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जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- 'जीवता स्वार्थोद्देश्येन कर्तव्यं श्राद्धं जीवच्छ्राद्धमित्युच्यते।' (बौधायनगृह्यसूत्र, पितृमेधसूत्र २।९।५७/१) (२) जीवच्छ्राद्धकी अवश्यकरणीयता-देश, काल, धन, श्रद्धा, आजीविका आदि साधनोंकी समुन्नतावस्थामें जीवित रहते हुए पुरुषके उद्देश्यसे अथवा स्वयं (जीव) के उद्देश्यसे व्यक्तिको अपना श्राद्ध सम्पादित कर लेना चाहिये- देशकालधनश्रद्धाव्यवसायसमुच्छ्रये । जीवते वाऽथ जीवाय दद्याच्छ्राद्धं स्वयं नरः ॥ (जीवच्छाद्धपद्धतिमें आदित्यपुराणका वचन) (३) जीवच्छ्राद्ध करनेका स्थान-मृत्युको समीप जानकर पर्वतपर अथवा नदीतटपर, वनमें या निवासस्थानमें प्रयत्नपूर्वक जीवच्छ्राद्ध करना चाहिये- पर्वते वा नदीतीरे वने वायतनेऽपि वा। जीवच्छ्राद्धं प्रकर्तव्यं मृत्युकाले प्रयत्नतः ॥                  ( लिंगपुराण उ०४५|५) (४) जीवच्छ्राद्ध कर लेनेवाला कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है जीवच्छ्राद्ध कर लेन...

जीवित श्राद्ध का माहात्म्य

  लिंगपुराणमें जीवित श्राद्ध की महिमाका प्रतिपादन इस प्रकार हुआ है -ऋषियोंके द्वारा जीवच्छ्राद्धके विषयमें पूछनेपर सूतजीने कहा- हे सुव्रतो! सर्वसम्मत जीवच्छ्राद्धके विषयमें संक्षेपमें कहूँगा। देवाधिदेव ब्रह्माजीने पहले वसिष्ठ, भृगु, भार्गवसे इस विषयमें कहा था। आपलोग सम्पूर्ण भावसे सुनें, मैं श्राद्धकर्मके क्रमको और साक्षात् जो श्राद्ध करनेके योग्य हैं, उनके क्रमको भी बताऊँगा तथा जीवच्छ्राद्धकी विशेषताओंके सम्बन्धमें भी कहूँगा, जो श्रेष्ठ एवं सब प्रकारके कल्याणको देनेवाला है। मृत्युको समीप जानकर पर्वतपर अथवा नदीके तटपर, वनमें या निवासस्थानमें प्रयत्नपूर्वक जीवच्छ्राद्ध करना चाहिये। जीवच्छ्राद्ध कर लेनेके अनन्तर वह व्यक्ति कर्म करे अथवा न करे, ज्ञानी हो अथवा अज्ञानी हो, श्रोत्रिय हो अथवा अश्रोत्रिय हो, ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो अथवा वैश्य हो-अपनी जीवितावस्थामें ही योगीकी भाँति कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है। उसके मरनेपर उसका और्ध्वदैहिकसंस्कार किया जाय अथवा न किया जाय; क्योंकि वह स्वयं जीवन्मुक्त हो जाता है। यतः वह जीव जीवन्मुक्त हो जाता है, अतः नित्य-नैमित्तिकादि विधिबोधित कार्योंके सम...

जीवित श्राद्ध कैसे करे

  आज तो अधिकांश घरोंमें जीवितावस्थामें ही माता-पिताकी दुर्दशा देखी जा रही है फिर मृत्युके अनन्तर और्ध्वदैहिक संस्कार सम्पन्न करनेका प्रश्न ही नहीं। यद्यपि माता-पिताके जीवनकालमें उनके पुत्रादि उत्तराधिकारियोंके द्वारा भरण-पोषणमें जो उनकी उपेक्षा हो रही है और इससे उन्हें जो कष्ट हो रहा है, वह कष्ट तो इस शरीरके रहनेतक ही है, उसके बाद समाप्त हो जानेवाला है, किंतु शरीरके अन्त होनेके अनन्तर जीवके सुदीर्घ कालतककी आमुष्मिक  सद्गति-दुर्गतिसे सम्बन्धित औध्वदैहिक संस्कारोंके न कर लेनेकी सम्भावनासे माता-पिता आदि जनोंमें घोर निराशा उत्पन्न होती है। इस अवसादसे त्राण पानेके लिये अपने जीवनकालमें ही जीवको अपना जीवच्छ्राद्ध कर लेनेकी व्यवस्था शास्त्रने दी है। अपनी जीवितावस्थामें ही अपने पुत्रादिद्वारा अपनी उपेक्षाको देख-समझकर उन पुत्रादि अधिकारियोंसे अपने आमुष्मिक श्रेयः-सम्पादनकी आशा कैसे की जा सकती है? पुत्रादि उत्तराधिकारियोंको अपने दिवंगत माता-पिताके कल्याणके लिये अपनी शक्ति और सामर्थ्यके अनुरूप इन सब कृत्योंका किया जाना आवश्यक है - पापके प्रायश्चित्तके रूपमें जीवनमें किये गये व्रत आदिकी पू...

जीवित श्राद्ध, जिनकी कोई संतान नही उनके लिए

  श्राद्धसे बढ़कर कल्याणकारी और कोई कर्म नहीं होता। अतः प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध करते रहना चाहिये।  एवं विधानतः श्राद्धं कुर्यात् स्वविभवोचितम् । आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं जगत् प्रीणाति मानवः ॥ (ब्रह्मपुराण)  जो व्यक्ति विधिपूर्वक अपने धनके अनुरूप श्राद्ध करता है, वह ब्रह्मासे लेकर घासतक समस्त प्राणियोंको संतृप्त कर देता है। (हेमाद्रिमें कूर्मपुराणका वचन)  जो शान्तमन होकर विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर जन्म-मृत्युके बन्धनसे छूट जाता है। योऽनेन विधिना श्राद्धं कुर्याद् वै शान्तमानसः । व्यपेतकल्मषो नित्यं याति नावर्तते पुनः ॥ आज जीवित श्राद्ध कैसे करे।  जीवित श्राद्ध यद्यपि ये सब क्रियाएँ मुख्यरूपसे पुत्र-पौत्रादि सन्ततियोंके लिये कर्तव्यरूपसे लिखी गयी हैं, परंतु आधुनिक समयमें कई प्रकारकी बाधाएँ और व्यवधान भी दिखायी पड़ते हैं। पूर्वकालसे यह परम्परा रही है कि माता- पिताके मृत होनेपर उनके पुत्र-पौत्रादि श्रद्धापूर्वक शास्त्रोंकी विधिसे उनका श्राद्ध सम्पन्न करते हैं। जिन लोगोंको सन्तान नहीं होती, उनका श्राद्ध उस व्यक्तिके किसी निकट सम्बन्धीके द्...

नर कौन है ? मनुष्य किसे कहते है?

नर कौन है? नित्यानुष्ठाननिरतः सर्वसंस्कारसंस्कृतः । वर्णाश्रम- सदाचार-सम्पन्नो 'नर' उच्यते ॥ अर्थात् नित्य कर्म करनेवाला, सब संस्कारों से पुनीत देह, और वर्ण आश्रम, एवं सदाचार से सम्पन्न व्यक्ति ही (उक्त श्लोककी परिभाषा में) नर कहा जाने योग्य है। यूँ तो जन गणना की पुस्तक में नामाङ्कित करानेवाले अन्यून तीन अर्व नर-मनुष्य-प्रादमी आज संसार में विद्यमान हैं, परन्तु काली स्याही के साथ रजिस्टर की खाना पूरी करने मात्र से कोई व्यक्ति 'नर' प्रमाणित नहीं हो सकता किन्तु वेदादि शास्त्रों में नर की एक विशेष परिभाषा निश्चित की गई है तदनुसार तादृश आचार, विचार, व्यवहार और रहन-सहन रखनेवाला व्यक्ति ही उक्त उपाधि का वास्तविक अधिकारी हो सकता है। यह बात सर्व विदित है कि संस्कृत देवभाषा का प्रत्येक शब्द यौगिक होने के कारण अपनी मूल धातु के अनुरूप किसी विशिष्ट अर्थ का द्योतक होता है। इस तरह संस्कृत के प्रत्येक शब्द के साथ धर्यवाङ्मय के अनेक तत्व नितरी सुसम्बद्ध रहते हैं। जैसे—मनुष्य, मानुष, मर्त्य, मनुज, मानव और नर आदि मनुष्य शब्द के सभी पर्यायों में जहाँ मानवता का एक खास संकेत मिलता है यहां उस...

ईश्वर कौन है ईश्वर कैसा है?

जैसे मानव पिण्ड जड़ तथा स्थूल है और उसमें रहने वाला जीव चेतन और सूक्ष्म है ठीक इसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड जड तथा स्थूल है किन्तु तद् व्यापक परमात्मा चेतन और सूक्ष्म है। अन्तर केवल इतना है कि साढ़े तीन हाथ के मानव पिण्ड में रहने वाले चेतन का नाम 'जीव + आत्मा' है और एक अर्व योजन प्रमाण वाले ब्रह्माण्ड में रहने वाले चेतन का नाम 'परम + आत्मा' है एक के साथ 'जीव' विशेषण लगा है दूसरे के साथ परम' विशेषण लगा है। यदि दोनों विशेषरणों को हटा 'दिया जाए तो 'आत्मा' अण्ड और पिण्ड दोनों में समान है यही विशिष्ट अर्द्धतवाद का मौलिक रहस्य है। इसलिए जो यह पूछता है कि ईश्वर के अस्तित्व में क्या प्रमाण है ? मानो यह ईश्वर कहाँ रहता है और कैसा है ? अपनी ही सत्ता में स्वयं संदेह करता है। इसलिये 'ईश्वरसद्भावे किं मानम्' का अण्ड पिण्ड-वाद' सिद्धान्त के अनुसार सीधा उत्तर हुवा कि sexसद्भावे त्वमेव प्रमाणम्' । इसी ढंग से इस सम्बन्ध के अन्यान्य प्रश्नों को क्षण मात्र में समाहित किया जा सकता है, यथा- ईश्वर कहां रहता है ? ( स श्रोतः प्रोतश्च विभुः प्रजासु ) ईश्वर कह...

शम्बूक वध क्यो आवश्यक था ?

भगवान राम ने शम्बूक का वध क्यों किया था?  ‘ श्राीराम का आचरण इतना शुद्ध, निष्ठापूर्ण और धर्मानुसार था कि उनकी प्रजा को दुख, दरिद्रता, रोग, आलस़्य, असमय मृत्यु जैसे कष्ट छू भी नहीं पाते थे।। अतः इसी अनुसार रामराज्य की अवधारणा बनी है। इसी कारण सभी लोग रामराज्य की कामना करते है।    एक दिन अचानक एक ब्राह्मण रोता-बिलखता उनके  राजदरबार में आ पहुंचा। श्रीराम ने ब्राह्मण से जब उसके रोने का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसके तेरह वर्ष के पुत्र की असमय मृत्यु हो गई। यह राम के राज्य में अनोखी और असंभव-सी घटना थी क्योंकि ‘राम-राज्य’ में तो इस तरह का कष्ट किसी को नहीं हो सकता था। दुखी ब्राह्मण ने श्रीराम पर आरोप लगाया कि उनके राज्य में धर्म की हानि हुई है और उसी के चलते उसके पुत्र की असमय मृत्यु हो गई। ब्राह्मण कहता है कि राज्य में धर्म की उपेक्षा और अधर्म का प्रसार होने का फल प्रजा को भुगतना पड़ रहा है और उस पाप का छठा भाग राजा के हिस्से में आता है। इसलिए राज्य में होने वाले पाप के लिए राजा राम उत्तरदायी हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से यह आरोप सहन नही होता। वह देवर्षि नारद समेत क...