दुर्गासप्तशती के सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का बृहद स्वरुप, पुर्ण कुंजिका स्तोत्र

 दुर्गाशप्तशती मे दी गई कुंजिका स्तोत्र लघुरुप मे है। रुद्रामल के गौरीतंत्र मे इसका पुरा विवरण दिया गया है।

यह परम दुर्लभ व गोपनीय है।

विनियोग :

 

ॐ  अस्य श्री कुन्जिका स्त्रोत्र मंत्रस्य  सदाशिव ऋषि: ।

अनुष्टुपूछंदः ।

श्रीत्रिगुणात्मिका  देवता ।

ॐ ऐं बीजं ।

ॐ ह्रीं शक्ति: ।

ॐ क्लीं कीलकं ।

मम सर्वाभीष्टसिध्यर्थे जपे विनयोग: ।

 

ऋष्यादि न्यास:

 

श्री सदाशिव ऋषये नमः शिरसि ।

अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे ।

त्रिगुणात्मक देवतायै नमः हृदि ।

ऐं बीजं नमः नाभौ ।

ह्रीं शक्तयो नमः पादौ ।

क्लीं कीलकं नमः सर्वांगे ।

सर्वाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः नमः अंजलौ।


करन्यास:

 

ऐं अंगुष्ठाभ्यां नमः ।

ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा ।

क्लीं मध्यमाभ्यां वषट ।

चामुण्डायै अनामिकाभ्यां हुं ।

विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां वौषट ।

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकर प्रष्ठाभ्यां फट ।


हृदयादिन्यास:

 

ऐं हृदयाय नमः ।

ह्रीं शिरसे स्वाहा ।

क्लीं शिखायै वषट ।

चामुण्डायै कवचाय हुं ।

विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट ।

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरप्रष्ठाभ्यां फट ।

 

ध्यानं: सिंहवाहिन्यै त्रिगुणात्मिका चामुंडा

रक्तनेत्री, रक्तप्रिया, रक्तपुष्पमालाधारिणी

लालवस्त्र भूषिता रक्तनेत्रा मधुपात्रधारणी

मेघगर्जिनि अट्टटाहसिनी दानवकुलघातिनी

दासरक्षिणी रणप्रिया खेटक खड़गधारिणी

कल्याणी जगतजननी देवी भव-भयहारिणी।

                     

श्री-बृहत्-महा-सिद्ध-कुञ्जिका-स्तोत्रम् ॥शिव उवाच॥ शृणु देवि! प्रवक्ष्यामि, कुञ्जिका-स्तोत्रमुत्तमम्। येन मन्त्र-प्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत्॥1॥

 न कवचं नार्गला तु, कीलकं न रहस्यकम्। न सूक्तं नापि ध्यानं च, न न्यासो न च वाऽर्चनम्॥2॥ 

कुञ्जिका-पाठ-मात्रेण, दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्। अति गुह्यतरं देवि! देवानामपि दुर्लभम्॥3॥

 गोपनीयं प्रयत्‍‌नेन, स्वयोनिरिव पार्वति! मारणं मोहनं वश्यं, स्तम्भनोच्चाटनादिकम्। पाठमात्रेण संसिद्धयेत्, कुञ्जिका-स्तोत्रमुत्तमम्॥4॥ 

ॐ श्रूं श्रूं श्रूं श्रं फट् ऐं ह्रीं ज्वालोज्ज्वल, प्रज्वल, ह्रीं ह्रीं क्लीं स्रावय स्रावय। वशीष्ठ-गौतम-विश्वामित्र-दक्ष-प्रजापति-ब्रह्मा ऋषयः। सर्वैश्वर्य-कारिणी श्री दुर्गा देवता। गायत्र्या शापानुग्रह कुरु कुरु हूं फट्। ॐ ह्रीं श्रीं हूं दुर्गायै सर्वैश्वर्य-कारिण्यै, ब्रह्म-शाप-विमुक्ता भव। ॐ क्लीं ह्रीं ॐ नमः शिवायै आनन्द-कवच-रुपिण्यै, ब्रह्म-शाप-विमुक्ता भव। ॐ काल्यै काली ह्रीं फट् स्वाहायै, ऋग्वेद-रुपिण्यै, ब्रह्म-शाप-विमुक्ता भव। शापं नाशय नाशय, हूं फट्॥ श्रीं श्रीं श्रीं जूं सः आदाय स्वाहा॥ ॐ श्लों हुं क्लीं ग्लौं जूं सः ज्वलोज्ज्वल मन्त्र प्रबल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा। नमस्ते रुद्र-रूपायै नमस्ते मधु-मर्दिनि। नमस्ते कैटभारि च नमस्ते महिषार्दिनि॥1॥ नमस्ते शुम्भहन्त्री च, निशुम्भासुर-घातिनि॥2॥ नमस्ते जाग्रते देवि! जपं सिद्धिं कुरुष्व मे। ॐ ऐंकारी सृष्टि-रूपायै ह्रींकारी प्रति-पालिका॥3॥ क्लींकारी काम-रूपिण्यै बीजरूपे! नमोऽस्तु ते। चामुण्डा चण्ड-घाती च यैङ्कारी वर-दायिनी॥4॥ विच्चे त्व-भयदा नित्यं नमस्ते मन्त्र-रूपिणि॥5॥ ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हंसः-सोऽहं अं आं ब्रह्म-ग्रन्थि भेदय भेदय। इं ईं विष्णु-ग्रन्थि भेदय भेदय। उं ऊं रुद्र-ग्रन्थि भेदय भेदय। अं क्रीं, आं क्रीं, इं क्रीं, इं हूं, उं हूं, ऊं ह्रीं, ऋं ह्रीं, ॠं दं, लृं क्षिं, ॡं णें, एं कां, ऐं लिं, ओं कें, औं क्रीं, अं क्रीं, अः क्रीं, अं हूं, आं हूं, इं ह्रीं, ईं ह्रीं, उं स्वां, ऊं हां, यं हूं, रं हूं, लं मं, बं हां, शं कां, षं लं, सं प्रं, हं सीं, ळं दं, क्षं प्रं, यं सीं, रं दं, लं ह्रीं, वं ह्रीं, शं स्वां, षं हां, सं हं लं क्षं॥ महा-काल-भैरवी महा-काल-रुपिणी क्रीं अनिरुद्ध-सरस्वति! हूं हूं, ब्रह्म-ग्रह-बन्धिनी, विष्णु-ग्रह-बन्धिनी, रुद्र-ग्रह-बन्धिनी, गोचर-ग्रह-बन्धिनी, आदि-व्याधि-ग्रह-बन्धिनी, सर्व-दुष्ट-ग्रह-बन्धिनी, सर्व-दानव-ग्रह-बन्धिनी, सर्व-देवता-ग्रह-बन्धिनी, सर्वगोत्र-देवता-ग्रह-बन्धिनी, सर्व-ग्रहोपग्रह-बन्धिनी! ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ॐ क्रीं हूं मम पुत्रान् रक्ष रक्ष, ममोपरि दुष्ट-बुद्धिं दुष्ट-प्रयोगाना् कुर्वन्ति, कारयन्ति, करिष्यन्ति, तान् हन। मम मन्त्र-सिद्धिं कुरु कुरु। मम दुष्टं विदारय विदारय। दारिद्रयं हन हन। पापं मथ मथ। आरोग्यं कुरु कुरु। आत्म-तत्त्वं देहि देहि। हंसः सोहम्। क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा॥ नव-कोटि-स्वरुपे, आद्ये, आदि-आद्ये अनिरुद्ध-सरस्वति! स्वात्म-चैतन्यं देहि देहि। मम हृदये तिष्ठ तिष्ठ। मम मनोरथं कुरु कुरु स्वाहा॥ धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नीः! वां वीं वागेश्वरी तथा। क्रां क्रीं क्रूं कुञ्जिका देवि! शां शीं शूं में शुभं कुरू॥ हूं हूं हूङ्कार-रूपायै, जां जीं जूं भाल-नादिनीं। भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे ! भवान्यै ते नमो नमः॥7 ॐ अं कं चं टं तं पं सां विदुरां विदुरां, विमर्दय विमर्दय ह्रीं क्षां क्षीं क्षीं जीवय जीवय, त्रोटय त्रोटय, जम्भय जम्भय, दीपय दीपय, मोचय मोचय, हूं फट्, जां वौषट्, ऐं ह्रीं क्लीं रञ्जय रञ्जय, सञ्जय सञ्जय, गुञ्जय गुञ्जय, बन्धय बन्धय। भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे ! संकुच संकुच, सञ्चल सञ्चल, त्रोटय त्रोटय, म्लीं स्वाहा॥ पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा॥8 म्लां म्लीं म्लूं मूल-वीस्तीर्णा-कुञ्जिकायै नमो नमः॥ सां सीं सप्तशती देव्या मन्त्र-सिद्धिं कुरूश्व मे॥9 ॥फल श्रुति॥ इदं तु कुंजिका स्तोत्रं मन्त्र-जागर्ति हेतवे। अभक्ते नैव दातव्यं, गोपितं रक्ष पार्वति॥ विहीना कुञ्जिका-देव्या,यस्तु सप्तशतीं पठेत्। न तस्य जायते सिद्धिः ह्यरण्ये रुदतिं यथा॥ ॥इति श्रीरुद्रयामले, गौरीतन्त्रे, काली तन्त्रे शिव-पार्वती संवादे कुञ्जिका-स्तोत्रं॥



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राहु का भावफल, दशाफल, गोचर फल

 राहु का भाव फल- जन्म कुंडली में राहु का विभिन्न भावों में स्थित होने का फल इस प्रकार है: -

लग्न में स्थित राहु से जातक शत्रु विजयी, अपना काम निकाल लेने वाला, कामी, शिरो वेदना से युक्त, आलसी, क्रूर, दयाहीन, साहसी, अपने सम्बन्धियों को ही ठगने वाला, राक्षस स्वभाव का, वातरोगी होता है।

द्वितीय धन भाव में स्थित राहु से जातक असत्य बोलने वाला, नष्ट कुटुंब वाला, अप्रिय भाषण कर्ता, निर्धन, परदेस में धनी, कार्यों में बाधाएं, मुख्य व नेत्र रोगी, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करने वाला होता है।

तृतीय पराक्रम भाव में स्थित राहु से जातक स्रक्रमी, सब से मैत्री पाने वाला, शत्रु को दबा कर रखने वाला, कीर्तिमान, धनी, निरोग होता है | निर्बल और पाप योजनाओं से युक्त या दृष्ट होने पर छोटे भाई के सुख में कमी करता है |

चतुर्थ सुख भाव में स्थित राहु से जातक की माता को कष्ट रहता है | मानसिक चिंता बनी हुई है | प्रवासी और अपने ही लोगों से झगड़ता रहता है |

पंचम संतान भाव में स्थित राहु से संतान चिंता, उदर रोग, शिक्षा में बाधा, वहम का शिकार होता है

छठवे शत्रु भाव में स्थित राहु से जातक रोग और शत्रु को नष्ट करने वाला, पराक्रमी, धनवान, राजमान्य, विख्यात होता है |

सातवे जाना भाव में स्थित राहु से विवाह में विलम्ब या बाधा, स्त्री को कष्ट, व्यर्थ भ्रमण, कामुकता, मूत्र विकार, दन्त पीड़ा और प्रवास में कष्ट उठाने वाला होता है |

आठवेंआयु भाव में स्थित राहु से पैतृक धन संपत्ति की हानि, कुकृत्य करने वाला, बवासीर का रोगी, भारी श्रम से वायु गोला, रोगी और 32 वें वर्ष में कष्ट प्राप्त करने वाला होता है।

नवें भाग्य भाव में स्थित राहु से विद्वान, कुतुम्ब का पालन करने वाला, देवता और तीर्थों में विशवास करने वाला, उपहार, दानी, धनी, सुखी होता है |

दसवें कर्म भाव में स्थित राहु से अशुभ कार्य करने वाला, घमंडी, झगडालू, शूर, गाँव या नगर का अधिकारी, पिता को कष्ट देने वाला होता है |

ओवनवें लाभ भाव में स्थित राहु से पुत्रवान, अपनी बुद्धि से दूसरों का धन अपहरण करने वाला, विद्वान, धनी, सेवकों से युक्त, कान में पीड़ा वाला, विदेश से लाभ उठाने वाला होता है |

बारहवें व्यय भाव में स्थित राहु से दीन, पसली में दर्द से युक्त, असफल, दानवों का मित्र, नेत्र व पैर का रोगी, कलहप्रिय, बुरे कर्मों में धन का व्यय करने वाला होता है।

जन्म कुंडली में राहु स्व, मित्र, उच्च राशि -नवांश का, शुभ युक्त-व्रत, लग्न से शुभ स्थानों पर हो, केन्द्रेशसे त्रिकोण में या त्रिकोणेश से केन्द्र में युति सम्बन्ध बनाता हो तो राहु की दीक्षा बहुत सुख, ज्ञान वृद्धि, धन वृद्धि धान्य की वृद्धि, पुत्र प्राप्ति, राजा और मित्र सहयोग से अभीष्ट सिद्धि, विदेश यात्रा, प्रभाव में वृद्धि, राजनीति और कूटनीति में सफलता और सभी प्रकार के सुख वैभव प्रदान करता है |

राहु शत्रु –निचादि राशि का पाप युक्त, दृष्टि हो कर 6-8-12 वें स्थान पर हो तो उसकी अशुभ दशा में सर्वांग पीड़ा, चोर –अग्नि-षस्त्र से भय, विष या सर्प से भय, पाप कर्म के कारण बदनामी, असफलता। । , विवाद, हेम करने की मनोवृत्ति, कुसंगति से हानि, वात और त्वचा रोग, रोग से भय होता है।

गोचर मे राहु

नाम राशि य जन्म राशि से ३,६, ११ वें स्थान पर राहु शुभ फल देता है | शेष स्थानों पर राहु का भ्रमण अशुभ कारक होता है।

जन्मकालीन चन्द्र से प्रथम स्थान पर राहु का गोचर सर दर्द, भ्रम, अशांति, विवाद और वात पीड़ा करता है

दूसरे स्थान पर राहु के गोचर से घर में अशांति और कलह क्लेश होता है। चोरी या ठगी से धन कि हानि, दृष्टि या दाँत में कष्ट होता है। परिवार से अलग रहना पड़ रहा है |

तीसरे स्थान पर राहु का गोचर आरोग्यता, मित्र व व्यवसाय लाभ, शत्रु की पराजय, साहस पराक्रम में वृद्धि, शुभ नौकरी प्राप्ति, भाग्य वृद्धि, बहन व भाई के सुख में वृद्धि व राज्य से सहयोग प्राप्तता है |

चौथे स्थान पर राहु के गोचर से कुसंगति, स्थान हानि, स्वजनों से वियोग या विरोध, सुख हीनता, मन में स्वार्थ व लोभ का उदय, वाहन से कष्ट, छाती में दर्द होता है।

पांच स्थान पर राहु के गोचर से भ्रम, योजनाओं में असफलता, पुत्र को कष्ट, धन निवेश में हानि व उदर विकार होता है | शुभ राशि में शुभ युक्त या शुभ दृष्टि हो तो सट्टे लाटरी से लाभ प्राप्त होता है।

छ्टे स्थान पर राहु के गोचर से धन अन्न व सुख कि वृद्धि, आरोग्यता, शत्रु पर विजय व संपत्ति का लाभ, मामा या मौसी को कष्ट होता है |

सातवें स्थान पर राहु के गोचर से दांत व जननेंद्रिय सम्बन्धी रोग, मूत्र विकार, पथरी, यात्रा में कष्ट, दुर्घटना, स्त्री को कष्ट या उस से विवाद, आजीविका में बाधा होती है।

आठवें स्थान पर राहु के गोचर से धन हानि, कब्ज, बवासीर इत्यादि गुदा रोग, असफलता, स्त्री को कष्ट, राज्य से भय, व्यवसाय में बाधा, पिता को कष्ट, परिवार में अनबन, शिक्षा प्राप्ति में बाधा व संतान संबंधी कष्ट होता है।

नवें स्थान पर राहु के गोचर से भाग्य कि हानि, असफलता, रोग व शत्रु का उदय, धार्मिक कार्यों व यात्रा में बाधा है |

दसवें स्थान पर राहु के गोचर से मानसिक चिंता, अपव्यय, पति या पत्नी को कष्ट, कलह, नौकरी व्यवसाय में विघ्न, अपमान, कार्यों में असफलता, राज्य से परेशानी होती है |

नवें स्थान पर राहु के गोचर से धन ऐश्वर्य की वृद्धि, सट्टे लाटरी से लाभ, आय में वृद्धि, रोग व शत्रु से मुक्ति, कार्यों में सफलता, मित्रों का सहयोग मिलता है |

बारहवें स्थान पर राहु के गोचर से धन कि हानि, खर्चों कि अधिकता, संतान को कष्ट, प्रवास, बंधन, परिवार में अनबन और भाग्य कि प्रतिकूलता होती है | राहु के चमत्कारी सिद्ध उपाय यहॉ से पढि़ए


( बिशेष ध्यान देने योग्य --   राहु के उच्च, स्व मित्र, शत्रु नीच आदि राशियों में स्थित होने पर, अन्य योजनाओं से युति, दृष्टि के प्रभाव से या वेध स्थान पर शुभाशु ग्रह होने पर उपरोक्त गोचर फल में परिवर्तन संभव है।

नवरात्रि 2020 संपुर्ण जानकारी, Navratri puja vidhi

नवीन शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि से नवरात्र आरंभ है।

१७ अक्टूबर- मां शैलपुत्री पूजा, घटस्थापना, चंदन लेप व त्रिफला और कंघीप्रिंट।

१ अक्टूबर- मां ब्रह्मचारिणी पूजन, रेशमी वस्त्रपंदन

१ ९ अक्टूबर- मां चंद्रघंटा पूजा, दर्पण सिन्दूर और आलताप्रदर्शन

२० अक्टूबर- मां कुष्मांडा पूजा, मधुपर्क, तिलक और काजल काप्रिंटन

२१ अक्टूबर- मां स्कंदमाता पूजा, अंगराग (शरीर मे वगने सोग्य द्रव्य) और शक्ति उपदर्शन

२२ अक्टूबर- षष्ठी मां कात्यायनी पूजा, सायकाल मे बेलवृक्ष पर देवी का आवाहन पूजन

२३ अक्टूबर- मां कालरात्रि पूजा, प्रातःकाल घर पर बेल लाकर पूजन करना चाहिए, बलि और सरस्वती पूजन, निशीथकाल मे महानिशापुजन और बलिदान 

२४ अक्टूबर- मां महागौरी दुर्गा पूजा, यथाशक्ति विविध हर्ष से पूजन, 

२५ अक्टूबर- मां सिद्धिदात्री पूजा, हवन, व्रतपारण

२६ अक्टूबर - विजयादशमी

१-१०-२०२० को, काशी समय के अनुसार, ११: ३ १ से १२:२३ तक अभिजित मुहुर्त मे कलश स्थापन होगा। आप अपने स्थानीय समय को इस समय के अनुसार संशोधित कर ले।

२५ अक्टूबर को नवमी मे हवन, तुपुरांत नवरात व्रत पारणा व दुर्गा विसर्जन।

 देवी आगमन निर्णय के लिए दो विधि है।

 प्रतिपदा से गृहस्थ स्थापना करने वालो के लिए।

  सप्तमी से पूजा पंडाल के लिए।

नवरात्र में भगवती का आगमन व गमन चार सवारियों पर होता है। इसमें हाथी, घोड़ा, पालकी और नाव की सवारी शामिल हैं |

भगवती के आगमन व गमन का फल

नवरात्र के पहले दिन भगवती का आगमन और दशमी को गमन दिनों के अनुसार वर्ष का शुभ और अशुभ का ज्ञान करते हैं यथा-

भगवती का आगमन दिन:

शशि सूर्य गजरुढा शनि भूमाता तुरंगमे।

गुरौशुक्रेच दोलायन्स बुधे नौकाप्रकीर्तिता च (देवपुराण)

रविवार और सोमवार को भगवती हाथी पर आते हैं,

शनि और मंगल वार को घोड़े पर,

बृहस्पति और शुक्रवार को डोला पर,

बुधवार को ड्रा पर आते हैं।

गजेश जलदा देवी क्षत्रभंग तुरंगमे।

नौशतं कार्यसिद्धिस्यत् दोलां मरणधु्रवम् िद्ध

अर्थात् दुर्गा हाथी पर आने से अच्छी वर्षा होती है,, 

घोड़े पर आने से राजाओं में युद्ध होता है। 

ड्रा पर आने से सभी कार्यों में अनुक्रम मिलते हैं और 

यदि डोले पर आता है तो उस वर्ष में कई कारणों से बहुत लोगों की मृत्यु होती है।

राहु के चमत्कारी उपाय  इस लिंक पर पढि़ये

गमन (विचार): -

शशि सूर्य दिने • सा विजया महिषगम्ने रहज शोककरा,

शनि भौमदिने • सा विजया चरणायुध यानि करी विकला।

दयाशुक्र दिने • सा विजया गजवाहन गा शुभ वृश्चिकरा,

सुरराजगुरौ • सा विजया नरवाहन गा शुभ सौनिक करें यदि

भगवती रविवार और सोमवार को महिषा (भैंसा) की सवारी से जाती है जिससे देश में रोग और शोक की वृद्धि होती है। 

शनि और मंगल को पैदल चलते हैं जिससे विकलता की वृद्धि होती है। 

बुध और शुक्र दिन में भगवती हाथी पर जाते हैं। इससे वृद्धी होती है।

 बृहस्पति वार को भगवती मनुष्य की सवारी से जाते हैं। जो खुशी और सौख्य की वृद्धि करता है। 

इस प्रकार भगवती का आना जाना शुभ और अशुभ फल सूचक हैं। 

इस फल का प्रभाव यजमान पर ही नहीं, पूरे राष्ट्र पर पड़ता हैं।

  पं.राजेश मिश्र "कण"

राहु के चमत्कारी सिद्ध उपाय


 राहु-केतु की कथा: -पुराणों और ज्योतिष शास्त्र में- 
श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार महर्षि कश्यप की पत्नी दनु से विप्रचित्ति नामक पुत्र हुआ जिसका विवाह हिरण्यकशिपु की बहन सिंहिका से हुआ | राहु का जन्म सिंहिका के गर्भ से हुआ इसीलिए राहू का एक नाम सिंहिकेय भी है | जब भगवान विष्णु की प्रेरणा से देव दानवों ने क्षीर सागर का मंथन किया तो उसमें से अन्य रत्नों के अतिरिक्त अमृत की प्राप्ति हुई। भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण करके देवों व दैतों को मोह लिया और अमृत बाँटने का कार्य स्वयम ले लिया और पहले देवताओं को अमृत पान करने वाले अर्भ कर दिया |राहु को संदेह हो गया और वह भगवान का वेश धारण करके सूर्य देव और चन्द्र देव के निकट बैठ गया | विष्णुजी जैसे ही राहु को अमृत पान प्रदान करने वाले सूर्य और चन्द्र ने जो राहु को पहचान लिया था विष्णुजी को उनके बारे में सूचित कर दिया था। भगवान विष्णु ने उसी समय सुदर्शन चक्र द्वारा राहु के मस्तक को धड से अलग कर दिया | पर इस से पहले अमृत की कुछ बूंदें राहु के गले में गयी थी जैसे

राहु व केतु को ग्रहत्व की प्राप्ति-

राहु और केतु सूर्य व चन्द्र से प्रतिशोध लेने के उद्देश्य से ग्रसित करने के लिए उनके पीछे दोडे | भयभीत हो कर चंद्रमा शिव की शरण में चला गया | आशुतोष ने चन्द्र को अपने मस्तक पर धारण कर लिया राहु ने भगवान शंकर की स्तुति की और अपना ग्रास चन्द्र देने की प्रार्थना की | शिव ने प्रसन्न होकर राहु और केतु दोनों को नवग्रह मंडल में स्थान दिया और सभी लोकों में पूजित होने का वर दिया। 

राहु का स्वरूप और प्रकृति-

मत्स्य पुराण के अनुसार राहु विकराल मुख का, नील वर्ण, हाथ में तलवार, ढाल, त्रिशूल व वर मुद्रा धारण किया है | इसकी वात प्रकृति है। इसे दूसरों के अभिप्राय को जान लेने वाला तीव्र बुद्धि का कहा गया है। सर्वमान्य ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार राहु अशुभ, क्रूर, मलिनरूप वाला, अंत्यज जाति का, दीर्घ सूत्री, नील वर्ण और तीव्र बुद्धि का माना गया है। |

राहु का रथ एवं गति-

पुराणों के अनुसार राहु का रथ तमोमय है जिसको काले रंग के आठवार खींचते हैं | इसकी गति सदैव वक्री रहती है | एक राशि को यह अठारह मास में भोग करता है | अमावस्या पृथ्वी और सूर्य के मध्य राहु रुपी छाया आने पर सूर्य का बिम्ब होता है। अदृश्य हो जाता है जिसे सूर्य ग्रहण कहते हैं |

राहू का कारकत्व- प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथोंके अनुसार राहु सांप, कीट, कीट, विष, जूआ, कुतर्क, अपवित्रता असत्य वादन, नैऋत्य दिशा, सोये हुए प्राणी, वृद्ध, दुर्गा की उपासना, ढीठ पन्ना, चोरी, आकस्मिक प्राकृतिक घटनाएं, मैया पान , मांसाहार, वैद्यक, हड्डी, गुप्तचर, गोमेद, रांगा, मछली और दूध पदार्थों का कारक है

राहू से उत्पन्न रोग - जनम कुंडली में राहु पाप ग्रहों से युत या दृष्टि हो, छटे -आठवें -बारहवें भाव में स्थित हो तो चर्म रोग, शूल, अपस्मार, चेचक वात शूल, दुर्घटना, कुष्ठ, सर्प दंश, हृदय रोग, पैर में चोट और अरुचि इत्यादि रोग होते हैं |

फल देने का समय—राहु अपना शुभाशुभ फल 42 से 48 वर्ष कि आयु में , अपनी दशाओं व गोचर में प्रदान करता है |वृद्धावस्था पर भी इस का अधिकार कहा गया है |

राहु दोष के लक्षण और इससे मुक्ति पाने के सरल उपाय-यदि आपकी जन्मकुंडली में राहु दोष है तो आपको मानसिक तनाव, आर्थिक नुकसान, स्वयं को ले कर ग़लतफहमी, आपसी तालमेल में कमी, बात बात पर आपा खोना, वाणी का कठोर होना और अपशब्द बोलना साथ ही अगर आपकी कुंडली में राहु की स्थिति अशुभ हौ तो आपके हाथ के नाखून अपने आप टूटने लगते हैं।

कई बार किसी समय-विशेष में कोई ग्रह अशुभ फल देता है, ऐसे में उसकी शांति आवश्यक होती है। ग्रहशांति के लिए कुछ शास्त्रीय उपाय प्रस्तुत हैं। इनमें से किसी एक को भी करने से अशुभ फलों में कमी आती है और शुभ फलों में वृद्धि होती है।

राहु मंत्र-

ह्रीं अर्धकायं महावीर्य चंद्रादित्य विमर्दनम्।

सिंहिका गर्भ संभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्।

ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं स: राहवे नम:।

ॐ शिरोरूपाय विद्महे अमृतेशाय धीमहि तन्नो राहु प्रचोदयात्।

ग्रहों के मंत्र की जप संख्या, द्रव्य दान की सूची आदि सभी जानकारी एकसाथ दी जा रही है। मंत्र जप स्वयं करें या किसी कर्मनिष्ठ ब्राह्मण से कराएं।दान द्रव्य सूची में दिए पदार्थों को दान करने के अतिरिक्त उसमें लिखे रत्न-उपरत्न के अभाव में जड़ी को विधिवत् स्वयं धारण करें, शांति होगी ,

राहु के लिए :समय रात्रिकालभैरव पूजन या शिव पूजन करें। काल भैरव अष्टक का पाठ करें।

राहु मूल मंत्र का जप रात्रि में 18,000 बार 40 दिन में करें।मंत्र : ‘ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं स: राहवे नम:’।

दान-द्रव्य :गोमेद, सोना, सीसा, तिल, सरसों का तेल, नीला कपड़ा, काला फूल, तलवार, कंबल, घोड़ा, सूप।शनिवार का व्रत करना चाहिए। भैरव, शिव या चंडी की पूजा करें। 8 मुखी रुद्राक्ष धारण करे गोमेद एक रत्न है जिसे राहु ग्रह से समबन्धित किसी भी विषय के लिए धारण करने हेतु ज्योतिषशास्त्री परामर्श देते हैं. गोमेद न सिर्फ राहु ग्रह की बाधाओं को दूर करता है बल्कि, गोमेद कई प्रकार की स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से भी निजातदिलाता है | गोमेद एक ऐसा रत्न है जो नज़र की बाधाओं, भूत-प्रेत एवं जादू-टोने से भी सुरक्षा प्रदान करता है. गोमेद में इतनी सारी खूबियां हैं जिनसे व्यक्ति के जीवन की बहुत सीमुश्किलें दूर हो सकती हैं. लेकिन इसे किसी अच्छे ज्योतिषी से सलाह लेकर धारण करना चाहिए.

गोमेद की पहचान—असली गोमेद को उसके रंग एवं चमक से पहचाना जा सकता है. गोमूत्र से मिलता जुलता रंग होने के कारण इसे गोमेद कहा जाता है. यह एक चमकीला पत्थर होता है जो दिखने में शहद के रंग के समान भूरा होता है. गोमेद धुएं के सामन एवं काले रंग का भी होता है. गोमेद के ऊपर जब प्रकाश डालाजाता है जो उससे जो रोशनी पार करके निकली है उसका रंग गोमूत्र जैसा दिखता है. असली गोमेद कीपहचान इस तरह आसानी से की जा सकती है. शुद्ध गोमेद चिकना, चमकीला एवं सुन्दर दिखता है.

गोमेद किसे धारण करण चाहिए—कुण्डली में राहु जिस भाव में हो उस भाव के शुभ फल को बढ़ाने के लिए राहु रत्न गोमेद पहनना चाहिए । ज्योतिषशास्त्र के अनुसार राहु तीसरे, छठे भाव में हो तो गोमेद पहनना चाहिए. मेष लग्न की कुण्डली में यदि राहु नवें घर मेंहै तो गोमेद पहनने से भाग्य बलवान होता है. राहु यदि दशम अथवा एकादश भाव में है तब भी गोमेदधारण करना उत्तम होता है. लग्न में राहु होने पर स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों को कम करने हेतु गोमद पहनना फायदेमंद होता है. राजनीति एवं न्याय विभाग से जुड़े लोगों की कुण्डली में राहु मजबूत होने पर सफलता तेजी से मिलती है. राहु को बलवान बनाने के लिए इन्हें गोमेद रत्न धारण करना चाहिए.गोमेद धारण करने का समय कोई भी रत्न तब अधिक शुभ फल देता है जब वह शुभ समय में धारण किया जाता है. गोमेद रत्न धारण करने का शुभ और उचित समय तब माना जाता है जब राहु की महादशा अथवा दशा चल रही हो.

गोमेद कौन नहीं पहनें - रत्न विज्ञान के अनुसार जिस व्यक्ति की जन्म कुण्डली में राहु अष्टम या द्वादश भाव में हो तो गोमेद धारण करना उपयुक्त नहीं होता है.

गोमेद के उपरत्न -गोमेद रत्न जो धारण नहीं कर सकते वह चाहें तो इसका उपरत्न पहन सकते हैं. गोमेद के उपरत्न हैं अकीक, तुरसा एवं साफी । 

 गोमेद रत्न धारण करने से पहले यह जांच करलें कि रत्न में दोष नहीं हो. दोषपूर्ण रत्न धारण करने से फायदे की बजाय नुकसान हो सकता है । जिस गोमेद में लाल या काले धब्बे हों उसे पहनने से दुर्घटना की आशांका रहती है. गोमेद यदि चमकहीन हो तो धारण करने वाले व्यक्ति के सम्मान में कमी आती है. जिस गोमेद में अनेक रंगों की परछाई हों उसे पहनने से धन की हानि होती है. ऐसे गोमेद को नहींपहनना चाहिए।

गोमेद से लाभ -गोमेद पहनने से राहु का अशुभ प्रभाव दूर होता है। कालसर्प दोष के कष्टों से भी बचाव होता है,जिन लोगों की सेहत अक्सर खराब रहती है उन्हें भी गोमेद पहनने से स्वास्थ्य लाभ मिलता है। पाचन सम्बन्धी रोग, त्वचा रोग, क्षय रोग तथा कफ-पित्त को भी यह संतुलित रखता है। आयुर्वेद के अनुसार गोमेद के भस्म का सेवन करने से बल एवं बुद्धि बढ़ती है।पेट की खराबी में गोमद का भस्म काफी फायदेमंद होता है।राहु तीव्र फल देने वाला ग्रह है। गोमेद पहनने से राहु से मिलने वाले शुभ फलों में तेजी आती है। व्यक्ति को मान-सम्मान एवं धन आदि प्राप्त होता है।

राहु-केतु के उपाय-अधिकांश व्यक्ति राहु-केतु से पीड़ित रहते हैं। ऐसे जातकों के लिए शिव की पूजा करना सर्वथा लाभकारी है। इसके साथ ही छोटे-छोटे उपाय करें, तो राहु-केतु निस्तेज होंगे शिव भक्त बड़े उत्साह से हर साल श्रावण मास की प्रतीक्षा करते हैं। सत्यम् शिवम् और सुंदरम् के प्रतीक भगवान शिव सभी जीवों के लिए परम कल्याणकारी माने जाते हैं। इनके शिव नाम में पूरा ब्रह्मांड समाया हुआ है। पौराणिक मान्यता के अनुसार सावन का महीना भगवान शंकर को अतिप्रिय है। ज्योतिष शास्त्र में भी इस माह का महत्व बताया गया है और साथ ही यह भी कहा गया है कि अगर भक्त अपने सारे दु:खों से छूटना चाहते हैं, तो वह ग्रह जो उनकी कुंडली में अशुभ भाव में बैठे हुए हैं, जिस तरह शनि को प्रसन्न करने के लिए शिव जी की पूजा करना शुभ कहा गया है, उसी तरह सावन माह में इन ग्रहों के लिए विशेष पूजा लाभकारी बताई जाती है। अगर आपके ऊपर शनि-राहु या अशुभ ग्रहों की दशा चल रही है, तो आप पूरे माह शिवलिंग पर प्रतिदिन काले तिल चढ़ाएं तथा तामसिक भोजन का त्याग करें। जन्मकुंडली के अनुसार जो ग्रह आपके लिए सकारात्मक हो, इस माह में उस ग्रह का रत्न धारण कर उसे मजबूत करने से भी न चूकें। अगर आपकी कुंडली में राहु और केतु अशुभ स्थान पर बैठे हों, तो श्रावण मास में इनका भी उपाय कर लेना श्रेयस्कर रहता है। दरअसल राहु और केतु कुंडली में कालसर्प योग बनाते हैं। यह ऐसा योग है, जो आपके बनते हुए कामों में बाधा डाल देता है। अगर राहु और केतु के बीच में सारे ग्रह आ जाएं या फिर राहु सूर्य अथवा चंद्र के साथ आ जाए, तो जातक की कुंडली में बाधा दिखाई देती है। कुंडली में इनकी महादशा और अंतर्दशा भी होतीहै। इसलिए श्रावण मास में शिव की पूजा से इन्हें निस्तेज करना सबसे प्रमुख उपाय माना जाता है। अगर आप इस माह में बुधवार या शनिवार के दिन रुद्राभिषेक करते हैं, तो आपको राह-केतु की अशुभ छाया से मुक्ति मिल सकती है। इसके अलावा नदी में चांदी के नाग-नागिन प्रवाहित करने से कालसर्प योग नाम का दोष भी मिटता है। यदि आप श्रावण मास में आने वाली नाग पंचमी के दिन शिव मंदिर में शिवलिंग पर तांबे के नाग की स्थापना करवाएं, तो यह लाभप्रद होगा। इससे कालसर्प बाधा  दूर होता है। आपकी कुंडली में राहु पांचवें घर में हो, तो ऐसे जातक को संतान सुख बाधित होता है। इसके लिए सावन में व्रत रखें और नाग-नागिन को कद्दू (कोहडा़, सीताफल ) में रखकर बहाएं। आपको शीघ्र इस दोष से मुक्ति मिल जाएगी।यदि आप केतु से परेशान हैं, तो शिव के साथ भैरव की पूजा करें तथा शनिवार को कुत्तों को जलेबी आदि मीठी चीजें खिलाएं। असल में भैरव की सवारी कुत्ता मानी गई है। इसके साथ ही चितकबरे वस्त्र दान करें। केतु की पीड़ा शांत होगी। शिव मंदिर में ध्वज लगाने से भी केतु शांत होता है। केतु को ध्वज का प्रतीक भी माना जाता हैै ।


राहु की महादशा में अन्य ग्रह की अन्तर्दशा आने पर क्या उपाय करने चाहिए—

“कुंडली में राहु की स्तिथि ये बताती है की राहु अपनी महादशा मैं कैसा फल देगा। परन्तु राहु कितना भी शुभ क्यों न हो ये तो पक्का है की कुछ तो अशुभ करेगा ही। राहु को सर्प का मुंह कहा गया ये और ये कैसे हो सकता है की सर्प का मुंह कुछ भी बुरा न करे। नवग्रहों में यह अकेला ही ऐसा ग्रह है जो सबसे कम समय में किसी व्यक्ति को करोड़पति, अरबपति या फिर कंगाल भी बना सकता है।”

राहु महादशा उपाय—महादशा अन्तर्दशा उपाय—

राहू की महादशा में, सूर्य का अंतर

भगवन सूर्य की पूजा करें तथा सुभाह जल्दी उनको जल अर्पित करें

हरिवंश पुराण का पाठ या श्रवण करते रहें।

चाक्षुषोपनिषद् का पाठ करें।

सूअर को मसूर की दाल खिलाएं।

राहू की महादशा में, चन्द्र का अंतर

माता की सेवा करें—

हर सोमवार को भगवन शिव का शुद्ध दूध से अभिषेक करें

चांदी की प्रतिमा या कोई अन्य वस्तु मौसी, बुआ या बड़ी बहन को भेंट करें

राहू की महादशा में, मंगल का अंतर

गाय का दान करें राहु मंत्र दिन में कम से कम ३ माला करें

राहू की महादशा में बुध का अंतर

दान करें उड़द दाल, काले तिल, नीले कपडे, गरम कम्बल सफाई कर्मचारी अथवा नीची जाती को, चीटी को शुगर

भगवन गणेश को शतनाम सहित दुर्वांकुर चडाते रहे

पक्षी को हरी मूंग खिलाएं

हाथी को हरे पत्ते, नारियल गोले या गुड़ खिलाएं।

कोढ़ी, रोगी और अपंग को खाना खिलाएं।

राहू की महादशा में बृहस्पति, गुरु का अंतर

स्वर्ण से बनी भगवन शिव की मूर्ति की पूजा करें

किसी अपाहिज छात्र की पढा़यी या इलाज़ में सहायता करें

शिव मंदिर में नित्य झाड़ू लगायें

पीले रंग के फूल से शिव पूजन करें

शैक्षणिक संस्था के शौचालयों की सफाई की व्यवस्था कराएं

राहू की महादशा में, शुक्र का अंतर

माँ दुर्गा तथा माँ लक्ष्मी की पूजा करें

सांड को गुड या घास खिलाएं

शिव मंदिर में स्थित नंदी की पूजा करें तथा वस्त्र आदि दें

स्फटिक की माला धारण करें

एकाक्षी श्रीफल की स्थापना कर पूजा करें

 राहू की महादशा में शनि का अंतर

महामृत्युंजय मंत्र का एक दिन में कम से कम ३२४ बार जप महामृत्युंजय मंत्र के जप स्वयं, अथवा किसी योग्य विद्वान ब्राह्मण से कराएं। जप के पश्चात् दशांश हवन कराएं जिसमें जायफल की आहुतियां अवश्य दें।

भगवान शिव की शमी के पत्रों से पूजा

शिव सहस्त्रनाम का पाठ

काले तिल से शिव का पूजन

नवचंडी का पूर्ण अनुष्ठान करते हुए पाठ एवं हवन कराएं।

राहुकी महादशा में राहु का अंतर

दान करें उड़द दाल, काले तिल, नीले कपडे, गरम कम्बल सफाई कर्मचारी अथवा नीची जाती को,

चीटी को शुगर

भगवन भैरव के मंदिर में रविवार को शराब चढाऐ और तेल का दीपक जलाएं

शराब का सेवन बिलकुल न करें,

राहू की महादशा में केतु का अंतर

दान करें उड़द दाल, काले तिल, नीले कपडे, गरम कम्बल सफाई कर्मचारी अथवा नीची जाती को, चीटी को शुगर

भैरव जी के मंदिर में ध्वजा चदाएं

कुत्तो को रोटी या बिस्किट खिलाएं

घर या मंदिर में गुग्गुल का धुप करें

कौओं को खीर-पूरी खिलाएं। 

शनि राहु युति

ज्योतिष विज्ञान के मुताबिक जन्मकुण्डली में शनि-राहु की युति भी सभी सुखों को नियत करने वाली होती है। खासतौर पर जब जन्मकुण्डली में शनि-राहु की युति चौथे भाव में बन रही हो। तब वह पांचवे भाव पर भी असर करती है। हालांकि दूसरे ग्रहों के योग और दृष्टि भी अच्छे और बुरे फल दे सकती है। लेकिन यहां मात्र शनि-राहु की युति के अशुभ प्रभाव की शांति के उपाय बताए जा रहे हैं।

हिन्दू पंचांग में शनिवार का दिन न्याय के देवता शनि की उपासना कर पीड़ा और कष्टों से मुक्ति का माना जाता है। यह दिन शनि की पीड़ा, साढ़े साती या ढैय्या से होने वाले बुरे प्रभावों की शांति के लिए भी जरूरी है। किंतु यह दिन एक ओर क्रूर ग्रह राहु की दोष शांति के लिए भी अहम माना जाता है। राहु के बुरे प्रभाव से भयंकर मानसिक पीड़ा और अशांति हो सकती है।

अगर आपको भी सुखों को पाने में अड़चने आ रही हो या कुण्डली भी शनि राहु की युति से प्रभावित हो, तो उन के लिए शनि-राहु के दोष शांति के सरल उपाय –

– शनिवार की सुबह स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहन नवग्रह मंदिर में शनिदेव और राहु को शुद्ध जल से स्नान कर पंचोपचार पूजा करें और विशेष सामग्रियां अर्पित करें।

– शनि मंत्र ऊँ शं शनिश्चराये नम: और राहु मंत्र ऊँ रां राहवे नम: का जप करें। हनुमान चालीसा का पाठ भी बहुत प्रभावी होता है।

– शनिदेव के सामने तिल के तेल का दीप जलाएं। तेल से बने पकवानों का भोग लगाएं। लोहे की वस्तु चढाएं या दान करें।

– राहु की प्रसन्नता के लिए तिल्ली की मिठाईयां और तेल का दीप लगाएं। शनि व राहु की धूप-दीप आरती करें।

समयाभाव होने पर नीचे लिखें उपाय भी न के वल आपकी मुसीबतों को कम करते हैं, बल्कि जीवन को सुख और शांति से भर देते हैं।

– किसी मंदिर में पीपल के वृक्ष में शुद्ध जल या गंगाजल चढ़ाएं। पीपल की सात परिक्रमा करें। अगरबत्ती, तिल के तेल का दीपक लगाएं। समय होने पर गजेन्दमोक्ष स्तवन का पाठ करें। इस बारे में किसी विद्वान ब्राह्मण से भी जानकारी ले सकते हैं।

– इसी तरह किसी मंदिर के बाहर बैठे भिक्षुक को तेल में बनी वस्तुओं जैसे कचोरी, समोसे, सेव, भुजिया यथाशक्ति खिलाएं या उस निमित्त धन दें।

कुत्ते को तेल चुपड़ी रोटी खिलाने से शनि के साथ ही राहु-केतु से संबंधित दोषों का भी निवारण हो जाता है। राहु-केतु के योग कालसर्प योग से पीड़‍ित व्यक्तियों को यह उपाय लाभ पहुंचाता है। इसके अलावा निम्न मंत्रों से भी पीड़ित जातकों को अत्यंत फायदा पहुंचता है।

राहु मंत्र को अगर सिद्ध किया जाए तो राहु से जुड़ी परेशानियां समाप्त होती हैं। ध्यान रहे कि राहु मंत्र की माला का जाप 8 बार किया जाता है

आपकी राशि अनुसार राहु का फल—

जन्म कुंडली में राहु का मेषादि राशियों में स्थित होने का फल इस प्रकार है :-

मेष में –राहु हो तो जातक तमोगुणी ,क्रोध की अधिकता से दंगा फसाद करने वाला तथा जूए लाटरी में धन नष्ट करने वाला होता है |आग और बिजली से भय रहता है |

वृष में राहु हो तो जातक सुखी ऐश्वर्यवान,सरकार से पुरस्कृत ,कामी और विद्वान होता है |

मिथुन में राहु हो तो जातक विद्वान ,धन धान्य से सुखी ,समृद्ध व् यश मान प्राप्त करने वाला होता है |

कर्क में राहु हो तो जातक मनोरोगी ,नजला जुकाम से पीड़ित ,माता के कष्ट से युक्त होता है |

सिंह में राहु हो तो जातक ह्रदय या उदररोगी राजकुल का विरोधी तथा अग्नि विष आदि से कष्ट उठाने वाला होता है | 

कन्या में राहु हो तो जातक विद्यावान,मित्रवान, साहस के कार्यों से लाभ उठाने वाला तथा सफलता प्राप्त करने वाला होता है |

तुला मे राहु हो तो जातक गुर्दे के दर्द से पीड़ित ,व्यापार से लाभ उठाने वाला होता है |

वृश्चिक में राहु हो तो जातक नीच संगति वाला ,शत्रु से पीड़ित ,दुःसाहसी व् अग्नि विष शस्त्र आदि से पीड़ित होता है |

धनु में राहु हो तो जातक असफल, परेशान, वात रोगी, निम्नलिखित कार्यों में रूचि लेने वाला होता है |

मकर में राहु हो तो जातक विदेश यात्रा करने वाला, धनी, स्नेह से पीड़ित और मित्र से हानि उठाने वाला होता है |

कुम्भ में राहु हो तो जातक श्रम के कार्य से लाभ उठाने वाला, मित्रों से सहयोग लेने वाला, धन संपत्ति से युक्त होता है |

मीन में राहु हो तो जातक उत्साह हीन, मन्दाग्नि युक्त होता है |

राहू का भाव फल दशाफल व गोचर फल

  

शनि की सिद्धि, शनि की साढेसाती लघु कल्याणी ढैय्या व शांति के उपाय की संपुर्ण जानकारी

ग्रहो का परिधि पथ पर चलना मार्गी कहलाता है और परिगमन पथ से पीछे की ओर लौटना ग्रह की वक्री गति कही जाती है। राहू केतु को छोडकर सूर्य और चंद्र के अतिरिक्त सभी ग्रह वक्री व मार्गी दोनो होते हैं ।जबकि राहू केतु सदैव वक्री होते हैं ।शनि जिस स्थान पर होता है वह तीसरे सातवे और दसवें स्थान पर देखता है। जब शनि वक्री होकर अपनी तीसरी सातवी और दसवी दृष्टि से जिस भाव को देखता है वह उसपर शनि की दृष्टि वक्री दृष्टि कही जाती है। सातवी और दसवी दृष्टि की अपेक्षा तीसरी दृष्टि अधिक कष्टदायक होती है।

 शनि दण्डाधिकारी है, जो पुर्वजन्मकृत कर्मो के फल को प्रदान करने वाले है। शनि एक राशि में पूरे ढाई वर्ष तक रहता है। कुण्डली में चन्द्रमा जिस राशि में स्थित है उस राशि से चतुर्थ भाव और अष्टम भाव में जब शनि का गोचर होता है तब उसे शनि की ढ़ैय्या कहती है। एक राशि में ढाई वर्ष रहने के कारण इसे ढ़ैय्या का नाम दिया गया है। इस ढैय्या को ही लघु कलानी भी कहा जाता है।

शनि की ढैय्या: - शनि ग्रह प्रत्ति एक राशि मे ढाई साल तक रहती है। जन्मकुंडली के बारह भाव मे शनि ग्रह को एक चक्र पूरा करने में पूरे तीस साल लग जाते हैं। इस चक्र के दौरान कुंडली में चन्द्रमा जिस राशि में स्थित है उस राशि से या उस भाव से एक घर पहले से शनि का गोचर आरंभ होता है।

साढे़साती का अर्थ है - साढे की सात वर्ष चन्द्रमा जिस राशि में स्थित है उस राशि से एक राशि पहले शनि की साढे़साती का पहला चरण आरम्भ हो जाता है। इसमें शनि ढाई वर्ष तक रहता है। उसके बाद साढे़साती का दूसरा चरण शुरू होता है जिसमें शनि का गोचर चन्द्रमा के ऊपर से होता है। यहां भी शनि ढाई वर्ष तक रहता है। इसके बाद शनि चन्द्रमा से अगली राशि में प्रवेश करता है और यह अंतिम व तृष्णा चरण होता है। इसमें भी शनि ढाई वर्ष तक रहता है। इस प्रकार चन्द्रमा से एक राशि पहले और एक राशि बाद तक शनि का ढाई ढाई वर्ष के गोचर को एक साथ जोडकर साढे़साती कहा जाता है।शनि कीगति चुंकि मंद होती है अत: एक राशि को पार करने में यह वर्ष का समयलगता है ’(?) उदाहरण के तौर पर देखें तो मेष राशि में जब शनि प्रवेश करेगा तब क्रमशः: वृष और मिथुन तीन राशियों से गुजरेगा और अपना समय चक्र पूरा करेगा। शनि गोचर में जन्म राशि से बारहवेंराशि में प्रवेश करता है तब साढ़े साती की दशा शुरू हो जाती है और जब शनि जन्म से दूसरे स्थान को पार कर जाता है तब इसकी दशा से मुक्ति मिल जाती है। लोग यह सोच कर ही घबरा जाते हैं कि शनि की साढ़े साती आज से शुरू हो गयी तो आज से भी कष्ट और परेशानियों की शुरूआत होने लगी है। जो लोग ऐसा सोचते हैं वेअकारण ही भयभीत होते हैं वास्तव में अलग अलग राशियों के व्यक्तियों पर शनि का प्रभाव अलग होता है। कुछ व्यक्तियों को साढ़े साती शुरू होने से कुछ समय पहले ही इसके संकेत मिल जाते हैं और साढ़े साती समाप्त होने से पूर्व ही तिलों से मुक्ति मिल जाती है और कुछ लोगों को देर से शनि का प्रभावशाली देखने को मिलता है और साढ़े साती समाप्त होन के कुछ समय बाद। तकइसके प्रभाव से दो चार होना पड़ता है अत: आपको इस विषय में घबराने कीआव परिवर्तनता नहीं है। 

लक्षण-शनि की साढ़े साती के समय कुछ विशेष प्रकार की घटनाएं होती हैं जिनसे संकेत मिलता है कि साढ़े साती चल रही है। शनि की साढ़े साती के समय आमतौर पर इस प्रकार की घटनाएं होती है जैसे घर  का कोई भाग अचानक गिर जाता है। घर के अधिकांश सदस्य बीमार रहते हैं, घर में अचानक अाग लग जाती है, आपको बार-बार अपमानित होना पड़ता है। घर की महिलाएं अक्सर बीमार रहती हैं, एक परेशानी से आप जैसे ही निकलते हैं दूसरी परेशानी सिर उठाए खड़ी रहती है। व्यापार एवं व्यवसाय में असफलता और नुकसान होता है। घर में मांसाहार एवं मादक पदार्थों के प्रति लोगों का रूझान काफी बढ़ जाता है। घर में आये दिन कलह होने लगता है। अकारण ही आपके ऊपर कलंक या इल्ज़ाम लगता है। आंख व कान में तकलीफ महसूस होती है एवं आपके घर से चप्पल जूते गायब होने लगते हैं।

आपके जीवन में जब उपरोक्त घटनाएं दिखने लगे तो आपको समझ लेना चाहिए कि आप साढ़े साती से पीड़ित हैं। 

साढ़े साती शुभ भी:-शनि की ढईया और साढ़े साती का नाम सुनकर बड़े बड़े पराक्रमी और धनवानों केचेहरे की रंगत उड़ जाती है। लोगों के मन में बैठे शनि देव के भय का कई ठगज्योतिषी नाज़ायज लाभ उठाते हैं। विद्वान ज्योतिषशास्त्रियों की मानें तोशनि सभी व्यक्ति के लिए कष्टकारी नहीं होते हैं। शनि की दशा के दौरान बहुतसे लोगों को अपेक्षा से बढ़कर लाभसम्मान व वैभव की प्राप्ति होती है। 

साढ़े साती केप्रभाव के लिए कुण्डली में लग्न व लग्नेश की स्थिति के साथ ही शनि और चन्द्र की स्थिति पर भी विचार किया जाता है। शनि की दशा के समय चन्द्रमाकी स्थिति बहुत मायने रखती है। चन्द्रमा अगर उच्च राशि में होता है तो आपमें अधिक सहन शक्ति आ जाती है और आपकी कार्य क्षमता बढ़ जाती है जबकि कमज़ोर व नीच का चन्द्र आपकी सहनशीलता को कम कर देता है व आपका मन काम मेंनहीं लगता है जिससे आपकी परेशानी और बढ़ जाती है। जन्म कुण्डलीमें चन्द्रमा की स्थिति का आंकलन करने के साथ ही शनि की स्थिति का आंकलनभी जरूरी होता है। शनिअगर लग्न कुण्डली व चन्द्र कुण्डली दोनों में शुभ कारक है तो आपके लिएकिसी भी तरह शनि कष्टकारी नहीं होता है

ढैय्या: -कल्याणी प्रददति वै रावसुता राशेश्चतुर्थताष्टमी।

ढैय्या का मतलब होता है ढाई साल। वैसे तो शनिदेव प्रत्येक राशि में ही ढाई वर्ष रहते हैं। लेकिन ढैय्या का विचार चंद्र राशि से केवल चतुर्थ और अष्टम भाव से ही किया जाता है |

जब शनिदेव चंद्र लग्न (जन्म राशि) के अनुसार चतुर्थ व अष्टम भाव से गोचर करते हैं तो जातक को ढैय्या देते हैं। शनि का प्रभाव जन्म कुंडली में शनि की स्थिति और दशंतर्दशा पर निर्भर करता है। शनि का अशुभ प्रभाव जातक की जन्म कुंडली और नवांश कुंडली में शनि की अशुभकारी स्थिति से होता है। ज्योतिष के सामान्य सिद्घान्तों के अनुसार शनि जब अपनी उच्चा राशि, मित्र राशि या अपने नवांश में और वर्गोत्तम होने की स्थिति में शुभफल देता है। शनि जन्म कुंडली के शनि से 3, 6, 10, 11 भावो में भी शुभफल देता है। जन्म कुंडली के

चन्द्रमा से भी शनि 3, 6, 11 भाव में अशुभ फल नहीं देता है। जिस ग्रह के साथ शनि का संबंध सम रहता है उसकी राशि से गोचर करने के समय भी अशुभ फल नहीं देता है।

शनिदेव प्रत्येक भाव में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के अनुसार फल देते हैं।

चतुर्थ और अष्टम भाव मोक्ष के भाव हैं। ज्योतिष का नियम है कि शनिदेव जिस भाव से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के लिए गोचर करे, उसी के अनुरूप व्यक्ति को कार्य करना चाहिए। जो व्यक्ति ढैय्या में तीर्थ यात्रा, समुद्र स्नान और धर्म के कार्य दान-पुण्य इत्यादि करते हैं, उन्हें ढैय्या में भी शुभ फल की प्राप्ति होती है। लेकिन जो उस अवधि में इन कामों से दूर रहते हैं, उन्हें अपने ही पूर्वकृत अशुभ कर्मों के फलस्वरूप शारीरिक-मानसिक परेशानी और कारोबार में हानि होती है।

चतुर्थ भाव की ढैय्या :-शनि जन्म कालीन चंद्र से चतुर्थ में जाए तो कंटक शनि होता है।शनि की लघु कल्याणी ढैय्या के नाम से भी जाना जाता है| चतुर्थ भाव से शनिदेव छठे भाव को, दशम भाव को तथा लग्न को देखते हैं। अर्थात् जब शनिदेव चतुर्थ भाव से गोचर करते हैं तो जातक के निजकृत पूर्व के अशुभ कर्मों के फलस्वरूप उसके भौतिक सुखों यानी मकान व वाहन आदि में परेशानी पैदा होती है जिसका संकेत कुण्डली में शनिदेव की स्थिति दिया करती है। जिसकी वजह से उसके कारोबार में फर्क पड़ता है। उसकी परेशानी बढ़ जाती है। परेशानियों के बढ़ने से जातक को शारीरिक कष्ट की भी प्राप्ति होती है। अर्थात् चतुर्थ भाव की ढैय्या में मकान खरीदना या बेचना नहीं चाहिए। साथ ही अपने व्यवसाय में भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति अधिकतर शांत रहते हैं और धार्मिक कार्यों में संलग्न रहते हैं, ऐसे व्यक्तियों को चतुर्थ ढैय्या में किसी भी प्रकार की परेशानी पैदा नहीं होती है। और जो व्यक्ति नया कार्य करते हैं, उन्हें परेशानी पैदा होती है।

अष्टम भाव की ढैय्या: जब शनिदेव जन्मकुंडली में चंद्र से अष्टम भाव से गोचर करते हैं तो ढैय्या देते हैं, अष्टम ढैय्या चतुर्थ की ढैय्या से ज्यादा अशुभ फलों का संकेत देती है।अष्टम भाव आयु या मृत्यु का भाव माना गया है|

अष्टम ढैय्या जातक से नया कार्य शुरू कराकर बीच में ही धोखा दे जाती है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अष्टम ढैय्या में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। क्योंकि अष्टम भाव से शनिदेव तीसरी दृष्टि से दशम भाव को सप्तम दृष्टि से द्वितीय भाव को और दशम दृष्टि से पंचम भाव को देखते हैं। अष्टम ढैय्या सबसे पहले कारोबार में परेशानी पैदा करती है। जिसकी वजह से जातक के निजी कुटुंब और धन पर बुरा असर पड़ता हैं तथा धन की वजह से जातक के संतान के ऊपर भी कुप्रभाव पड़ता है। अत: जातक को अष्टम ढैय्या में कोई भी नया कार्य, यानी बैंक आदि से कर्ज या जमीन-जायदाद का खरीदना-बेचना या पिता की संपत्ति को बांटना नुकसानदायक होता है। अत: इस ढैय्या के दौरान ये कार्य नहीं करने चाहिए। अष्टम ढैय्या में जो व्यक्ति धार्मिक कार्य, समुद्र स्नान व तीर्थ यात्रा आदि करता है और ईमानदारी पूर्वक, निश्छल-सहृदय, सादा जीवन जीता है, तो उस व्यक्ति को अष्टम ढैय्या में किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं होती है।याद रहे कि प्रतिकूल परिस्तिथियों के पीछे भी जातक के पूर्वकृत अशुभ कर्म ही रहते हैं।

लघु कल्याणी ढैय्या व साढेसाती के उपाय:-

ढैय्या में व्यक्ति को धैर्य से काम लेना चाहिए क्योंकि ढैय्या में व्यक्ति को अपने सगे संबंधियों की भी मदद कम से कम मिलती है। इसलिए स्वयं सभी कार्य करने पड़ते हैं।

ढैय्या के अशुभ फलों के प्रभावों को कम करने के लिए, लाल किताब के उपाय:- जातक: प्रात:काल चिड़ियों को दाना डालें,

आँगन या छत पर उनके लिए पानी रखें।

आटा शक्कर का मिश्रण बना कर चींटियों को डालें

प्रतिदिन सुबह जल्दी उठ कर स्नान आदि से निवृत होकर सूर्यदेव को प्रतिदिन जल दें।

बुरे कार्यों से बचें।

ढैय्या में सफलता प्राप्त होगी। यहॉ पढिए राहू के चमत्कारी उपाय

आप साढ़े साती के दुष्प्रभाव से बचने क लिए जिन उपायों को आज़मा सकते हैं वे निम्न हैं:

शनिदेव भगवान शिव के शिष्य हैं, शिवजी की जिनके ऊपर कृपा होती है उन्हें शनि हानि नहीं पहुंचाते अत: नियमित रूप से शिवलिंग की पूजा व अराधना करनी चाहिए। पीपल में सभी देवताओं का निवास कहा गया है इस हेतु पीपल को आर्घ देने अर्थात जल देने से शनि देव प्रसन्न होते हैं। अनुराधा नक्षत्र में जिस दिन अमावस्या हो और शनिवार का दिन हो उस दिन आप तेल, तिल सहित विधि पूर्वक पीपल वृक्ष की पूजा करें तो शनि के कोप से आपको मुक्ति मिलती है। शनिदेव की प्रसन्नता हेतु शनि स्तोत्र का नियमित पाठ करना चाहिए।शनि के कोप से बचने हेतु आप हनुमान जी की आराधाना कर सकते हैं, क्योंकि शास्त्रों में हनुमान जी को रूद्रावतार कहा गया है। प्रतिदिन हनुमान चालीसा का पाठ करे। आप साढ़े साती से मुक्ति हेतु शनिवार को बंदरों को केला व चना खिला सकते हैं। नाव के तले में लगी कील और काले घोड़े का नाल भी शनि की साढ़े साती के कुप्रभाव से आपको बचा सकता है अगर आप इनकी अंगूठी बनवाकर धारण करते हैं। लोहे से बने बर्तन, काला कपड़ा, सरसों का तेल चमड़े के जूते, काला सुरमा, काले चने, काले तिल, उड़द की साबूत दाल ये तमाम चीज़ें शनि ग्रह से सम्बन्धित वस्तुएं हैं, शनिवार के दिन इन वस्तुओं का दान करने से एवं काले वस्त्र एवं काली वस्तुओं का उपयोग करने से शनि की प्रसन्नता प्राप्त होती है।

बिशेष उपाय हेतु इसी ब्लाग पर मुख्य मेनु से शनि राहू केतु ग्रह की शांति के उपाय पढि़ये।
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वंश परंपरा सूची गोत्र प्रवर शिखा सूत्र पाद छन्द वेद उपवेद द्वार देवता

 


प्रत्येक सनातनधर्मावलम्बी को अपनी कुल परम्परा का सम्पूर्ण परिचय निम्न  ११ (एकादश) बिन्दुओं के माध्यम से ज्ञात होता है, अतः इसका प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान होना चाहिए -१ - गोत्र, २-  प्रवर, ३ - वेद, ४- उपवेद, ५- शाखा, ६- सूत्र, ७-छन्द, ८-शिखा, ९- पाद ,१०-देवता, ११-द्वार

  १] गोत्र - गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया । इन गोत्रों के मूल ऋषि –कश्यप, विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, - इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। इस प्रकार कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते जाने पर पक्ष ओर शाखाये बनाई गई । इस तरह इन सप्त ऋषियों पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामो से अन्य गोत्रों का नामकरण हुआ यथा पाराशर गोत्र वशिष्ट गोत्र से ही संबंधित है।

शाश्त्रविधि से गोत्र धारण की जो पद्धति है उसके अनुसार वंश परंपरा तथा गुरु परंपरा दोनो ही है।

जिसका गोत्र ज्ञात नही उनके लिए कश्यप गोत्र माना जाता है क्योकि सभी मूलरुप से कश्यप ऋषि के वंशज है। इसके अतिरिक्त जिनका गोत्र अज्ञात है उनके पुरोहित द्वारा अपना गोत्र प्रदान किया जा सकता है। स्त्री के पति का गोत्र स्त्री का गोत्र हो जाता है। विवाह पुर्व कन्या के पिता का गोत्र होता है विवाह बाद पति का गोत्र हो जाता है।

२] प्रवर -

प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" । अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें । अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे।

३ ] वेद -

वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने लाभ किया है , इनको सुनकर  कंठस्थ किया जाता है , इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं। प्रत्येक  का अपना एक विशिष्ट वेद होता है , जिसे वह अध्ययन -अध्यापन करता है।

४] उपवेद -

चारो वेद के उपवेद है, जिनका परंपरागत अध्ययन करनेवाला उस उपवेद से संबद्ध होता है। आयुर्वेद- ऋग्वेद से (परन्तु सुश्रुत इसे अथर्ववेद से व्युत्पन्न मानते हैं);

धनुर्वेद - यजुर्वेद से ;

गन्धर्ववेद - सामवेद से, तथा

शिल्पवेद - अथर्ववेद से ।

५]  शाखा -

वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है , कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।

६]  सूत्र -

प्रत्येक वेद के अपने 2 प्रकार के सूत्र हैं।श्रौत सूत्र और ग्राह्य सूत्र।यथा  शुक्ल यजुर्वेद का कात्यायन श्रौत सूत्र और पारस्कर ग्राह्य सूत्र है।

७]  छन्द  -

उक्तानुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण को  अपने परम्परासम्मत   छन्द का  भी  ज्ञान  होना  चाहिए  ।

८]  शिखा -

अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने  की परम्परा शिखा कहलाती है ।

९]  पाद -

अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं । ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है । अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं ।

१०]  देवता -प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते है वही उनका देवता [जैसे  विष्णु, शिव , दुर्गा ,सूर्य इत्यादि  देवों में से कोई एक ] उनके आराध्‍य देव है ।

११]  द्वार - 

यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता )  जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार या दिशा  कही जाती है।

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