त्रिपिण्डी श्राद्ध, का विधान

पितृदोष निवारण हेतु त्रिपिंडी श्राद्ध

ये अनुष्ठान कौन कर सकता है ?
१. ये काम्य अनुष्ठान हैं । यह कोई भी कर सकता है । जिसके माता-पिता जीवित हैं, वह भी कर सकते हैं ।

२. अविवाहित भी अकेले यह अनुष्ठान कर सकते हैं ।

निषेध-
१-घर में विवाह, यज्ञोपवीत इत्यादि शुभकार्य हो अथवा घर में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाए, तो यह अनुष्ठान एक वर्ष तक न करें ।

अनुष्ठान में लगनेवाली अवधि-
 त्रिपिंडी श्राद्ध अनुष्ठान एक दिन का होता है ।




त्रिपिंडी श्राद्ध
तीर्थस्थल पर पितरों को संबोधित कर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे त्रिपिंडी श्राद्ध कहते हैं ।
उद्देश्य
हमारे लिए अज्ञात, सद्गति को प्राप्त न हुए अथवा दुुर्गति को प्राप्त तथा कुल के लोगों को कष्ट देनेवाले पितरों को, उनका प्रेतत्व दूर होकर सद्गति मिलने के लिए अर्थात भूमि, अंतरिक्ष एवं आकाश, तीनों स्थानों में स्थित आत्माओं को मुक्ति देने हेतु त्रिपिंडी करने की पद्धति है । श्राद्ध साधारणतः एक पितर अथवा पिता-पितामह (दादा)-प्रपितामह (परदादा) के लिए किया जाता है । अर्थात, यह तीन पीढियों तक ही सीमित होता है । परंतु त्रिपिंडी श्राद्ध से उसके पूर्व की पीढियों के पितरों को भी तृप्ति मिलती है । प्रत्येक परिवार में यह विधि प्रति बारह वर्ष करें; परंतु जिस परिवार में पितृदोष अथवा पितरों द्वारा होनेवाले कष्ट हों, वे यह विधि दोष निवारण हेतु करें ।
विधि के लिए उचित काल

त्रिपिंडी श्राद्ध के लिए अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा – ये तिथियां एवं संपूर्ण पितृपक्ष उचित होता है ।

गुरु शुक्रास्त, गणेशोत्सव एवं शारदीय नवरात्र की कालावधि में यह विधि न करें । उसी प्रकार, परिवार में मंगलकार्य के उपरांत अथवा अशुभ घटना के उपरांत एक वर्ष तक त्रिपिंडी श्राद्ध न करें । अत्यंत अपरिहार्य हो, उदा. एक मंगलकार्य के उपरांत पुनः कुछ माह के अंतराल पर दूसरा मंगलकार्य नियोजित हो, तो दोनों के मध्यकाल में त्रिपिंडी श्राद्ध करें ।


 सात्विक यवपिंड (धर्मपिंड)

पितृवंश के एवं मातृवंश के जिन मृत व्याक्तियों की उत्तरक्रिया न हुई हो, संतान न होने के कारण जिनका पिंडदान न किया गया हो अथवा जो जन्म से ही अंधे-लूले थे (नेत्रहीन-अपंग होने के कारण जिनका विवाह न हुआ हो इसलिए संततीरहित), ऐसे पितरों का प्रेतत्व नष्ट हो एवं उन्हें सद्गति प्राप्त हो, इसलिए यवपिंंड प्रदान किया जाता है। इसे धर्मपिंड की संज्ञा दी गई है ।

 राजस व्रीहीपिंड

पिंड पर चीनी, मधु एवं घी मिलाकर चढाते हैं; इसे मधुरत्रय कहते हैं । इससे अंतरिक्ष में स्थित पितरों को सद्गति मिलती है ।

 तामस तिलपिंड

पृथ्वी पर क्षुद्र योनि में रहकर अन्यों को कष्ट देनेवाले पितरों को तिलपिंड से सद्गति प्राप्त होती है ।



    पितृदोष हो, तो माता-पिता के जीवित होते हुए भी पुत्र का विधि करना उचित
श्राद्धकर्ता की कुंडली में पितृदोष हो, तो दोष दूर करने हेतु माता-पिता के जीवित होते हुए भी इस विधि को करें ।
   विधि के समय केश मुंडवाने की आवश्यकता
श्राद्धकर्ता के पिता जीवित न हों, तो उसे विधि करते समय केश मुंडवाने चाहिए । जिसके पिता जीवित हैं, उस श्राद्धकर्ता को केश मुंडवाने की आवश्यकता नहीं है ।

     घर का कोई सदस्य विधि कर रहा हो, तब अन्य सदस्यों द्वारा पूजा इत्यादि होना उचित है ।
त्रिपिंडी श्राद्ध में श्राद्धकर्ता के लिए ही अशौच होता है, अन्य परिजनों के लिए नहीं । इसलिए घर का कोई सदस्य विधि कर रहा हो, तो अन्यों के लिए पूजा इत्यादि बंद करना आवश्यक नहीं है

शूद्र ही श्रेष्ठ है स्त्रीयॉ ही श्रेष्ठ है, कलियुग श्रेष्ठ है।

श्रीराम!
शूद्र ही श्रेष्ठ है! स्त्रीयॉ ही साधु है! युग मे कलियुग ही श्रेष्ठ है!
    शूद्र क्यो श्रेष्ठ है?
द्विजातियो को संपुर्ण कार्यो मे बंधन रहता है। पहले ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए। वेदाध्ययन करना पड़ता है।और फिर स्वधर्म का पालन करते हुए, उपार्जित धन से, विधिपूर्वक यज्ञ करने पड़ते है। इसमे भी व्यर्थ वार्तालाप, व्यर्थ भोजन और व्यर्थ यज्ञ उनके पतन का कारण होती है।उन्हे सदा संयमी रहना पड़ता है। सभी कामो मे विधि के विपरीत करने से उन्हे दोष लगता है। यहॉ तक की भोजन और पानी भी वे अपनी ईच्छानुसार नही भोग सकते। इस प्रकार वे अत्यंत क्लेश से पुण्य लोको को प्राप्त करते है। किंतु शूद्र के लिये कोई नियम नही है। वह मात्र द्विजो की सेवा करने से ही सद्गति को प्राप्त करते है, इसलिये वर्णो मे शूद्र ही श्रेष्ठ है ।
     स्त्री क्यो साधु है?
  पुरुषो को अपने धर्मानुकुल प्राप्त किये हुए धन से ही सुपात्र को दान और विधिपुर्वक यज्ञ करना चाहिये। इस धन के उपार्जन तथा रक्षण मे महान क्लेश होता है। और उसको अनुचित कार्य मे लगाने से भी मनुष्यो को जो कष्ट होता है वह ज्ञात ही है। किंतु स्त्रीयॉ तो तन मन वचन से पति की सेवा करने से ही पति के समान शुभ लोको को प्राप्त कर लेती है। जो कि पुरुषो को अत्यंत परिश्रम से मिलता है। इसलिये स्त्रीयॉ साधु है।
   कलियुग क्यो श्रेष्ठ है?
  जो फल सतयुग मे दश वर्ष तपस्या ब्रह्मचर्य व जप  करने से मिलता है, उसे त्रेता मे एक वर्ष द्वापर मे एक मास और कलियुग मे केवल एक दिन रात मे करने से प्राप्त होता है। जो फल सतयुग मे ध्यान त्रेता मे यज्ञ द्वापर मे देवार्चन करने से प्राप्त होता है, वही कलियुग मे श्रीकृष्ण का नाम- कीर्तन करने से प्राप्त होता है। कलियुग मे थोडे़ से श्रम से ही महान फल की प्राप्ति होती है। अतः कलियुग ही श्रेष्ठ है।
             विष्णु पुराण: कलिधर्म निरुपण, षष्ठ अंश दुसरा अध्याय

वेद, पुराण, उपनिषद आदि ग्रंथ हमारे लिये किस महत्व के, कितने उपयोगी है

श्रीराम!
पुराणों उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों में आहार, व्यवहार तथा उपचार सम्बन्धी मौलिक जानकारी दी गयी है। इनमे उत्तम सामाजिक संस्कार उत्पन्न करने की तकनीक है।
प्राचीन ग्रंथो के अनुसार मानव शरीर में तीन दोष पहचाने गये हैं जिन्हें वात, पित, और कफ़ कहते हैं। स्वास्थ इन तीनों के उचित अनुपात पर निर्भर करता है। जब भी इन तीनों का आपसी संतुलन बिगड जाता है तो शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है। रोग के लक्षणों को पहचान कर संतुलन का आँकलन किया जाता है और उपचार की क्रिया आरम्भ होती है। जीवन शैली को भी तीन श्रेणियों में रखा गया है जिसे सात्विक, राजसिक तथा तामसिक जीवन शैली की संज्ञा दी गयी है। आज के वैज्ञानिक तथा चिकित्सक दोनों ही इस वैदिक तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जीवन शैली ही मानव को स्वस्थ अथवा अस्वस्थ बनाती है। आज कल इसे ‘लाईफ़ स्टाईल डिजीज़ ’ कहा जाता है।
भारतीय समाज में पौरुष की परीक्षा विवाह से पूर्व अनिवार्य थी। मनु समृति में तपेदिक, मिर्गी, कुष्टरोग, तथा तथा सगोत्र से विवाह सम्बन्ध वर्जित किया गया है।

छुआछुत का प्रचलन भी स्वास्थ के कारणों से जुडा है। अदृष्य रोगाणु रोग का कारण है यह धारणा भारतीयों में युरोप वासियों से बहुत काल पूर्व ही विकसित थी। आधुनिक मेडिकल विज्ञान जिसे ‘जर्म थियोरी’ कहता है वह शताब्दियों पूर्व ही मनु तथा सुश्रुत के विधानों में प्रमाणिक्ता पा चुकी थी। इसीलिये हिन्दू धर्म के सभी विधानों सें शरीर, मन, भोजन तथा स्थान की सफाई को विशेष महत्व दिया गया है।
आज भारतीय, शास्त्रो , सद्ग्रन्थों और संस्कृति से दूर होते जा रहे है जो कि आज के मानव समाज के कष्टप्रद जीवन होने का मुख्य कारण है। जैसे कोई कंपनी कोई प्रोडक्ट लांच करती है और उसके साथ एक मैन्युअल (छोटी पुस्तिका) भी साथ में देती है। ये मैन्युअल, हमें उस प्रोडक्ट को कैसे उपयोग में  लाना है इस बारे में सहायता करता है। अगर हम बिना मैन्युअल के ही प्रोडक्ट यूज़  करे तो हो सकता है कि हम उसे सही ढंग से यूज़ न कर पाये। उसी तरह ईश्वर ने इस संपूर्ण ब्रम्हांड की रचना की है और उसके साथ वेद , पुराण आदि ग्रंथो की भी रचना की है जिससे हम सही ढंग से आनंदमय जीवन जी सके और इस पृथ्वी और प्रकृति का आनंद ले सके।

वेद इस सृष्टि के आदि ग्रन्थ और खुद ईश्वर के द्वारा रचित है। इन ग्रंथो में जीवन से सम्बंधित सभी पहलुओ पर बहुत विस्तार से चर्चा की गयी है।  दुर्भाग्य से समय के साथ हम दूर होते चले गए और सच्चे जीवन जीने की कला से भी दूर हो गए। हमारी सनातन संस्कृति में वेद ,  पुराण और उपनिषदों की रचना हुई है। परन्तु आज हमें इसका ज्ञान नहीं है और हमारे शिक्षा व्यस्था भी ऐसी है की जो कुछ भी ज्ञान बचा हुआ है उसे आने वाली पीढ़ियों  तक इसे नहीं पंहुचा पा रही है।

हमारी पुरातन जीवन जीने की पद्धति विशुद्ध  वैज्ञानिक और प्रकृति के साथ बेहतर तालमेल रखने पर आधारित थी। आज का आधुनिक विज्ञानं भी इस तथ्य को स्वीकार कर चुका  है। अमेरिका में स्थित नासा इंस्टिट्यूट ने स्पेस टेक्नोलॉजी कोर्स के लिए संस्कृत अनिवार्य कर दिया है लेकिन हमारे देश में ही लोगो के अपने इस खजाने से दूर रखा जा रहा है और आधुनिक जीवन और दिखावे की जीवन शैली में निरंतर फसते  जा रहे है।

वेदो को हम श्रुति भी कहते है जिसका अर्थ है सुनने वाला ज्ञान। प्राचीन समय में मानव मस्तिष्क  इतना उन्नत था कि वो सुन कर ज्ञान ग्रहण कर सकता था।  फिर पुराणो में कहानी को माध्यम बना कर उसी ज्ञान को कथा के माध्यम से जन सामान्य मे प्रसारित किया गया
अगर आज हम सिर्फ  रामचरितमानस और भगवद्गीता को ही सही अर्थो में समझ ले और इसके सूत्रों को जीवन में उतार सके तो मेरा दावा हैं कि मानव समाज को अभूतपूर्व लाभ होगा और समाज में सभी लोग आनंदमय जीवन जी सकेंगे।
सदशाश्त्रो से हमे, जीने की कला का ज्ञान होता है।
  अगर यह शाश्त्र न हो तो निश्चय ही हम इन गुणो से वंचित होते।

राम नाम महिमा

नाम स्मरण महिमा
श्री राम जय राम जय जय राम' - यह सात शब्दों वाला तारक मंत्र है। साधारण से दिखने वाले इस मंत्र में जो शक्ति छिपी हुई है, वह अनुभव का विषय है। इसे कोई भी, कहीं भी, कभी भी कर सकता है। फल बराबर मिलता है...... ।
 राम नाम सब कोई कहै, ठग ठाकुर अरु चौर|
 तारे ध्रुव प्रहलाद को वहै नाम कछु और||
     नाम का उच्चारण मात्र करने से, नाम की पवित्रता के कारण फल तो अवश्य ही मिलता है किन्तु बहुत अधिक नही| देवी य देवता का नाम लेते ही मानस पटल पर उस देवी य देवता का रुप दिखायी पडना, उनके गुण कर्मो का स्मरण होना चाहिये, भगवान का सर्वोतमतत्व और अपना अत्यंत क्षुद्रत्व ध्यान मे आना चाहिये, ईश्वर की अपार दया प्रेम से हृदय गद्गद होकर उनके स्वरुप मे मिलने का प्रयत्न होना चाहिये| ऐसे ही नाम स्मरण की महिमा गायी जाती है|
 राम नाम सब कोई कहै, दशरित कहे न कोय|
 एकबार दश रित कहे, कोटि यज्ञ फल होय||
 प्रयुक्त दोहे मे दशरित जिन्हे कहा गया है, वे ही दश नामापराध है, जिनसे नाम स्मरण " रित" ( रिक्त) होना चाहिये | ये नामापराध है- १. निन्दा २. आसुरी प्रकृतिवाले को नाम महिमा बतलाना ३. हरि हर मे भेद दृष्टि रखना ४. वेदो पर विश्वाश न करना ५. शाश्त्रो पर अविश्वाश ६. गुरुपर अविश्वाश ७. नाम महिमा को असत जानना ८. नाम के भरोसे निषिद्ध कर्म करना ९. नाम के भरोसे विहित कर्म न करना १०. भगवन्न नाम के साथ अन्य साधनो की तुलना करना |
    इन दश का परहेज रखा जाय तो नाम जप से शीघ्र परम सिद्घि प्राप्त होती है, इसमे तनिक भी संदेह नही है|

मंत्र क्या है?

मंत्र शब्द का निर्माण

मंत्र शब्द का निर्माण मन से हुआ है। मन के द्वारा और मन के लिए। मन के द्वारा यानी मनन करके और मन के लिए यानी 'मननेन त्रायते इति मन्त्रः' जो मनन करने पर त्राण यानी लक्ष्य पूर्ति कर दे, उसे मन्त्र कहते हैं। मंत्र अक्षरों एवं शब्दों के समूह से बनने वाली वह ध्वनि है जो हमारे लौकिक और पारलौकिक हितों को सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त होती है। सभी स्वर व व्यजंन भी मंत्र रुप ही है। यह सृष्टि प्रकाश और शब्द द्वारा निर्मित और संचालित मानी जाती है। इन दोनों में से कोई भी ऊर्जा एक-दूसरे के बिना सक्रिय नहीं हो सकती और शब्द मंत्र का ही स्वरूप है। आप किसी कार्य को या तो स्वयं करते हैं या निर्देश देते हैं। आप निर्देश या तो लिखित स्वरूप में देते हैं या मौखिक रूप में देते हैं। मौखिक रूप में दिए गए निर्देश को हम मंत्र भी कह सकते हैं। हर शब्द और अपशब्द एक मंत्र ही है। इसीलिए अपशब्दों एवं नकारात्मक शब्दों और वचनों के प्रयोग से हमें बचना चाहिए।

किसी भी मंत्र के जाप से पूर्व संबंधित देवता व गणपति के ध्यान के साथ गुरु का ध्यान, स्मरण और पूजन आवश्यक है।
मंत्र का ही क्रियात्मक रुप तंत्र कहा जाता है। और चित्रात्मक रुप यंत्र कहलाता है। वस्तुतः तंत्र, मंत्र, यंत्र एक ही शक्ति के तीन अलग रुप है।
   मंत्र जहॉ तक सर्व मनोरथ सिद्ध करते है वही यदि मंत्र का चुनाव सही न किया जाय य बिना पूर्ण जानकारी के मंत्र का जाप हानिप्रद होता है।
  इसलिये ऋषि मुनियो ने नाम के अनुसार मंत्र का चुनाव करने का निर्देश दिया है।

 मंत्रजप फलदायक न होकर नुकसान भी पहुचा सकते है,जाने क्यो?

मन को केन्द्रित करने के अभ्यास को साधना कहा जाता है। सिद्धि के लिये किया जाने वाला प्रयत्न ही साधना है। तथा उसके उपयोगी उपकरणो को साधन कहते है। साधन के बिना साधना की ओर प्रवृत होना संभव ही नही है। अतः मंत्रसाधना की जानकारी के साथ साथ मंत्रसाधन का सम्यक ज्ञान परमावश्यक है।
       जो मंत्र या क्रियाए कर्ता का अभीष्ट सिद्ध नही कर सकती य अनिष्ट करती है, उन्हे साधन नही कह सकते। यही कारण है कि मंत्रशाश्त्र मे सर्वप्रथम यह विचार किया गया है कि कोई मंत्र साधक का अभीष्ट सिद्ध करेगा य नही।
        मंत्र व तंत्र शाश्त्र के ग्रंथो मे मंत्र को साधन य अभीष्टफलदायक बनाने के लिये निम्न लिखित बातो पर बिशेष ध्यान दिया गया है।
    १ सिद्धादि शोधन २ मंत्रार्थ ३ मंत्रचैतन्य ४ मंत्रो की कुल्लुका ५ मंत्र सेतु ६ महासेतु ७ निर्वाण ८ मुखशोधन ९ प्राणयोग १० दीपनी ११ मंत्र के सूतक १२ मंत्र के दोष १३ मंत्र दोष निवृति के उपाय।
      उपरोक्त बातो का ध्यान रखकर, उपयोग करने से मंत्र साधन बन कर अभीष्टसिद्धि देता है, अन्यथा मंत्र साधक का सबसे बडा शत्रु होकर उसका नाश कर देता है। 
१ सिद्धादि शोधन- किस मंत्र के द्वारा साधक को सिद्धि मिलेगी, दुःख मिलेगा य साधना निष्फल होगी इत्यादि का ज्ञान इस क्रिया के द्वारा किया जाता है।
मंत्र सिद्धादि शोधन विधिमंत्र
२ मंत्रार्थ- मंत्र साधारण शब्द नही। इसका अर्थ गुप्तभाषा है। मंत्र योग मे मंत्रार्थ की भावना को ही जप कहा गया है,और जप से ही सिद्धि होती है। अतः सिद्धि के लिये मंत्र के अर्थ की जानकारी परमावश्यक है।
३मंत्र चैतन्य- साधक के चित्त मे अपने मंत्र के प्रति साधारण शब्द भाव न होकर, मंत्र ,देवता एवं गुरु का ऐक्य हो जाना, उसमे ब्रह्मभाव जाग्रत हो जाना।
 ४मंत्रो की कुल्लुका- रुद्रयामल मे कहा गया है कि जो व्यक्ति कुल्लुका को जाने बिना जप करता है उसकी आयु, विद्या, कीर्ति एवं बल नष्ट हो जाता है।जप आरंभ करते समय जिस देव के मंत्र का जप करना हो उसकी कुल्लुका का सर पर न्यास कर लेना चाहिये।
 ५ मंत्रसेतु- साधक का मंत्र के साथ संबन्ध जोडनेवाला बीज सेतु कहलाता है।मंत्रजप से पूर्व सेतुमंत्र का जप हृदय मे कर लेना चाहिये। ब्राह्मणो व क्षत्रिय के लिये ॐ, वैश्य के लिये फट तथा शूद्र के लिये ह्रीं सेतु बताया गया है।
६ महासेतु- जप से पूर्व महासेतु मंत्र का जप करने से साधक को सभी समय एवं सभी अवस्था मे जप करने का अधिकार मिल जाता है।
कालिका - क्रीं, तारा- हूं, त्रिपुरसुंदरी- ह्रीं तथा शेष सब देवताओ का स्रीं महासेतु कहा गया है।
७ निर्वाण- प्रणव तथा मातृका से संपुटित मूलमंत्र का जप करना निर्वाण कहलाता है।
८ मुखशोधन- जिस देवता का जप करना हो,उस देवता के अनुसार मुखशोधन मंत्र का पहले 
९ प्राणयोग- मायाबीज से पुटित मूलमंत्र का७ बार जप करना प्राणयोग कहलाता है।
१० दीपनी- मूलमंत्र को प्रणव से संपुटित कर ७ बार जप करना
११ मंत्र के सूतक-जप के प्रारंभ व समाप्ति पर  प्रणव से संपुटित मूल मंत्र का १०८ या ७ बार जप करना


शनि, राहू और केतु शांति के विस्तृत उपाय

ग्रहो की स्थित जन्मकुंडली मे जो भाव मे होता है, उस भावपर अन्य ग्रहो की दृष्टि, युति, कारक, भाव आदि की स्थिति, से ग्रह शुभ अशुभ प्रभाव देने मे सक्षम होते है। अतः जब ग्रह अशुभकारक हो, तो उनका उपाय करने से ग्रहो का कोप शांत होकर शुभफल प्राप्त होता है।
इस लेख के माध्ययम से एक एक कर प्रत्येक ग्रह के बारे में जानकारी दी गयी है। अतिरिक्त जानकारी के लिए नि: शुल्क परामर्श के लिए, follwo और coment का प्रयोग करें।
ग्रहदोष सूर्य चंद्र मंगल ग्रह गुरु  शुक्र ग्रह की शांति के बिषय मे पुर्दन के लिए इस सूची को देखा।

ज्योतिष विज्ञान में शनि उपासना
शनि गंभीर और क्रुर प्रकृति के ग्रह है। ये कालकार, तमोगुणी और पाप ग्रह है। कुटनीति, छल, कपट, क्रोध, मोह, क्षण, राजदण्ड, सन्यास आदि शनि के स्वभाव में है।
इसी कारण से आमजन में यह धारणा है कि शनि सदैव अनिष्टकारी ही होते हैं। जो कि पूर्ण सत्य नहीं है। शनि सदैव अनिर्वचनीय नहीं होते हैं। ये तो मनुष्यों के पूर्व संचित कर्मो के अनुसार अच्छा या बुरा फल देते है। शुभ कर्म वालों को खुशी, समृद्धि और उन्नति देते हैं तो अशुभ कर्म वालों को दुःख, दरिद्रता, और सम्मान देते हैं।
शनि राजा को रंक और रंक को राजा बनाने का सामर्थ्य रखना है। इसी कारण से इन्हे भाग्य विधाता भी कहा जा सकता है।
अतः शनि को प्रसन्न कर शुभ फल प्राप्त करने और अशुभ पैरों से बचने के लिए निम्न उपाय किए जा सकते है।

मंत्र जाप :- शनि के मंत्रों के विधिवत जप करने से शनि जनित बाधाओं का निवारण होता है। & शनि शुभ फल प्रदान करते है। शनि की ढैया और साढ़े साती में मंत्र जप योग्य और शीघ्र फलदाय होते हैं। मंत्र जप स्वयं या किसी योग्य पंडित से विधिवत कराने चाहिए।
शनि को प्रसन्न के मंत्र और जप संस्था :-

1. वैदिक मंत्र :- नीलाजं समाभासं रविपुत्रम् यमग्रजम्।
छाया मार्तण्ड सम्भूतम् तम् नमामि शनैस्कृतम् ।।
(जप संख्या 92 हजार)

2. ऊँ शन्नो देवी रबिष्टय भवआप अभिषेक।
प्रतये शंयूर्यभि स्त्रवन्तुनः ।। (जप संख्या २३ हजार)

३. ऊँ स्वः भुवः। स सः खौं खीं खं ऊँ शनिश्चतु नमः ।। (जप संख्या २३ हजार)
४. ऊँ ऐं हनीं स्त्रीं शनैश्चराय नमः। (जप संख्या २३ हजार)
५. ऊँ शं शनये नम: ।। (जप संख्या २३ हजार)

तांत्रिक मंत्र
6. ऊँ खँचुं खूँ सः ।। (19 हजार)
7. ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम: ।। (२३ हजार जप)
शनि गायत्री मंत्र

भ ऊँ भगभाय विद्मये मृत्युरूपाय धीमहि
तन्नो शौरि: प्रचोदयात्। (23 हजार जप)
पौराणिक मंत्र

9. ऊँ शं शनैश्चराय नम: ।। (23 हजार जप)

स्त्रोत पाठ द्वारा :- शनि देव का संपूर्ण कष्ट निवारण हेतु ऋषि पिलाप्पद द्वारा रचित स्त्रोत का नित्य प्रात: उठते ही बिस्तर में बैठे-बैठे करना चाहिए।
स्त्रो स्त्र- कोणस्थः पिंगलो भैरुः कृष्णो रौद्रो-न्तको यमः।
सौरि: शनैश्चरौ मन्दः पिप्लादेन संज्ञाः ।।
एतानि दस नामामि पातरूत्थाय यः पठेत्।
शनैश्चर कृतांतर नूर
जिनकी कुंडली में शनि कमज़ोर हैं या शनि पीड़ित हैं उन्हें काले गाय का दान करना चाहिए। काला वस्त्र, उड़द की दाल, काला तिल, चमड़े का जूता, नमक, सरसों का तेल, लोहा, खेती योग्य भूमि, बर्तन और अनाज का दान। शनि से संबंधित रत्न का दान भी श्रेष्ठ होता है। शनि ग्रह की शांति के लिए दान देते समय ध्यान रखें कि संध्या काल हो और शनिवार का दिन हो और दान प्राप्त करने वाला व्यक्ति ग़रीब और वृद्ध हो।शनि के कोप से बचने के लिए व्यक्ति को शनिवार के दिन और शुक्रवार के दिन व्रत रखना चाहिए। लोहे के बर्तन में दही चावल और नमक सहित भिखारियों और कौओं को देना चाहिए। रोटी पर नमक और सरसों का तेल लगाकर कौआ को देना चाहिए। तिल और चावल पक्कर ब्राह्मण को खिलाना चाहिए। अपने भोजन में से काए के लिए एक हिस्सा निकालकर उसे दें। शनि ग्रह से पीड़ित व्यक्ति के लिए हनुमान चालीसा का पाठ, महामृत्युंजय मंत्र का जाप और शनिस्तोत्रम का पाठ भी बहुत लाभदायक होता है। शनि ग्रह के प्रभाव से बचाव के लिए कष्टदायक, वृद्ध और हानिकारकियो के प्रति अच्छा व्यवहार रखें। मोर पंख धारण करने से भी शनि के प्रभाव में कमी आती है।
शनिवार के दिन पीपल वृक्ष की जड़ पर तिल्ली के तेल का दीपक जलाएं।
शनिवार के दिन लोहा, चमड़ा, लकड़ी की वस्तुओं और किसी भी प्रकार का तेल नहीं खरीदना चाहिए।
शनिवार के दिन बाल एवं दाढ़ी-मूँछ नहीं कटवाने चाहिए।
भड्डरी को कड़वे तेल का दान करना चाहिए।
भिखारी को उड़द की दाल की कचौरी खिलानी चाहिए।
किसी दुःखी व्यक्ति के आँसू अपने हाथों से पोंछने चाहिए।
घर में काले पत्थर लगवाना चाहिए।
शनि के प्रभाव निवारण के लिए किए जा रहे टोटकों के लिए शनिवार का दिन, शनि के नक्षत्र (पुष्य, अनुराधा, उत्तरा-भाद्रपद) और शनि की होरा में अधिक शुभ फल देता है।
क्या न?

जो व्यक्ति शनि ग्रह से पीड़ित हैं उन्हें गरीबों, वृद्धों और नौकरों के प्रति अपमान जनक व्यवहार नहीं करना चाहिए। नमक और नमकीन पदार्थों के सेवन से बचना चाहिए, सरसों तेल से बने पदार्थ, तिल और मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए। शनिवार के दिन सेविंग नहीं करना चाहिए और जमीन पर नहीं सोना चाहिए। शशि से पीड़ित व्यक्ति के लिए काले घोड़े की नाल और नाव की कांटी से बनी अंगूठी भी काफी सस्ती होती है, लेकिन इसे किसी अच्छे पंडित से सलाह और पूजा के पश्चात ही धारण करते हैं। चाहिए।
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कैसे करें राहु ग्रह की शांति
कई बार किसी समय-विशेष में कोई ग्रह अशुभ फल देती है, ऐसे में उसकी शांति शांति होती है। गृह शांति के लिए कुछ शास्त्रीय उपाय प्रस्तुत किए गए हैं। इनमें से किसी एक को भी करने से अशुभ पैरों में कमी आती है और शुभ पैरों में वृद्धि होती है।
योजनाओं के मंत्र की जप संख्या, द्रव्य दान की सूची आदि सभी जानकारी एकसाथ दी जा रही है। मंत्र जप स्वयं करें या किसी कर्मनिष्ठ ब्राह्मण से कराएं।

दान द्रव्य सूची में पदार्थोंदिए पदार्थ को दान करने के अतिरिक्त उसमें लिखित रत्न-उपरत्न के अभाव में जड़ी को विधिवत स्वयं धारण करें, शांति होगी।
राहु के लिए: समय रात्रिकाल
भैरव पूजन या शिवपूजन करें। काल भैरव अष्टक का पाठ करें।
राहु मूल मंत्र का जप रात्रि में 18,000 बार 40 दिन में करें।
मंत्र: ': भ्रां भ्रीं भ्रौं स: राहवे नम:'।
दान-द्रव्य: गोमेद, सोना, सीसा, तिल, सरसों का तेल, नीला कपड़ा, काला फूल, तलवार, कंबल, घोड़ा, सूप।
शनिवार का व्रत करना चाहिए। भैरव, शिव या पूजा की पूजा करें। 8 मुखी रुद्राक्ष धारण करें। 

कुंडली में केतु के अशुभ प्रभाव में होने पर चर्म रोग, मानसिक तनाव, आर्थिक नुक्सान, स्वयं को ले कर मूर्फहमी, आपसी तालमेल में कमी, बात बात पर आपा खोना, वाणी का कठोर होना व युवती बोलना, जोड़ों का रोग या मूत्र और किडनी संबंधित बीमारी हो जाती है। संतान को पीड़ा होती है। वाहन दुर्घटना, उदर कस्ट, मस्तिस्क में दर्द आथवा दर्द रहना, अपयश की प्राप्ति, सम्बन्ध ख़राब होना, दिमागी संतुलन ठीक नहीं रहता है, शत्रुओं से मुश्किलें बढ़ने की संभावना बनी रहती है।

उपाय: दुर्गा, शिव व हनुमान की आराधना करे | तिल, जौ किसी हनुमान मंदिर में या किसी यज्ञ स्थान पर दान करे | कान पसवाएँ। सोते समय सर के पास किसी पत्र में जल भरने कर रक्खे और सुबह किसी पेड़ में दाल दे, यह प्रयोग 43 दिन का होता है इसके साथ हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुप्टष्टक, हनुमान बाहुक, सुंदरकांड का पाठ और का कें केतवे नमः का १०८ बार नित्य जाप करना लाभकारी होता है। अपने खाने में से कुत्ते, कौव्वे को भाग दें। तिल व कपिला गाय दान में दें। पक्षिंस कोलेट दे | चिटिओं के लिए भोजन की व्यस्त करना अति महत्व्यपूर्ण है |

कभी भी किसी भी उपाय को 43 दिन करना चहिए तब ही फल प्राप्ति संभव होती है। मंत्रो के जाप के लिए रुद्राक्ष की माला सबसे उचित मानी गई है | इन उपायों का गोचरवश प्रयोग करके कुंडली में अशुभ प्रभाव में स्थित योजनाओं को शुभ प्रभाव में लाया जा सकता है। सम्बंधित ग्रह के देवता की आराधना और उनके जाप, दान उनकी होरा, उनके नक्षत्र में अत्यधिक स्वास्थ्य होते हैं |
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य ईमेल करेक्ट! पं।
राजेश मिश्र
भास्कर ज्योतिषी एंव तन्त्र अनुसंधान केन्द्र बरईपुर आजमगढ।

ग्रहदोष व शांति के उपाय, सूर्य, चंद्र,मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र

आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, व्यापारिक परेशानीयो का कारण ग्रहजनित पीडा होती है। इससे राहत के लिये विभिन्न ग्रहो की शांति के उपाय दिये जा रहे है।
सूर्य ग्रह की शांति के सरल उपाय
जिस व्यक्ति की कुण्डली मे सूर्य २,७,१०,१२ भाव मे हो विशेश कर उनके लिये
कई बार किसी समय-विशेष में कोई ग्रह अशुभ फल देता है, ऐसे में उसकी शांति आवश्यक होती है। गृह शांति के लिए कुछ शास्त्रीय उपाय प्रस्तुत हैं। इनमें से किसी एक को भी करने से अशुभ फलों में कमी आती है और शुभ फलों में वृद्धि होती है।
ग्रहों के मंत्र की जप संख्या, द्रव्य दान की सूची आदि सभी जानकारी एकसाथ दी जा रही है। मंत्र जप स्वयं करें या किसी कर्मनिष्ठ ब्राह्मण से कराएं। दान द्रव्य सूची में ‍दिए पदार्थों को दान करने के अतिरिक्त उसमें लिखे रत्न-उपरत्न के अभाव में जड़ी को विधिवत् स्वयं धारण करें, शांति होगी।
सूर्य के ‍लिए : समय सूर्योदय
भगवान शिव की पूजा-अर्चना करें। आदित्य स्तोत्र या गायत्री मंत्र का प्रतिदिन पाठ करें। सूर्य के मूल मंत्र का जप करें।
मंत्र : 'ॐ ह्रां ह्रीं ह्रों सूर्याय नम:।'
40 दिन में 7,000 मंत्र का जप होना चाहिए। जप सूर्योदय काल में करें।
दान-द्रव्य : माणिक, सोना, तांबा, गेहूं, गुड़, घी, लाल कपड़ा, लाल फूल, केशर, मूंगा, लाल गाय, लाल चंदन।
दान का समय : सूर्योदय होना चाहिए। रविवार का व्रत करना चाहिए। रुद्राभिषेक करना चाहिए। एकमुखी या बारहमुखी रुद्राक्ष धारण करें।
चन्द्र ग्रह की शान्ति के उपाय-
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जिनकी कुण्डली मे चन्द्र कमजोर  नीच पाप ग्रह से युत दुःस्थान य किसी प्रकार से अनिष्टकारी हो
चन्द्र के लिए : समय संध्याकाल
शिव एवं पार्वती माता की पूजा करें। अन्नपूर्णा स्तोत्र का पाठ करें।
चंद्र के मूल मंत्र का11,000  जाप करें।
मंत्र : 'ॐ श्रां श्रीं श्रोक्तं चंद्रमसे नम:'।
दान द्रव्य : मोती, सोना, चांदी, चावल, मिश्री, दही, सफेद कपड़ा, सफेद फूल, शंख, कपूर, सफेद बैल, सफेद चंदन।
सोमवार का व्रत करें।सोमवार को देवी पूजन करें।
दोमुखी रुद्राक्ष धारण करें।
मंगल पीडा निवारण
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जिसकी कुण्डली मे मंगल अशुभ भाव (1,4,5,8,9,12 मे मंगल अमंगलकारी) हो, उसे मंगल की शान्ति हेतू निम्न उपाय करने चाहिये
 दान - मूंगा.सोना, तॉबा,मसूर, गुड, घी, लालवस्त्र,केशर ,कस्तुरी,लाल चन्दन (दान अपनी सामर्थ्य के अनसार ही करना चाहिये)
अन्नत मूल(सारिवा) की जड शरीर पर धारण करने से मंगलजनित दोष की शान्ति होती है|
मंगल मंत्र का 10,000 जप किया जाय तो शान्ति होती है  मंगल मंत्र-
एकाक्षरी बीजमंत्र- ऊँ अं अंगारकाय नमः|
तांत्रिक मंत्र- ऊँ क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः |
मंगल जाप करनेवाले  जातक को चाहिये की वह अपनी सामर्थ्य अनुसार 4 से8 रत्ती मूगा की अंगूठी प्राणप्रतिष्ठा पूर्वक बनवा अपनी अनामिका उगली मे धारण करे और सामर्थ्य अनुसार सोने य ताबे पर निर्मित भौम यंत्र एवंभौम मूर्ति की स्थापना कर उत्तराभिमुख सूर्योदय के 1 घंटे बाद तक जप करे | जप की समाप्ति पर खैर की लकडी से हवन करे|
 मंगल का व्रत करे- मंगल को नमक न खाये।
बुध ग्रह कीशान्ति के लिये
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जिन मनुष्यो के जन्मपत्रमे बुध लग्न से ६,८,१२ भाव मे  से किसी मे हो नीच अस्त य नीचास्त होकर पीडित करता हो उन्हे निम्न उपाय करने से अवश्य ही लाभ होगा |
दान- पन्ना, सोना ,कांसा,घी,मूंग,हरावस्त्र, पंचरंग के फूल, हाथी दॉत, कपूर, शश्त्र और फल|
 बुध देवता स्वर्णदान से शीघ्र प्रसन्न होते है , दान अपनी सामर्थ्य अनुसार ही करना चाहिये , कर्ज लेकर नही |
बुध की शान्ति हेतू विधारा वृक्ष की जड बुधवार के दिन जबशुभ नक्षत्र हो अपने घर लाकर विधिपूर्वक पूजन करके धारण करे तो निश्चय ही बुध जनित पीडा से राहत मिलेगी|
बुध मंत्र का जाप 9000 करना चाहिये
विनियोग- उदबुध्य ईति मन्त्रस्य परमेष्ठी ऋषिः बुधे देवता त्रिष्टुपछन्दःसौम्यमंत्रजपे विनियोगः
एकाक्षरी बीज मंत्र-ॐ बुं बुधाय नमः|
 तांत्रिक बुध मंत्र- ॐ ब्रां ब्रीं, ब्रौं ,सः बुधाय नमः|

कॉसे के बर्तन मे देशी घी कपूर और शक्कर डालकर पानी मे बहा दे, बर्तन घर ले आये
कुमारी कन्याओ का पूजन करे
जन्मकुडंली मे स्थित गुरु भाव व दृष्टि के अनुसार शुभ व अशुभ फल का तीव्र कारक होता है शुभ भाव मे तो शुभ कारक है किन्तु अशुभ भाव मे होने पर शनि एवं मंगल से भी अधिक कष्टकर होता है, यह मेरा निजी अनुभव है|प्रायः गुरु लग्न व गोचर मे ३,६,८,१२ भावो मे अशुभ होता है|
 जिनकी कुन्डली मे गुरु ३,८,९,१२ भाव मे बैठा हो उन्हे गुरु को प्रसन्न करने का उपाय करना चाहिये|
गुरु प्रतिदान-पुखराज, सोना,चने की दाल,घी, पीला वस्त्र, हल्दी,. गीता की पुस्तक,पीले फल|
 धारण- पुखराज सोने मे य केले की जड,  य सारंगी की जड पीले कपडा य धागा मे|
गुरु स्तुति-
 देवमन्त्री विशालाक्षः सदा लोकहिते स्तः |
 अनेक शिवयैः सम्पूर्णः पीडा दहतु मे गुरुः||
 विनियोग
अस्य श्री वृहस्पतिमन्त्रस्यं गृत्समदऋषि ब्रह्मा देवता त्रिष्टुपछन्द बृहस्पति- मन्त्रजपे विनियोगः
सवीज वैदिक मन्त्र-ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः ॐ भूर्भुवः स्वः| ॐ बृहस्पतेअ्अतियर्ययो् अहदियुमद्विभाति वक्रतमज्जनेषु| यददीदयच्छवसअ्ॠतप्प्रजातु तदस्मासु द्रविणन्धेहि चित्रम् ॐ स्वः भूवः भूः ॐ सः ह्रौ, ह्री, ह्रां ॐ बृहस्पतये नमः|
एकाक्षरी बीज मन्त्र- ॐ बॄं बृहस्पतये नमः|
 तान्त्रिक गुरु मन्त्र- ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरवे नमः|
 जपसंख्या- 19000
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जन्मकुडंली मे स्थित शुक्र भाव व दृष्टि के अनुसार शुभ व अशुभ दोनो फल का तीव्र कारक होता है शुभ भाव मे तो शुभ कारक है किन्तु अशुभ भाव मे धनहानि  व कलहप्रदायक है प्रायः शुक्र लग्न व गोचर मे ३,६,७,८,१२ भावो मे अशुभ होता है|
 जिनकी कुन्डली मे शुक्र ३,६,७,८,१२ भाव मे बैठा हो नीच अस्त य शत्रुक्षेत्री हो उन्हे शुक्र को प्रसन्न करने का उपाय करना चाहिये|
शुक्रप्रतिदान-हीरा, चॉदी,सोना, चावल,दूध सफेद वस्त्र, कपूर,कस्तुरी,सफेद चन्दन,सफेद मिठाई|
 धारण- हीरा सोने य चादी मे सरपुंखा (झोंझरु) की जड सफेद कपडा य धागा मे|
शुक्र स्तुति-
 दैत्यमन्त्री गुरुस्तेषां प्राणदश्च महाशुतिः |
 प्रभुस्ताराग्रहाणां च पीडां दहतु मे भृगुः||
 विनियोग
अन्नात्परिस्रुत इति मन्त्रस्य प्रजापति ऋषिः अश्विसरस्वतीन्द्रा देवता जगतीछन्दः शुक्र मन्त्रजपे विनियोगः|
सवीज वैदिक मन्त्र-ॐ  द्रां द्रीं द्रौं सः ॐ भूर्भुवः स्वः| ॐ अन्नात्परिस्रूतो रसम्ब्रह्मणा व्यपिवत्क्षत्रम्पयः सोमम्प्रजापतिः| ऋतेन सप्तमिन्द्रियं विपानं शुक्रमन्धसअ्इन्द्रस्येन्द्रियमिदम्पयोमृतम्मधु ॐ स्वः भूवः भूः ॐ सः द्रौ, द्री, द्रां ॐ शुक्राय नमः|
एकाक्षरी बीज मन्त्र- ॐ शुं शुक्राय नमः|
 तान्त्रिक शुक्र मंत्र- द्रां द्रीं द्रौं सः शुक्राय नमः|
 जपसंख्या- 16000

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