नाड़ी दोष संपुर्ण शास्त्रीय चिन्तन



नाड़ी दोष संपुर्ण शास्त्रीय चिन्तन

पं.राजेश मिश्र "कण" भास्कर ज्योतिष्य अनुसंधान केन्द्र बरईपुर आजमगढ़।

भारतीय सनातन परम्परामे विवाह चतुर्पुरुषार्थ सिद्धि के लिए अनिवार्य व्यवस्था है।

 विवाह पूर्व वर एवं बधू के जन्मनक्षत्रों का ज्योतिषीय विधि से विविध प्रकार का परीक्षण किया जाता है जिसे हम मेलापक, आनुकूल्य या प्रीति कहते हैं। विवाह मेलापक में विविध स्थानो पर क्षेत्रिय व्यवस्था के अनुसार  विविध प्रकार के कूटों का अनुप्रयोग किया जाता है जिनकी संख्या 8, 10, 12, 18, 20, 23 अब तक के व्यक्तिगत शोध अध्ययन से यह ज्ञात हुआ है कि विवाह में समवेत रूप से अधिकतम 23 प्रकार के मेलापक का विचार विवाह पूर्व वर एवं वधू में किया जाता है किन्तु इन सबका प्रयोग सम्बन्धित क्षेत्रों तक ही सीमित है तथा विशेष परिस्थितियों में इनका प्रयोग किया जाता है। जिसमे 4 मेलापक राशि से, 1 मेलापक ग्रह से, 16 मेलापक नक्षत्रों से, तथा आयु एवं शक्ति (प्रेम मेलापक से करते हैं। प्रश्नमार्ग में है -



*चत्वारिभिर्भपेनैकं सक्त्या च वयसोडुभिः ।

शोडषेत्यनुकूलानां त्रयोविंशतिरीरिता ।।*


इन विविध कूटों के होते हुये भी सम्पूर्ण ज्योतिष वाङ्मय में अष्ट कूटों की ही प्राधानता स्वीकार है। इन सभी कूटों में भी नाडी कूट का विशेष महत्व है क्योंकि ब्रह्मा ने इस स्त्रियों के मंगलसूत्र की तरह बनाया है जिस प्रकार स्त्रियों के कण्ठ में आजीवन पर्यन्त सर्वदा मंलगसूत्र विराजमान रहता है उसी प्रकार विविध कूटों में प्रधान रूप से नाडी कूट विराजमान रहता है -


*नाडीकूटं तु संग्राह्यं कूटानां तु शिरोमणिः ।

ब्रह्मणा कन्यकाकण्ठसूत्रत्वेन विनिर्मितम् ।।*


अतः सभी कूटों में नाडी कूट का अवश्य ही विचार करना चाहिये। प्रायः सभी ग्रन्थों में अश्विन्यादि क्रम से आदि मध्य एवं अन्त्य नाडी का ही उल्लेख प्राप्त होता है तथा दैवज्ञ लोग भी इसी त्रिनाडी का प्रयोग विवाह मेलापक में करते हैं किन्तु शास्त्रीय गन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि इसके अतिरिक्त भी और दो प्रकार का नाडी कूट होता है । जिसका सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करना चाहिये। प्रथम है त्रिनाडी, द्वितीय है चतुर्नाडी तथा तृतीय है पंचनाड़ी। इस सभी प्रकार के नाडी कूटों का हम विशेष रूप से वर्णन क्रमशः करेंगे।


त्रिनाड़ी कूट -

त्रिनाडी कूट का ही सर्वत्र प्रचार एवं प्रसार दिखाई देता है। क्योंकि यह ज्ञान विधि में अत्यन्त सरल एवं सहज है समाज में यह देखा जाता है कि जो वस्तु सरल है उसी का प्रयोग प्रायः सभी लोग करते हैं जैसे विंशोत्तरी दशा। दशायें तो बहुविध है किन्तु सरल एवं सहज होने के कारण प्रायः सर्वत्र इसी का प्रयोग लोग करते हैं। वराहमिहिर ने भी विंशोत्तरी दशा का उल्लेख नहीं किया है। उन्होनें ग्रहानीत आयु को ही ग्रह दशा प्रमाण स्वीकार्य किया है। त्रिनाडी कूट का सम्बन्ध जीवन दायी श्वास एवं प्रश्वास से है । आयुर्वेद शास्त्र में प्रतिपादित इडा पिंगला सुषुम्ना नाडी का प्रयोग किया जाता है जिसके प्रतिकूल होने पर शरीर में विभिन्न प्रकार की व्याधियां उत्पन्न होती है। अतः यदि वरवधू के जन्म नक्षत्र जन्य नाडीयों में भी प्रतिकूलता होती है तो विवाह अशुभ होता है। त्रिनाडी कूट में आदि मध्य एवं अन्त्य तीन प्रकार के नक्षत्रों का विभाजन क्रमशः अश्विन्यादि क्रम से सर्पाकार स्वरूप में किया जाता है। जैसा कि अधोलिखित चक्र से स्पष्ट है।


त्रिनाडी चक्र -

आदि अश्विनी आद्र्रा पुनर्वसु उ0 फा0 हस्त ज्येष्ठा मूल शतभिषा पू0भा0

मध्य भरणी मृगशिरा पुष्य पू0 फा0 चित्रा अनुराधा पू0 षा0 धनिष्ठा उ0 भा0

अन्त्य कृत्तिका रोहिणी आश्लेषा मघा स्वाती विशाखा उ0 षा0 श्रवण रेवती

उपर्युक्त चक्र के आधार पर किसी की भी नाडी सरलता से जानी जा सकती है यदि किसी का जन्म नक्षत्र आद्र्रा है तो उसकी नाडी आदि होगी। इसी प्रकार अन्य का भी जानना चाहिये। नाडी कूट मिलान में यदि वर एवं वधू की एक ही नाडी हो जाये तो अनिष्ट करने वाली होती है यदि दोनों का जन्मनक्षत्र आदि नाडी में पडे तो पति पत्नी का परस्पर वियोग होता है। यदि दोनों की मध्य नाडी हो तो वर एवं वधू दोनों को मृत्यु तुल्य कष्ट या मृत्यु होती है तथा यदि दोनों की अन्त्यैक नाडी हो जाये तो वैधव्य एवं दुःख करने वाली नाडी होती है। इसी प्रकार मेलापक में नाडी कूट का विचार किया जाता है। यदि दोनों की नाडी भिन्न हो जाये तो किसी प्रकार का दोष नही होता है और वैवाहिक जीवन सुखमय व्यतीत होता है। जैसे पुरूष की नाडी आदि तथा स्त्री की नाडी अन्त्य या मध्य या पुरूष की नाडी मध्य कन्या की अन्त्य या आदि हो । वराह वचन है -


आद्यैकनाडी कुरूते वियोगं मध्याख्यनाड्यमुभयोर्विनाशः ।

अन्त्या च वैधव्यमतीवदुःखं तस्माच्च तिस्रः परिवर्जनीयाः ।।


इसी प्रकार त्रिनाडी कूट का विचार विवाह में किया जाता है किन्तु सूक्ष्म अध्ययन से यह पता चलता है कि जिस पुरुष या स्त्री का जन्म नक्षत्र के चारों चरण एक ही राशि में हो केवल उसी के लिये त्रिनाडी चक्र का विचार करना चाहिये । जैसे अश्विनी एवं भरणी नक्षत्र का चारों चरण मेष राशि में होता है। इसी प्रकार रोहिणी, आद्र्रा, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पू.फा. हस्त, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, श्रवण, शतभिषा, उ.भा., रेवती नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातकों का ही त्रिनाडी चक्र से विचार किया जाता है अन्य नक्षत्रोत्पन्न जातकों का नहीं क्योंकि इन नक्षत्रों के चारों चरण एक ही राशि में पडते हैं। प्रमाण है कि -


चतुस्त्रिद्वयङ्घ्रिभोत्थायाः कन्यायाः क्रमशोऽश्विभात् ।

वह्निभादिन्दुभान्नाडी त्रिचतुःपंचपर्वसु ।।


चतुर्नाडी कूट -

जिस प्रकार विवाह मेलापक में त्रिनाडी कूट का विचार किया जाता है उसी प्रकार भिन्न नक्षत्रों में उत्पन्न जातकों के लिये चतुर्नाडी का प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार त्रिनाडी कूट से तीन प्रकार के नक्षत्रों का विभाजन होता है ठीक उसी प्रकार चतुर्नाडी में 28 नक्षत्रों का विभाजन चार प्रकार से किया जाता है। उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि जिस जातक का जन्म तीन चरणों वाले नक्षत्रों में हो उसी के लिये चतुर्नाडी कूट का विचार करना चाहिये। चतुर्नाडी कूट का चक्र इस प्रकार बनता है। जैसे अश्विनी नक्षत्र के चारों चरण मेष राशि में होने से त्रिनाडी कूट का प्रारम्भ अश्विनी से होता है ठीक उसी प्रकार नक्षत्रमाला में जिस प्रथम नक्षत्र का तीनों चरण एक ही राशि में पड़ता हो उससे ही चतुर्नाडी कूट का प्रारम्भ होता है। जैसे सर्वप्रथम कृत्तिका नक्षत्र का तीनों चरण वृष राशि में होने से चतुर्नाडी कूट का प्रारम्भ कृत्तिका से होता है। चक्र इस प्रकार है


-कृत्तिका मघा पू. फा. ज्येष्ठा मूल श्रवण धनिष्ठा

रोहिणी आश्लेषा उ.फा. अनुराधा पूर्वाषाढा उ.भाद्रपद रेवती

मृगशिरा पुष्य हस्त विशाखा उत्तराषाढा पूर्वा भाद्रपद अश्विनी

आद्र्रा पुनर्वसु चित्रा स्वाती अभिजित् शतभिषा भरणी

जिस प्रकार त्रिनाडी चक्र में वर एवं वधू दोनों का जन्म नक्षत्र एक नाडी में पड़ने से अनिष्ट कारक होता है उसी प्रकार चतुर्नाडी कूट में भी वर एवं वधू दोनों का जन्म नक्षत्र एक नाडी में हो तो अनिष्ट कारक होता है। यह चतुर्नाडी विचार सूक्ष्म रूप से उन जातकों के लिये किया जाता है जिन जातकों का जन्म नक्षत्र तीन चरणों वाला हो अर्थात् जिन नक्षत्रों का तीनों चरण एक ही राशि में पड़ता हो। इस प्रकार कृत्तिका, पुनर्वसु, उ.फा., विशाखा, उत्तराषाढा, पूर्वा भाद्रपद नक्षत्रों में जन्मे जातकों के लिये ही चतुर्नाडी कूट का प्रयोग किया जाता है। पुनश्च देश भेद से अहल्या क्षेत्रों में (दिल्ली के आस पास स्थित कुरूदेश का समवर्ती प्रदेश उत्पन्न हुये वर एवं वधू के लिये विशेष रूप से चतुर्नाडी का प्रयोग करना चाहिये ऐसा शास्त्रवचन प्रमाण है क्योकि ज्योतिष शास्त्र को बिना शास्त्रप्रमाण से कहने वाले लोगों को ब्रह्म हत्या का दोष लगता है। अतः उपरोक्त दोनों विधि से जन्म लेने वाले पुरूष एवं स्त्री के लिये चतुर्नाडी का प्रयोग करना चाहिये। एक नाडी से भिन्न नाडी में विवाह शुभ होता है ।


*चतुर्नाडी त्वहल्यायां पांचाले पंचनाडीका ।

त्रिनाडी सर्वदेशेषु वर्जनीया प्रयत्नतः ।।*


पंचनाडी कूट -

त्रिनाडी कूट एवं चतुर्नाडी कूट की तरह ही पंच नाडी कूट का प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार त्रिनाडी कूट में नक्षत्रों को तीन भागों मे बांटा गया था और चतुर्नाडी कूट में चार भागों में बाटा गया था ठीक उसी प्रकार पंचनाडी कूट में नक्षत्रों का पांच भागों में बांटकर वर्गीकरण किया गया है। पूर्वोक्त श्लोक से स्पष्ट है कि जिस नक्षत्र को दो चरण एक ही राशि में पडते हो उसी नक्षत्र से पंच नाड़ी की गणना प्रारम्भ की जाती है। जैसे नक्षत्रमाला में सर्वप्रथम मृगशिरा नक्षत्र का दो चरण एक ही राशि में पडता है अतः पंच नाडी कूट का गणना भी मृगशिरा से प्रारम्भ किया जाता है । पंचनाड़ी कूट का चक्र इस प्रकार है -


>> >>

मृगशिरा हस्त चित्रा श्रवण धनिष्ठा रोहिणी

आद्र्रा उ.फा. स्वाती उ. षा. शतभिषा कृत्तिका

पुनर्वसु पू.फा. विशाखा पू. षाढा पूर्वाभाद्रपद भरणी

पुष्य मघा अनुराधा मूल उत्तराभाद्रपद अश्विनी

आश्लेषा > ज्येष्ठा > रेवती >

इस प्रकार से पंचनाड़ी कूट का विभाजन किया जाता है जिस प्रकार त्रिनाड़ी एवं चतुर्नाड़ी में एक ही नाड़ी में वर एवं वधू के जन्म नक्षत्र होने से अनिष्टकर होता है ठीक उसी प्रकार पंचनाड़ी में भी एक ही नाड़ी में दोनों के जन्म नक्षत्र होने से नाडी कूट अनिष्टकर होता है भिन्न नक्षत्र होने से विवाह शुभ होता है। जिस वर एवं वधू का जन्म दो चरणों वाले नक्षत्रों में हो केवल उन्हीं के लिये पंच नाडी कूट का प्रयोग करना चाहिये जैसे मृगशिरा, चित्रा, एवं धनिष्ठा में जन्म लेने वाले जातको के लिये पंच नाड़ी कूट का प्रयोग करना चाहिये तथा चश्देश भेद से भी पंच नाडी का प्रयोग क्षेत्र विशेष में करना चाहिये उपर्युक्त वचन से स्पष्ट है कि पंचनाडी का प्रयोग केवल पांचाल देश (आधुनिक रूहेलखण्ड में उत्पन्न वर एवं वधू के लिये करना चाहिये अन्य देशोत्पन्न जातकों के लिये नहीं करना चाहिये। केवल इन दोनों परिस्थितियों में ही पंच नाड़ी का प्रयोग करना चाहिये। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्रीय शोध विश्लेषण के आधार पर विभिन्न परिस्थितियों विभिन्न नाडी कूट का प्रयोग करना चाहिये ऐसा ज्योतिष शास्त्र का निर्देश है ।


सर्वनाडी कूट परिहार -

विवाह मेलापक मे नाड़ी कूट की महत्ता को स्वीकार्य करते हुये अनुकूल मिलान होने पर इसे सर्वोत्तम अंक 8 प्रदान किया गया है तथा यदि वर एवं वधू दोनों का प्रतिकूल नाड़ी कूट मिलान होने पर 0 अंक प्रदान किया जाता है। ऐसी परिस्थिति में नाडी कूट के दोष से बचने के लिये हमें विविध प्रकार के परिहारों की आवश्यकता पड़ती है जिससे नाडी कूट के दोषों से तो नहीं बचा जा सकता किन्तु उसके गुण धर्म में विशेष प्रकार की अल्पता अनुभव प्रयोग में दिखाई पडती है। अतः नाडी कूट के कतिपय परिहार यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं जिनके आधार पर नाड़ी कूट जन्य दोषों का निवारण शास्त्रीय आधार पर सुलभ हो जाता है। वर एवं वधू दोनों का एक ही नक्षत्र नाड़ी विभाग में जन्म नक्षत्र होने पर नाडी दोष होता है अतः उसका सर्वप्रथम परिहार नक्षत्र एवं राशि द्वारा ही किया जाता है।


यदि दोनों का जन्म नक्षत्र एक पाश्र्व नाडी गत (भिन्न नक्षत्र हो तथा एक राशि हो तो नाडी दोष का परिहार हो जाता है जैसे कृत्तिका एवं रोहिणी की अन्त्य नाडी है किन्तु राशि मिथुन हो जाने से इसका परिहार हो जाता है ।

यदि दोनों का नक्षत्र एक हो किन्तु राशि भिन्न हो तो नाडी दोष का परिहार हो जाता है जैस कृत्तिका नक्षत्र में दोनों का जन्म होने से अन्त्य नाडी है किन्तु राशि मिथुन एवं कर्क भिन्न हो जाने से परिहार हो जाता है। ये दोनों परिस्थिति केवल पास के नक्षत्रों मे ही संभव दूर के नक्षत्रों मे नही जैसे भरणी एव मृगशिरा नक्षत्र।

यदि पूर्वोक्त प्रकार से दूर का नक्षत्र हो तो अर्थात् दोनों का जन्म नक्षत्र एक हो (चारों चरण एक राशि में हो तो चरण भेद से नाडी कूट का परिहार हो जाता है। जैसे अश्विनी नक्षत्र मे जन्म होने पर दोनों की आदि नाड़ी होती है। पूर्वोक्त दोनों प्रकार से उसका परिहार नहीं हो पाता है अतः यदि दोनों का चरण भिन्न हो तो नाडी कूट का परिहार हो जाता है जैसा कि मुहूत्र्तचिन्तामणि में कहा है -

*राश्यैक्ये चेद् भिन्नमृक्षं द्वयोः नक्षत्रैक्ये राशीयुग्मं तथैव ।

नाडी दोषो न गणानां च दोषः नक्षत्रैक्ये पादभेदे शुभं स्यात् ।।*


कुछ नक्षत्र ऐसे होते हैं जो पूर्णतः नाडी दोष से मुक्त होते हैं इन नक्षत्रों मे नाडी दोष प्रभावी नही होता है। जैसे रोहिणी आद्र्रा, मृगशिरा, कृत्तिका, पुष्य, ज्येष्ठा, श्रवण, उत्तरा भाद्रपद, रेवती, नक्षत्रों मे जन्मे पुरूष एवं स्त्री के लिये नाडी दोष प्रभावी नहीं होता है ।


रोहिण्याद्र्रा मृगेन्द्राग्नी पुष्यश्रवणपौष्णभम् ।

अहिर्बुध्न्यक्र्षमेतेषां नाडी दोषो न जायते ।।


इस प्रकार शास्त्रीय वचनों को प्रमाण मान कर के यदि नाड़ी कूट का परिहार किया जाये तो नाड़ी दोष से पूर्णतः मुक्ति मिल सकती है। अतः हमें ज्योतिष शास्त्रीय प्रामाणिक ग्रन्थों का विशेष अध्ययन करने के पश्चात् ही किसी निष्कर्ष पर निर्णय देना चाहिये। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो न जाने कितने ही वैवाहिक दम्पती का जीवन अन्धेरे में डाल देते हैं नाड़ी दोष समाज में सभी जनमानस में समान रूप से विराजमान है किन्तु तथा कथित ज्योतिषीयों द्वारा गलत निर्णय देने से समाज में इस ज्योतिष शास्त्र की प्रतिष्ठा धूमिल होती है। अतः यह हमारा परम दायित्व है कि हम शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन करें तथा उसका व्यवहारिक प्रयोग करके ही उसे लागु करें। क्योंकि ज्योतिष शास्त्र को भास्कराचार्य ने आदेश शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित किया है यदि आदेश गलत होगा तो ज्योतिष शास्त्र के वास्तविक स्वरूप में विकृति आयेगी ।


।।ज्योतिः शास्त्रफलं पुराणगणकैरादेश इत्युच्यते।।


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फंसा धन वापस पाने का उपाय

 यदि आपने किसी को उधार दिया हो और वह वापस न कर रहा हो। आपका धन भूमि वाहन मकान आदि का विवाद चल रहा हो । तो इन सभी के शीघ्र समाधान के लिए कार्तवीर्य अर्जुन स्तोत्र का नियमित 108 पाठ करे। य 16000 का अनुष्ठान करे।

साधक लाल रंग के वस्त्र धारण करे।

किसी भी शुभ दिन से आरंभ कर सकते है।

पाठ शुद्ध करे।

यदि स्वंय शुद्ध पाठ न कर सके तो किसी विद्वान ब्राह्मण से करायें।

।। श्री कार्तवीर्यार्जुन स्त्रोत || 

Shri Kartavirya Arjuna Stotram || Kartavirya Arjuna Stotra


कार्तवीर्यार्जुनॊनाम राजाबाहुसहस्रवान्।

तस्यस्मरण मात्रॆण गतम् नष्टम् च लभ्यतॆ॥

कार्तवीर्यह:खलद्वॆशीकृत वीर्यॊसुतॊबली।

सहस्र बाहु:शत्रुघ्नॊ रक्तवास धनुर्धर:॥

रक्तगन्थॊ रक्तमाल्यॊ राजास्मर्तुरभीश्टद:।

द्वादशैतानि नामानि कातवीर्यस्य य: पठॆत्॥

सम्पदस्तत्र जायन्तॆ जनस्तत्रवशन्गतह:।

आनयत्याशु दूर्स्थम् क्षॆम लाभयुतम् प्रियम्॥

सहस्रबाहुम् महितम् सशरम् सचापम्।

रक्ताम्बरम् विविध रक्तकिरीट भूषम्॥

चॊरादि दुष्ट भयनाशन मिश्टदन्तम्।

ध्यायॆनामहाबलविजृम्भित कार्तवीर्यम्॥

यस्य स्मरण मात्रॆण सर्वदु:खक्षयॊ भवॆत्।

यन्नामानि महावीरस्चार्जुनह:कृतवीर्यवान्॥

हैहयाधिपतॆ: स्तॊत्रम् सहस्रावृत्तिकारितम्।

वाचितार्थप्रदम् नृणम् स्वराज्यम् सुक्रुतम् यदि॥

॥ इति कार्तवीर्यार्जुन द्वादश नामस्तॊत्रम् सम्पूर्णम् ॥


पं. राजेश मिश्र कण

भास्कर ज्योतिष्य व तंत्र अनुसंधान केन्द्र


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पुर्णपात्र में 256 मुट्ठी चावल ही क्यो रखते है

 श्रीराम ।

इस सम्बन्ध में भारतीय विवाह पद्धति में एक प्रश्नोत्तर है,जिसे यहाँ उद्धृत किया जा रहा है—

प्रश्न—उत्तरे सर्वतीर्थानि, उत्तरे सर्व देवता, उत्तरे प्रोक्षणी-प्रोक्ता, किमर्थं ब्रह्म दक्षिणे?

उत्तर— दक्षिणे दानवा प्रोक्ता,  पिशाचाश्चैव राक्षसाः।  तेषां संरक्षणार्थाय ब्रह्मस्थाप्य तु दक्षिणे।। 

 अर्थ:-  सभी तीर्थ, देवादि, प्रोक्षणी-प्रणीता जब उत्तर में है,तो ब्रह्मा को दक्षिण में क्यों? तदुत्तर में कहा गया कि दक्षिण में दानव,राक्षस,पिशाचादि वास करते हैं,अतः यज्ञ में इनसे रक्षार्थ ब्रह्मा को यहीं स्थान देना चाहिए।

उक्त प्रश्न के उत्तर का थोड़ा और विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि अग्नि कोण में अग्निदेव का स्थान है,साथ ही ग्रहों में शुक्र का स्थान भी यहींहै जो कि दानवादि के प्रिय गुरु हैं।  यज्ञ-रक्षक पितामह ब्रह्माजी को इनके समीप ही कहीं स्थान देना उचित है,इस बात का ध्यान रखते हुए कि अग्नि और शुक्र दोनों का सामीप्य भी मिले,तथा यम के क्षेत्र में अतिक्रमण भी न हो।इस प्रकार सुनिश्चित स्थान पर चावल-हल्दीचूर्ण,कुमकुमादि से अष्टदल कमल बना कर,उस पर पीतरंजित चावल से परिपूर्ण एक कलश की स्थापना करे। 

जिसे पुर्णपात्र कहा जाता है।


पुर्णपात्र किसे कहते है?


  पुर्णपात्र पुराणों में वर्णित द्रव्य मापने की एक मात्रा है' ।


8 मुट्ठी को किञ्चित' कहते हैं । 8 किञ्चित का 1 पुष्कल होता है। और 4 पुष्कल का एक पूर्णपात्र' होता है। इस प्रकार २५६ मुट्ठी का एक पूर्णपात्र होता है।


प्राचीन काल में यह इकाईयां समान्यतः अन्न इत्यादि देने, क्रय विक्रय, दान इत्यादि में प्रयुक्त होती थीं।


इस ब्रह्मकलश के आकार और चावल की मात्रा के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश है कि यजमान की मुट्ठी से दोसौछप्पन मुट्ठी चावल होना चाहिए,जो कि करीब साढ़ेबारह किलो होता है।

२५६ मुट्ठी चावल ही क्यो?

शाश्त्रो मे चंद्रमा की १६ कला को पुर्ण माना गया है। इसी के आधार पर सभी देवताओ की संपुर्ण १६ कला मानी गयी है। तथा सभी देवताओ का षोडशोपचार पूजन का विधान है। एक एक कला के लिए एक एक मुट्ठी चावल उपचार रुप मे दिया जाता है। इस प्रकार १६×१६=२५६ मुट्ठी चावल का प्रयोग  हुआ करता है।

हवन मे ब्रह्मा को दक्षिण दिशा में क्यो रखा जाता है? स्रुवा कैसे पकड़ते है? अग्नि का मुख किधर होता है? मेखला कितनी होती है? हवन के लिए कैसी भूमि चाहिए? उत्तरे सर्वपात्राणि उत्तरे सर्व देवता । उत्तरेपाम्प्रणयनम् किम् अर्थम् ब्रह्म दक्षिणे ।। सभी विद्वानों के लिए जानने योग्य बात है । अर्थ- इस श्लोक का अर्थ है उत्तर में सारे पात्रों को स्थापित करते हैं यज्ञ में और उत्तर में ही सारे देवी देवताओं का आवाहन होता है पूजन होता है और इस श्लोक में एक प्रश्न छुपा हुआ है वह प्रश्न यह है कि ब्रह्मा जी को दक्षिण दिशा में क्यों स्थापित करते हैं यज्ञ में? : दक्षिणे दानवा: प्रोक्ता:पिशाचोरगराक्षसा:।तेषांसंरक्षणार्थाय ब्रम्हा:तिष्ठति दक्षिणे ।। दक्षिण दिशा में पिशाच सर्प, राक्षस आदि रहते है उनसे रक्षा के लिए ब्रह्मा को दक्षिण दिशा में स्थापना करते है। [6/25, 1:06 PM] राजेश मिश्र 'कण': श्रीराम । 👌🚩 अन्य:- श्लोक यमोवैवस्वतोराजा वस्ते दक्षिणाम् दिशी ।। तस्यसंरक्षरणार्थाय ब्रह्मतिष्ठति दक्षिणे ।। ॥ ४. स्रुवधारणार्थकारिका । प्रश्नः - अग्रे धृत्वाऽर्थनाशाय मध्ये चैव मृतप्रजाः ॥ मूले च म्रियते होता स्रुवस्थानं कथं भवेत् ? ।। उत्तरम् - अग्रमध्याच्च यन्मध्यं मूलमध्याच्च मध्यतः । स्रुवं धारयते विद्वान् ज्ञातव्यं च सदा बुधैः ॥ तर्जनी च बहिः कृत्वा कनिष्ठां च बहिस्तथा । मध्यमाऽनामिकांगुष्ठैः श्रुवं धारयते द्विजः ।। आस्यान्तर्जुहुयादग्नेर्विपश्चित् सर्वकर्मसु । कर्महोमेर्भवेद् व्याधिर्नेत्रेऽन्धत्वमुदाहृतम् । नासिकायां मनः पीड़ा मस्तके [6/25, 1:38 PM] Sanjay Panday: 🙏 अधोमुख उर्द्धवपाद:प्राङ् मुखो हब्य वाहन:।तिष्ठत्येन स्वभावेन् आहुति कुत्र दीयते ।।🙏 [6/25, 8:19 PM] राजेश मिश्र 'कण': श्रीराम । सपवित्राम्बुहस्तेन यः कुर्यात प्रदक्षिणाम् । हव्यवाट् सलिलं दृष्ट्वा विभेति सन्मुखीभवेत् ॥ विधान यह है कि ब्रह्मा ( यज्ञ के लिए वरण किये ब्राह्मण द्वारा हाथ मे कुश लेकर) अग्नि की प्रदक्षिणा करने से अग्नि का मुख सामने हो जाता है। यदि वरण के लिए अतिरिक्त ब्राह्मण न हो तो यजमान के हाथ से 256 मुट्ठी चावल लेकर पुर्णपात्र ब्रह्मा का निर्माण करके पुर्णपात्र को अग्नि की परिक्रमा करायें। [6/25, 8:26 PM] राजेश मिश्र 'कण': सपवित्रः +अम्बु(गतौ)+ हस्तेन य: कुर्यात प्रदक्षिणाम्। हव्यवाट् (हव्यं वहतीति । वह + अण् । ) अग्निः । सलिलं( धारा, अग्निशिखा) दृष्ट्वा विभेति( विभज्य ) सन्मुखीभवेत्।। अतः अग्निशिखा पर आहूति देनी चाहिए। हवन की भूमि कैसी होनी चाहिए? हवन की भूमि.का चयन इस प्रकार करे। हवन करने के लिए उत्तम भूमि को चुनना बहुत ही आवश्यक होता हैं. हवन के लिए सबसे उत्तम भूमि नदियों के किनारे की, मन्दिर की, संगम की, किसी उद्यान की या पर्वत के गुरु ग्रह और ईशान में बने हवन कुंड की मानी जाती हैं. हवन कुंड के लिए फटी हुई भूमि, केश युक्त भूमि तथा सांप की बाम्बी वाली भूमि को अशुभ माना जाता हैं. हवन कुंड व हवन के नियम क्या है? हवन कुंड की बनावट हवन कुंड में तीन सीढियाँ होती हैं. जिन्हें “ मेखला ” कहा जाता हैं. हवन कुंड की इन सीढियों का रंग अलग – अलग होता हैं. 1. हवन कुंड की सबसे पहली सीढि का रंग सफेद होता हैं. 2. दूसरी सीढि का रंग लाल होता हैं. 3. अंतिम सीढि का रंग काला होता हैं. हवन कुंड की इन तीनों सीढियों में तीन देवता निवास करते हैं. 1. हवन कुंड की पहली सीढि में विष्णु भगवान का वास होता हैं. 2. दूसरी सीढि में ब्रह्मा जी का वास होता हैं. 3.तीसरी तथा अंतिम सीढि में शिवजी का वास होता हैं. हवन कुंड और हवन के नियम* *हवन कुंड के प्रकार -* हवन कुंड कई प्रकार के होते हैं. जैसे कुछ हवन कुंड वृताकार के होते हैं तो कुछ वर्गाकार अर्थात चौरस होते हैं. कुछ हवन कुंडों का आकार त्रिकोण तथा अष्टकोण भी होता हैं. *आहुति के अनुसार हवन कुंड बनवायें* 1. अगर आपको हवन में 50 या 100 आहुति देनी हैं तो कनिष्ठा उंगली से कोहनी (1 फुट से 3 इंच )तक के माप का हवन कुंड तैयार करें. 2. यदि आपको 1000 आहुति का हवन करना हैं तो इसके लिए एक हाथ लम्बा (1 फुट 6 इंच ) हवन कुंड तैयार करें. 3. एक लक्ष आहुति का हवन करने के लिए चार हाथ (6 फुट) का हवनकुंड बनाएं. 4. दस लक्ष आहुति के लिए छ: हाथ लम्बा (9 फुट) हवन कुंड तैयार करें. 5. कोटि आहुति का हवन करने के लिए 8 हाथ का (12 फुट) या 16 हाथ का हवन कुंड तैयार करें. हवन कुंड के बाहर गिरी सामाग्री का क्या करे? हवन कुंड के बाहर गिरी सामग्री को हवन कुंड में न डालें - आमतौर पर जब हवन किया जाता हैं तो हवन में हवन सामग्री या आहुति डालते समय कुछ सामग्री नीचे गिर जाती हैं. जिसे कुछ लोग हवन पूरा होने के बाद उठाकर हवन कुंड में डाल देते हैं. ऐसा करना वर्जित माना गया हैं. हवन कुंड की ऊपर की सीढि पर अगर हवन सामग्री गिर गई हैं तो उसे आप हवन कुंड में दुबारा डाल सकते हैं. इसके अलावा दोनों सीढियों पर गिरी हुई हवन सामग्री वरुण देवता का हिस्सा होती हैं. इसलिए इस सामग्री को उन्हें ही अर्पित कर देना चाहिए. लेख पं.राजेश मिश्र "कण "

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जय जय सीताराम!

पं.राजेश मिश्र "कण"

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क्या यज्ञोपवीत के बाद दुसरू शिक्षा लेनी चाहिये






लक्ष्मी को शीघ्र प्रसन्न करने के लिए

 

लक्ष्मी को शीघ्र प्रसन्न करने के लिए, शीघ्र फलदायी मंत्र की विधि विस्तार से दी जा रही है। साधकगण कमलगट्टे की माला से लाल आसन पर बैठकर जप आरंभ करे।

ग्रहण, दीपावली य किसी भी शुक्लपक्ष के शुक्रवार से जप आरंभ कर सकते है।

विनियोग : ॐ अस्य मंत्रस्य ब्रह्मऋषिः, गायत्री छन्दः,श्री महालक्ष्मीर्देवता, श्रीं बीजं, नमः शक्तिः, सर्वेष्ट सिद्धये जपे विनियोग : |


यह विनियोग पढ़ने के बाद न्यास करे |

न्यास

ब्रह्मऋषये नमः शिरसि | अपने दाए हाथ से अपने सिर के ऊपर सपर्श करे |

गायत्री छन्दसे नमः मुखे | मुख को स्पर्श करे |

श्री महालक्ष्मी देवतायै नमः हृदि | ह्रदय को स्पर्श करे |

श्रीं बीजाय नमः गुह्ये | अपने गुप्त अंग को स्पर्श करे |

नमः शक्तये नमः पादयोः | अपने दोनों पैरो को स्पर्श करे |

विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे | ऐसा बोलकर दोनों हाथो को अपने सिर के ऊपर से लेकर अपने पैरो तक घुमाये |इसके पश्चात कर और हृदयादि न्यास करे

करन्यास

कमले अंगुष्ठाभ्यां नमः | कमलालये तर्जनीभ्यां नमः | प्रसीद मध्यमाभ्यां नमः |

प्रसीद अनामिकाभ्यां नमः | महालक्ष्म्यै कनिष्ठिकाभ्यां नमः |

हृदयादि न्यास

कमले हृदयाय नमः | कमलालये शिरसे स्वाहा | प्रसीद शिखायै वौषट | प्रसीद कवचाय हुम् | महालक्ष्म्यै नमः अस्त्राय फट |


न्यास आदि करने के बाद महालक्ष्मी माँ का ध्यान करे|


ध्यान

ॐ या देवी सर्व भूतेषु लक्ष्मी रूपेण संस्थिता |

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ||


उसके बाद इन सत्ताईस अक्षर वाला महालक्ष्मी का मूलमंत्र का जाप करे |

“ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नमः”


मंत्र गुरुमुख से ग्रहण करने पर बिशेष फलदायी है।

अधिक विस्तार य किसी भी प्रकार की विधि संबधी जानकारी के लिए कमेंट बाक्स मे मैसेज कर सकते है, यथाशीघ्र आपको उत्तर दिया जायेगा

 मंत्र दीक्षा की संपुर्णज जानकारी के लिए एक विस्तृत व शाशत्रोक्त विवेचन

पूजा व मंत्र जप का सही तरीका

मंत्र सिद्धादि शोधन 

मंत्र शोधन के अपवाद 

 मंत्र ऋण धन शोधन विधि 

आयु व मंत्र के प्रकार किस आयु मे कौन सा मंत्र जपना चाहिए  

पूजा पाठ तरने वाले दुखी क्यो रहते है?

मंत्र सिद्धि के उपाय व लक्षण

क्या यज्ञोपवीत के बाद दुसरू शिक्षा लेनी चाहिये






सुवर्च्चला कौन है ?

 

सुवर्चला कौन है?

विभिन्न गंर्थो मे सुवर्चला का वर्णन मिलता है। सुवर्चला सुर्यदेव की पत्नी संज्ञा का एक उपनाम है।

शब्दकल्पद्रुम प्राचीन संस्कृत शब्दकोश में सुवर्च्चला शब्द की जानकारी इस प्रकार है।

सूर्य्यपत्नी ।  इति त्रिकाण्डशेष ॥ अतसी ।  इति रत्नमाला ॥  सूर्य्यमुखीपुष्पम् । इति केचित् ।  आदित्यभक्ता ।  (अस्याः पर्य्यायो गुणाश्च यथा   -- “ सुवर्च्चला सूर्य्यभक्ता वरदावदरापि च । सूर्य्यावर्त्ता रविप्रीतापरा ब्रह्मसुदुर्लभा ॥ सुवर्च्चला हिमा रूक्षा स्वादुपाका सरा गुरुः । अपित्तला कटुः क्षारा विष्टम्भकफवातजित् ॥  “ इति भावप्रकाशस्य पूर्व्वखण्डे प्रथमे भागे ॥ ) ब्राह्मी ।  इति राजनिर्घण्टः ॥  देशविशेषे   पुं   ॥

सुवर्चला हनुमानजी की गुरुमाता का नाम है। सुवर्चला सुर्य की पत्नी संज्ञा का ही एक नाम है। इसकी पुष्टि शाश्त्रो मे सपष्ट रुप से मिलता है।

प्रमाण यह रहा~

आदित्यात् सुवर्चलायां मनुः।

नरसिंह पुराण अध्याय२२ श्लोक संख्या ३

सूर्य और सुवर्चला(संज्ञा) के गर्भ से मनु उत्पन्न हुए।

  

महा.अनुशासन पर्व में श्लोक संख्या १४५/५ 

में भी सूर्य की पत्नी का नाम सुवर्च्चला बताया गया है।

वरुणस्य तथा गौरी सूर्यस्य सुवर्चला।


वरुण की गौरी (पार्वती से भिन्न)

 तथा सूर्य की पत्नी सुवर्चला हैं।।


सुवर्चला सुर्य पत्नी संज्ञा का ही एक उपनाम है। इसमे किसी प्रकार का संसय नही है।

पं.राजेश मिश्र कण

 मंत्र दीक्षा की संपुर्णज जानकारी के लिए एक विस्तृत व शाशत्रोक्त विवेचन

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मंत्र सिद्धादि शोधन 

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  जय जय सीताराम!


ग्रहण सूतक व वर्जित कार्य

 [11/7, 7:35 PM] राजेश मिश्र 'कण': श्रीराम ।

खग्रास चन्द्रग्रहण-सन् २०२२ में लगने वाला यह दूसरा खग्रास चन्द्रग्रहण कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा मंगलवार तदनुसार ८ नवम्बर २०२२ को लगेगा। यह ग्रहण एशिया, आस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका, उत्तर-पूर्व यूरोप के  कुछ भाग तथा दक्षिणी अमेरिका के अधिकांश भाग से दिखाई देगा। यूनिवर्सल टाईम के अनुसार इस ग्रहण का आरम्भ १.३२P.M. से होगा तथा मोक्ष या | समाप्ति ७.२७ P.M. पर होगी। र



श्री शुभ संवत् २०७९, शाके १९४४ कार्तिक शुक्ल १५ भौमवासरे। तदनुसार ८ नवम्बर २०२२ काश्यां ग्रस्तोदित खग्रास चन्द्रग्रहणम्।


काश्यां


समय चंद्रोदय सॉय ५:९

खग्रास सॉय ५:१२

मोक्ष सांय ६:१९

              चन्द्रग्रहण का सूतक ९ घंटे पहले प्रात: ८:१२ पर आंरभ होगा।


अन्य शहरो के समय मे स्थानिक मान अनुसार परिवर्तन होगा।

दिल्ली ५:२८

मुंबई  ६:०१

नासिक , पुणे ५:५५

गोरखपुर ५:०६

पटना ५:०१

धनबाद ४:५८

डिब्रुगढ़ ४:१८

गौहाटी ४:३३

जबलपुर ५:२६

सूरत ५:५८


ग्रहणकाल १:१० मिनट का है ।


जय जय सीताराम ।

पं.राजेश मिश्र "कण"

[11/7, 7:41 PM] राजेश मिश्र 'कण': श्रीराम ।

सूतक सूर्य ग्रहण का सूतक स्पर्श समय से १२ घंटे पूर्व प्रारम्भ हो जाता है एवं चन्द्र ग्रहण का ९ घंटे पूर्व स्पर्श के समय स्नान पुनः मोक्ष के समय स्नान करना चाहिए। सूतक लग जाने पर मन्दिर में प्रवेश करना मूर्ति को स्पर्श करना, भोजन करना, मैथुन क्रिया, यात्रा इत्यादि वर्जित हैं। बालक, वृद्ध, रोगी अत्यावश्यक में पथ्याहार ले सकते हैं। भोजन सामग्री जैसे दूध, दही, घी इत्यादि में कुश रख देना। चाहिए। ग्रहण मोक्ष के बाद पीने का पानी ताजा ले लेना चाहिए। गर्भवती महिलाएँ पेट पर गाय के गोबर का पतला लेप लगा लें। ग्रहण अवधि में श्राद्ध-दान-जप मंत्र सिद्धि इत्यादि का शास्त्रोक्त विधान है। ग्रहण जहाँ से दिखाई देता है सूतक भी वहीं लगता है एवं धर्मशास्त्रीय मान्यताएं भी वहीं लागू होती

है तथा उसका फलाफल भी वही लागू होगा। जहॉ ग्रहण दृश्य नही वहॉ कोई फलाफल नही होता।

पं.राजेश मिश्र "कण "

नवरात्रि पूजन व आरंभ 2022

 श्रीराम ।

*आश्विन शरद् नवरात्र 26 सितंबर सोमवार, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र, शुक्लयोग, बव करण, श्रीवत्स योगा, कन्या राशि के चन्द्रमा व कन्या राशि के सूर्य से प्रारंभ होंगे और इस बार मॉ दुर्गा हाथी पर सवार होकर आएगी  ।*

**

*श्रीदुर्गाष्टमी  03 अक्टूबर सोमवार और महानवमी 04 अक्टूबर मंगलवार को है, विजयादशमी 05 अक्टूबर बुधवार को मनाया जाएगा।*


*काशी विश्वनाथ पंचांग स्थानीय मान अनुसार घटस्थापना/कलशस्थापना,ज्योति प्रज्वलन करें तथा देवी दुर्गा की अराधना के लिए सुबह 06/24 सूर्योदय के बाद पूरा दिन शुभ है।*

  


 इस वर्ष सन् 2022 ई. आश्विन शरद् नवरात्र 26 सितंबर सोमवार  से प्रारंभ हो रहे हैं। आश्विन शरद् नवरात्र के विषय में पण्डित राजेश मिश्र "कण"( भास्कर ज्योतिष एवं तंत्र अनुसंधान केन्द्र ) ने बताया

आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आश्विन शुक्ल पक्ष नवमी तिथि तक यह व्रत किये जाते हैं, इस महापर्व में मां भगवती के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री,ब्रह्मचारिणी,चंद्रघंटा,कूष्मांडा, स्कंदमाता,कात्यायनी,कालरात्रि,महागौरी और सिद्धदात्री देवी की पूजा की जाती है। 


*नवरात्र में किस दिनांक को कौन कौन सी तिथि।*


प्रतिपदा 26 सितंबर- सोमवार

द्वितीया 27 सितंबर- मंगलवार

तृतीया 28 सितंबर- बुधवार

चतुर्थी 29 सितंबर- गुरुवार

पंचमी 30 सितंबर - शुक्रवार

षष्ठी - एक अक्टूबर- शनिवार

सप्तमी- दो अक्टूबर- रविवार

अष्टमी तीन अक्टूबर - सोमवार

नवमी-चार अक्टूबर- मंगलवार

दशमी-पांच  अक्टूबर- बुधवार


इन दिनों भगवती दुर्गा का पूजन,दुर्गा सप्तशती का पाठ स्वयं या विद्वान पण्डित जी से करवाना चाहिए।


देवीभागवत् में बताया गया है कि ..


 ‘शशिसूर्ये गजारूढ़ा शनिभौमे तुरंगमे। 

  गुरौ शुक्रे च दोलायां बुधे नौका प्रकीर्त्तिता।।’


अर्थात- रविवार और सोमवार को प्रथम पूजा यानी कलश स्थापना होने पर मां दुर्गा हाथी पर सवार होकर आती हैं, शनिवार और मंगलवार को कलश स्थापना होने पर माता का वाहन घोड़ा होता है, गुरुवार और शुक्रवार के दिन कलश स्थापना होने पर माता डोली पर चढ़कर आती हैं, जबकि बुधवार के दिन कलश स्थापना होने पर माता नाव पर सवार होकर आती हैं।


इस वर्ष 26 सितंबर सोमवार शरद् नवरात्र का आरंभ सोमवार के दिन हो रहा है। ऐसे में देवीभाग्वत पुराण के कहे श्लोक के अनुसार दुर्गा का वाहन हाथी होगा।  मां दुर्गा हाथी पर सवार होकर आती हैं तो वो अपने साथ ढ़ेरों सुख-समृद्धि लेकर आती हैं। साथ ही यह इस बात का भी संकेत होता है कि इस बार वर्षा अधिक होगी, जिससे फसलों की पैदावार अच्छी होगी चारों ओर हरियाली का वातावरण रहेगा।


तांन्त्रिकों व तंत्र-मंत्र में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिये नवरात्रों का समय अधिक उपयुक्त रहता है, गृहस्थ व्यक्ति भी इन दिनों में भगवती दुर्गा की पूजा आराधना कर अपनी आन्तरिक शक्तियों को जागृत करते है,इन दिनों में साधकों के साधन का फल व्यर्थ नहीं जाता है,इन दिनों में दान पुन्य का भी बहुत महत्व कहा गया है।


नवरात्रों के दिनों में किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए,प्याज,लहसुन,अंडे और मांस-मदिरा आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए,नाखून,बाल आदि नहीं काटने चाहिए,भूमि पर शयन करना चाहिए,ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, किसी के प्रति द्वेष की भावना नहीं रखनी चाहिए,चमड़े की चप्पल,जूता,बेल्ट,पर्स,जैकेट आदि नहीं पहनना चाहिए और कोई भी पाप कर्म करने से आप और आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम होते है।


नवरात्रों मे स्वास्थ्यके अनुसार ही व्रत रखें इन दिनों में फल आदि का सेवन ज्यादा करें रोजाना सुबह और शाम को माँ दुर्गा की पूजा अवश्य करें ।


इन दिनों पूरे भारतवर्ष मे गौमाता, चम्पी नामक भयानक महामारी से ग्रस्त है। ऐसे में दुर्गा सप्तशती का यह मंत्र निरंतर जपने और हवन के साथ आहुति देने से चमत्कारी सिद्ध हो सकता है। 

 

*देवी की प्रसन्नता हेतु :-


*जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।*

*दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।।*

 

मंत्र जप संख्या 11000, हवन संख्या 1000, हवन सामग्री- घृत, चंदन।


*देवी गमन - चरणायुध ( मुर्गा ) वाहन परिणाम अशुभं*


**पं.राजेश मिश्र "कण"

*भास्कर ज्योतिष व तंत्र अनुसंधान केन्द्र*

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जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...