकार यदि परमात्मा में कोई आकार विद्यमान ही नहीं था तो फिर उससे वह जुदा कहाँ से हो गए ? इसलिये परमात्मा पहिले साकार होता है फिर निराकार बनता है। सृष्टि के आदि में ब्रह्माण्ड के ये सब दृष्ट साकार पदार्थ परमात्मा में समाए रहते हैं अतः वह साकार कहाता है, ज्यों ही सृष्टि होने लगती है तो ये सब आकार उससे पृथक हो कर ब्रह्माण्ड रूप में परिणत हो जाते हैं और वह 'दादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि' के अनुसार एक चौथाई में समस्त ब्रह्माण्डों की रचना करके बारह थाने में स्वयं बना रहता है। इसलिये निराकार और साकार का प्रश्न करने वाला व्यक्ति वस्तुतः इन दोनों शब्दों के अक्षरार्थ से भी अनभिज्ञ होता है, अर्थ पुरुष को यह शङ्का ही नहीं हो सकती ।

शम्बूक वध क्यो आवश्यक था ?




भगवान राम ने शम्बूक का वध क्यों किया था?


 ‘ श्राीराम का आचरण इतना शुद्ध, निष्ठापूर्ण और धर्मानुसार था कि उनकी प्रजा को दुख, दरिद्रता, रोग, आलस़्य, असमय मृत्यु जैसे कष्ट छू भी नहीं पाते थे।।

अतः इसी अनुसार रामराज्य की अवधारणा बनी है।

इसी कारण सभी लोग रामराज्य की कामना करते है।

   एक दिन अचानक एक ब्राह्मण रोता-बिलखता उनके

 राजदरबार में आ पहुंचा।

श्रीराम ने ब्राह्मण से जब उसके रोने का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसके तेरह वर्ष के पुत्र की असमय मृत्यु हो गई। यह राम के राज्य में अनोखी और असंभव-सी घटना थी क्योंकि ‘राम-राज्य’ में तो इस तरह का कष्ट किसी को नहीं हो सकता था। दुखी ब्राह्मण ने श्रीराम पर आरोप लगाया कि उनके राज्य में धर्म की हानि हुई है और उसी के चलते उसके पुत्र की असमय मृत्यु हो गई। ब्राह्मण कहता है कि राज्य में धर्म की उपेक्षा और अधर्म का प्रसार होने का फल प्रजा को भुगतना पड़ रहा है और उस पाप का छठा भाग राजा के हिस्से में आता है। इसलिए राज्य में होने वाले पाप के लिए राजा राम उत्तरदायी हैं।


मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से यह आरोप सहन नही होता। वह देवर्षि नारद समेत कुछ दूसरे सिद्ध ऋषियों को बुलाकर इस समस्या पर विचार करते हैं और ब्राह्मण के पुत्र की असमय मृत्यु का कारण पूछते हैं।

नारद के अनुसार, राम-राज्य में बालक की मृत्यु से यह पता चलता है कि राज्य में कोई ऐसा व्यक्ति तपस्या कर रहा है जो नियमानुसार तपस्या करने का अधिकारी नहीं है। चूंकि त्रेता में तपस्या का अधिकार केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय को है, इसलिए इनके अलावा कोई भी दूसरा व्यक्ति तपस्या करता है तो वह अधर्म माना जाएगा और उसके प्रभाव से राजा को अपयश और पाप का भागी बनना पड़ेगा। इसलिए ऐसा अधर्म रोकने का नैतिक दायित्व राजा राम का है। नारद सुझाव देते हैं कि राम अपने राज्य का दौरा कर तुरंत उस व्यक्ति को खोजें।


राम उस अज्ञात दुष्कर्मी को दंड देने के इरादे से अस्त्र-शस्त्र लेकर निकल पड़ते हैं। आखिर में वह दक्षिण में शैवल पर्वत के पास पहुंचते हैं। वहां एक सरोवर के पास सिर नीचे लटकाए एक तापस मिल जाता है। राम उसका परिचय, जाति और तपस्या करने का कारण पूछते हैं। तापस कहता है, 'श्रीराम! मेरा नाम शम्बूक है। मैं शूद्र जाति का हूं लेकिन तपोबल से सशरीर देवलोक जाना चाहता हूं।'


शम्बूक के इतना कहते ही श्रीराम ने तलवार निकाली और शम्बूक का सिर धड़ से अलग कर दिया। देवलोक से फूलों की वर्षा हुई और देवताओं ने राम के इस धर्म-सम्मत कार्य से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान मांगने को कहा। राम ने देवताओं से ब्राह्मण के पुत्र को दोबारा जीवित करने को कहा तो देवताओं ने सहर्ष उनकी बात मान ली। ब्राह्मण का पुत्र जीवित हो उठा। इससे पता लगता है कि देवताओं ने श्रीराम के हाथों शम्बुक की हत्या का पूरा समर्थन किया।



पद्मपुराण (सृष्टिखण्ड अध्याय ३२।८९ तथा उत्तरखण्ड अध्याय २३०।४७) में भी देवताओं के बरदान से द्विज-पुत्र के जीवित होने का उल्लेख है महाभारत शान्तिपर्व में कहा गया है कि

 "श्रूयते शम्बुके शूद्रे हते ब्राह्मणदारकः

जीवितो धर्ममासाद्य रामात् सत्यपराक्रमात् ॥

(महाभारत  (१२।१४९।६२)

इसमें देवताओं के बरदान से नहीं किन्तु राम के धर्म से द्विजपुत्र का पुनर्जीवन होना माना गया है।

आनन्दरामायण के अनुसार मृत बालक के माता-पिता को प्रीतिपूर्वक कहा गया था कि यदि उनका पुत्र पुनर्जीवित न होगा तो उन्हें और लव और कुश मिल जायेंगे । 

ब्राह्मण ही नहअयोध्या में पांच शव और एकत्रित हो गये मे एक क्षत्रिय, एक वैश्य,एक तेली, एक लुहार की पुत्रवधु, एवं एक चमार। राम ने जैसे ही शंबूक को मारा सब जीवित हो गये। 

राम ने पहले शंबूक को बरदान दिया। उसने अपने उद्धार के अतिरिक्त अपनी जाति के लिए सद्गति मांगी। राम मे रामनाम का जप और कीर्तन शूद्रो की सद्गति का उपाय बताया। यह भी कहा कि सूद्र लोग आपस में मिल कर एक दूसरे से मिलते हुए नमस्कार के रूप में राम राम कहेंगे। इससे उनका उद्धार होगा। तुम भी मेरे हाथ से मरकर बैकुण्ठ जाओगे।


वेदादि शास्त्रोक्त कर्म ही धर्म है। यह


" तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।" (गीता १६।२४ )


"चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः ।" ( मीमांसा  दर्पण १।१।१२ )


आदि से स्पष्ट है। तदनुसार चातुवर्ण्यधर्म के विपरीत आचरण अधर्म है। राम ने शम्बूक शुद्र को ही नहीं धर्मविपरीत ब्राह्मण रावण को भी प्राणदण्ड दिया था। अतः उनकी निष्पक्षता स्पष्ट है । धर्म पर चलनेवाले वानरों, भालुओं, गीध, काक तथा कोल, भिल्ल, किरात, निषाद आदि सबका ही आदर किया था। कोई भी कर्म अधिकारानुसार ही पुण्य हो सकता है। अनधिकारी का वेदाध्ययन, यश और तप भी पाप ही होता है। संन्यासी के स्वर्ण, ब्रह्मचारी को ताम्बूल तथा चोर को अभय का दान पाप ही है-.


"यतये काश्चनं दत्त्वा ताम्बूलं ब्रह्मचारिणे । 

चौराय चाभयं दत्वा दातापि नरकं व्रजेत् ॥”

 

एक यातायात सिपाही का अपना काज छोड़कर किसी शिष्ट की रक्षा जैसे अच्छे काज में लगना भी अपराध है । स्वकर्तव्य में निष्ठा ही धर्म है-


"स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि ं लभते नरः ।" ( गीता० १८।४५ )


"स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः ।


विपरीतस्तु दोषः स्यादुभयोरेष निश्चयः ॥” ( पुराणवचन )


यातायात सिपाही के अन्यकार्याभिमुख होने पर यदि मोटर आदि का एक्सीडेन्ट हो जाय तो इसका उत्तरदायित्व सिवा सिपाही के किसके ऊपर होगा ? वह एक मनुष्य को बचाने के लिए अपने कर्तव्य से विमुख होता है तो नियन्त्रण न होने से अनेक एक्सीडेन्ट हो सकते हैं। सैकड़ों शिष्टों का जीवन संकटग्रस्त हो सकता है। अतः स्वधर्मविमुख अवश्य ही दण्डनीय है ।


एक न्यायाधीश के सामने किसी हत्यारे का हत्या का अपराध सिद्ध हो जाने पर न्यायाधीश का कर्तव्य है कि उसे प्राणदण्ड का आदेश दे, फिर भले ही उसके बूढ़े माँ बाप तथा युवती स्त्री एवं दुधमुंहे बालकों का जीवन खतरे में पड़ जाय । यदि शम्बूक के समान कोई स्वास्थ्य अधिकारी ( हेल्थ डिपार्टमेण्ट का अधिकारी ) सफाई का इन्चार्ज अपने पद का चार्ज बिना दिये तपस्या में बैठ जाय और सफाई की गड़बड़ी से प्लेग, कालरा आदि फैलने से ब्राह्मण आदि वर्णों के बालक मर जाये तो स्पष्ट ही इसका उत्तरदायित्व उसी पर है। जो अपना काम छोड़कर तप में बैठा है। हरएक समझदार उसके लिए प्राणदण्ड उचित हो समझेगा । कर्तव्यपालन को उपेक्षा का दुष्परिणाम सर्वप्रसिद्ध ही है । शास्त्रों में तप का विधान चतुर्थ वर्ग के लिए नहीं है। वैदिक चातुर्वर्ण्यधर्म का उल्घंन करने के कारण ही ब्राह्मण रावण और शुद्ध शम्बूक दोनों को दण्ड दिया गया था। कोई भी बुद्धिमान् यह भलीभांति समझ सकता है कि जैसे ब्राह्मण अपना कर्म छोड़कर शूद्र का कर्म करे तो अपराधी होगा वैसे ही शूद्र अपना कर्म छोड़कर ब्राह्मण का कर्म करने पर अपराधी क्यों न होगा ? और जो अपराधी है उसे दण्ड तो मिलेगा ही।

जय जय सीताराम।

पं. राजेश मिश्र "कण"


शिलान्यास विधि Shilanyas Vidhi

 




|| शिलान्यासविधिः ||


शिला स्थापन करने वाला यजमान निर्माणाधीन भूमि के आग्नेय दिशा में खोदे गये भूमि के पश्चिम की ओर बैठकर आचमन प्राणायाम आदि करे। तदनन्तर स्वस्ति वाचन आदि करते हुए संकल्प करे।


देशकालौ संकीर्त्य अमुकगोत्रोऽमुकशाऽहं करिष्यमाणस्यास्य वास्तोः शुभतासिद्धयर्थं निर्विघ्नता गृह-(प्रासाद)-सिद्धयर्थमायुरारोग्यैश्वाभिवृद्ध्यर्थ च वास्तोस्तस्य भूमिपूजनं शिलान्यासञ्च करिष्ये तदङ्गभूतं श्रीगणपत्यादिपूजनञ्च करिष्ये।


गणेश, षोडशमातृका, नवग्रह आदि का पूजन करे।


इसके बाद आचार्य


ॐ अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूमिसंस्थिताः


ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ।।99


इस मंत्र से पीली सरसों चारों ओर छींटकर पंचगव्य से भूमि को पवित्र कर वायुकोण में पांच शिलाओं को स्थापित करे। इसके बाद सर्पाकार वास्तु का आवाहन कर

ध्यान:-

ॐ वास्तोष्पते प्रतिजानीह्यस्मान्स्वावेशोऽदमीवो भवा नः।।


यत्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ।।



षोडशोपचार से पूजा कर दही और भात का बलि दे पुनः नाग की पूजा करे-

ध्‍यान-

ॐ वासुकि धृतराष्ट्रञ्च कर्कोटकधनञ्जयौ ।


तक्षकैरावतौ चैव कालेयमणिभद्रकौ ।।


इससे आठों नागों के लिए पृथक्-पृथक् अथवा एक ही साथ नाम मंत्रों से आवाहन पूजन करें। पुनः धर्म रूप वृष का आवाहन पूजन कर हाथ जोड़कर प्रार्थना करें-

ध्यान-:

ॐ धर्मोसि धर्मदैवत्यवृषरूप नमोस्तु ते ।


सुखं देहि धनं देहि देहि 7 ।।


गृहे गृहे निधिं देहि वृषरूप नमोस्तु ते ।


आयुर्वृद्धिं च धान्यं च आरोग्यं देहि गेहयोः।।


आरोग्यं मम भार्याया पितृमातृसुखं सदा ।


भ्रातृणां परमं सौख्यं पुत्राणां सौख्यमेव च ।।


सर्वस्वं देहि मे विष्णो! गृहे संविशतां प्रभो!।


नवग्रहयुतां भूमिं पालयस्व वरप्रद! ।।


पुनः पञ्चशिलाओं को-


ॐ आपः शुद्धा ब्रह्मरूपाः पावयन्ति जगत्त्रयम् ।


चाभिरद्भिः शिला स्नाप्य स्थापयामि शुभे स्थले ।


यह पढ़कर शुद्ध जल से धो दें। पुनः


ॐ गजाश्वरथ्यावल्मीकसद्भिर्मुद्भिः शिलेष्टकान्


प्रक्षालयामि शद्ध्यर्थं गृहनिर्माणकर्मणि ।।


इसे पढ़कर सप्तमृतिका से प्रक्षालन करें।


पुनः पञ्चगव्य, दही और तीर्थ के जल से धोकर शुद्ध वस्त्र से पोंछ दें और उन शिलाओं का कुंकुम चन्दन से लेपन कर स्वस्तिक चिह्न बनाकर वस्त्र से ढककर मन्त्र पढ़ें-


ॐ नन्दायै नमः

ॐ भद्रायै नमः

ॐ जयायै नमः

ॐ रिक्तायै नमः

ॐ पूर्णायै नमः

उन शिलाओं के आगे इन पांचों कुम्भों (घड़ा) की स्थापना करे-


ॐ पद्माय नमः

ॐ महापद्माय नमः

ॐ शंखाय नमः

ॐ मकराय नमः

ॐ समुद्राय नमः

उसके बाद आचार्य गड्डे की भूमि को लेपकर कछुआ के पीठ के ऊपर स्थित श्वेत वर्ण वाले चार भुजाओं में पद्म, शंख, चक्र और शूल धारण किये भूमि का ध्यान करे।


कूर्माय नमः इति कूर्ममम्

ॐ अनन्ताय नमः इति अनन्तम्

ॐ वराहाय नमः इति वराहम्

इस प्रकार आवाहन, पूजन कर दोनों घुटनों से पृथ्वी का स्पर्श कर जल, दूध, तिल, अक्षत जौ, सरसों और पुष्प अर्घ्य पात्र में रखकर भूमि के के निमित्त मंत्र से अर्घ्य दें-


ॐ हिरण्यगर्भे वसुधे शेषस्योपरि शायिनि ।


उद्धृतासि वराहेण सशैलवनकानना ।।

प्रासादं (गृहं वा) कारयाम्यद्य त्वदूर्ध्न शुभलक्षणम् ।।

गृहाणार्घ्य मया दत्तं प्रसन्ना शुभदा भव ।।;

भूम्यै नमः इदमर्घ्य समर्पयामि ।


पुनः आम्र या पलाश के पत्ते के ऊपर दीपक सहित घी और भात की बलि देकर प्रार्थना करे-

ॐ समुद्रमेखले देवि पर्वतस्तनमण्डले ।

विष्णु-पलि नमस्तुभ्यं शस्त्रपातं क्षमस्व मे ।।

इष्टं मेत्वं प्रयच्छेष्टं त्वामहं शरणं गतः।


पुत्रदारधनायुष्य-धर्मवृद्धिकरी भव ।।


पुनः गड्ढे में तेल डालकर उसके ऊपर सफेद सरसों छोड़े।मन्त्र-


ॐ भूतप्रेतपिशाचाद्या अपक्रामन्तु राक्षसाः।


स्थानादस्माद्वजन्त्वन्यत्स्वीकरोमि भूवं त्विमाम्।।


उसके ऊपर दही लिपटा चावल उड़द की बलि देकर उसके ऊपर 7 पत्ते स्थापित कर एवं उसके ऊपर बारह अंगुलि लोहे की कील गाड़ दे। 

मन्त्र-

ॐ विशन्तु भूतले नागाः लोकपालाश्च सर्वतः।

अस्मिन् स्थानेऽवतिष्ठन्तु आयुर्बलकराः सदा ।।

उसके ऊपर मधु, घी, पारद, सुवर्ण (अथवा रुपया) ढके हुए मुख वाले ताम्र आदि से निर्मित पद्म नामक कुम्भ में पञ्चरत्न रख, चन्दन लगाकर वस्त्र लिपटाकर मध्य में रख दे तथा उस पर नारियल भी रख दे।


इसी प्रकार पूर्व आदि दिशाओं में चार घड़ा स्थापित करे।



पूर्वादि के क्रम से महापद्म 2, शंख 6, मकर 4, समुद्र 5, की पूजा कर कुम्भ के बराबर मिट्टी देकर अक्षत छोड़े। पुनः अच्छे मुहूर्त में सुपूजित ‘पूर्णा’ नामक ईंट स्थापित करे।

मन्त्र-

पूर्णे त्वं सर्वदा भद्रे! सर्वसन्दोहलक्षणे ।

सर्व सम्पूर्णमेवात्र कुरुष्वाङ्गिरसः सुते ।।

तदनन्तर पूर्व दिशा में-

ॐ नन्दे त्वं नन्दिनी पुंसां त्वामत्र स्थापयाम्यहम् ।

अस्मिन् रक्षा त्वया कार्या प्रासाद यत्नतो मम ।।

तदनन्तर दक्षिण दिशा में-

ॐ भद्रे! त्वं सर्वदा भद्रं लोकानां कुरु काश्यपि ।

आयुर्दा कामदा देवि ! सुखदा च सदा भव ।।


पश्चिम दिशा में-

ॐ जये ! त्वं सर्वदा देवि तिष्ठ त्वं स्थापिता मया ।

नित्यं जयाय भूत्यै च स्वामिनो! भव भार्गवि!।।


उत्तर दिशा में-

रिक्ते त्वरिक्तेदोषघ्ने सिद्धिवृद्धिप्रदे शुभे!।

सर्वदा सर्वदोषने तिष्ठास्मिन्मम मन्दिरे ।।


इस मंत्र से स्थापित कर पूर्णादि नाम मन्त्रों से गन्धादि द्वारा पूजा करें।


पुन: चारों ओर दिक्पालों की पूजा कर दीपक के साथ दही, उड़द एवं भात की बलि दे।


विश्वकर्मणे नमः


इस प्रकार आयुध की पूजा कर प्रार्थना करे-


ॐ अज्ञानाज्ज्ञानतो वापि दोषाः स्युश्च यदुद्भवाः।


नाशयन्त्वहितान्सर्वान् विश्वकर्मन्नमोऽस्तु ते ।।


उसके बाद फावड़े की पूजा कर प्रार्थना करे-


ॐ त्वष्ट्रा त्वं निर्मितः पूर्व लोकानां हितकाम्यया ।


पूजितोऽसि खनित्र ! त्वं सिद्धिदो भव नो ध्रुवम् ।।


वाष्पोष्पति, मृत्युञ्जय आदि देवताओं के जप हेतु प्रतिज्ञा संकल्प करे


अद्येत्याधुक्त्वा अनवधिवर्षावच्छिन्नबहुकालपर्यन्तं पुत्रकलत्रारोग्यधनादिसमृद्धिप्राप्तिकामो गृहनिर्माणार्थ कर्त्तव्यशिलास्थापनाङ्गत्वेन वास्तुदेवतामृत्युञ्जयादिप्रसादलाभाय यथासंख्यापरिमितं ब्राह्मणद्वारा जपमहं कारयिष्ये।


वरण सामग्री लेकर-


अद्येत्यादि गृहनिर्माणार्थ कर्तव्यशिलास्थापनांगभूतब्राह्मणद्वारावास्तोष्पतिमृत्युंजयजपं कारयितुमेभिर्वरणद्रव्यैरमुकामुकगोत्रान् अमुकामुकशर्मणः ब्राह्मणान् जापकत्वेन युष्मानहं वृणे ।


तदनन्तर मिष्ठान वितरण करे।


इति शिलान्यासविधिः।




राधा कृष्ण का संबंध क्या है

 

श्रीराम ।
बहुत से लोग राधा को काल्पनिक कहते है। कुछ राधाजी को श्रीकृष्ण की पत्नी मानने से इंकार करते है। कुछ लोग राधा का वृंदावन से संबंध होने पर सशंकित है।

इसलिये अब हम यथापूर्व वेदादि शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा राधाकृष्ण की जुगल जोड़ी का निरूपण करते हैं :-

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वैदिक-स्वरूप

(क) राधे ! विशाखे ! सुहवानु राधा (ख) इन्द्रं वयमनुराधं हवामहे | ( १२/१५२)

(अथर्व० ११७३)

अर्थात् (क) हे राधे ! हे विशाले! श्री राधाजी हमारे लिये सुखदाविती हों। (ख) हम सब भक्तजन राचासहित श्रीकृष्ण भगवान की स्तुति करते हैं।

पौराणिक - स्वरूप

- (ख) तद्वामांशसमुद्भूतं गौरं तेजः स्फुरत्प्रभम् । लीला ह्यतिप्रिया तस्य तां राधां तु विदुः परे ॥

(क) त्वं ब्रह्म चेयं प्रकृतिस्तटस्था, कालो यदेमां च विदुः प्रधानम् । महान्यदा त्वं जगदङ्करोऽसि, राधा तदेयं सगुणा च माया ॥

(गर्गसंहिता गो० १६ । २५ )

(गर्गसंहिता गो० ९ । २३ )

(ग) परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् । असंख्य ब्रह्माण्डपतिर्गोलोकेशः परात्परः ।।

(गर्गसंहिता गो० १५ ५२-५३ )

(घ) श्रीकृष्णपटराज्ञी या गोलोके राधिकाऽभिघा । त्वद्गृहे सापि संजाता त्वं न जानासि तां पराम् ।।

( गगं० गो० १५ ५६ )

(ङ) राधाकृष्णेति हे गोपा ये जपन्ति पुनः पुनः । चतुष्पदार्थः किं तेषाँ साक्षात्कृष्णोऽपि लभ्यते ॥

( गगं० गो० १५। ७१ )

(च) ये राधिकायां मयि केशवे मनाक्, भेदन पश्यन्ति हि दुग्धशौक्लवत् ।

त एव मे ब्रह्मपदं प्रयान्ति त दहेतु कस्फूर्जितभक्तिलक्षणाः ॥

( ० वृ० १२ । ३२ ) पर्थ - ( क ) [ देवगण स्तुति करते हुए कहते हैं कि ] हे भगवन् !" आप साक्षात् ब्रह्म हैं और श्री राधाजी आपकी तटस्थ प्रकृति हैं। आप काल है यह प्रधान माया है। जब भाप महदादिक गुण होकर जगत् के अंकुर (बीज) होते हो तब यह सगुण माया है । (ख) भगवान् के वाम भाग से उत्पन्न होने वाला जो प्रभायुक्त गौर तेज है वह भगवान् को aata प्रियतमा सीला है जिसे भक्तजन श्रीराधा कहते हैं। (ग) श्रीकृष्ण जी परिपूर्णतम स्वयं भगवान् हैं और अगणित ब्रह्माण्डों के पति एवं गोलोक के सर्वोपरि अधिष्ठाता है। (घ) [ नारदजी कहते हैं, कि है वृषभानो ! ] गोलोक में श्रीकृष्ण भगवान् की 'राधा' नामक जो पटरानी है वही तुम्हारे घर में उत्पन्न हुई है तुम उसका भेद नहीं जानते। (ङ) हे गोपगण ! जो लोग 'राधाकृष्ण' ऐसा जाप करते हैं चार पदार्थों का तो कहना ही क्या है साक्षात् कृष्ण भगवान् भी उनको प्राप्त हो जाते हैं। (च) दूध और उसकी सफेद कान्ति की तरह जो लोग मुझ कृष्ण में और श्री राधिका जी में भेद नहीं देखते हैं अर्थात् एक ही समझते हैं वे ही ज्ञानीजन ब्रह्मपद को प्राप्त होते हैं ।

इस प्रकार वेदादि ग्रन्थों में श्रीकृष्ण भगवान् को ब्रह्म और श्री राधिका जी को विशुद्ध प्रकृति के नाम से स्मरण किया गया है। उपर्युक्त सिद्धान्त के समर्थक सहस्रों प्रमाण आर्ष ग्रन्थों में भरे पड़े पड़े हैं, जो इस लघु कलेवर लेख में उध्दृत करना न केवल असम्भव हैं, अपितु अनावश्यक भी हैं

प्राचीन भाष्यों में राधा और कृष्ण

हमारी पूर्वोक्त स्थापना को पढ़कर कदाचित् किसी महाशय को 'कोरी कल्पना' कहने का अवसर न मिले एतदर्थं हम 'गोपालसहस्रनाम' नामक प्रसिद्ध स्तोत्र के पं० दुर्गादत्त कृत प्राचीनतम संस्कृत भाष्य के कुछ उद्धरण यहां उद्धृत करते हैं जिससे पाठक यह अनुमान कर सकेंगे कि राधा और कृष्ण का प्रकृति और पुरुष के रूप में अनादि काल से उल्लेख विद्यमान है, यथा-

राधयति साधयति — उत्पादनरूपेण सृष्टिकार्याणीति

राधा प्रकृतिः" । कृषिर्भवाचकः शब्दो पश्च निवृति- वाचकः तयोरेवयं परब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ॥

अर्थात् उत्पादन रूप से सृष्टि कार्यों के सम्पादन करने वाली होने से श्रीराधा प्रकृति रूपा हैं तथा 'कृष्' शब्द सत्ता का वाचक है और 'ए' शब्द आनन्द वाचक है। इन दोनों की एकता सत् आनन्द-रूप परब्रह्म 'कृष्ण' शब्द का अर्थ है। इन्ही ब्रह्म और पाक्तिरूपा प्रकृति के रूप में श्रीराधा-कृष्ण के सहस्रनाम 'गोपालसहस्रनाम' में लिखे हैं। गया-

राधारतिसुखोपेतो राधामोहनतत्परः ।

राधावशीकरो राधाहृदयाम्भोजषट्पदः ॥

( दौगिभाष्य) राधाया- उपादानभूतायाः प्रकृत्या: ( प्रकृति- माधित्येति व्यव लोपे पञ्चमी) या रतिः सृष्टिक्रियारूपाक्रीडा तंत्र स्वरूप भूतेनानन्ताख्येनोपेतः । श्रत्र रतिशब्दः सृष्टिक्रियावचनः "स के ने रेमे" इत्यादि बृहदारण्यकश्रुत्या सृष्टि-क्रियाया ब्रह्मणः क्रोडारूपेण प्रतिपादितत्वात् । राधायाः प्रकृत्या यो मोहनो मोहोत्पादको गुणस्तत्र तस्मात् परस्तत्परः । राधायाः प्रकृतेबंशी-करस्तदपोश्वर इत्यर्थ । राधायाः प्रकृतेपद हृदयं हृदयाजित महदहङ्कारादिकार्यं तदेवाम्भोजं कारणसलिलोत्पन्नत्वात् षट्पदो भ्रमर इव तद्रहस्य रूपरसज्ञ इत्यर्थः ।

अर्थात् — श्री गोपाल ( कृष्ण ) जो राधा अर्थात् उत्पादन रूप प्रकृति का आश्रय लेकर जो सृष्टि-क्रिया रूप ( पति) क्रीड़ा उसमें स्वरूपभूत सुख से मुक्त है। अर्थात सांसारिक पदार्थों में जो कुछ सुख है वह परमात्मा का ही है। यहां रति शब्द क्रीडारूप सुष्टिवाचक है, क्योंकि "स वै नैव रेमे इत्यादि वृहदारण्यकश्रुति द्वारा सृष्टिनिया को ब्रह्म की क्रीड़ारूप से प्रतिपादन किया है। राधा प्रकृति का जो मोहन जीवों को मोह में डालने वाला गुण है उससे वे पर है अर्थात् प्राकृतिक पदार्थ उनको मोह में नहीं डाल सकते। वे राधा अर्थात् प्रकृति को वश में रखने वाले है। अर्थात् उसके अधीश्वर हैं।

अब अधिक विस्तार न करते हुए आगे राधा और कृष्ण के संबंध को अधिक स्पष्ट करते है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण सृष्टि खण्ड में इस प्रकार वर्णन है कि
आविभूव कन्येका कृष्णस्य वामपार्श्वतः । धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्षं प्रभोः पदे ॥ तेन राधा समाख्याता पुराविद्भिर्द्विजोत्तम । प्राणाधिष्ठात्री सा देवी कृष्णस्य परमात्मनः ।।

( २५ । २६ । २६ )

अर्थात् परमात्मा कृष्ण से बाएं ब्रज से एक कमनीया स्त्री उत्पन्न

हुई। उसने भगवान् कृष्ण के चरणों को धोकर फूल लाकर अर्घ्य दिया,

विद्वानों ने उसका नाम ( आराधनात् ) राधा कहा है। वह कृष्ण की प्राणादिष्ठात्री देवी थी। प्रत्यत्र कहा है- योगेनात्मा सृष्टिविध द्विधारूपो बभूव सः । पुमांश्च दक्षिणार्द्धाङ्गो वामाङ्गः प्रकृतिः स्मृतः ॥

( ब्रह्म वे० प्रकृ० [सं० आ० १२ श्लो० ६) अर्थात् परमात्मा श्रीकृष्ण सृष्टि रचना के समय दो रूप वाले हो गये । दाहिना आधा अङ्ग पुरुष और बांया अंग प्रकृति रूपा स्त्री हुई। ब्रहावर्त पुराण का यह वर्णन वेद एवं उपनिषदों के द्वारा प्रति- पादित है। जैसे-

स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीय- मैच्छत् स तावानास यथा स्त्रीपुमा सौ संपरिष्वक्तौ
स इममेवात्मानं द्वेधापातयत् ततः पतिश्च पत्नी

चाभवताम् ।

( बृहदारण्यक १।४३ ) अर्थात् उस ब्रह्म ने रमण (सृष्टि उत्पादन रूप खेल) नहीं किया या इस कारण कि वह प्रकेला रमण नहीं करता। उसने दूसरे की इच्छा की। जिस प्रकार परस्पर बालङ्गित स्त्री पुरुष होते हैं, बेसा उसका स्वरूप हो गया। उसने अपने को ही दो भागों में विभक्त कर डाला। वे पति और पत्नी हुवे भगवान् श्रीकृष्ण के वामाङ्ग से श्रीराधा की उत्पत्ति का भाव है कि वे एक से दो अर्थात् पति-पत्नी रूप में हो गये।

मागे प्रकरण को देखिये-

वृषभानोश्च वैश्यस्य सा च कन्या बभूव ह । योनिसम्भवा देवी वायुगर्भा कलावती ॥ सुषुवे मायया वायुं स तत्राविर्बभूव ह । अती द्वादशाब्दे तु दृष्ट्वा तां नवयौवनाम् ॥ सार्धं रायणवैश्येन तत्सम्बन्धं चकार सः । छायां संस्थाप्य तद्गेहे सान्तर्धानमवाप ह || बभूव तस्य वैश्यस्य विवाहश्छायया सह । कृष्ण माता यशोदा या रायणस्तत् सहोदरः ॥ गोलो के गोपकृष्णांशः सम्बन्धात्कृष्णमातुलः ॥ कृष्णेन सह राधायाः पुण्ये वृन्दावने वने । विवाहं कारयामास विधिना जगतां विधिः ॥ ( ब्रह्म बं० [सं० २० ४६ श्लो० ३२ से ४२ )

अर्थात् ब्रजभूमि में अवतार लेने पर वह राधा वषभानु वैश्य की कन्या हुई || २६ ॥ वृषभानु की स्त्री कलावती वायुगर्भा ( जिसके गर्भ में केवल बाबु मात्र थी ) थी उसने वायु प्रसव किया। प्रसव होते ही श्री राधा देवी प्रयोनिजा (गर्भ से उत्पन्न न होने वाली ) प्रकट हो गई। ||३७|| बारह वर्ष व्यतीत होने पर उसके पिता ने उसे नवयुवती होने वाली देख कर रामण वैश्य के साथ उसका सम्बन्ध - सगाई कर  दी ॥ ३८ ॥ किन्तु राधा जी अपने प्रभाव से अपने ही अनुरूप एक 'छाया' नाम की कन्या को उत्पन्न कर और उसे घर में स्थापित कर स्वयं अन्तर्धान हो गई, रायण वैश्य का विवाह उसी 'छाया' नाम की कन्या के साथ हुआ ||३०|| श्रीकृष्ण की धायस्य माता को यशोदा थीं, रागण उनका भाई था। वह गोलोक में गोप कृष्ण का अंश (अर्थात्--- उन कृष्ण के अंश से गोलोक के सृष्टि प्रकरण में जिस प्रकार अन्य अनेक व्यक्तियों की उत्पत्ति हुई थी उसी प्रकार उत्पन्न होने वाला) सखा था। ब्रज में उनकी घाव रूप माता यशोदा का भाई होने के नाते श्रीकृष्ण जी का वह मामा हुधा पवित्र वृन्दावन में श्री ब्रह्मा जी ने कृष्ण जी के साथ श्री राधा जी का विधिपूर्वक दिव्य विवाह कराया ||४०|

उपर के ब्रह्म० पुराण प्रकरण से स्पष्ट है कि रायण वैश्य के साथ दिव्य 'छाया' का विवाह हुआ था और श्रीकृष्ण जी के साथ श्री राधा जी का दिव्य विवाह हुआ। अतः आक्षेपकर्ताओं को राधा जी की श्रीकृष्ण जी की पुत्री, पुत्र वधू व मामी कहना सरासर झूठ है ।

जय जय सीताराम।
माधवाचार्य कृति
पं. राजेश मिश्र "कण"

बलि विधान का अर्थ

 श्रीराम ।

यह बिषय संवेदनशील है।

यह प्रकृति त्रिगुणात्मक है। सत्व रज व तम। जिस जीव के अन्दर जिस गुण की अधिकता रहती है, उसका स्वभाव , संस्कार व आचरण भी वैसा होता है ।

  त्रिगुणानुसार पूजन विधि भी अलग है, निगम व आगम ।

बलि शब्द का अर्थ बिशिष्ट पूजा के लिए है।

निगम व आगम दोनो मे बलि विधान है, किन्तु निगम मे बलि का अर्थ किसी जीव की हत्या करना नही है।

मूलत: शब्दो के अर्थ न समझ पाने के कारण वैदिक भी ऐसा करने लगे है।

अब वेदिक व वाममार्गी दोनो की पद्धति में भिन्नता को देखते है।


देशकाल, परिस्थिति के अनुसार उपलब्धता के अनुसार भोज्य पदार्थ का निर्णय भक्ष्य य अभक्ष्य के रुप मे होता है।

सारी सृष्टि मे जितने भी चर, अचर है, सभी जीव है। व सभी जीव अन्नरुप है। चूकि यह बिषय लम्बा है अतः इसे छोड़कर आगे बढ़ते है।

जीवबलि  वाममार्गी पूजन पद्धति मे विहित है इसलिए वाममार्ग को निन्दित कहा है, । देवी भगवती युद्धक्षेत्र मे  क्रोधयुक्त होकर शत्रुओ का मांसभक्षण करती है रक्तपान करती है, अतः वाममार्गी साधक इसी को आधार मानकर रक्तबलि चढा़ते है। उनका ऐसा मानना है कि इससे देवी शीघ्र प्रसन्न होती है। दुर्गाशप्तशती में क्षत्रियादि के लिए रक्तबलि विधान का निर्देश है, किन्तु ब्राह्मण को वर्जित किया है, ब्राह्मण के लिए कुष्माण्ड बलि लिखा गया है । इस प्रकार वाममार्ग व कुलपरंपरा से बलि विधान होता आया है।

 अब निगम अर्थात वेद के विधान के लिए देखिए।

मांस का अर्थ क्या है?


     शास्त्रों में तथा आयुर्वेद में भी अनेक ऐसे शब्द प्रयुक्त हैं, जिनके अर्थ वर्तमान में सञ्कुचित हो चुके हैं। मांस सम्भोग आदि कुछ ऐसे ही शब्द हैं। प्राचीन पद्धति में शब्दों के अर्थ बहु आयामी होते थे। वैसे ही प्रयुक्त भी होते थे। प्रशंग आदि के आधार पर अर्थ निर्णय हुआ करते हैं। आधुनिक काल में आधुनिक पाश्चात्य शैली से भावित या अपने व्यक्तिगत जीवन के आचरण में ही मुग्ध या अमुक अमुक विषय में लोलुप होने के कारण प्रायः अपने मनोनुकूल, यथा श्रुत, प्रशङ्ग आदि का विचार किये विना ही अर्थ  स्वयं लगा लेते हैं, अन्यों को भी आग्रह पूर्वक वही समझाने का यत्न करते हैं। कभी कभी इसी क्रम में इतने उग्र हो जाते हैं, कि बश चले तो विरोधी को भी भकोस लें।।

   मांस शब्द के भी जन्तु मांस (सृग् उडद आदि अनेक अर्थ हैं। जो मांसाहारी हैं, वे सर्वत्र जन्तु मांस ही अर्थ लेकर शरीर को मोटा करते रहते हैं। जो शास्त्रीय सात्विक बुद्धि वाले हैं, वे प्रकरण आदि तथा अन्य शास्त्र से अविरुद्ध अर्थ लगाकर तदनुरूप ग्रहण या त्याग करते/ कराते हैं।

      यज्ञ इत्यादि वैदिक कर्मों में प्रयुक्त शब्दों/ पदार्थों का स्पष्टीकरण, परिभाषा भी शास्त्रों में ही दी हुई हैं।।अतः शास्त्रीय परिभाषा/ अर्थ ही मान्य होना चाहिए।

देखें शतपथ ब्रा. में मांस का क्या अर्थ किया गया है---


१--#ब्रीहियवौ..#यदा_पिष्टान्यथ_लोमानि_भवन्ति-- (शतपथ.ब्रा.१/२/१/८)।

अर्थ:--ब्रीहि (शालि/धान/ चावल) जब पिष्ट होते हैं ( जब इनका आटा बन जाता है), तब ये #लोम( रोम) होते हैं/ कहलाते हैं।


२--#यदापः_आनयत्यथ_त्वग्_भवति (शत. ब्रा.१/२/१/८)।

 जब वह आटा जल से युक्त होता है, अर्थात् जब उसकी पीठी बनाई जाती है, तब उसे #त्वक् कहते हैं।


३--#यदा_स_यौत्यथ_मांसं_भवति (शत. ब्रा.१/२/१/८)।

जब वह पीठी पका दी जाती है, तब उसे #मांस कहते हैं।


४--#एतद्_ह_वै_परममन्नाद्यं_यन्मांसम् (शत. ब्रा.१/१/७)--

जो यह परम अन्न है, वही निश्चित रूपसे #मांस है।


५--#पृषदाज्यं_सदध्याज्ये_परमान्नं_तु_पायसम्।

#हव्यकव्ये_दैवपित्र्ये_अन्ने_पात्रं_स्रुवादिकम्.।

(अमर को.२/७/२४)--परमान्न तो #पायस (खीर) ही है।। 


६--#यदिमा_आपः_एतानि_मांसानि (शत. ब्रा.७/४/२)--

जो ये जल हैं, वे #मांस  हैं।


७-- 

#तोक्मानि_मांसम् (शत. ब्रा.८/३)--तोक्म मांस है।

८--

#तोक्म_शब्देन_यवा_निरूढा_उच्यन्ते ( कात्यायन सू. कर्क भाष्य १८)-- हरे जौ (यव) को तोक्म कहते हैं। अतः हरे यव मांस हैं।।


९--#तस्य_यन्मांसं_समासोत्तत्_गुग्गुल्वभवत् (ताड्य ब्रा.२४/१३/५)--उस (पादप विशेष) का जो मांस है, वह गुग्गुलु हुआ/ उस मांस से गूग्गुल बनाता है। यहां मांस का अर्थ #गूदा (गोंद/गादु) है।

       इस प्रकार अनेक अर्थों में  मांस शब्द का प्रयोग शास्त्रों में प्रचलित है।।

#ऋषभक नामक एक कन्द  विशेष के उक्षा, गो बृषभ धेनु आदि कई नाम हैं। पर लोलुप लोग अपने च्यवनप्राश में बैल ही डलबायेंगे।।

#अजवाइन को अज, अजा कहते हैं। अब कहीं आयुर्वेद में अजा का उल्लेख हो तो मांसाहारी लोग बकरी ही खायेंगे।। 

#मुनक्के का नाम गो स्तनी है। पर कोई अमुक टाइप का व्यक्ति गोस्तन ही .....

गो से उत्पन्न दूध घृत आदि को गव्य ही कहते हैं।

अजा/छागा (बकरी ) से उत्पन्न दुग्ध घृत आदि को छाग ही कहते हैं।। अब यदि कहीं छाग शब्द आता है, तो मांसाशी लोग सीधे बकरी को ही काट दलाते हैं।।

      वस्तुतः जैसे मनुष्य पशु आदि में  अस्थि मांस मज्जा मेद त्वचा आदि शब्दों का प्रयोग होता है, ठीक उसी प्रकार संस्कृत वाङ्मय में-- 

*बृक्ष आदि के ऊपरी भाग (छाल) को त्वचा , 

*उसके गूदे को मांस, 

*फल की गुठली को अस्थि ,

*गेहूँ आदि के सार भाग को मेद (मैदा),

*बृक्षों की लाख व गोंद को मज्जा", 

      इन नामों से भी कहा जाता है।

    इस प्रकार शास्त्रों में मांस मज्जा मेद आदि शब्द देख कर  सर्वत्र पशु का मांस समझ लेना  देवानां प्रियता/पशुता ही है।

    ऐसे ही वाल्मीकीय रामायण में वन गमन के प्रशङ्ग में श्रीराम  जी माता जानकी से कहते हैं--तुम यहीं महल में रहकर माता कौशल्या की #सम्भोग (सर्वतोभावेन पालन) आदि से सेवा करना।। अब केवल आधुनिक दृष्टि वाला व्यक्ति इसका अर्थ यह करे कि महिला का महिला से संसर्ग (मैथुन) रामायण काल में होता था। तो ऐसे पॉजी के ऊपर दया भी नहीं आयेगी। पादुका प्रहार ही समाधान है।।

पं. राजेश मिश्र "कण"

जय जय सीताराम

अपराजिता स्तोत्र, त्रैलोक्यविजयी अपराजिता स्तोत्र

 



अपराजिता स्तोत्र / त्रैलोक्यविजयी अपराजिता स्तोत्र

 नियम से सावधानी पुर्वक पवित्रावस्था मे पाठ करना चाहिए। पाठ करने का नियम, अपराजिता स्तोत्र की महिमा व लाभ आदि विस्तृत जानकारी पाठ के अन्त मे दी गई है।

सीधे हाथ में जल लेकर विनियोग करे:

विनियोग : ॐ अस्या: वैष्ण्व्या: पराया: अजिताया: महाविद्ध्या: वामदेव-ब्रहस्पतमार्कणडेया ॠषयः।गाय्त्रुश्धिगानुश्ठुब्ब्रेहती छंदासी। लक्ष्मी नृसिंहो देवता। ॐ क्लीं श्रीं हृीं बीजं हुं शक्तिः सकल्कामना सिद्ध्यर्थ अपराजित विद्द्य्मंत्र पाठे विनियोग:। (जल भूमि पर छोड़ दे)


अपराजिता देवी ध्यान 

ॐ निलोत्पलदलश्यामां भुजंगाभरणानिव्तं ।


शुद्ध्स्फटीकंसकाशां चन्द्र्कोटिनिभाननां ।। १।।


शड़्खचक्रधरां देवीं वैष्णवीं अपराजितं ।


बालेंदुशेख्रां देवीं वर्दाभाय्दायिनीं ।। २।।


नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कंडेय महातपा: ।। ३।।


श्री मार्कंडेय उवाच

शृणुष्वं मुनय: सर्वे सर्व्कामार्थ्सिद्धिदाम् ।


असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीं अपराजितम्। । ४। ।


ॐ नमो नारायणाय, नमो भगवते वासुदेवाय,


नमोऽस्त्वनंताय सह्स्त्रिशीर्षायणे, क्षिरोदार्णवशायिने,


शेषभोगपययड़्काय,गरूड़वाहनाय, अमोघाय अजाय अजिताय पीतवाससे,


ॐ वासुदेव सड़्कर्षण प्रघुम्न, अनिरुद्ध, हयग्रीव, मत्स्य, कुर्म, वाराह,


नृसिंह, अच्युत, वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर,राम राम राम ।


वरद, वरद, वरदो भव, नमोस्तुते, नमोस्तुते स्वाहा,


ॐ असुर- दैत्य- यक्ष- राक्षस- भूत-प्रेत- पिशाच- कुष्मांड-


सिद्ध- योगिनी- डाकिनी- शाकिनी- स्क्न्गद्घान,


उपग्रहानक्षत्रग्रहांश्रचान्या हन हन पच पच मथ मथ


विध्वंस्य विध्वंस्य विद्रावय विद्रावय चूणय चूणय शंखेंन


चक्रेण वज्रेण शुलेंन गदया मुसलेन हलेंन भास्मिकुरु कुरु स्वाहा ।


ॐ सहस्त्र्बाहो सह्स्त्रप्रहरणायुध, जय जय, विजय विजय, अजित, अमित, अपराजित, अप्रतिहत,सहत्स्र्नेत्र, ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल, विश्वरूप, बहुरूप, मधुसुदन,महावराह, महापुरुष, वैकुण्ठ, नारायण, पद्द्नाभ, गोविन्द, दामोदर, हृषिकेश, केशव, सर्वसुरोत्सादन, सर्वभूतवशड़्कर, सर्वदु:स्वप्न्प्रभेदन, सर्वयन्त्रप्रभ्जज्न, सर्वनागविमर्दन, सर्वदेवमहेश्वर,सर्व्बन्धविमोक्षण, सर्वाहितप्रमर्दन, सर्वज्वरप्रणाशन, सर्वग्रहनिवारण, सर्वपापप्रशमन, जनार्दंन, नमोस्तुते स्वाहा ।


ॐ विष्णोरियमानुपप्रोकता सर्वकामफलप्रदा ।


सर्वसौभाग्यजननी सर्वभितिविनाशनी । । ५। ।


सवैश्र्च पठितां सिद्धैविष्णो: परम्वाल्लभा ।


नानया सदृशं किन्चिदुष्टानां नाशनं परं। । ६। ।


विद्द्या रहस्या कथिता वैष्ण्व्येशापराजिता ।


पठनीया प्रशस्ता वा साक्शात्स्त्वगुणाश्रया । । ७। ।


ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजं ।


प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये । । ८। ।


अथात: संप्रवक्ष्यामी हृाभ्यामपराजितम् ।


यथाशक्तिमार्मकी वत्स रजोगुणमयी मता । । ९। ।


सर्वसत्वमयी साक्शात्सर्वमन्त्रमयी च या ।


या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता ।


सर्वकामदुधा वत्स शृणुश्वैतां ब्रवीमिते। । १०। ।


य इमां पराजितां परम्वैष्ण्वीं प्रतिहतां


पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्द्यां


जपति पठति श्रृणोति स्मरति धारयति किर्तयती वा


न तस्याग्निवायुवज्रोपलाश्निवर्शभयं


न समुद्रभयं न ग्रह्भयं न चौरभयं


न शत्रुभयं न शापभयं वा भवेत् ।


क्वाचिद्रत्र्यधकारस्त्रीराजकुलविद्वेषी


विषगरगरदवशीकरण विद्वेशोच्चाटनवध बंधंभयं वा न भवेत्।


एतैमर्न्त्रैरूदाहृातै: सिद्धै: संसिद्धपूजितै:। ॐ नमोस्तुते ।


अभये, अनघे, अजिते, अमिते, अमृते, अपरे, अपराजिते, पठत सिद्धे, जयति सिद्धे, स्मरति सिद्धे, एकोनाशितितमे, एकाकिनी, निश्चेतसी, सुद्र्मे, सुगन्धे, एकान्न्शे, उमे, ध्रुवे, अरुंधती, गायत्री, सावित्री, जातवेदसी, मास्तोके, सरस्वती,धरणी, धारणी, सौदामिनी, अदीति, दिति, विनते, गौरी ,गांधारी, मातंगी, कृष्णे , यशोदे, सत्यवादिनी, ब्र्म्हावादिनी, काली ,कपालिनी, कराल्नेत्र, भद्रे, निद्रे, सत्योप्याचकरि, स्थाल्गंत, जल्गंत,अन्त्रख्सिगतं वा माँ रक्षसर्वोप्द्रवेभ्य: स्वाहा।


यस्या: प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि ।


भ्रियते बालको यस्या: काक्बन्ध्या च या भवेत् । । ११। ।


धारयेघा इमां विधामेतैदोषैन लिप्यते।


गर्भिणी जीवव्त्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशय: । । १२। ।


भूर्जपत्रे त्विमां विद्धां लिखित्वा गंध्चंदनैः ।


एतैदोषैन लिप्यते सुभगा पुत्रिणी भवेत् । । १३। ।


रणे राजकुले दुते नित्यं तस्य जयो भवेत् ।


शस्त्रं वारयते हृोषा समरे काडंदारूणे । । १४। ।


गुल्मशुलाक्शिरोगाणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम् । । १५। ।


इत्येषा कथिता विद्द्या अभयाख्या अपराजिता ।


एतस्या: स्म्रितिमात्रेंण भयं क्वापि न जायते । । १६। ।


नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्करा: ।


न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रव: । । १७। ।


यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहा: ।


अग्नेभ्र्यं न वाताच्च न स्मुद्रान्न वै विषात् । । १८। ।


कामणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च ।


उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा । । १९। ।


न किन्चितप्रभवेत्त्र यत्रैषा वर्ततेऽभया ।


पठेद वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा । । २०। ।


हृदि वा द्वार्देशे व वर्तते हृाभय: पुमान् ।


ह्रदय विन्यसेदेतां ध्यायदेवीं चतुर्भुजां । । २१। ।


रक्त्माल्याम्बरधरां पद्दरागसम्प्रभां ।


पाशाकुशाभयवरैरलंकृतसुविग्रहां । । २२। ।


साध्केभ्य: प्र्यछ्न्तीं मंत्रवर्णामृतान्यापि ।


नात: परतरं किन्च्चिद्वाशिकरणमनुतम्ं। । २३। ।


रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा ।


प्रात: कुमारिका: पूज्या: खाद्दैराभरणैरपि ।


तदिदं वाचनीयं स्यातत्प्रिया प्रियते तू मां। । २४। ।


ॐ अथात: सम्प्रक्ष्यामी विद्दामपी महाबलां ।


सर्व्दुष्टप्रश्मनी सर्वशत्रुक्षयड़्करीं । । २५। ।


दारिद्र्य्दुखशमनीं दुभार्ग्यव्याधिनाशिनिं ।


भूतप्रेतपिशाचानां यक्श्गंध्वार्क्षसां । । २६। ।


डाकिनी शाकिनी स्कन्द कुष्मांडनां च नाशिनिं ।


महारौदिं महाशक्तिं सघ: प्रत्ययकारिणीं । । २७। ।


गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वंपार्वतीपते: ।


तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः श्रृणु । । २८। ।


एकाहिृकं द्वहिकं च चातुर्थिकर्ध्मासिकं ।


द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्थ्मासिकं । । २९। ।


पाँचमासिक षाड्मासिकं वातिक पैत्तिक्ज्वरं ।


श्रैष्मिकं सानिपातिकं तथैव सततज्वरं । । ३०। ।


मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरं ।


द्वहिंकं त्रयहिन्कं चैव ज्वर्मेकाहिकं तथा ।


क्षिप्रं नाशयेते नित्यं स्मरणाद्पराजिता। । ३१। ।


ॐ हीं हन हन कालि शर शर गौरि धम धम


विद्धे आले ताले माले गन्थे बन्धे पच पच विद्दे


नाशाय नाशाय पापं हर हर संहारय वा दु:स्वप्नविनाशनी कमलस्थिते


विनायकमात: रजनि संध्ये दुन्दुभिनादे मानसवेगे शड़्खिनी चक्रिणी


गदिनी वज्रिणी शूलिनी अपमृत्युविनाशिनी विश्रेश्वरी द्रविणी


द्राविणी केश्वद्यिते पशुपतिसहिते दुन्दुभिदमनी दुम्मदमनी शबरि


किराती मातंगी ॐ द्रं द्रं ज्रं ज्रं क्रं क्रं तुरु तुरु ॐ द्रं कुरु कुरु ।


ये मां द्विषन्ति प्रत्यक्षं परोक्षं वा तान सर्वान दम दम मर्दय मर्दय तापय तापय गोपय गोपय पातय पातय शोषय शोषय उत्सादय उत्सादय ब्रम्हाणी ब्रम्हाणी माहेश्वरी कौमारि वाराहि नारसिंही एंद्री चामुंडे महालक्ष्मी वैनायिकी औपेंद्री आग्नेयी चंडी नैॠति वायव्ये सौम्ये ऐशानि ऊध्र्व्मधोरक्ष प्रचंद्विद्दे इन्द्रोपेन्द्रभगिनि ।

ॐ नमो देवी  जये विजये शान्ति स्वस्ति तुष्ठी पुष्ठी विवर्द्धिनी कामांकुशे कामदुद्दे सर्वकामवर्प्रदे सर्वभूतेषु माँ प्रियं कुरु कुरु स्वाहा ।

आकर्षणी आवेशनि ज्वालामालिनी रमणी रामणि धरणी धारणी तपनि तापिनी मदनी मादिनी शोषणी सम्मोहिनी।


नीलपताके महानीले महागौरि महाश्रिये ।


महाचान्द्री महासौरी महामायुरी आदित्यरश्मि जाहृवि ।


यमघंटे किणी किणी चिन्तामणि ।


सुगन्धे सुर्भे सुरासुरोत्प्त्रे सर्वकाम्दुद्दे ।


यद्द्था मनिषीतं कार्यं तन्मम सिद्धतु स्वाहा ।


ॐ स्वाहा ।  ॐ भू: स्वाहा ।  ॐ  भुव: स्वाहा ।  ॐ स्व: स्वाहा ।


ॐ मह: स्वाहा ।  ॐ जन: स्वाहा ।  ॐ तप: स्वाहा ।  ॐ सत्यं स्वाहा ।  ॐ भूभुर्व: स्वाहा ।


यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छ्तु स्वाहेत्यों ।


अमोघैषा महाविद्दा वैष्णवी चापराजिता । । ३२। ।


स्वयं विश्नुप्रणीता च सिद्धेयं पाठत: सदा ।


एषा महाबला नाम कथिता तेऽपराजित । । ३३। ।


नानया सदृशी रक्षा त्रिषु लोकेषु विद्दते ।


तमोगुणमयी साक्षद्रोद्री शक्तिरियं मता । । ३४। ।


कृतान्तोऽपि यतोभीत: पाद्मुले व्यवस्थित: ।


मूलाधारे न्यसेदेतां रात्रावेन च संस्मरेत । । ३५। ।


नीलजीतमूतसंड़्काशां तडित्कपिलकेशिकाम् ।


उद्ददादित्यसंकाशां नेत्रत्रयविराजिताम् । । ३६। ।


शक्तिं त्रिशूलं शड़्खं चपानपात्रं च बिभ्रतीं ।


व्याघ्र्चार्म्परिधानां किड़्किणीजालमंडितं । । ३७। ।


धावंतीं गगंस्यांत: पादुकाहितपादकां ।


दंष्टाकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषितां । । ३८। ।


व्यात्वक्त्रां ललजिहृां भुकुटिकुटिलालकां ।


स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पान्पात्रत: । । ३९। ।


सप्तधातून शोषयन्तीं क्रूरदृष्टया विलोकनात् ।


त्रिशुलेन च तज्जिहृां कीलयंतीं मुहुमुर्हु: । । ४०। ।


पाशेन बद्धा तं साधमानवंतीं तन्दिके ।


अर्द्धरात्रस्य समये देवीं ध्यायेंमहबलां । । ४१। ।


यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मंत्रं निशांतके ।


तस्य तस्य तथावस्थां कुरुते सापियोगिनी । । ४२। ।


ॐ बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति ।


अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्णवीं । ।  ४३। ।


श्रीमद्पाराजिताविद्दां    ध्यायते ।


दु:स्वप्ने दुरारिष्टे च दुर्निमिते तथैव च ।


व्यवहारे भवेत्सिद्धि: पठेद्विघ्नोपशान्त्ये । । ४४। ।


यदत्र पाठे जगदम्बिके मया, विसर्गबिन्द्धऽक्षरहीमीड़ितं ।


तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रयान्तु मे, सड़्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायतां । । ४५। ।


ॐ तव तत्वं न जानामि किदृशासी महेश्वरी ।


यादृशासी महादेवी ताद्रिशायै नमो नम: । । ४६। ।




देवी अपराजिता की महिमा, अपराजिता का अर्थ है, जो कभी पराजित नहीं होता। देवी अपराजिता के सम्बन्ध में कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्य भी जानने योग्य है, जैसे की उनकी मूल प्रकृति क्या है? देवी अपराजिता का पुज्नारम्भ तब से हुआ जब देवासुर संग्राम के दौरान नवदुर्गाओ ने दानवों के सम्पूर्ण वंश का नाश कर दिया था,तब माँ दुर्गा अपनी मूल पीठशक्तिओं में से अपनी आदि शक्ति अपराजिता स्तोत्र को पूजने के लिए, शमी की घास लेकर हिमालय में अंतर्ध्यान हो गई।-





 साधना करने से पूर्व पाठ का शुद्ध अभ्यास आवश्यक है जिससे अशुद्धिओं और गलतिओं से कुछ हद तक छुटकारा पाया जा सके हालांकि शत-प्रतिशत शुद्धता ला पाना सर्वसाधारण के वश की बात नही है, किन्तु अल्प अशुद्धियाँ सफलता में बड़ा विघ्न नही है। साथ ही भावयुक्त साधना भी अशुद्धियों को तिरोहित कर देती है। जिससे अधिक अच्छे परिणाम मिल ही जाते है। देवी अपराजिता शक्ति की नौ पीठ शक्तियों में से एक है।


माँ शक्ति की बहुत संहारकारी शक्ति है- अपराजिता, जो कभी पराजित नहीं हो सकती और  अपने साधको को कभी भी पराजय का मुख नही देखने देती है –विषम परिस्थिति में जब भी रास्ते बंद हो उस स्थिति में भी हंसी-खेल में अपने साधको को बचा ले जाना माता अपराजिता के लिए बहुत ही सामान्य बात है। 


अपराजिता स्तोत्र  पाठ की विधि:

अपराजिता स्तोत्र  को निरंतर 40 दिन तक प्रतिदिन तीनों काल पाठ करने से सभी कार्य सफल होते है, अपराजिता स्तोत्र का 1200 पाठ का अनुष्टान करने से स्तोत्र सिद्ध होता है, इसके लिए प्रतिदिन इस स्तोत्र का 120 पाठ, 10 दिन  करना चाहियें। 


पाठ सिद्धि कै लिए, बिशिष्ट मार्गदर्शन गुरुमुख से प्राप्त करे। अथवा पं.राजेश मिश्र "कण" से निवेदन करे


 रात्री के 9 बजे से लेकर 1 बजे के बीच, अपने सामने माँ  काली य दुर्गा की मूर्ति के सामने एक शुद्ध घी का दीपक प्रज्वलित करें और विनियोग कर पाठ आरम्भ करे, स्तोत्र का पाठ शुद्ध व स्पष्ट स्वर से करे, यदि स्वंय पाठ करना सम्भव ना हो, तो  योग्य ब्रम्हाण द्वारा पाठ  कराएँ।


अपराजिता स्तोत्र के लाभ:

जैसा इस स्तोत्र का नाम है, वैसा हि इस स्तोत्र का काम है। त्रैलोक्य विजया अर्थात तीनों लोको में जो पराजित ना होने दे, तीनो लोकों में जो विजय प्रदान करें ऐसा स्तोत्र है, इस स्तोत्र के पाठ से नवग्रह दोष समाप्त हो जाते है, भूत-प्रेत आदि बाधाओं से मुक्ति मिलती है, नकारात्मक शक्तिओं का नाश हो जाता है, मनुष्य की सभी मनोकामना सिद्ध हो जाति है, जाने-अनजाने किये गए या हुए पापों का विनाश हो जाता है, विद्यार्थियो को विद्या प्रदान करता है, नि:सन्तान को सन्तान प्राप्ति के द्वार खुल जाते है। सरकारी कामो में सफलता प्राप्त होती है, किसी भी प्रकार का कोई भय नहीं होता, सभी प्रकार के उपद्रव शांत हो जाते है, शत्रु के द्वारा किये हुए मारण, मोहन, उच्चाटन आदि क्रियाओं को नष्ट कर देने में यह स्तोत्र समर्थ है, ।


सभी प्रकार के विघ्न शांत हो जाते है  इससे दु:स्वप्न भी शांत हो जाते है, सामाजिक मान सम्मान देने भी यह समर्थ है। राज नेताओं को राजनितिक सफलता प्राप्ति के लिए इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। इस स्तोत्र के निरंतर जाप करने से विभिन्न संक्रामक रोग (बर्डफ्लू, सॉर्स, स्वाइनफ्लू, करोनावायरस आदि) से रक्षा होती है तथा अनेक असाध्य रोग (कैंसर, एड्स,हृदय रोग , त्वचा रोग आदि) शांत होते है। 




जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...