नवरात्रि पूजन व आरंभ 2022

 श्रीराम ।

*आश्विन शरद् नवरात्र 26 सितंबर सोमवार, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र, शुक्लयोग, बव करण, श्रीवत्स योगा, कन्या राशि के चन्द्रमा व कन्या राशि के सूर्य से प्रारंभ होंगे और इस बार मॉ दुर्गा हाथी पर सवार होकर आएगी  ।*

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*श्रीदुर्गाष्टमी  03 अक्टूबर सोमवार और महानवमी 04 अक्टूबर मंगलवार को है, विजयादशमी 05 अक्टूबर बुधवार को मनाया जाएगा।*


*काशी विश्वनाथ पंचांग स्थानीय मान अनुसार घटस्थापना/कलशस्थापना,ज्योति प्रज्वलन करें तथा देवी दुर्गा की अराधना के लिए सुबह 06/24 सूर्योदय के बाद पूरा दिन शुभ है।*

  


 इस वर्ष सन् 2022 ई. आश्विन शरद् नवरात्र 26 सितंबर सोमवार  से प्रारंभ हो रहे हैं। आश्विन शरद् नवरात्र के विषय में पण्डित राजेश मिश्र "कण"( भास्कर ज्योतिष एवं तंत्र अनुसंधान केन्द्र ) ने बताया

आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आश्विन शुक्ल पक्ष नवमी तिथि तक यह व्रत किये जाते हैं, इस महापर्व में मां भगवती के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री,ब्रह्मचारिणी,चंद्रघंटा,कूष्मांडा, स्कंदमाता,कात्यायनी,कालरात्रि,महागौरी और सिद्धदात्री देवी की पूजा की जाती है। 


*नवरात्र में किस दिनांक को कौन कौन सी तिथि।*


प्रतिपदा 26 सितंबर- सोमवार

द्वितीया 27 सितंबर- मंगलवार

तृतीया 28 सितंबर- बुधवार

चतुर्थी 29 सितंबर- गुरुवार

पंचमी 30 सितंबर - शुक्रवार

षष्ठी - एक अक्टूबर- शनिवार

सप्तमी- दो अक्टूबर- रविवार

अष्टमी तीन अक्टूबर - सोमवार

नवमी-चार अक्टूबर- मंगलवार

दशमी-पांच  अक्टूबर- बुधवार


इन दिनों भगवती दुर्गा का पूजन,दुर्गा सप्तशती का पाठ स्वयं या विद्वान पण्डित जी से करवाना चाहिए।


देवीभागवत् में बताया गया है कि ..


 ‘शशिसूर्ये गजारूढ़ा शनिभौमे तुरंगमे। 

  गुरौ शुक्रे च दोलायां बुधे नौका प्रकीर्त्तिता।।’


अर्थात- रविवार और सोमवार को प्रथम पूजा यानी कलश स्थापना होने पर मां दुर्गा हाथी पर सवार होकर आती हैं, शनिवार और मंगलवार को कलश स्थापना होने पर माता का वाहन घोड़ा होता है, गुरुवार और शुक्रवार के दिन कलश स्थापना होने पर माता डोली पर चढ़कर आती हैं, जबकि बुधवार के दिन कलश स्थापना होने पर माता नाव पर सवार होकर आती हैं।


इस वर्ष 26 सितंबर सोमवार शरद् नवरात्र का आरंभ सोमवार के दिन हो रहा है। ऐसे में देवीभाग्वत पुराण के कहे श्लोक के अनुसार दुर्गा का वाहन हाथी होगा।  मां दुर्गा हाथी पर सवार होकर आती हैं तो वो अपने साथ ढ़ेरों सुख-समृद्धि लेकर आती हैं। साथ ही यह इस बात का भी संकेत होता है कि इस बार वर्षा अधिक होगी, जिससे फसलों की पैदावार अच्छी होगी चारों ओर हरियाली का वातावरण रहेगा।


तांन्त्रिकों व तंत्र-मंत्र में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिये नवरात्रों का समय अधिक उपयुक्त रहता है, गृहस्थ व्यक्ति भी इन दिनों में भगवती दुर्गा की पूजा आराधना कर अपनी आन्तरिक शक्तियों को जागृत करते है,इन दिनों में साधकों के साधन का फल व्यर्थ नहीं जाता है,इन दिनों में दान पुन्य का भी बहुत महत्व कहा गया है।


नवरात्रों के दिनों में किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए,प्याज,लहसुन,अंडे और मांस-मदिरा आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए,नाखून,बाल आदि नहीं काटने चाहिए,भूमि पर शयन करना चाहिए,ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, किसी के प्रति द्वेष की भावना नहीं रखनी चाहिए,चमड़े की चप्पल,जूता,बेल्ट,पर्स,जैकेट आदि नहीं पहनना चाहिए और कोई भी पाप कर्म करने से आप और आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम होते है।


नवरात्रों मे स्वास्थ्यके अनुसार ही व्रत रखें इन दिनों में फल आदि का सेवन ज्यादा करें रोजाना सुबह और शाम को माँ दुर्गा की पूजा अवश्य करें ।


इन दिनों पूरे भारतवर्ष मे गौमाता, चम्पी नामक भयानक महामारी से ग्रस्त है। ऐसे में दुर्गा सप्तशती का यह मंत्र निरंतर जपने और हवन के साथ आहुति देने से चमत्कारी सिद्ध हो सकता है। 

 

*देवी की प्रसन्नता हेतु :-


*जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।*

*दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।।*

 

मंत्र जप संख्या 11000, हवन संख्या 1000, हवन सामग्री- घृत, चंदन।


*देवी गमन - चरणायुध ( मुर्गा ) वाहन परिणाम अशुभं*


**पं.राजेश मिश्र "कण"

*भास्कर ज्योतिष व तंत्र अनुसंधान केन्द्र*

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ग्रह शान्ति और रुद्राभिषेक

 श्रीराम ।

सावन मे विविध कामना से प्रतिएक वार रुद्राभिषेक के लिए प्रशस्त है। सावन का प्रत्येक दिन बिशेष है।



सावन मास मे रुद्राभिषेक से शिव शीघ्र प्रसन्न होकर कष्टो का निवारण करते है। ग्रह जनित पीडा़ और समस्त बाधाए दूर कर सुख शान्ति व समृद्धि प्रदान करते है।

सावन मास मे रुद्राभिषेक के लिए शिववास देखने की आवश्यकता नही होती है।

ग्रह जनित पीडा़ शमन के लिए उस ग्रह के वार मे रुद्राभिषेक कराने से बिशेष शान्ति होती है।

सूर्य सभी ग्रहो मे बलवान

है, सूर्य की प्रसन्नता से सभी ग्रह प्रसन्न होते है।बलवान  सूर्य सभी अन्य ग्रहो के कष्ट का निवारण करता है।सूर्य को प्रसन्न करने के लिए रविवार को रुद्राभिषेक कराए।

 चन्द्रमा सूर्य के बाद सबसे प्रबल दोष नाशक है। बलवान चन्द्रमा अन्य सभी ग्रहो के कष्ट का हरण कर देता है। चन्द्रमा को प्रसन्न करने के लिए सोमवार को रुद्राभिषेक कराये।

 मंगल उग्र पापग्रह है, जो कुपित होकर अनेक कष्ट प्रदान करता है। कु्ण्डली मे मांगलिक योग हो अथवा मंगल कष्टकारी हो तो , शान्ति के लिए मंगलवार को रुद्राभिषेक कराये।

बुद्धि विकास, धन प्राप्ति, तथा  बुध तथा राहू जनित कष्ट के निवारण के लिए बुधवार को रुद्राभिषेक करे।

 बृहस्पति की शुभ व अशुभ स्थिति बहुत ही प्रबल प्रभावकारी होती है। मानसिक पारिवारिक व शारीरिक शान्ति के लिए अनिष्टनिवारण के लिए। गुरुवार को रुद्राभिषेक करे।

 पति पत्नी व परिवार मे सामंजस्य, शांति , धन , सुख प्राप्ति के लिए शुक्रवार को रुद्राभिषेक करे।

शनि जनित कष्ट निवारण, साढेसाती, ढैय्या, पनौती आदि दोष शान्ति के लिए, शनिवार को रुद्राभिषेक करे।

 

   कामना अनुसार रुद्राभिषेक की सामाग्री भिन्न भिन्न होती है।

  पंचामृत, दूध, दही, तांबे के बर्तन मे न रखे।


हर हर महादेव!

बिशेष जानकारी के लिए संपर्क करे

    

पं.राजेश मिश्र "कण"


हवन मे ब्रहमा को दक्षिण क्यो? स्रुवा कैसे पकडे

 हवन मे ब्रह्मा को दक्षिण दिशा में क्यो रखा  जाता है?

स्रुवा कैसे पकड़ते है?

अग्नि का मुख किधर होता है?

मेखला कितनी होती है?

हवन के लिए कैसी भूमि चाहिए?

उत्तरे सर्वपात्राणि उत्तरे सर्व देवता ।

उत्तरेपाम्प्रणयनम् किम् अर्थम् ब्रह्म दक्षिणे ।।


सभी विद्वानों के लिए जानने योग्य बात है ।


अर्थ- इस श्लोक का अर्थ है उत्तर में सारे पात्रों को स्थापित करते हैं यज्ञ में और उत्तर में ही सारे देवी देवताओं का आवाहन होता है पूजन होता है और इस श्लोक में एक प्रश्न छुपा हुआ है वह प्रश्न यह है कि ब्रह्मा जी को दक्षिण दिशा में क्यों स्थापित करते हैं यज्ञ में?


: दक्षिणे दानवा: प्रोक्ता:पिशाचोरगराक्षसा:।तेषांसंरक्षणार्थाय ब्रम्हा:तिष्ठति दक्षिणे ।।

दक्षिण दिशा में पिशाच सर्प, राक्षस आदि रहते है उनसे रक्षा के लिए ब्रह्मा को दक्षिण दिशा में स्थापना करते है।

[6/25, 1:06 PM] राजेश मिश्र 'कण': श्रीराम ।

👌🚩


अन्य:-


श्लोक 

यमोवैवस्वतोराजा वस्ते दक्षिणाम् दिशी ।।

तस्यसंरक्षरणार्थाय ब्रह्मतिष्ठति दक्षिणे ।।


४. स्रुवधारणार्थकारिका । प्रश्नः - अग्रे धृत्वाऽर्थनाशाय मध्ये चैव मृतप्रजाः ॥ मूले च म्रियते होता स्रुवस्थानं कथं भवेत् ? ।। उत्तरम् - अग्रमध्याच्च यन्मध्यं मूलमध्याच्च मध्यतः । स्रुवं धारयते विद्वान् ज्ञातव्यं च सदा बुधैः ॥ तर्जनी च बहिः कृत्वा कनिष्ठां च बहिस्तथा । मध्यमाऽनामिकांगुष्ठैः श्रुवं धारयते द्विजः ।। आस्यान्तर्जुहुयादग्नेर्विपश्चित् सर्वकर्मसु । कर्महोमेर्भवेद् व्याधिर्नेत्रेऽन्धत्वमुदाहृतम् । नासिकायां मनः पीड़ा मस्तके


[6/25, 1:38 PM] Sanjay Panday: 🙏

अधोमुख उर्द्धवपाद:प्राङ् मुखो हब्य वाहन:।तिष्ठत्येन स्वभावेन् आहुति कुत्र दीयते ।।🙏

[6/25, 8:19 PM] राजेश मिश्र 'कण': श्रीराम ।

सपवित्राम्बुहस्तेन यः कुर्यात प्रदक्षिणाम् । हव्यवाट् सलिलं दृष्ट्वा विभेति सन्मुखीभवेत् ॥

 विधान यह है कि ब्रह्मा ( यज्ञ के लिए वरण किये ब्राह्मण द्वारा हाथ मे कुश लेकर) अग्नि की प्रदक्षिणा करने से अग्नि का मुख सामने हो जाता है। यदि वरण के लिए अतिरिक्त ब्राह्मण न हो तो यजमान के हाथ से 256 मुट्ठी चावल लेकर पुर्णपात्र ब्रह्मा का निर्माण करके पुर्णपात्र को अग्नि की परिक्रमा करायें।

[6/25, 8:26 PM] राजेश मिश्र 'कण': सपवित्रः +अम्बु(गतौ)+ हस्तेन य: कुर्यात प्रदक्षिणाम्। हव्यवाट् (हव्यं वहतीति ।  वह + अण् । ) अग्निः । सलिलं( धारा, अग्निशिखा) दृष्ट्वा विभेति( विभज्य ) सन्मुखीभवेत्।।

अतः अग्निशिखा पर आहूति देनी चाहिए।


हवन की भूमि कैसी होनी चाहिए?

हवन की भूमि.का चयन इस प्रकार करे।


हवन करने के लिए उत्तम भूमि को चुनना बहुत ही आवश्यक होता हैं. हवन के लिए सबसे उत्तम भूमि नदियों के किनारे की, मन्दिर की, संगम की, किसी उद्यान की या पर्वत के गुरु ग्रह और ईशान में बने हवन कुंड की मानी जाती हैं. हवन कुंड के लिए फटी हुई भूमि, केश युक्त भूमि तथा सांप की बाम्बी वाली भूमि को अशुभ माना जाता हैं.




हवन कुंड व हवन के नियम क्या है?

हवन कुंड की बनावट


हवन कुंड में तीन सीढियाँ होती हैं. जिन्हें “ मेखला ” कहा जाता हैं. हवन कुंड की इन सीढियों का रंग अलग – अलग होता हैं.


1. हवन कुंड की सबसे पहली सीढि का रंग सफेद होता हैं.


2. दूसरी सीढि का रंग लाल होता हैं.


3. अंतिम सीढि का रंग काला होता हैं.


 हवन कुंड की इन तीनों सीढियों में तीन देवता निवास करते हैं.


1. हवन कुंड की पहली सीढि में विष्णु भगवान का वास होता हैं.


2. दूसरी सीढि में ब्रह्मा जी का वास होता हैं.


3.तीसरी तथा अंतिम सीढि में शिवजी का वास होता हैं.


हवन कुंड और हवन के नियम* 


*हवन कुंड के प्रकार -* 


हवन कुंड कई प्रकार के होते हैं. जैसे कुछ हवन कुंड वृताकार के होते हैं तो कुछ वर्गाकार अर्थात चौरस होते हैं. कुछ हवन कुंडों का आकार त्रिकोण तथा अष्टकोण भी होता हैं.


*आहुति के अनुसार हवन कुंड बनवायें* 


1. अगर आपको हवन में 50 या 100 आहुति देनी हैं तो कनिष्ठा उंगली से कोहनी (1 फुट से 3 इंच )तक के माप का हवन कुंड तैयार करें.


2. यदि आपको 1000 आहुति का हवन करना हैं तो इसके लिए एक हाथ लम्बा (1 फुट 6 इंच ) हवन कुंड तैयार करें.



 

3. एक लक्ष आहुति का हवन करने के लिए चार हाथ (6 फुट) का हवनकुंड बनाएं.



 

4. दस लक्ष आहुति के लिए छ: हाथ लम्बा (9 फुट) हवन कुंड तैयार करें.


5. कोटि आहुति का हवन करने के लिए 8 हाथ का (12 फुट) या 16 हाथ का हवन कुंड तैयार करें.


हवन कुंड के बाहर गिरी सामाग्री का क्या करे?

हवन कुंड के बाहर गिरी सामग्री को हवन कुंड में न डालें - आमतौर पर जब हवन किया जाता हैं तो हवन में हवन सामग्री या आहुति डालते समय कुछ सामग्री नीचे गिर जाती हैं. जिसे कुछ लोग हवन पूरा होने के बाद उठाकर हवन कुंड में डाल देते हैं. ऐसा करना वर्जित माना गया हैं. हवन कुंड की ऊपर की सीढि पर अगर हवन सामग्री गिर गई हैं तो उसे आप हवन कुंड में दुबारा डाल सकते हैं. इसके अलावा दोनों सीढियों पर गिरी हुई हवन सामग्री वरुण देवता का हिस्सा होती हैं. इसलिए इस सामग्री को उन्हें ही अर्पित कर देना चाहिए.

लेख पं.राजेश मिश्र "कण "


रक्षाबंधन 2022 सह समय कब है

 श्रीराम ।


रक्षाबंधन य राखी का त्योहार कब है इसको लेकर लोगो मे उहापोह बना हुआ है। इस पर भास्कर ज्योतिष केन्द्र द्वारा स्पष्ट किया जा रहा है।


श्रावणी तथा रक्षाबन्धन भद्रा में नहीं किया जा सकता। इसलिए भद्रा रहित पूर्णिमा में दिन-रात किसी भी समय रक्षा बन्धन किया जा सकता है। 

काशी विश्वनाथ तथा महावीर पंचांगानुसार

इस वर्ष ११ अगस्त गुरुवार को दिन में ९/३५ बजे से पूर्णिमा तिथि लग जायेगी जो १२ अगस्त शुक्रवार को प्रात ७/९६ बजे तक रहेगी। भद्रा ११ अगस्त गुरुवार को पूर्णिमा तिथि के साथ ही दिन ९।३५  से प्रारम्भ होकर रात ८।२५ बजे तक रहेगी। इस प्रकार भद्रा से रहित पूर्णिमा ११ अगस्त  गुरुवार को रात ८।२५ से लेकर १२ अगस्त शुक्रवार को प्रातः ७ /१६ बजे के मध्य रक्षाबन्धन का शुभ मुहूर्त्त बन रहा है। अतः इस समय मे ही रक्षाबंधन उचित है।

  पं.राजेश मिश्र "कण "

पूजा मे शिर पर कपडा़़ न रखे।


#देव_पूजा_में_निषिद्ध_वस्त्र------||


*_शिरः प्रावृत्य वस्त्रेण ध्यानं नैव प्रशस्यते_*

*_भोजन और पूजन ,हवनादि पर सिर के ऊपर वस्त्र रखना वर्जित है आजकल अधिकतर लोगो को सिर ढ़ककर  पूजन , हवनादि करते देखा जाता है,जो गलत है , सही जानकारी के अभाव मे यह मुसलमानो की संस्कृति लोगों ने अपना ली है |_*


शाश्त्रीय विधान के अनुसार, पूजन हवन मे, धोती और उत्तरीय वस्त्र ( अंगोछा य चादर ) धारण करना है। अंगोछा कंधे पर रखा जाता है, तथा यज्ञोपवीत की भॉति अंगोछे को भी सव्य अपसव्य देव पूजन व पितृपूजन मे रखने का विधान है। अर्थात बाये कंधे पर देव पूजन मे व दाये कंधे पर पितृपूजन मे।

   मल-मूत्र का त्याग करते समय शिर को वस्त्र से ढकने का विधान है।


न स्यूते न दग्धेन पारक्येन विशेषतः |

 मूषिकोत्कीर्ण जीर्णेन कर्म कुर्याद्विचक्षणः ||

 सिले हुए वस्त्र से , जले हुए वस्त्र से, विशेषकर दूसरे के वस्त्र से, चूहे से कटे हुए वस्त्र से धर्मकार्य नहीं करना चाहिए.


जीर्णं नीलं संधितं च पारक्यं मैथुने धृतम् | 

छिन्नाग्रमुपवस्त्रं च कुत्सितं धर्मतो विदुः ||

जीर्ण, नीला, सीला हुआ, दूसरे का, संभोगावस्था में पहना हुआ, जिसका तत्र भाग कटा हो एवं छोर रहित वस्त्र धर्मकी दृष्टि से धारण न करें!


अहतं यन्त्र निर्मुक्तं वासः प्रोक्तं स्वयंभुवा |

 शस्तं तन् मांगलिक्येषु तावत् कालं न सर्वदा||

यन्त्र(मील) से निकले हुए बने हुए वस्त्र को "अहत" वस्त्र माना हैं | वह यन्त्र से निकला हुआ कपड़ा विवाह आदि मांगलिक कार्य में उतने ही समय तक ठीक हैं, हमेशा के लिए नहीं.


अन्यत्र यज्ञादौ तु इषद्धौतमिति | #न_च_यज्ञादिकमपि #मांगलिक्यमेवेत्याशंकनीयम् / विवाहोत्सवादेरैहिकसुखस्याभ्युदयस्य च मांगलिकत्वात् / यज्ञोदेस्तु #धर्मरूपादृष्टफलदत्वेन मांगलिकत्वाभावात् "         (मदन पारि० शातातपः)


मदन पारि० ग्रन्थ में शातातप नामक ऋषि की व्याख्या अहतवस्त्र का -- अन्यत्र यज्ञादि अनुष्ठान में (प्रशस्त )नहीं , यज्ञादि कर्म तो अदृष्ट (अप्रत्यक्ष) फल देनेवाले हैं, इस कारण से वे मांगलिक कर्म में नहीं आते | निष्कर्ष यह हैं कि विवाहादि मांगलिक कार्यों का प्रत्यक्ष संस्काररूपी फल हैं, ऐसा यज्ञादिकर्मों का दृष्ट फल नहीं |

इषद्धौतमरजकादिना सकृद्धौतमिति नागदेवाह्निके व्याख्यातम् ||-- इषद्धौत का मतलब बिना धोबी के एकबार धुला वस्त्र |

स्वयं धौतेन कर्त्तव्या क्रिया धर्म्या विपश्चिता / न तु तेजकधौतेन नोपभुक्तेन च क्वचित् ||

(चतुर्वर्ग चिंता०वृद्धमनुवचन)

विद्वान् कर्मकर्ता को स्वयं(ब्रह्मचारी स्वयं/ गृहस्थी स्वयं वा पत्नी द्वारा)धूले वस्त्र से धार्मिक क्रिया को सम्पन्न करे | धोबी से धुले हुए एवं भोजन में पहने हुए या दूसरे के पहने हुए वस्त्र से कभी भी धार्मिक कर्म न करे.

    पं.राजेश मिश्र "कण"

वास्तु ब्रह्मस्थान

   




ब्रह्म स्थान से तात्पर्य भूखंड का केन्द्रीय स्थान है। इसका क्षेत्रफल कुल भूखंड के क्षेत्रफल के अनुपात के आधार पर तय होता है। साधारण घरों के लिए 81 पद की वास्तु बताई गई है, जिसमें 9 x 9 = 81 पदों में से 9 पद ब्रह्मा के बताए गए हैं। इससे ब्रह्मा का स्थान पूरे भूखंड का 9वां भाग हुआ। लोग भ्रमवश किसी भी भूखण्ड के एकदम केन्द्रीय स्थान को ही ब्रह्म स्थान मानते हैं। जब मर्म स्थानों की गणना करते हैं, जहां कि कोई निर्माण घातक सिद्ध हो सकता है तो वह मर्म स्थान इन 9 पदों में पड़ते हैं न कि केवल केन्द्रीय बिन्दु पर। अत: जिस क्षेत्र को निर्माण कार्यों से या अन्य बाधाओं से बचाना है, वह पूरे भूखण्ड का 9वां भाग होता है  और उस नवें भाग में कुल मिलाकर 15 या 20 मर्मस्थान चिह्नित करने पड़ते हैं। यदि भूखण्ड 100 वर्गगज का हुआ तो ब्रह्म स्थान 10 वर्ग गज का हुआ परंतु यदि भूखण्ड का क्षेत्रफल 900 वर्ग गज का हो तो ब्रह्म स्थान का क्षेत्रफल 100 वर्गगज होता है। ब्रह्म स्थान का क्षेत्रफल भूखण्ड के क्षत्रफल के अनुपात घटत या बढ़ता है।

यदि 81 पद या वर्ग के स्थान पर 100 पद की वास्तु लागू करें जो कि देवप्रसादों या उनके मण्डपों के लिए की जाती है तो ब्रह्मा का स्थान 16 पद हो जाता है। यह अनुपात 6.25 आया। अर्थात भूखंड का 9वां भाग न होकर 6.25 भाग आया।

यदि 64 पद का भूखण्ड लिया जाए जिसे कि मानसार में मंदिर के लिये प्रसिद्ध बताया गया है या राजाओं के शिविरों के लिए भी बताया जाता था तो उसमें ब्रह्मï का स्थान चार पद तक ही सीमित रह जाता है। यानि कुल पदों के 16वें भाग में ब्रह्मा सीमित रह जाते है। इसमें अन्य देवताओं के क्षेत्राधिकार भी बदल जाते है। अर्यमा आदि जो देवता है वे दो-दो पदों का उपभोग करते हैं। आठों कोणों पर स्थिति बीच और जो आठ देवता स्थित हैं, वे आधे-आधे पदों का उपभोग करते हैं। इसलिए अन्य देवताओं के भी क्षेत्राधिकार में अंतर आता है। इस भेद को अनुभवी वास्तु शास्त्री ही मौके  पर पकड़ पाते हैं। नादानी से किए गए निर्माण यदि किसी एक देवता की बजाय दूसरे के क्षेत्राधिकार में करा दिए जाएं तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

ब्रह्म स्थान में नहीं मर्म स्थान अन्यत्र भी मिलते हैं वास्तु पुरुष के मुख मे, हृदय में, नाभि में, सिर में और स्तनों में जो मर्म है, उनको षण्महन्ति कहा जाता है। वंश, अनुवंश एवं संपात (कटान बिंदु) और पद के मध्य में जो देवस्थान है, वे 16 पद वाली वास्तु में अत्यंत गंभीर हो जाते हैं। इतने ही गंभीर 81 पद की वास्तु में भी होते है।

चारों विभागों में, चारों दिशाओं में जो शिरा होती है तथा द्वार के मध्य भाग पर जो स्थान होते हैं उन्हें मर्म कहते है। मर्म स्थान को पहचानना अत्यंत कौशल का काम है और अच्छे-अच्छे आर्किटेक्ट या वास्तु शास्त्री उसको नहीं कर पा रहे हैं। द्वारों से या दीवार से यदि मर्म स्थान का वेध हो तो गृह स्वामी की कुल हानि होती है। यदि स्तम्भ से मर्म वेध हो तो गृह स्वामी का नाश होता है। यदि तुलाओं के द्वारा वेध हो तो स्त्री नाश कराता है। खूंटी के द्वारा वेध हो तो बहू का नाश और मर्म स्थान पर भारी सामान रखने से भाई का नाश होता है। यदि मर्म स्थानों पर नागपाश हो तो धनहानि, यदि नागदंत (एक तरह की खूंटी) तो मित्रहानि तथा मर्म में कंगूरे स्थित होने पर नौकरों की हानि होती है। अवांछित लकडिय़ां, गवाक्ष व खिड़कियां धन क्षय कराने के माध्यम बनते हैं। शिराओं के पीडऩ से उद्वेग और अनर्थ आता है और संधियों और अनुसंधियों के अनुपीडऩ से घर में काल आता है। इसका अर्थ यह है कि दो दीवारों का मिलन स्थल या क्रॉस बीम किसी मर्म स्थान पर पड़े तो घर में मृत्यु को आमंत्रण मिलता है। अनुभव में आया है कि अकाल मृत्यु के सारे मामले अधिकांश इस वेध से आते हैं।

यदि कोई मर्म स्थान कोई द्वार के मध्य में पड़े तो राजभय आपतित होता है। पहले तो राजा लोग क्रोधित होने पर सीधे फांसी चढ़ा दिया करते थे। आजकल इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स और जेडीए के रूप में घरों में घुस आते हैं और आने के बाद कई दिन तक नहीं निकलते। यदि शैया किसी मर्म स्थान पर आ जाए तो कुल नाश करा देती है। शैया के आजू-बाजू में जो नागदंत होते हैं अर्थात खूंटियों का कोई भी प्रकार यदि वे मर्म स्थान पर पड़ जाएं तो स्वामी का क्षय करा देते हैं। स्वामी के विरुद्ध षड्ïयंत्र वहां जन्म लेते हैं। जो खूंटियां खिड़कियों या खंभों से वेध हो जाएं तो शस्त्रघात से कोई न कोई मृत्यु घर में आती है। शस्त्रघात का आधुनिक समीकरण शल्य चिकित्सा है। यदि घर के बिल्कुल मध्य में द्वार हो तो स्त्री दूषण आता है। यदि उत्तर दिशा में, उत्तर दिशा मध्य और ईशान के बीचोंबीच अदिति नाम के देवता के स्थान पर द्वार हो और घर के बीचोंबीच भी द्वार हो और इस तरह से मर्मवेध हो तो उस घर में स्त्री दूषण आता है और स्त्रियां चरित्रहीन होने लगती है। नागदंत का स्तम्भ से बेध या तो घर में चोरी कराता है या घर के किसी प्राणी में चौरवृत्ति देता है।

मर्मवेध के दुष्परिणाम लिखने का तात्पर्य यह है कि न केवल इन स्थानों पर वेध से बचें बल्कि मर्मस्थान की यत्नपूर्वक रक्षा करें। आजकल स्थापति या वास्तुशास्त्री वास्तुपुरुष के रूप में प्रोजेक्ट की गई असाधारण भवन निर्माण योजना के शास्त्रीय पक्ष पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। यदि इन्हें केवल पौराणिक कथाएं मानकर छोड़ दिया जाए तो हम वैदिक ऋषियों की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रस्तावों का उल्लंघन कर रहे होंगे और प्रकृति की ऊर्जा को संपूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर पाएंगे।

ब्रह्म स्थान व उसके चारों ओर स्थित देवताओं की ऊर्जा आवश्यकताएं अलग-अलग होती है। यद्यपि बाहर से आयातित ऊर्जा चाहे वह कॉस्मिक ऊर्जा हो, चाहे भूगर्भ ऊर्जा, चाहे अंतरिक्ष पिंडों के आकर्षण-विकर्षण का परिणाम हो, चाहे कक्षापथों के परस्पर घर्षण का परिणाम हो, चाहे ग्रहों के कक्षापथों में दोलन, या ग्रहों की अयन स्थितियां या ग्रहों का किसी अवसर विशेष पर चेष्टाबल हो, भवन में इन सबको साधने की प्रविधियां वैदिक ऋषियों ने आविष्कृत कर ली थीं। इन वास्तु शास्त्रीय नियमों में छिपी गहराई को हम समझ नहीं पा रहे हैं। उदाहरण के लिए ज्योतिष ग्रंथों में हर ग्रह की जप संख्या अलग-अलग बताई जाती है। किसी की 7000 तो किसी की 36000। इसी भांति भूखण्ड में भी हर देवता की ऊर्जा क्षमता अलग-अलग मानी गई है। अत: वास्तु शास्त्री को यह निर्णय भी करना होगा कि किस दिशा से कितनी ऊर्जा किस देवता को पहुंचाई जाए। यह वह स्थान है जहां स्थापत्य के भौतिक नियमों में धर्म, दर्शन और अध्यात्म की प्रतिष्ठा करनी होती है। भूखण्ड में जब तक देवताओं की इस रूप में प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाए तब तक भूखण्ड सफल नहीं होते।


वास्तु शास्त्र के अनुसार मुख्य द्वार कभी भी किसी भी दिशा के कोने में नहीं होना चाहिए।


2.-   प्रत्येक भूमि या कमरे की लम्बाई व चौड़ाई को नौ भागों में बांट लेना चाहिए।

1. - पूर्व दिशा में मुख्य द्वार ईशान के दो भाग छोड़ कर तीन भागों में बनाया जा सकता है। आग्नेय के चार भाग फिर फिर छोड़ देने चाहिए।

2.  - पश्चिम में मुख्यद्वार के लिए नैऋत्य के दो भाग छोड़कर तीन भागों में बनाया जा सकता है। शेष चार भाग वायव्य के छोड़ देने चाहिए।

3.   उत्तर में वायव्य के तीन भाग छोड़कर दो भागों में मुख्य द्वार बनाना उचित रहता है। शेष भाग फिर छोड़ देने चाहिए।

4.    दक्षिण दिशा में आग्नेय कोण के तीन भाग छोड़कर तीन भागों में मुख्य द्वार बनाना उचित रहता है। शेष तीन भाग फिर छोड़ देने चाहिए जैसे चित्र में दर्शाया गया है।

परन्तु बने बनाए मकान-फ्लैट व कार्यालय लेने के कारण मुख्य द्वार बना-बनाया प्राप्त होता है। कार्यालय का मुख्य द्वार कोने में भी हो सकता है तथा दक्षिण दिशा के कोने में भी हो सकता है। जो अत्यधिक अशुभ होता है।  शास्त्र विधि के द्वारा इसका सुधार आवश्यक हो जाता है।


ब्रह्म स्थान पं. राजेश मिश्र कण भास्कर ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र






अक्षय तृतीया पुणयफल पितृदोष कालसर्प दोष निवारण

श्राीराम ।

अक्षय तृतीया के दिन किये गये कार्य का फल अक्षय होता है। पुण्यार्जन के लिए अपनी शक्ति अनुसार दान करना चाहिए।

अक्षय तृतीया एक खगोलीय/ ज्योतिषीय योग है, जिसमे सूर्य अपनी उच्च राशि मेष, तथा चन्द्रमा अपनी उच्चराशि वृष मे स्थित होते है। यह अत्यंत ही प्रभावशाली योग माना गया है।

रम्भा तृतीया को छोड़कर अन्य,  तृतीया तिथि का निर्णय करते हुए ब्रह्मवैवर्त मे, माधव  व अन्य मत से भी चतुर्थीयुक्त तृतीया ही ग्रहण करनी चाहिये। ( निर्णय- सिन्धु)

काशी विश्वनाथ पंचांग के अनुसार अक्षय तृतीया - 

तृतीया तिथि प्रारंभ – ३ मई २०२२ को अहोरात्र है। 


इस दिन किये हुये सभी पुण्य शुभकर्म अक्षय हो जाते है। सभी मांगलिक कार्य बिशेष लाभदायी होते है। जलपूरित कुंभ व पंखा का दान बिशेष पुण्यदायी है।  नवीन शैय्या का प्रयोग, नवीन वस्त्राभूषण स्वर्ण, रत्न, धारण करना, खरीदना, बनवाना, बागवानी, व्यापार आदि बिशेष लाभदायी है।  वेदपाठी, नित्य सन्ध्याकर्म रत विद्वान विनम्र ब्राह्मण को अन्न वस्त्र धन भोजन मिष्टान आदि देने का बिशेष पुण्य प्राप्त होता है।


“न माधव समो मासो न कृतेन युगं समम्।


न च वेद समं शास्त्रं न तीर्थ गंगयां समम्।।”


वैशाख के समान कोई मास नहीं है, सत्ययुग के समान कोई युग नहीं हैं, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं है और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। उसी तरह अक्षय तृतीया के समान कोई तिथि नहीं है। 


जिस जातक की जन्मपत्रिका मे कालसर्पदाेंष  हो वह अष्टनाग के निमित्त घर का बना मिष्ठान व एक मटकी में शुद्ध जल रखें। पीपल के नीचे धूप-दीप प्रज्ज्वलित कर अष्टनाग की संतुष्टि के लिए प्रार्थना करें।

        अथवा

जिस जातक की कुण्डली मे 'पितृ-दोष' है वे अपने पितर के निमित्त 'अक्षय-तृतीया' के दिन प्रात:बेला मे किसी  पीपल की जड के ऊपर, पितृगणों के निमित्त घर का बना मिष्ठान व एक मटकी में शुद्ध जल रखें। पीपल के नीचे धूप-दीप प्रज्ज्वलित कर अपने पितृगणों की संतुष्टि के लिए प्रार्थना करें।


तत्पश्चात् बिना पीछे देखे सीधे अपने घर लौट आएं, ध्यान रखें इस प्रयोग को करते समय अन्य किसी व्यक्ति की दृष्टि ना पड़ें। इस प्रयोग को करने से  अष्टनाग व पितृगण शीघ्र ही संतुष्ट होकर अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं।  

यदि नौकरी, व्यवसाय में बाधाएं आ रही हों या पदोन्नति में रुकावट हो तो 'अक्षय-तृतीया' के दिन शिवालय में शिवलिंग पर ११ गोमती चक्र अपनी मनोकामना का स्मरण करते हुए अर्पित करने से लाभ होता है।

भाग्योदय हेतु 'अक्षय-तृतीया' के दिन प्रात:काल उठते ही सर्वप्रथम ७ गोमती चक्रों को पीसकर उनका चूर्ण बना लें, फिर इस चूर्ण को अपने घर के मुख्य द्वार के सामने अपने ईष्ट देव का स्मरण करते हुए बिखेर दें। इस प्रयोग से कुछ ही दिनों में साधक का दुर्भाग्य समाप्त होकर भाग्योदय होता है।

   आप सभी को अक्षय तृतीया की हार्दिक शुभकामना। जय जय सीताराम ।

 भास्कर ज्योतिष व तंत्र अनुसंधान केन्द्र

     पं.राजेश मिश्र "कण"

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