हवन मे ब्रहमा को दक्षिण क्यो? स्रुवा कैसे पकडे

 हवन मे ब्रह्मा को दक्षिण दिशा में क्यो रखा  जाता है?

स्रुवा कैसे पकड़ते है?

अग्नि का मुख किधर होता है?

मेखला कितनी होती है?

हवन के लिए कैसी भूमि चाहिए?

उत्तरे सर्वपात्राणि उत्तरे सर्व देवता ।

उत्तरेपाम्प्रणयनम् किम् अर्थम् ब्रह्म दक्षिणे ।।


सभी विद्वानों के लिए जानने योग्य बात है ।


अर्थ- इस श्लोक का अर्थ है उत्तर में सारे पात्रों को स्थापित करते हैं यज्ञ में और उत्तर में ही सारे देवी देवताओं का आवाहन होता है पूजन होता है और इस श्लोक में एक प्रश्न छुपा हुआ है वह प्रश्न यह है कि ब्रह्मा जी को दक्षिण दिशा में क्यों स्थापित करते हैं यज्ञ में?


: दक्षिणे दानवा: प्रोक्ता:पिशाचोरगराक्षसा:।तेषांसंरक्षणार्थाय ब्रम्हा:तिष्ठति दक्षिणे ।।

दक्षिण दिशा में पिशाच सर्प, राक्षस आदि रहते है उनसे रक्षा के लिए ब्रह्मा को दक्षिण दिशा में स्थापना करते है।

[6/25, 1:06 PM] राजेश मिश्र 'कण': श्रीराम ।

👌🚩


अन्य:-


श्लोक 

यमोवैवस्वतोराजा वस्ते दक्षिणाम् दिशी ।।

तस्यसंरक्षरणार्थाय ब्रह्मतिष्ठति दक्षिणे ।।


४. स्रुवधारणार्थकारिका । प्रश्नः - अग्रे धृत्वाऽर्थनाशाय मध्ये चैव मृतप्रजाः ॥ मूले च म्रियते होता स्रुवस्थानं कथं भवेत् ? ।। उत्तरम् - अग्रमध्याच्च यन्मध्यं मूलमध्याच्च मध्यतः । स्रुवं धारयते विद्वान् ज्ञातव्यं च सदा बुधैः ॥ तर्जनी च बहिः कृत्वा कनिष्ठां च बहिस्तथा । मध्यमाऽनामिकांगुष्ठैः श्रुवं धारयते द्विजः ।। आस्यान्तर्जुहुयादग्नेर्विपश्चित् सर्वकर्मसु । कर्महोमेर्भवेद् व्याधिर्नेत्रेऽन्धत्वमुदाहृतम् । नासिकायां मनः पीड़ा मस्तके


[6/25, 1:38 PM] Sanjay Panday: 🙏

अधोमुख उर्द्धवपाद:प्राङ् मुखो हब्य वाहन:।तिष्ठत्येन स्वभावेन् आहुति कुत्र दीयते ।।🙏

[6/25, 8:19 PM] राजेश मिश्र 'कण': श्रीराम ।

सपवित्राम्बुहस्तेन यः कुर्यात प्रदक्षिणाम् । हव्यवाट् सलिलं दृष्ट्वा विभेति सन्मुखीभवेत् ॥

 विधान यह है कि ब्रह्मा ( यज्ञ के लिए वरण किये ब्राह्मण द्वारा हाथ मे कुश लेकर) अग्नि की प्रदक्षिणा करने से अग्नि का मुख सामने हो जाता है। यदि वरण के लिए अतिरिक्त ब्राह्मण न हो तो यजमान के हाथ से 256 मुट्ठी चावल लेकर पुर्णपात्र ब्रह्मा का निर्माण करके पुर्णपात्र को अग्नि की परिक्रमा करायें।

[6/25, 8:26 PM] राजेश मिश्र 'कण': सपवित्रः +अम्बु(गतौ)+ हस्तेन य: कुर्यात प्रदक्षिणाम्। हव्यवाट् (हव्यं वहतीति ।  वह + अण् । ) अग्निः । सलिलं( धारा, अग्निशिखा) दृष्ट्वा विभेति( विभज्य ) सन्मुखीभवेत्।।

अतः अग्निशिखा पर आहूति देनी चाहिए।


हवन की भूमि कैसी होनी चाहिए?

हवन की भूमि.का चयन इस प्रकार करे।


हवन करने के लिए उत्तम भूमि को चुनना बहुत ही आवश्यक होता हैं. हवन के लिए सबसे उत्तम भूमि नदियों के किनारे की, मन्दिर की, संगम की, किसी उद्यान की या पर्वत के गुरु ग्रह और ईशान में बने हवन कुंड की मानी जाती हैं. हवन कुंड के लिए फटी हुई भूमि, केश युक्त भूमि तथा सांप की बाम्बी वाली भूमि को अशुभ माना जाता हैं.




हवन कुंड व हवन के नियम क्या है?

हवन कुंड की बनावट


हवन कुंड में तीन सीढियाँ होती हैं. जिन्हें “ मेखला ” कहा जाता हैं. हवन कुंड की इन सीढियों का रंग अलग – अलग होता हैं.


1. हवन कुंड की सबसे पहली सीढि का रंग सफेद होता हैं.


2. दूसरी सीढि का रंग लाल होता हैं.


3. अंतिम सीढि का रंग काला होता हैं.


 हवन कुंड की इन तीनों सीढियों में तीन देवता निवास करते हैं.


1. हवन कुंड की पहली सीढि में विष्णु भगवान का वास होता हैं.


2. दूसरी सीढि में ब्रह्मा जी का वास होता हैं.


3.तीसरी तथा अंतिम सीढि में शिवजी का वास होता हैं.


हवन कुंड और हवन के नियम* 


*हवन कुंड के प्रकार -* 


हवन कुंड कई प्रकार के होते हैं. जैसे कुछ हवन कुंड वृताकार के होते हैं तो कुछ वर्गाकार अर्थात चौरस होते हैं. कुछ हवन कुंडों का आकार त्रिकोण तथा अष्टकोण भी होता हैं.


*आहुति के अनुसार हवन कुंड बनवायें* 


1. अगर आपको हवन में 50 या 100 आहुति देनी हैं तो कनिष्ठा उंगली से कोहनी (1 फुट से 3 इंच )तक के माप का हवन कुंड तैयार करें.


2. यदि आपको 1000 आहुति का हवन करना हैं तो इसके लिए एक हाथ लम्बा (1 फुट 6 इंच ) हवन कुंड तैयार करें.



 

3. एक लक्ष आहुति का हवन करने के लिए चार हाथ (6 फुट) का हवनकुंड बनाएं.



 

4. दस लक्ष आहुति के लिए छ: हाथ लम्बा (9 फुट) हवन कुंड तैयार करें.


5. कोटि आहुति का हवन करने के लिए 8 हाथ का (12 फुट) या 16 हाथ का हवन कुंड तैयार करें.


हवन कुंड के बाहर गिरी सामाग्री का क्या करे?

हवन कुंड के बाहर गिरी सामग्री को हवन कुंड में न डालें - आमतौर पर जब हवन किया जाता हैं तो हवन में हवन सामग्री या आहुति डालते समय कुछ सामग्री नीचे गिर जाती हैं. जिसे कुछ लोग हवन पूरा होने के बाद उठाकर हवन कुंड में डाल देते हैं. ऐसा करना वर्जित माना गया हैं. हवन कुंड की ऊपर की सीढि पर अगर हवन सामग्री गिर गई हैं तो उसे आप हवन कुंड में दुबारा डाल सकते हैं. इसके अलावा दोनों सीढियों पर गिरी हुई हवन सामग्री वरुण देवता का हिस्सा होती हैं. इसलिए इस सामग्री को उन्हें ही अर्पित कर देना चाहिए.

लेख पं.राजेश मिश्र "कण "


रक्षाबंधन 2022 सह समय कब है

 श्रीराम ।


रक्षाबंधन य राखी का त्योहार कब है इसको लेकर लोगो मे उहापोह बना हुआ है। इस पर भास्कर ज्योतिष केन्द्र द्वारा स्पष्ट किया जा रहा है।


श्रावणी तथा रक्षाबन्धन भद्रा में नहीं किया जा सकता। इसलिए भद्रा रहित पूर्णिमा में दिन-रात किसी भी समय रक्षा बन्धन किया जा सकता है। 

काशी विश्वनाथ तथा महावीर पंचांगानुसार

इस वर्ष ११ अगस्त गुरुवार को दिन में ९/३५ बजे से पूर्णिमा तिथि लग जायेगी जो १२ अगस्त शुक्रवार को प्रात ७/९६ बजे तक रहेगी। भद्रा ११ अगस्त गुरुवार को पूर्णिमा तिथि के साथ ही दिन ९।३५  से प्रारम्भ होकर रात ८।२५ बजे तक रहेगी। इस प्रकार भद्रा से रहित पूर्णिमा ११ अगस्त  गुरुवार को रात ८।२५ से लेकर १२ अगस्त शुक्रवार को प्रातः ७ /१६ बजे के मध्य रक्षाबन्धन का शुभ मुहूर्त्त बन रहा है। अतः इस समय मे ही रक्षाबंधन उचित है।

  पं.राजेश मिश्र "कण "

पूजा मे शिर पर कपडा़़ न रखे।


#देव_पूजा_में_निषिद्ध_वस्त्र------||


*_शिरः प्रावृत्य वस्त्रेण ध्यानं नैव प्रशस्यते_*

*_भोजन और पूजन ,हवनादि पर सिर के ऊपर वस्त्र रखना वर्जित है आजकल अधिकतर लोगो को सिर ढ़ककर  पूजन , हवनादि करते देखा जाता है,जो गलत है , सही जानकारी के अभाव मे यह मुसलमानो की संस्कृति लोगों ने अपना ली है |_*


शाश्त्रीय विधान के अनुसार, पूजन हवन मे, धोती और उत्तरीय वस्त्र ( अंगोछा य चादर ) धारण करना है। अंगोछा कंधे पर रखा जाता है, तथा यज्ञोपवीत की भॉति अंगोछे को भी सव्य अपसव्य देव पूजन व पितृपूजन मे रखने का विधान है। अर्थात बाये कंधे पर देव पूजन मे व दाये कंधे पर पितृपूजन मे।

   मल-मूत्र का त्याग करते समय शिर को वस्त्र से ढकने का विधान है।


न स्यूते न दग्धेन पारक्येन विशेषतः |

 मूषिकोत्कीर्ण जीर्णेन कर्म कुर्याद्विचक्षणः ||

 सिले हुए वस्त्र से , जले हुए वस्त्र से, विशेषकर दूसरे के वस्त्र से, चूहे से कटे हुए वस्त्र से धर्मकार्य नहीं करना चाहिए.


जीर्णं नीलं संधितं च पारक्यं मैथुने धृतम् | 

छिन्नाग्रमुपवस्त्रं च कुत्सितं धर्मतो विदुः ||

जीर्ण, नीला, सीला हुआ, दूसरे का, संभोगावस्था में पहना हुआ, जिसका तत्र भाग कटा हो एवं छोर रहित वस्त्र धर्मकी दृष्टि से धारण न करें!


अहतं यन्त्र निर्मुक्तं वासः प्रोक्तं स्वयंभुवा |

 शस्तं तन् मांगलिक्येषु तावत् कालं न सर्वदा||

यन्त्र(मील) से निकले हुए बने हुए वस्त्र को "अहत" वस्त्र माना हैं | वह यन्त्र से निकला हुआ कपड़ा विवाह आदि मांगलिक कार्य में उतने ही समय तक ठीक हैं, हमेशा के लिए नहीं.


अन्यत्र यज्ञादौ तु इषद्धौतमिति | #न_च_यज्ञादिकमपि #मांगलिक्यमेवेत्याशंकनीयम् / विवाहोत्सवादेरैहिकसुखस्याभ्युदयस्य च मांगलिकत्वात् / यज्ञोदेस्तु #धर्मरूपादृष्टफलदत्वेन मांगलिकत्वाभावात् "         (मदन पारि० शातातपः)


मदन पारि० ग्रन्थ में शातातप नामक ऋषि की व्याख्या अहतवस्त्र का -- अन्यत्र यज्ञादि अनुष्ठान में (प्रशस्त )नहीं , यज्ञादि कर्म तो अदृष्ट (अप्रत्यक्ष) फल देनेवाले हैं, इस कारण से वे मांगलिक कर्म में नहीं आते | निष्कर्ष यह हैं कि विवाहादि मांगलिक कार्यों का प्रत्यक्ष संस्काररूपी फल हैं, ऐसा यज्ञादिकर्मों का दृष्ट फल नहीं |

इषद्धौतमरजकादिना सकृद्धौतमिति नागदेवाह्निके व्याख्यातम् ||-- इषद्धौत का मतलब बिना धोबी के एकबार धुला वस्त्र |

स्वयं धौतेन कर्त्तव्या क्रिया धर्म्या विपश्चिता / न तु तेजकधौतेन नोपभुक्तेन च क्वचित् ||

(चतुर्वर्ग चिंता०वृद्धमनुवचन)

विद्वान् कर्मकर्ता को स्वयं(ब्रह्मचारी स्वयं/ गृहस्थी स्वयं वा पत्नी द्वारा)धूले वस्त्र से धार्मिक क्रिया को सम्पन्न करे | धोबी से धुले हुए एवं भोजन में पहने हुए या दूसरे के पहने हुए वस्त्र से कभी भी धार्मिक कर्म न करे.

    पं.राजेश मिश्र "कण"

वास्तु ब्रह्मस्थान

   




ब्रह्म स्थान से तात्पर्य भूखंड का केन्द्रीय स्थान है। इसका क्षेत्रफल कुल भूखंड के क्षेत्रफल के अनुपात के आधार पर तय होता है। साधारण घरों के लिए 81 पद की वास्तु बताई गई है, जिसमें 9 x 9 = 81 पदों में से 9 पद ब्रह्मा के बताए गए हैं। इससे ब्रह्मा का स्थान पूरे भूखंड का 9वां भाग हुआ। लोग भ्रमवश किसी भी भूखण्ड के एकदम केन्द्रीय स्थान को ही ब्रह्म स्थान मानते हैं। जब मर्म स्थानों की गणना करते हैं, जहां कि कोई निर्माण घातक सिद्ध हो सकता है तो वह मर्म स्थान इन 9 पदों में पड़ते हैं न कि केवल केन्द्रीय बिन्दु पर। अत: जिस क्षेत्र को निर्माण कार्यों से या अन्य बाधाओं से बचाना है, वह पूरे भूखण्ड का 9वां भाग होता है  और उस नवें भाग में कुल मिलाकर 15 या 20 मर्मस्थान चिह्नित करने पड़ते हैं। यदि भूखण्ड 100 वर्गगज का हुआ तो ब्रह्म स्थान 10 वर्ग गज का हुआ परंतु यदि भूखण्ड का क्षेत्रफल 900 वर्ग गज का हो तो ब्रह्म स्थान का क्षेत्रफल 100 वर्गगज होता है। ब्रह्म स्थान का क्षेत्रफल भूखण्ड के क्षत्रफल के अनुपात घटत या बढ़ता है।

यदि 81 पद या वर्ग के स्थान पर 100 पद की वास्तु लागू करें जो कि देवप्रसादों या उनके मण्डपों के लिए की जाती है तो ब्रह्मा का स्थान 16 पद हो जाता है। यह अनुपात 6.25 आया। अर्थात भूखंड का 9वां भाग न होकर 6.25 भाग आया।

यदि 64 पद का भूखण्ड लिया जाए जिसे कि मानसार में मंदिर के लिये प्रसिद्ध बताया गया है या राजाओं के शिविरों के लिए भी बताया जाता था तो उसमें ब्रह्मï का स्थान चार पद तक ही सीमित रह जाता है। यानि कुल पदों के 16वें भाग में ब्रह्मा सीमित रह जाते है। इसमें अन्य देवताओं के क्षेत्राधिकार भी बदल जाते है। अर्यमा आदि जो देवता है वे दो-दो पदों का उपभोग करते हैं। आठों कोणों पर स्थिति बीच और जो आठ देवता स्थित हैं, वे आधे-आधे पदों का उपभोग करते हैं। इसलिए अन्य देवताओं के भी क्षेत्राधिकार में अंतर आता है। इस भेद को अनुभवी वास्तु शास्त्री ही मौके  पर पकड़ पाते हैं। नादानी से किए गए निर्माण यदि किसी एक देवता की बजाय दूसरे के क्षेत्राधिकार में करा दिए जाएं तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

ब्रह्म स्थान में नहीं मर्म स्थान अन्यत्र भी मिलते हैं वास्तु पुरुष के मुख मे, हृदय में, नाभि में, सिर में और स्तनों में जो मर्म है, उनको षण्महन्ति कहा जाता है। वंश, अनुवंश एवं संपात (कटान बिंदु) और पद के मध्य में जो देवस्थान है, वे 16 पद वाली वास्तु में अत्यंत गंभीर हो जाते हैं। इतने ही गंभीर 81 पद की वास्तु में भी होते है।

चारों विभागों में, चारों दिशाओं में जो शिरा होती है तथा द्वार के मध्य भाग पर जो स्थान होते हैं उन्हें मर्म कहते है। मर्म स्थान को पहचानना अत्यंत कौशल का काम है और अच्छे-अच्छे आर्किटेक्ट या वास्तु शास्त्री उसको नहीं कर पा रहे हैं। द्वारों से या दीवार से यदि मर्म स्थान का वेध हो तो गृह स्वामी की कुल हानि होती है। यदि स्तम्भ से मर्म वेध हो तो गृह स्वामी का नाश होता है। यदि तुलाओं के द्वारा वेध हो तो स्त्री नाश कराता है। खूंटी के द्वारा वेध हो तो बहू का नाश और मर्म स्थान पर भारी सामान रखने से भाई का नाश होता है। यदि मर्म स्थानों पर नागपाश हो तो धनहानि, यदि नागदंत (एक तरह की खूंटी) तो मित्रहानि तथा मर्म में कंगूरे स्थित होने पर नौकरों की हानि होती है। अवांछित लकडिय़ां, गवाक्ष व खिड़कियां धन क्षय कराने के माध्यम बनते हैं। शिराओं के पीडऩ से उद्वेग और अनर्थ आता है और संधियों और अनुसंधियों के अनुपीडऩ से घर में काल आता है। इसका अर्थ यह है कि दो दीवारों का मिलन स्थल या क्रॉस बीम किसी मर्म स्थान पर पड़े तो घर में मृत्यु को आमंत्रण मिलता है। अनुभव में आया है कि अकाल मृत्यु के सारे मामले अधिकांश इस वेध से आते हैं।

यदि कोई मर्म स्थान कोई द्वार के मध्य में पड़े तो राजभय आपतित होता है। पहले तो राजा लोग क्रोधित होने पर सीधे फांसी चढ़ा दिया करते थे। आजकल इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स और जेडीए के रूप में घरों में घुस आते हैं और आने के बाद कई दिन तक नहीं निकलते। यदि शैया किसी मर्म स्थान पर आ जाए तो कुल नाश करा देती है। शैया के आजू-बाजू में जो नागदंत होते हैं अर्थात खूंटियों का कोई भी प्रकार यदि वे मर्म स्थान पर पड़ जाएं तो स्वामी का क्षय करा देते हैं। स्वामी के विरुद्ध षड्ïयंत्र वहां जन्म लेते हैं। जो खूंटियां खिड़कियों या खंभों से वेध हो जाएं तो शस्त्रघात से कोई न कोई मृत्यु घर में आती है। शस्त्रघात का आधुनिक समीकरण शल्य चिकित्सा है। यदि घर के बिल्कुल मध्य में द्वार हो तो स्त्री दूषण आता है। यदि उत्तर दिशा में, उत्तर दिशा मध्य और ईशान के बीचोंबीच अदिति नाम के देवता के स्थान पर द्वार हो और घर के बीचोंबीच भी द्वार हो और इस तरह से मर्मवेध हो तो उस घर में स्त्री दूषण आता है और स्त्रियां चरित्रहीन होने लगती है। नागदंत का स्तम्भ से बेध या तो घर में चोरी कराता है या घर के किसी प्राणी में चौरवृत्ति देता है।

मर्मवेध के दुष्परिणाम लिखने का तात्पर्य यह है कि न केवल इन स्थानों पर वेध से बचें बल्कि मर्मस्थान की यत्नपूर्वक रक्षा करें। आजकल स्थापति या वास्तुशास्त्री वास्तुपुरुष के रूप में प्रोजेक्ट की गई असाधारण भवन निर्माण योजना के शास्त्रीय पक्ष पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। यदि इन्हें केवल पौराणिक कथाएं मानकर छोड़ दिया जाए तो हम वैदिक ऋषियों की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रस्तावों का उल्लंघन कर रहे होंगे और प्रकृति की ऊर्जा को संपूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर पाएंगे।

ब्रह्म स्थान व उसके चारों ओर स्थित देवताओं की ऊर्जा आवश्यकताएं अलग-अलग होती है। यद्यपि बाहर से आयातित ऊर्जा चाहे वह कॉस्मिक ऊर्जा हो, चाहे भूगर्भ ऊर्जा, चाहे अंतरिक्ष पिंडों के आकर्षण-विकर्षण का परिणाम हो, चाहे कक्षापथों के परस्पर घर्षण का परिणाम हो, चाहे ग्रहों के कक्षापथों में दोलन, या ग्रहों की अयन स्थितियां या ग्रहों का किसी अवसर विशेष पर चेष्टाबल हो, भवन में इन सबको साधने की प्रविधियां वैदिक ऋषियों ने आविष्कृत कर ली थीं। इन वास्तु शास्त्रीय नियमों में छिपी गहराई को हम समझ नहीं पा रहे हैं। उदाहरण के लिए ज्योतिष ग्रंथों में हर ग्रह की जप संख्या अलग-अलग बताई जाती है। किसी की 7000 तो किसी की 36000। इसी भांति भूखण्ड में भी हर देवता की ऊर्जा क्षमता अलग-अलग मानी गई है। अत: वास्तु शास्त्री को यह निर्णय भी करना होगा कि किस दिशा से कितनी ऊर्जा किस देवता को पहुंचाई जाए। यह वह स्थान है जहां स्थापत्य के भौतिक नियमों में धर्म, दर्शन और अध्यात्म की प्रतिष्ठा करनी होती है। भूखण्ड में जब तक देवताओं की इस रूप में प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाए तब तक भूखण्ड सफल नहीं होते।


वास्तु शास्त्र के अनुसार मुख्य द्वार कभी भी किसी भी दिशा के कोने में नहीं होना चाहिए।


2.-   प्रत्येक भूमि या कमरे की लम्बाई व चौड़ाई को नौ भागों में बांट लेना चाहिए।

1. - पूर्व दिशा में मुख्य द्वार ईशान के दो भाग छोड़ कर तीन भागों में बनाया जा सकता है। आग्नेय के चार भाग फिर फिर छोड़ देने चाहिए।

2.  - पश्चिम में मुख्यद्वार के लिए नैऋत्य के दो भाग छोड़कर तीन भागों में बनाया जा सकता है। शेष चार भाग वायव्य के छोड़ देने चाहिए।

3.   उत्तर में वायव्य के तीन भाग छोड़कर दो भागों में मुख्य द्वार बनाना उचित रहता है। शेष भाग फिर छोड़ देने चाहिए।

4.    दक्षिण दिशा में आग्नेय कोण के तीन भाग छोड़कर तीन भागों में मुख्य द्वार बनाना उचित रहता है। शेष तीन भाग फिर छोड़ देने चाहिए जैसे चित्र में दर्शाया गया है।

परन्तु बने बनाए मकान-फ्लैट व कार्यालय लेने के कारण मुख्य द्वार बना-बनाया प्राप्त होता है। कार्यालय का मुख्य द्वार कोने में भी हो सकता है तथा दक्षिण दिशा के कोने में भी हो सकता है। जो अत्यधिक अशुभ होता है।  शास्त्र विधि के द्वारा इसका सुधार आवश्यक हो जाता है।


ब्रह्म स्थान पं. राजेश मिश्र कण भास्कर ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र






अक्षय तृतीया पुणयफल पितृदोष कालसर्प दोष निवारण

श्राीराम ।

अक्षय तृतीया के दिन किये गये कार्य का फल अक्षय होता है। पुण्यार्जन के लिए अपनी शक्ति अनुसार दान करना चाहिए।

अक्षय तृतीया एक खगोलीय/ ज्योतिषीय योग है, जिसमे सूर्य अपनी उच्च राशि मेष, तथा चन्द्रमा अपनी उच्चराशि वृष मे स्थित होते है। यह अत्यंत ही प्रभावशाली योग माना गया है।

रम्भा तृतीया को छोड़कर अन्य,  तृतीया तिथि का निर्णय करते हुए ब्रह्मवैवर्त मे, माधव  व अन्य मत से भी चतुर्थीयुक्त तृतीया ही ग्रहण करनी चाहिये। ( निर्णय- सिन्धु)

काशी विश्वनाथ पंचांग के अनुसार अक्षय तृतीया - 

तृतीया तिथि प्रारंभ – ३ मई २०२२ को अहोरात्र है। 


इस दिन किये हुये सभी पुण्य शुभकर्म अक्षय हो जाते है। सभी मांगलिक कार्य बिशेष लाभदायी होते है। जलपूरित कुंभ व पंखा का दान बिशेष पुण्यदायी है।  नवीन शैय्या का प्रयोग, नवीन वस्त्राभूषण स्वर्ण, रत्न, धारण करना, खरीदना, बनवाना, बागवानी, व्यापार आदि बिशेष लाभदायी है।  वेदपाठी, नित्य सन्ध्याकर्म रत विद्वान विनम्र ब्राह्मण को अन्न वस्त्र धन भोजन मिष्टान आदि देने का बिशेष पुण्य प्राप्त होता है।


“न माधव समो मासो न कृतेन युगं समम्।


न च वेद समं शास्त्रं न तीर्थ गंगयां समम्।।”


वैशाख के समान कोई मास नहीं है, सत्ययुग के समान कोई युग नहीं हैं, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं है और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। उसी तरह अक्षय तृतीया के समान कोई तिथि नहीं है। 


जिस जातक की जन्मपत्रिका मे कालसर्पदाेंष  हो वह अष्टनाग के निमित्त घर का बना मिष्ठान व एक मटकी में शुद्ध जल रखें। पीपल के नीचे धूप-दीप प्रज्ज्वलित कर अष्टनाग की संतुष्टि के लिए प्रार्थना करें।

        अथवा

जिस जातक की कुण्डली मे 'पितृ-दोष' है वे अपने पितर के निमित्त 'अक्षय-तृतीया' के दिन प्रात:बेला मे किसी  पीपल की जड के ऊपर, पितृगणों के निमित्त घर का बना मिष्ठान व एक मटकी में शुद्ध जल रखें। पीपल के नीचे धूप-दीप प्रज्ज्वलित कर अपने पितृगणों की संतुष्टि के लिए प्रार्थना करें।


तत्पश्चात् बिना पीछे देखे सीधे अपने घर लौट आएं, ध्यान रखें इस प्रयोग को करते समय अन्य किसी व्यक्ति की दृष्टि ना पड़ें। इस प्रयोग को करने से  अष्टनाग व पितृगण शीघ्र ही संतुष्ट होकर अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं।  

यदि नौकरी, व्यवसाय में बाधाएं आ रही हों या पदोन्नति में रुकावट हो तो 'अक्षय-तृतीया' के दिन शिवालय में शिवलिंग पर ११ गोमती चक्र अपनी मनोकामना का स्मरण करते हुए अर्पित करने से लाभ होता है।

भाग्योदय हेतु 'अक्षय-तृतीया' के दिन प्रात:काल उठते ही सर्वप्रथम ७ गोमती चक्रों को पीसकर उनका चूर्ण बना लें, फिर इस चूर्ण को अपने घर के मुख्य द्वार के सामने अपने ईष्ट देव का स्मरण करते हुए बिखेर दें। इस प्रयोग से कुछ ही दिनों में साधक का दुर्भाग्य समाप्त होकर भाग्योदय होता है।

   आप सभी को अक्षय तृतीया की हार्दिक शुभकामना। जय जय सीताराम ।

 भास्कर ज्योतिष व तंत्र अनुसंधान केन्द्र

     पं.राजेश मिश्र "कण"

सर्वारिष्ट निवारण स्तोत्र ग्रहपीडा़, भूत प्रेत कृत्या निवारण प्रयोग

 सभी प्रकार के अरिष्ट निवारण हेतु

Sarvarishth_Nivaran_Stotra–(सर्वारिष्ट निवारण स्तोत्र-)—


ॐ गं गणपतये नमः । सर्व-विघ्न-विनाशनाय, सर्वारिष्ट निवारणाय, सर्व-सौख्य-प्रदाय, बालानां बुद्धि-प्रदाय, नाना-प्रकार-धन-वाहन-भूमि-प्रदाय, मनोवांछित-फल-प्रदाय रक्षां कुरू कुरू स्वाहा ।।

ॐ गुरवे नमः, ॐ श्रीकृष्णाय नमः, ॐ बलभद्राय नमः, ॐ श्रीरामाय नमः, ॐ हनुमते नमः, ॐ शिवाय नमः, ॐ जगन्नाथाय नमः, ॐ बदरीनारायणाय नमः, ॐ श्री दुर्गा-देव्यै नमः ।।

ॐ सूर्याय नमः, ॐ चन्द्राय नमः, ॐ भौमाय नमः, ॐ बुधाय नमः, ॐ गुरवे नमः, ॐ भृगवे नमः, ॐ शनिश्चराय नमः, ॐ राहवे नमः, ॐ पुच्छानयकाय नमः, ॐ नव-ग्रह ! रक्षां कुरू कुरू नमः ।।


ॐ मन्येवरं हरिहरादय एव दृष्ट्वा द्रष्टेषु येषु हृदयस्थं त्वयं तोषमेति विविक्षते न भवता भुवि येन नान्य कश्विन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि । ॐ नमो मणिभद्रे ! जय-विजय-पराजिते ! भद्रे ! लभ्यं कुरू कुरू स्वाहा ।।

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्-सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।। सर्व विघ्नं शांन्तं कुरू कुरू स्वाहा ।।

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीबटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय महान्-श्याम-स्वरूपाय दीर्घारिष्ट-विनाशाय नाना-प्रकार-भोग-प्रदाय मम (यजमानस्य वा) सर्वारिष्टं हन हन, पच पच, हर हर, कच कच, राज-द्वारे जयं कुरू कुरू, व्यवहारे लाभं वृद्धिं वृद्धिं, रणे शत्रुन् विनाशय विनाशय, पूर्णा आयुः कुरू कुरू, स्त्री-प्राप्तिं कुरू कुरू, हुम् फट् स्वाहा ।।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः । ॐ नमो भगवते, विश्व-मूर्तये, नारायणाय, श्रीपुरूषोत्तमाय । रक्ष रक्ष, युग्मदधिकं प्रत्यक्षं परोक्षं वा अजीर्णं पच पच, विश्व-मूर्तिकान् हन हन, ऐकाह्निकं द्वाह्निकं त्राह्निकं चतुरह्निकं ज्वरं नाशय नाशय, चतुरग्नि वातान् अष्टादश-क्षयान् रोगान्, अष्टादश-कुष्ठान् हन हन, सर्व दोषं भञ्जय-भञ्जय, तत्-सर्वं नाशय-नाशय, शोषय-शोषय, आकर्षय-आकर्षय, मम शत्रुं मारय-मारय, उच्चाटय-उच्चाटय, विद्वेषय-विद्वेषय, स्तम्भय-स्तम्भय, निवारय-निवारय, विघ्नं हन-हन, दह-दह, पच-पच, मथ-मथ, विध्वंसय-विध्वंसय, विद्रावय-विद्रावय, चक्रं गृहीत्वा शीघ्रमागच्छागच्छ, चक्रेण हन-हन, पर-विद्यां छेदय-छेदय, चौरासी-चेटकान् विस्फोटान् नाशय-नाशय, वात-शुष्क-दृष्टि-सर्प-सिंह-व्याघ्र-द्विपद-चतुष्पद अपरे बाह्यं ताराभिः भव्यन्तरिक्षं अन्यान्य-व्यापि-केचिद् देश-काल-स्थान सर्वान् हन हन, विद्युन्मेघ-नदी-पर्वत, अष्ट-व्याधि, सर्व-स्थानानि, रात्रि-दिनं, चौरान् वशय-वशय, सर्वोपद्रव-नाशनाय, पर-सैन्यं विदारय-विदारय, पर-चक्रं निवारय-निवारय, दह दह, रक्षां कुरू कुरू, ॐ नमो भगवते, ॐ नमो नारायणाय, हुं फट् स्वाहा ।।

ठः ठः ॐ ह्रीं ह्रीं । ॐ ह्रीं क्लीं भुवनेश्वर्याः श्रीं ॐ भैरवाय नमः । हरि ॐ उच्छिष्ट-देव्यै नमः । डाकिनी-सुमुखी-देव्यै, महा-पिशाचिनी ॐ ऐं ठः ठः । ॐ चक्रिण्या अहं रक्षां कुरू कुरू, सर्व-व्याधि-हरणी-देव्यै नमो नमः । सर्व-प्रकार-बाधा-शमनमरिष्ट-निवारणं कुरू कुरू फट् । श्रीं ॐ कुब्जिका देव्यै ह्रीं ठः स्वाहा ।।

शीघ्रमरिष्ट-निवारणं कुरू-कुरू शाम्बरी क्रीं ठः स्वाहा ।।

शारिका-भेदा महा-माया पूर्णं आयुः कुरू । हेमवती मूलं रक्षा कुरू । चामुण्डायै देव्यै शीघ्रं विध्नं सर्वं वायु-कफ-पित्त-रक्षां कुरू । मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र-कवच-ग्रह-पीडा नडतर, पूर्व-जन्म-दोष नडतर, यस्य जन्म-दोष नडतर, मातृ-दोष नडतर, पितृ-दोष नडतर, मारण-मोहन-उच्चाटन-वशीकरण-स्तम्भन-उन्मूलनं भूत-प्रेत-पिशाच-जात-जादू-टोना-शमनं कुरू । सन्ति सरस्वत्यै कण्ठिका-देव्यै गल-विस्फोटकायै विक्षिप्त-शमनं महान् ज्वर-क्षयं कुरू स्वाहा ।।

सर्व-सामग्री-भोगं सप्त-दिवसं देहि-देहि, रक्षां कुरू, क्षण-क्षण अरिष्ट-निवारणं, दिवस-प्रति-दिवस दुःख-हरणं मंगल-करणं कार्य-सिद्धिं कुरू कुरू । हरि ॐ श्रीरामचन्द्राय नमः । हरि ॐ भूर्भुवः स्वः चन्द्र-तारा-नव-ग्रह-शेष-नाग-पृथ्वी-देव्यै आकाशस्य सर्वारिष्ट-निवारणं कुरू कुरू स्वाहा ।।

१॰ ॐ ऐं ह्रीं श्रीं बटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय सर्व-विघ्न-निवारणाय मम रक्षां कुरू-कुरू स्वाहा।।

२॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीवासुदेवाय नमः, बटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय मम रक्षां कुरू-कुरू स्वाहा।।

३॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीविष्णु-भगवान् मम अपराध-क्षमा कुरू कुरू, सर्व-विघ्नं विनाशय, मम कामना पूर्णं कुरू कुरू स्वाहा ।।

४॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीबटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय सर्व-विघ्न-निवारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा ।।

५॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ श्रीदुर्गा-देवी रूद्राणी-सहिता, रूद्र-देवता काल-भैरव सह, बटुक-भैरवाय, हनुमान सह मकर-ध्वजाय, आपदुद्धारणाय मम सर्व-दोष-क्षमाय कुरू कुरू सकल विघ्न-विनाशाय मम शुभ-मांगलिक-कार्य-सिद्धिं कुरू-कुरू स्वाहा।।



एष विद्या-माहात्म्यं च, पुरा मया प्रोक्तं ध्रुवं । शम-क्रतो तु हन्त्येतान्, सर्वांश्च बलि-दानवाः।।१

य पुमान् पठते नित्यं, एतत् स्तोत्रं नित्यात्मना । तस्य सर्वान् हि सन्ति, यत्र दृष्टि-गतं विषं ।।२

अन्य दृष्टि-विषं चैव, न देयं संक्रमे ध्रुवम् । संग्रामे धारयेत्यम्बे, उत्पाता च विसंशयः ।।३

सौभाग्यं जायते तस्य, परमं नात्र संशयः । द्रुतं सद्यं जयस्तस्य, विघ्नस्तस्य न जायते।।४

किमत्र बहुनोक्तेन, सर्व-सौभाग्य-सम्पदा। लभते नात्र सन्देहो, नान्यथा वचनं भवेत् ।।५

ग्रहीतो यदि वा यत्नं, बालानां विविधैरपि । शीतं समुष्णतां याति, उष्णः शीत-मयो भवेत् ।।६

नान्यथा श्रुतये विद्या, पठति कथितं मया । भोज-पत्रे लिखेद् यन्त्रं, गोरोचन-मयेन च ।।७

इमां विद्यां शिरो बध्वा, सर्व-रक्षा करोतु मे । पुरूषस्याथवा नारी, हस्ते बध्वा विचक्षणः ।।८

विद्रवन्ति प्रणश्यन्ति, धर्मस्तिष्ठति नित्यशः । सर्व-शत्रुरधो यान्ति, शीघ्रं ते च पलायनम् ।।९

‘श्रीभृगु संहिता’ के सर्वारिष्ट निवारण खण्ड में इस अनुभूत स्तोत्र के 40 पाठ करने की विधि बताई गई है। इस पाठ से सभी बाधाओं का निवारण होता है। इस पाठ के फल-स्वरुप पुत्र-हीन को पुत्र-प्राप्ति होती है और जिसका विवाह नहीं हो रहा हो, उसका विवाह हो जाता है । इसके अतिरिक्त इस स्तोत्र के पाठ के प्रभाव से सभी प्रकार के दोषों – ज्वर, क्षय, कुष्ठ, वात-पित्त-कफ की पीड़ाओं और भुतादिक सभी बाधाओं का निवारण होता है ।

इस स्तोत्र का पाठ यदि स्वयं अपने लिए करना हो, तो ‘मम’ या ‘मम स-कुटुम्बस्य’ का उच्चारण करे और यदि किसी अन्य (यजमान) के लिए पाठ करना हो तो स्तोत्र में जहाँ ‘यजमान’ -शब्द लिखा है, वहाँ उसके नाम, गोत्रादि का उच्चारण करना चाहिए ।

किसी भी देवता या देवी की प्रतिमा या यन्त्र के सामने बैठकर धूप दीपादि से पूजन कर इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये । विशेष लाभ के लिये ‘स्वाहा’ और ‘नमः’ का उच्चारण करते हुए ‘घृत मिश्रित गुग्गुल’ से आहुतियाँ दे सकते हैं । ऐसा करने से अभीष्ट कामना की पूर्ति शीघ्र और अवश्य होती है । इसके पाठ से निर्धन को धन और बेकार को जीविका का साधन – नौकरी, व्यापार आदि की सुविधा प्राप्त होती है ।


यन्त्रः- इस सर्वारिष्ट-निवारण-यन्त्र को लिखने के लिए गोरोचन, कुंकुम या चन्दन और कर्पूर उपयोग में लें । “रवि-पुष्य”, “गुरु-पुष्य” या अन्य शुभ दिवस पर लिखकर सफेद धागे से लपेटें तथा रेशमी वस्त्र से आच्छादित करें । विधिवत् पूजन हेतु कलश स्थापित करें । गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, धूप, दीपादि से पूजन करें और फिर चाँदी के ताबीज में भरकर धारण करें अथवा इसको समक्ष रखकर उक्त स्तोत्र का नित्य पाठ करें ।

विशेषः- पूर्व में यह स्तोत्र मेरे द्वारा परीक्षित है तथा सर्व-प्रथम इन्टरनेट पर प्रकाशित किया गया था, लेकिन उसमें कुछ अशुद्धि थी, एतद् यहाँ सर्व-शुद्ध पाठ दिया गया है ।

  पं.राजेश मिश्र कण द्वारा संकलित भृगुप्रोक्त भृगुसंहितायां सर्वारिष्टनिवारण स्तोत्र

 मंत्र दीक्षा की संपुर्णज जानकारी के लिए एक विस्तृत व शाशत्रोक्त विवेचन

पूजा व मंत्र जप का सही तरीका

मंत्र सिद्धादि शोधन 

मंत्र शोधन के अपवाद 

 मंत्र ऋण धन शोधन विधि 

आयु व मंत्र के प्रकार किस आयु मे कौन सा मंत्र जपना चाहिए  

पूजा पाठ तरने वाले दुखी क्यो रहते है?

मंत्र सिद्धि के उपाय व लक्षण

क्या यज्ञोपवीत के बाद दुसरू शिक्षा लेनी चाहिये





स्त्रीयो के व्यासगद्दी पर बैठने का अधिकार आरोप खण्डन

 

श्रीराम ।
*क्या स्त्रियाँ व्यासपीठ की अधिकारी है*

सप्रमाण आरोप खण्डन

भागवत महापुराण का महात्मय देखे,
श्री वेद व्यास जी ने कहा है कि विरक्तो वैष्णवो, विप्रो वेदशास्त्र विशुद्ध कृत, दृष्टांत कुशलो धीर: वक्ता कार्यो निस्पृह:। वेदव्यास जी कहते हैं कि वक्ता संसार से विरक्त हो, उसकी संसार में कोई आसक्ति न हो, वैष्णव हो यानि भगवान का भक्त हो, विप्रो यानि ब्राह्मण हो, चौथी विशेषता बताई गई कि वेदशास्त्र विशुद्ध कृत यानि वेद शास्त्र को उसने शुद्ध रुप से परंपरा से अध्ययन किया हो।  भागवत कथा कहने का अधिकार ब्राह्मण को, वैष्णव को,और जिसने वेद शास्त्र का अध्ययन किया, उसको है। उस श्लोक में कहीं भी स्त्री की चर्चा नहीं आई है। जितने शब्द प्रयोग किये गये हैं पुल्लिंग शब्द प्रयोग किये गये हैं, पुरुषों के लिये प्रयोग किये गये हैं। और चौथा जो विशेषण कहा गया वेद शास्त्र विशुद्ध कृत, भागवत की कथा वही सुनावे जो वेद शास्त्र को पढ़ा हो, कारण की भागवत वेद रुपी वृक्ष का फल है। निगम कल्पतरु है, तो बिना वेद पढ़े कोई अगर भागवत की कथा सुनाता है, तो वेद के किन मंत्रों का कहां पर क्या तात्पर्य है, इसकी संगति वह नहीं बता सकता है। इसलिये वेद पढ़ना अनिवार्य है। और स्त्री के लिये शास्त्रों में वेद पढ़ने का सर्वत्र निषेध है। उसका कारण कि स्त्री का कहीं यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होता और बिना यज्ञोपवीत संस्कार के स्त्री को वेद पढ़ने का कोई अधिकार नहीं है। और जब स्त्री वेद पढ़ नहीं सकती तो वह श्रीमद्भागवत में वेद की व्याख्या कैसे करेगीं? ये शास्त्र सम्मत नहीं है। और सबसे बड़ी बात कि भागवत कथा वक्ता में शुकदेव जी का नाम आता है नारद जी नाम आता है लेकिन किसी महिला कथा वक्ता के व्यासपीठ पर बैठकर भागवत कथा सुनाने जैसा कोई उदाहरण भी नहीं मिलता है।
किंतु महिला पुराणो कोपढ सकती है, इस पर कोई रोक नही। सनातन धर्म मे यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता आदि से नारी के पूज्य होने का उल्लेख है, किंतु सबका अधिकार क्षेत्र भिन्न है।
(शास्त्रार्थ  शैली में) आक्षेप व खण्डन सहित। लेख लम्बा है, कृपया पूरा लेख पढे।
प्राय: भ्रमित लोग इस प्रकार का आक्षेप य कुतर्क है जिसका यथाविस्तार खण्डन किया जा रहा है।
पराशर-संहिता के भाष्यकार तथा वैष्णव परंपरा के परम आचार्य मध्वाचार्य जी ने अपनी टीका में लिखा है -“द्विविधा स्त्रियो ब्रह्मवादिन्यः सद्योवधवश्च| तत्र ब्रह्वादिनीनाम् उपनयनम् अग्निबन्धनम् वेदाध्ययनम् स्वगृहे भिक्षा इति, वधूनाम् तु उपस्थिते विवाहे कथंचित् उपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः|” अर्थात् दो प्रकार की स्त्रियाँ होती हैं- एक ब्रह्मवादिनी जिनका उपनयन होता है और जो अग्निहोत्र, वेदाध्ययन तथा अपने घर में भिक्षावृत्ति (घर के लोगों की निष्काम सेवा तथा स्वेच्छा से मिले अन्न-धन से जीवन यापन) करती हैं | दूसरी श्रेणी (सद्योवधु) की स्त्रियाँ वे हैं जिनका शीघ्र ही विवाह होना होता है और इनका भी उपनयन-संस्कार करने के उपरांत ही विवाह करना चाहिए| गोभिलीय गृह्यसूत्र चर्चा आती है :”प्रावृतां यज्ञोपवीतिनीम् अभ्युदानयन् जपेत्, सोमोsददत् गन्धर्वाय इति” अर्थात् कन्या को कपडा पहने हुए, यज्ञोपवीत पहना कर पति के निकट लाकर कहे :”सोमोsददत्”|साथ ही, एक श्लोक है (सन्दर्भ ग्रन्थ मुझे याद नहीं आ रहा) : “पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते| अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा||” अर्थात् प्राचीन-काल में स्त्रियों का यज्ञोपवीत होता था, वे वेद शास्त्रों का अध्ययन करती थीं| ७ वीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन की रानी महाश्वेता का वर्णन करते हुए अपने महाकाव्य कादम्बरी में बाणभट्ट ने लिखा है : “ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम्” अर्थात् ब्रह्मसूत्र को धारण करने के कारण पवित्र शरीर वाली | मालवीय जी भी स्त्रियों की वेदादि शिक्षा के प्रबल पक्षधर रहे | लक्ष्मी ने विष्णु भगवान को भागवत सुनाई |ऋग्वेद १०| ८५ में सम्पूर्ण मन्त्रों की ऋषिका ‘सूर्या- सावित्री’ है| ऋषि का अर्थ निरुक्त में इस प्रकार किया है—‘‘ऋषिर्दर्शनात्| स्तोमान् ददर्शेति (२.११)| ऋषयो मन्त्रद्रष्टर: (२.११ दु. वृ.)|’’ अर्थात् मन्त्रों का द्रष्टा उनके रहस्यों को समझकर प्रचार करने वाला ऋषि होता है| ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची बृहद् देवता के दूसरे अध्याय में इस प्रकार है— घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू), अगस्त्य की भगिनी, अदिति, इन्द्राणी और इन्द्र की माता, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा और नदियाँ, यमी, शश्वती, श्री, लाक्षा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्री और सूर्या- सावित्री आदि सभी ब्रह्मवादिनी हैं| ऋग्वेद के १०- १३४, १०- ३९, ४०, १०- ९१, १०- ९५, १०- १०७, १०- १०९, १०- १५४, १०- १५९, १०- १८९, ५- २८, ८- ९१ आदि सूक्त की मन्त्रदृष्टा ये ऋषिकाएँ हैं| ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह वेदाध्ययन व यज्ञ करती और कराती थीं| वे यज्ञ- विद्या और ब्रह्म- विद्या में पारंगत थीं| तैत्तिरीय ब्राह्मण’’ में सोम द्वारा ‘सीता- सावित्री’ ऋषिका को तीन वेद देने का वर्णन विस्तारपूर्वक आता है— तं त्रयो वेदा अन्वसृज्यन्त| अथ ह सीता सावित्री| सोमँ राजानं चकमे| तस्या उ ह त्रीन् वेदान् प्रददौ| -तैत्तिरीय ब्रा०२/३/१०/१,३ इस मन्त्र में बताया गया है कि किस प्रकार सोम ने सीता- सावित्री को तीन वेद दिये|

<<<<<<<<<<<<<<<<|| आक्षेप की धज्जियां ||>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>

ब्रह्मवादिनी शब्द का अर्थ वेद वादिनी नहीं क्योंकि मन्वादि प्रबल शास्त्रप्रमाणों से उसका सर्वथा निषेध प्राप्त है | ब्रह्म शब्द अनेकार्थावाची होता है इसका अर्थ तप वेद , ब्रह्मा , विप्र प्रजापति (ब्रह्मशब्दं तपो वेदो ब्रह्मा विप्रः) आदि होता है | वैसे भी सामान्य दृष्टि से ब्रह्म + वादिनी = ब्रह्म को कहने वाली यह अर्थ हुआ , ब्रह्म तो वस्तुतः आत्मतत्त्व को कहते हैं आत्मेति तु उपगच्छन्ति ग्राहयन्ति च ब्रह्मसूत्र ४/१/३ ) , यह ॐकारमय वेद भी उसी का वाचक है ( तस्य वाचकः प्रणवः – योगसूत्र १/२७) तूने ये वेदान्तप्रसिद्ध अर्थ क्यों न लिया; वेद ही क्यों लिया बांकी क्यों नहीं ? क्योंकि तुझे मर्कट -उत्पात मचाना है न इसलिए | इतना ही नहीं अपितु अन्न , प्राण , मन , विज्ञान , आनंद , सब को भी प्रसंग प्रकरण से ब्रह्म ही कहते हैं (तैत्तिरीयोप ० भृगुवल्ली ) संस्कृत के किसी भी शब्द का अर्थ करने से पूर्व उसके पूर्वापर प्रकरण , उसके मर्म को , उसके बह्वार्थों को जानना अत्यंत आवश्यक है , अन्यथा वही स्थिति होगी कि भोजनार्थ प्रवृत्त हो रहे व्यक्ति द्वारा नमक मंगाने के लिए सैन्धवमानय ! कहा गया और श्रोता लाया घोड़ा ! (क्योंकि सैन्धव शब्द के नमक और घोडा दो दो अर्थ होते हैं ) अस्तु , उक्त मर्म को समझाने से पूर्व पहले तुम्हारा ध्यान ‘ब्रह्म’ शब्द पर लाते हैं कि ब्रह्म कहते किसको हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में स्वयं वेद कहता है कि – ये समस्त प्राणी जिस निरतिशयं निर्विशेषं महत् तत्त्वम् तत्त्व से पैदा होते हैं , जिसमें स्थित रहते और जिस में प्रविष्ट होते हैं ,

वही जिज्ञास्य तत्त्व ब्रह्म है , उपनिषत्सु प्रतिपादितस्य तत्त्वस्य ‘ब्रह्म’ इति नाम |
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते | येन जातानि जीवन्ति |
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति | तद्विजिज्ञासस्व | तद् ब्रह्मेति || – तैत्तिरीयोपनिषत् ३-१-३

इमानि भूतानि यतो जायन्ते, जातानि येन जीवन्ति, यदेव अभिसंविशन्ति प्रयन्ति, तदेव ब्रह्म,
तदेव विजिज्ञासस्व | अर्थात् – समस्तम् इदम् विश्वं यस्माद् उत्पद्यते, येनैव जीवति, यस्मिन्नेव च लीयते तदेव ब्रह्म | एवं समस्तस्यापि जगतः सृष्टिस्थितिलयकारणभूतं तत्त्वं वेदान्तेषु ब्रह्मशब्देन गीयते | सकलस्यास्य विश्वस्य ब्रह्म उपादानं निमित्तं च कारणं भवति | अतः ब्रह्म नैव कार्यं भवेत् | जगत्कारणत्वेन ब्रह्मण एव प्रतिपादितत्वात् कापिलसांख्यदर्शने प्रतिपादितं प्रधानं वा वैशेषिकदर्शने प्रतिपादितः परमाणुर्वा जगतः कारणं नैव भवति इत्यभिप्रायः ||
अस्तु , अब प्रश्न ये है कि ब्रह्म का ज्ञान कैसे होता है ? अब इसके उत्तर में आगे देखो –

वेद कहता है तपस्या से ब्रह्म को जानो क्योंकि तप ही ब्रह्म है – तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व| तपो ब्रह्मेति| – तैत्तिरीयोपनिषत् / भृगुवल्ली / ० १

अपनी तपस्या से पूर्वकाल में स्त्रियाँ वेद मन्त्रों का साक्षात्कार कर लेतीं थी, उनकी तपस्या क्या है ? स्वधर्म पर चलने से उनको वेद्य तत्त्व का ज्ञान हो जाता था वो तपस्या है स्वधर्मपालन, देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञों का पूजन , आर्जव , इन्द्रियों पर निग्रह , अहिंसा , इसी से वे पापदेहा स्त्रियाँ शुद्धता को प्राप्त होती हैं | (देवस्य द्विजस्य आचार्यस्य पण्डितस्य च अर्चनम्, शुद्धता, आर्जवम्, ब्रह्मचर्यम्, अहिंसा च शारीरं तपः इत्युच्यते) –
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् | ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || (-भगवद्गीता १४/१४ ) ऋषन्ति ज्ञानसंसारयोः पारं गच्छन्ति ऋषयः| ऋषी श गतौ नाम्नीति किः| रिषिर्हसादिश्च| विद्याविदग्धमतयो रिषयः प्रसिद्धाः| इति प्रयोगात्| स्त्रियां ऋषी च| इत्यमरटीकायां भरतः इति हि श्रूयते |अथवा ऋषन्ति अवगच्छन्ति इति ऋषयो मन्त्राः| · ऋषि दर्शनात् (नि०२|१९|१). · स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यवः| · तद् यद् एतांस्तपस्यमानान् ब्रह्म (वेदं) स्वयम्भवभ्यानर्षत्, त ऋषयोऽभवन्, तद् ऋषिणामृषित्वम्| -निरुक्त २/१९/१ ऋषि गोत्र प्रवर्तक , दीर्घायु , मन्त्रसाक्षात्कर्ता, दिव्यद्रष्टा आदि हुए | दीर्घायुषो मन्त्रकृत ईश्वरा दिव्यचक्षुषः| बुद्धाः प्रत्यक्षधर्माणो गोत्रप्रवर्तकाश्च ये || (वायुपु० पूर्वार्ध ६१/९४ ) ऋषि शब्द का ही स्त्रीत्व विवक्षा में प्रयोग हुआ है ऋषिका , क्यों कहा है ऋषिका ? क्योंकि किसी एक समानधर्म से उसे वह कहा गया , यथा लोक में शौर्य या क्रौर्य आदि किसी सामान धर्म के आधार पर बालक को भी सिंह कह दिया जाता है (सिंहोsयं माणवकः) | क्या समानता है ? समानता है दीर्घायुत्व की , दिव्य-द्रष्टृत्व की , प्रत्यक्षा धर्मा होने की | स्त्रियाँ भी तो दिव्यदर्शिणी हो सकती हैं | किन्तु क्या कभी तुमने किसी ऋषिका के नाम से गोत्र सुना ? नहीं न ! क्यों ? क्या किसी शास्त्र में कभी स्त्रियों की शिष्या परम्परा सुनी ? कोई स्थान विशेष में पाठ शाला पढी , जहां उनको वेदाध्ययन कराया जाता था ? नहीं न ! वो इसलिए क्योंकि उनका ऋषिका होना ऋषियों के मार्ग की भांति न रहा | उनका सिद्धि प्राप्ति का मार्ग दूसरा है | इसी प्रकार वेदोक्य सीता , सावित्री आदि सभी शब्द लौकिक अर्थ तुल्य ग्राह्य नहीं , लौकिक शब्दों तथा वैदिक शब्दों के अर्थ में बहुत भेद होता है | जैसे लोक में कवि शब्द का अर्थ कविता करने वाला होता है किन्तु वेद में त्रिकालज्ञ , लोक में क्रतु का अर्थ यज्ञ होता है किन्तु वेद में इसी शब्द का अर्थ बुद्धि हो जाता है – अग्निर्होता कविक्रतु: (ऋग्वेद , अग्निसूक्त ५ ) वेद के एक ही शब्द का ब्राह्मण ग्रन्थ अनेक अर्थ प्रकाशित करते हैं, विचक्षणता के बिना इसे नहीं समझा जा सकता | बहुभक्तिवादीनि हि ब्राह्मणानि भवन्ति | पृथिवी वैश्वानर:, संवत्सरो वैश्वानरो, ब्राह्मणो वैश्वानर इति” (- निरुक्त ७/७/२४ ) अस्तु ,
शास्त्रकारों का कथन है कि मनुस्मृति के विरुद्ध जो स्मृति वचन है वह प्रशस्त नहीं माना गया है क्योंकि वेदार्थ के अनुसार निबद्ध होने से सर्वप्रथम मनु की मान्यता है (सर्वधर्ममयो मनु : ) , जैसा कि –

मनुस्मृति विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते |
वेदार्थोपनिबद्धत्त्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतेः | | तथाहि ——–>

यद् वै किञ्च मनुरवदत् तद् भेषजम् | ( तैत्तिरीय सं०२/२/१०/२)

मनु र्वै यत् किञ्चावदत् तत् भेषज्यायै | (- ताण्ड्य-महाब्रा०२३/१६/१७)

अथापि निष्प्रचमेव मानव्यो हि प्रजाः | ऋग्वे० १/८०/१६ अपि द्रष्टव्यम् |

……..ये तो हो गया पाराशर संहिता पर द्विविधा स्त्रियो ० और “पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्ध ० आदि का उत्तर |

अब सुनिए ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम् का उत्तर —>

ब्रह्मसूत्र शब्द विविध अर्थों

वाला है , ब्रह्म शब्द के अर्थ तप , वेद , ब्रह्मा , विप्र , प्रजापति आदि माने गए हैं | अतः महाश्वेता स्वधर्म पालन रूप तपस्या से ही पवित्र काया हुई थी ऐसा सिद्ध होता है —->

ब्रह्मशब्दं तपो वेदो ब्रह्मा विप्रः प्रजापतिः इति वचनेन अत्र ब्रह्मसूत्रशब्दस्य तपः सूत्रेण पवित्रीकृतकायामिति तात्पर्यं समीचीनम् | बह्वर्थको हि ब्रह्मसूत्रशब्दः, तथाहि यज्ञोपवीतभिन्नार्थे – ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैरिति गीतायाम् |

अब आगे देखिये –

स्त्री का पति ही उसका गुरु है | शास्त्र कहता है –

गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः |
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ||
(-पद्मपुराण स्वर्ग॰५१/५१, ब्रह्मपुराण ८०/४७ )
अग्नि द्विजातियोँ का गुरु है, ब्राह्मण चारोँ वर्णोँ का गुरु है, एकमात्र पति ही स्त्रियोँ का गुरु है और अतिथि सबका गुरु है |’ स्त्रियों का जनेऊ संस्कार घोर पाखंड है , किं च –

वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः |
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोँऽग्निपरिक्रिया || (मनुस्मृति २/६७ )

‘स्त्रियोँ के लिये वैवाहिक विधि का पालन ही वैदिक-संस्कार (यज्ञोपवीत), पति की सेवा ही गुरुकुलवास और गृह-कार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है |’

इस महामूर्ख मालवीय का परम पूज्य धर्मसम्राट् स्वामि श्री करपात्री जी महाराज ने ऐसा भ्रम भंग किया था कि याद कर गया था | ऋषिकेश में तीन दिन तक अपने सुई से लेकर सब्बल तक के सारे तर्क शास्त्रार्थ में ( जिसके मध्यस्थ जयदयाल गोयन्दका आदि रहे ) इसने प्रस्तुत किये , अंततः इस पाखंडी का वही हाल हुआ जो सिंह की खाल पहने हुए सिंह के सम्मुख आकर उसे ललकारने वाले सियार का होता है | पर बेशर्मों का क्या है भला ! अस्तु ,
लक्ष्मी ने भागवत विष्णु को सुनाई तो भला इससे स्त्रियों के व्यासासन पर भागवत की सिद्धि कैसे हो गयी लक्ष्मी कोइ स्त्री देह धारिणी मानव तो हैं नही , वे तो सबके हृदय मे व्याप्त स्वयं परमात्मतत्त्व हैं, और आत्मा को लौकिक स्त्रियों के तुल्य किसी एक जाति विशेष से जोड़ लेना ही मूर्खता है, ( त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारीति श्वेताश्वतरोप० ४/३ ) दूसरी बात ये है कि लक्ष्मी भी व्यासासन पर बैठकर विष्णु को भागवत नहीं सुनातीं अपितु भागवती वार्त्ता वे करती हैं , जिसका अभिप्राय है , भगवान की लीला कथाओं का परस्पर संवाद करना | संवाद अलग चीज है और व्यासासन पूर्वक भागवत अनुष्ठान संपन्न करना अलग | स्वयं श्री भगवान् गीता में कहते हैं कि – येषां चित्तं मयि संलग्नं भवति, येषाम् इन्द्रियाणि मयि सन्ति तादृशाः बुधाः भावसमन्विताः अन्योन्यं मां बोधयन्तः कीर्तयन्तः च सदा सन्तोषं प्राप्नुवन्ति, मय्येव च विहरन्ति यथा – –

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || (-श्रीमद्भागवद्गीता १०/९ )

वे दृढ निश्चयवाले मेरे भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्य प्रेमसे मेरी उपासना करते हैं |
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः |
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते || (-श्रीमद्भागवद्गीता ९/१४)

स्वयं को वेद की अधिकारिणी बना कर जिस भागवत को ये स्त्रियां व्यासासन से सुनाना चाहती है, वह किस मुख से उसका पारायण करती हैं ? क्योंकि स्वयं श्रीमद्भागवत ही उनको अनधिकारिणी बता रही है यथा – स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा| (- श्रीमद्भागवत १/४/२५) महर्षि वेदव्यास से अधिक जानकार तो होंगे नहीं आप !

प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं| इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया| पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य , चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए| इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए| समय-समय पर वेदों का विभाजन किस प्रकार से हुआ, इसके लिए यह एक उदाहरण प्रस्तुत है| कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने ब्रह्मा की प्रेरणा से चार शिष्यों को चार वेद पढ़ाये—
(१) मुनि पैल को ॠग्वेद
(२) वैशंपायन को यजुर्वेद
(३) जैमिनि को सामवेद
(४) सुमन्तु को अथर्ववेद

महर्षि वेदव्यास के ये उत्तराधिकारी पुरुष ही थे , स्त्री नहीं और इनकी जो परम्परा चली वह भी पुरुषों में ही चली , जो अद्यावधि पर्यन्त स्व-स्व शाखाध्यायी ब्राह्मण पुरुषों में विस्तार को प्राप्त होकर व्याप्त है | केवल महर्षि वेदव्यास के साक्षात् शिष्यों अथवा उनकी शिष्य परम्परा में आने वाले पुरुषों को ही व्यास आसन पर बैठने का अधिकार है |
मनुस्मृति ने स्पष्ट किया है कि स्त्रियाँ निरिन्द्रिय, मन्त्ररहिता, असत्यस्वरूपिणी हैं- निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रियोऽनृतमिति स्थिति:| —म

नु० ९/१८
स्त्री पापयोनि है , उसके जन्म का कारण पाप है , इस विषय में गीता का यह श्लोक स्पष्ट प्रमाण है –

हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र या पापयोनि- चाण्डालादि चाहे जो कोई भी हों, वे यदि मेरे आश्रित हो, तो परमगतिको ही प्राप्त होते हैं –

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः |
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् || (- श्रीमद्भगवद्गीता९/ ३२)

आक्षेप – यहाँ ‘पापयोनि’ –यह शब्द स्त्रियों वैश्यों आदि का विशेषण मानना आयुक्त है क्योंकि छान्दोग्योपनिषद् में वैश्य को उत्तमयोनि कहा अतः श्रुति विरुद्ध अर्थ अग्राह्य है |

समाधान – “रमणीयां योनिम्” विशेषण ही कहा है , “पुण्ययोनिम्” नहीं कह दिया है जो शुरू हो गए हो खंडन करने ; गीतोक्त “पापयोनि” का निषेध नहीं हुआ है यहाँ ! पापयोनि शब्द का अर्थ ही तुमको ज्ञात नहीं अन्यथा ये भारी भूल न करते ! स्त्री वैश्य तथा शूद्र के प्रति “पापयोनि” विशेषण की संगति करने वाले आचार्य शंकर स्वयं यहाँ स्पष्ट करते हैं कि द्विजत्व की प्राप्ति में पुण्यत्व नहीं है -ऐसी बात नहीं पुण्यत्व तो है , तभी तो द्विजत्व मिला | इसलिये वे इस मन्त्र पर लिखते हैं – /// रमणीयचरणेनोपलक्षितः शोभनोऽनुशयः पुण्यं कर्म येषां ते रमणीयचरणा: ////, //// ये तु रमणीयचरणा द्विजातयस्ते // आदि (तत्रैव शांकरभाष्य )
……………… अतः ज्ञातव्य ये है कि मानव योनि में जन्म लेने वाला जीव , स्त्री वैश्य और शूद्र – इन तीन के रूप में पाप के प्रभाव से जन्म लेता है और ब्राह्मण – इस योनि में पुण्य के प्रभाव से | याने पूर्वपुण्य का प्रभाव इनको मानव तो बना देता है किन्तु पाप का प्रभाव ही इनको ब्राह्मण पुरुष नहीं बनने देता , ये सिद्धान्त है अन्यथा तो ब्राह्मण ही होते वैश्य या शूद्र क्यों होते ? इसलिए पापयोनि हैं |जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता-इत्यादिपूर्वक यही मर्म भगवान् शंकर ने विवेकचूडामणि में समझाया है अर्थात् संसार में जन्म लेने वालों में पहले तो नर जन्म ही दुर्लभ होता है, फिर पुरुषत्व मिलना दुर्लभ है , मानव जन्म हो गया , पुरुष भी हो गया तो फिर ब्राह्मण होना तो और भी दुर्लभ होता है |

अभी अभिधारणा और दृढ होगी , आगे देखो –

प्रश्न – उत्तम योनि कह दिया तो स्पष्ट है अधम योनि तो है नहीं ! दिन है कह दिया तो स्पष्ट है कि रात नहीं है |

उत्तर – ये तर्क तो तब काम करता जब श्रुति ने पुण्ययोनि विशेषण श्रुति ने दिया होता , सो तो दिया नहीं | तो फिर कैसे कहते हो कि पापयोनि का न होना सिद्ध हुआ ? यहाँ रमणीय विशेषण पर “शास्त्रीयचरणम् आचरणम् कर्मं येषां तथाभूताः ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यसम्बन्धिनीं रमणीयां निजोद्धारक्षमां योनिम् आपद्यन्ते ” ऐसा राघवकृपाभाष्यकार का कथन है , (तत्रैव, राघवकृपाभाष्य पृष्ठ ५६०) याने के जिनको शास्त्रीय आचरणपूर्वक स्वयं का उद्धार करने की सक्षमता है वे हैं रमणीयचरण – ऐसा कह रहे हैं अर्थात् स्पष्ट है कि द्विजत्वप्राप्तिपूर्वक शास्त्रीय विधि-निषेध कासम्पादन करने वाली योनियाँ – ये अभिप्राय राघवकृपाभाष्यकार कहना चाहते हैं| (अर्थात् पुण्ययोनि के स्थान पर शास्त्रीय आचरण में सक्षम योनि -ऐसा अभिप्राय स्वीकृत किया है ) अब बताइये क्या कहोगे ?

पुनश्च यहाँ तो द्विजत्वप्राप्ति में सक्षम या कहिये शास्त्रीयविधिनिषेधों के पालन के अधिकारी योनियों का ही पृथकीकरण हुआ ! तो कहाँ पर गीतोक्त “पापयोनि ” विशेषण का खंडन हुआ है यहाँ भला ? ये पापयोनि द्विजत्व प्राप्ति की अधिकारिणी योनियाँ नहीं हैं ऐसा तो आचार्य शंकर ने कहा नहीं ! (अर्थात् न हैं कहा न नहीं हैं कहा ), वे तो उतना ही बोल रहे हैं जितना कि अखण्डनीय सिद्धान्त है , फिर आक्षेप किस आधार पर ?

पापयोनि, पुण्ययोनि , पापकर्मा , पुण्यकर्मा – प्रत्येक शब्द स्वयं में अलग -अलग अभिप्राय लिए है | पुण्यकर्मा होकर पाप – प्राधान्यत्वेन पापयोनि हो सकता है, पापकर्मा होकर पुण्य-प्राधान्यत्वेन पुण्ययोनि हो सकता है | -ये शास्त्रीय सिद्धान्त है |

अस्तु , आगे चलिए –

क्या ये सिद्धांत है कहीं वर्णित कि द्विजत्व की अधिकारिणी योनि पापयोनि हो ही नहीं सकती ? “पुण्ययोनि” विशेषण यदि द्विजमात्र को प्राप्त हो जावे तब तो आपका मत संगतहो सकता है किन्तु ऐसा भी नहीं ; ये तो केवल ब्राह्मण को ही श्री भगवान द्वारा स्वीकृत है |

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या ——तत्रैव गीतायाम् ९/३३

यहाँ पुण्या से पुण्ययोनयः – ऐसा ही अर्थ उचित है क्योंकि पीछे से पापयोनि विषयकपूर्वार्ध स्पष्ट हुआ है |

बांकी इस स्त्रियो वैश्यास्तथा० पर वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक ने इस श्लोक की व्याख्या पर देखो कैसे समझाते हैं आप हठधर्मियों को –

///त्रैवर्णिकस्य विद्यादिमतोsपि वैश्यस्य शूद्रादिभिः सह पापयोनित्वेन परिगणनं सत्रानधिकारित्वात् /// ……इस प्रकार सविस्तार आप आक्षेपकर्त्ताओं की हठधर्मिता की धज्जियां वेदान्तदेशिकाचार्य ने सविस्तार उडाई ही है ,

जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...