जीवित श्राद्ध कैसे करे

 आज तो अधिकांश घरोंमें जीवितावस्थामें ही माता-पिताकी दुर्दशा देखी जा रही है फिर मृत्युके अनन्तर और्ध्वदैहिक संस्कार सम्पन्न करनेका प्रश्न ही नहीं। यद्यपि माता-पिताके जीवनकालमें उनके पुत्रादि उत्तराधिकारियोंके द्वारा भरण-पोषणमें जो उनकी उपेक्षा हो रही है और इससे उन्हें जो कष्ट हो रहा है, वह कष्ट तो इस शरीरके रहनेतक ही है, उसके बाद समाप्त हो जानेवाला है, किंतु शरीरके अन्त होनेके अनन्तर जीवके सुदीर्घ कालतककी आमुष्मिक 

सद्गति-दुर्गतिसे सम्बन्धित औध्वदैहिक संस्कारोंके न कर लेनेकी सम्भावनासे माता-पिता आदि जनोंमें घोर निराशा उत्पन्न होती है। इस अवसादसे त्राण पानेके लिये अपने जीवनकालमें ही जीवको अपना जीवच्छ्राद्ध कर लेनेकी व्यवस्था शास्त्रने दी है।



अपनी जीवितावस्थामें ही अपने पुत्रादिद्वारा अपनी उपेक्षाको देख-समझकर उन पुत्रादि अधिकारियोंसे अपने आमुष्मिक श्रेयः-सम्पादनकी आशा कैसे की जा सकती है? पुत्रादि उत्तराधिकारियोंको अपने दिवंगत माता-पिताके कल्याणके लिये अपनी शक्ति और सामर्थ्यके अनुरूप इन सब कृत्योंका किया जाना आवश्यक है - पापके प्रायश्चित्तके रूपमें जीवनमें किये गये व्रत आदिकी पूर्णताके लिये अकृत उद्यापनादि विधियोंके अनुष्ठान, अष्टमहादान, दश-महादान, पंचधेनुदान, मलिनषोडशी, मध्यमषोडशी, उत्तमषोडशी, सपिण्डीकरण, आनुमासिकश्राद्ध, सांवत्सरिक एकोद्दिष्ट एवं पार्वणश्राद्ध आदि। इसीलिये शास्त्रमें उत्तराधिकारियोंके रहते हुए भी जीवच्छ्राद्ध कर लेनेकी व्यवस्था दी गयी है-


जीवन्नेवात्मनः श्राद्धं कुर्यादन्येषु सत्स्वपि ।


(हेमाद्रि पृ० १७१०, वीरमित्र० श्राद्धप्र० पृ० ३६३) साधनसम्पन्न होते हुए भी भगवत्कृपाका अवलम्ब लेकर जो व्यक्ति अपने आमुष्मिक कल्याणके लिये प्रवृत्त नहीं होता, ऐसे व्यक्तिको श्रीमद्भागवत (११।२०।१७) में 'आत्महा' की संज्ञा दी गयी है-


नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्। मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा ॥


अर्थात् यह मनुष्य-शरीर समस्त शुभ फलोंकी प्राप्तिका मूल है और अत्यन्त दुर्लभ होनेपर भी अनायास सुलभ हो गया है। इस संसार-सागरसे पार जानेके लिये यह एक सुदुढ़ नौका है। शरण-ग्रहणमात्रसे ही गुरुदेव इसके केवट बनकर पतवारका संचालन करने लगते हैं और स्मरणमात्रसे ही मैं अनुकूल वायुके रूपमें इसे लक्ष्यकी ओर बढ़ाने लगता हूँ। इतनी सुविधा होनेपर भी जो शास्त्रप्रतिपादित अनुष्ठान करके इस शरीरके द्वारा संसार-सागरसे पार नहीं हो जाता, वह तो अपने हाथों अपने आत्माका हनन- अध:पतन कर रहा है।


अन्यत्र भी कहा गया है कि जबतक यह शरीर स्वस्थ है, रोगोंसे रहित है, जरावस्था अभी दूर है और जबतक इन्द्रियोंकी शक्ति अप्रतिहत है और जबतक आयु क्षीण नहीं हो जाती, बुद्धिमान् व्यक्तिको चाहिये कि उससे पहले ही अपने आत्मकल्याणके लिये महान् प्रयत्न कर ले। भवनमें आग लग जाय तो फिर कुआँ खोदनेका श्रम करनेसे क्य लाभ है-


यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावच्च दूरे जरा यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः । आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् सन्दीप्ते भवने तु कूपखनने प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥


अतः जीवनकालमें अपने उद्देश्यसे किये जानेवाले श्राद्धादि कृत्योंका सम्पादन आवश्यक प्रतीत होता है। जीवच्छ्राद्ध-सम्बन्धी वचन लिंगपुराण, आदिपुराण, आदित्यपुराण, बौधायनगृह्यशेषसूत्र, वीरमित्रोदयश्राद्धप्रकाश कृत्यकल्पतरु, हेमाद्रि (चतुर्वर्गचिन्तामणि) आदि ग्रन्थोंमें प्राप्त होते हैं। आचार्य शौनकके नामसे भी जीवच्छ्राद्धकी व्यवस्था प्राप्त होती है।

एक शंका यह होती है कि पत्नीके रहते पुरुषको जीवच्छ्राद्ध नहीं करना चाहिये, इसका कारण इसमें पुत्तलदाह


आदिके कारण पत्नीको वैधव्यकी भावना बन सकती है। परंतु इसका समाधान यह है कि पत्नीका जीवच्छ्राद्ध पूर्वमें


कराकर पुरुष अपना श्राद्ध करे।


यदि कोई व्यक्ति अपनी अस्वस्थता आदिके कारण स्वयं श्राद्ध करनेमें सक्षम नहीं है तो प्रतिनिधिके द्वारा भी श्राद्ध करा सकता है।


अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है। बौधायनगृह्यसूत्र (पितृमेधसूत्र २।९।५७।१) में कहा गया है- 'जीवता स्वार्थोद्देश्येन कर्तव्यं श्राद्धं जीवच्छ्राद्धमित्युच्यते ।"


जय जय सीताराम ।

जीवित श्राद्ध, जिनकी कोई संतान नही उनके लिए

 


श्राद्धसे बढ़कर कल्याणकारी और कोई कर्म नहीं होता। अतः प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध करते रहना चाहिये।

 एवं विधानतः श्राद्धं कुर्यात् स्वविभवोचितम् । आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं जगत् प्रीणाति मानवः ॥

(ब्रह्मपुराण) 

जो व्यक्ति विधिपूर्वक अपने धनके अनुरूप श्राद्ध करता है, वह ब्रह्मासे लेकर घासतक समस्त प्राणियोंको संतृप्त कर देता है।

(हेमाद्रिमें कूर्मपुराणका वचन) 

जो शान्तमन होकर विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर जन्म-मृत्युके बन्धनसे छूट जाता है।


योऽनेन विधिना श्राद्धं कुर्याद् वै शान्तमानसः । व्यपेतकल्मषो नित्यं याति नावर्तते पुनः ॥

आज जीवित श्राद्ध कैसे करे। जीवित श्राद्ध

यद्यपि ये सब क्रियाएँ मुख्यरूपसे पुत्र-पौत्रादि सन्ततियोंके लिये कर्तव्यरूपसे लिखी गयी हैं, परंतु आधुनिक समयमें कई प्रकारकी बाधाएँ और व्यवधान भी दिखायी पड़ते हैं। पूर्वकालसे यह परम्परा रही है कि माता- पिताके मृत होनेपर उनके पुत्र-पौत्रादि श्रद्धापूर्वक शास्त्रोंकी विधिसे उनका श्राद्ध सम्पन्न करते हैं। जिन लोगोंको सन्तान नहीं होती, उनका श्राद्ध उस व्यक्तिके किसी निकट सम्बन्धीके द्वारा सम्पन्न होता है, परंतु आजके समयमें नास्तिकताके कारण कई अपने औरस पुत्र भी अपने माता-पिताका श्राद्ध शास्त्रोक्त विधिसे सम्पन्न नहीं करते तथा मनमाने तरीकेसे दिखावेके रूपमें अपने सुविधानुसार कुछ खानापूर्तिकर देते हैं। 

जिनको अपनी सन्तान नहीं है, वे आस्तिकजन तो और भी तनावग्रस्त रहते हैं कि उनकी मृत्युके बाद श्राद्ध आदि क्रियाएँ कौन सम्पन्न करेगा ?

इसीलिये अपने शास्त्रोंमें जीवच्छ्राद्ध करनेकी पद्धति बतायी गयी है, जिसे व्यक्ति स्वयं अपनी जीवितावस्थामें शास्त्रोक्तविधिसे सम्पन्न कर सकता है, जिससे श्राद्धकी सम्पूर्ण प्रक्रिया पूरी हो जाती है। इसके बाद भी मृत्युके उपरान्त कर्तव्यकी भावनासे यदि कोई उत्तराधिकारी श्राद्धादि करता है तो करनेवालेको तथा उस प्राणीको -दोनोंको पुण्यलाभ होता है। और न करनेपर भी प्राणीको इसकी अपेक्षा नहीं रहती। यद्यपि यह कार्य अबतक विशेष प्रचलनमें नहीं है, कारण पूर्वके लोगोंमें शास्त्र और परलोकके प्रति आस्था और विश्वास पूर्णरूपसे था। अतः मृत व्यक्तिके उत्तराधिकारी कर्तव्यकी दृष्टिसे इन कार्योंको पूर्ण तत्परतासे करते थे, परंतु आज इस आस्था और विश्वासमें गिरावट आती जा रही है। मृत व्यक्तिके उत्तराधिकारी अपने माता- पिताकी सम्पत्तिके स्वामी तो बन जाते हैं, परंतु उनकी श्राद्धादि कर्मोंमें आस्था न होनेके कारण दशगात्रके पिण्डदान तथा द्वादशाहादिके कृत्योंको भी नहीं करते। शास्त्राज्ञाके विपरीत तीन दिनोंमें कुछ मनमाना करके निवृत्त हो जाते हैं। जिनको अपनी सन्तान नहीं है, वे तनावग्रस्त होकर परमुखापेक्षी रहते हैं।


इन सब दृष्टियोंको ध्यानमें रखते हुए आस्तिकजनोंकी परलोक-सन्तृप्तिके लिये जीवच्छ्राद्धकी शास्त्रोक्त विधि प्रस्तुत करना आवश्यक हो गया।



यद्यपि यह कार्य अत्यन्त दुरूह था, कारण सामान्यतः कर्मकाण्डके पण्डित अभ्यस्त न होनेके कारण इस विधासे अनभिज्ञ थे। संयोगवश कुछ वर्षोंपूर्व श्रीहरीराम गोपालकृष्ण सनातनधर्म संस्कृत महाविद्यालय, प्रयागके अवकाशप्राप्त प्राचार्य पं० श्रीरामकृष्णजी शास्त्रीने अपना जीवित श्राद्ध काशीमें ही पूर्ण शास्त्रोक्त विधिसे सम्पन्न किया, जिसका आचार्यत्व श्राद्धादि कर्मकाण्डके मूर्धन्य विद्वान् अग्निहोत्री पं० श्रीजोषणरामजी पाण्डेयने किया। वे इस विधाके मर्मज्ञ थे, किंतु कुछ वर्षपूर्व पं० श्रीजोषणरामजी परलोक सिधार गये। 

जीवित श्राद्ध विधि के अनुसार किसी भी मासके कृष्णपक्षकी द्वादशीसे लेकर शुक्लपक्षकी प्रतिपदातक - पाँच दिनमें जीवच्छ्राद्धके सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न होते हैं। प्रथम दिन अधिकारप्राप्तिके लिये प्रायश्चित्तका अनुष्ठान, प्रायश्चित्तके पूर्वांग तथा उत्तरांगके कृत्य, दस महादान, अष्ट महादान तथा पंचधेनुदान आदि कृत्य; द्वितीय दिन शालग्रामपूजन, जलधेनुका स्थापन एवं पूजन, वसुरुद्रादित्यपार्वणश्राद्ध तथा भगवत्स्मरणपूर्वक रात्रिजागरण आदि कृत्य; तृतीय दिन पुत्तलका निर्माण, षपिण्डदान, चितापर पुत्तलदाहकी क्रिया, दशगात्रके पिण्डदान तथा शयनादि कृत्य; चतुर्थ दिन मध्यमषोडशी, आद्यश्राद्ध, शय्यादान, वृषोत्सर्ग, वैतरणीगोदान तथा उत्तमषोडशश्राद्ध और अन्तिम पंचम दिन सपिण्डीकरणश्राद्ध, इसके अनन्तर गणेशाम्बिकापूजन और कलशपूजन, शय्यादानादि कृत्य, पददान एवं ब्राह्मणभोजन तथा ब्राह्मणभोजनके अनन्तर श्राद्धकी परिपूर्णता सम्पन्न होती है।

( मेरे निजी संस्थान के द्वारा समयाभाव मे  पुर्ण शाश्त्रोक्त पद्धति से तीन दिवसीय पद्धति विकसित की गई है, जिसमे अल्प उपयोगी विधान को रिक्त किया गया है।

श्राद्धकी क्रियाएँ इतनी सूक्ष्म हैं कि जिन्हें सम्पन्न करनेमें अत्यधिक सावधानीकी आवश्यकता है। इसके लिये इससे सम्बन्धित बातोंकी जानकारी होना भी परम आवश्यक है। इस दृष्टिसे जीवच्छ्राद्धसे सम्बन्धित आवश्यक बातें आगे लिखी जा रही हैं, जो सभीके लिये उपादेय हैं। अतः इन्हें अवश्य पढ़ना चाहिये।


    बिशेष जानकारी के लिए कमेंट करे यथाशीघ्र उत्तर देने का प्रयास किया जाता है, लगभग १ से दो दिनउत्तर आने में लग सकते है।

- लिंगपुराणमें जीवित श्राद्ध की महिमाका प्रतिपादन इस प्रकार हुआ है -ऋषियोंके द्वारा जीवच्छ्राद्धके विषयमें पूछनेपर सूतजीने कहा- हे सुव्रतो! सर्वसम्मत जीवच्छ्राद्धके विषयमें संक्षेपमें कहूँगा। देवाधिदेव ब्रह्माजीने पहले वसिष्ठ, भृगु, भार्गवसे इस विषयमें कहा था। आपलोग सम्पूर्ण भावसे सुनें, मैं श्राद्धकर्मके क्रमको और साक्षात् जो श्राद्ध करनेके योग्य हैं, उनके क्रमको भी बताऊँगा तथा जीवच्छ्राद्धकी विशेषताओंके सम्बन्धमें भी कहूँगा, जो श्रेष्ठ एवं सब प्रकारके कल्याणको देनेवाला है। मृत्युको समीप जानकर पर्वतपर अथवा नदीके तटपर, वनमें या निवासस्थानमें प्रयत्नपूर्वक जीवच्छ्राद्ध करना चाहिये। जीवच्छ्राद्ध कर लेनेके अनन्तर वह व्यक्ति कर्म करे अथवा न करे, ज्ञानी हो अथवा अज्ञानी हो, श्रोत्रिय हो अथवा अश्रोत्रिय हो, ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो अथवा वैश्य हो-अपनी जीवितावस्थामें ही योगीकी भाँति कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है। उसके मरनेपर उसका और्ध्वदैहिकसंस्कार किया जाय अथवा न किया जाय; क्योंकि वह स्वयं जीवन्मुक्त हो जाता है। यतः वह जीव जीवन्मुक्त हो जाता है, अतः नित्य-नैमित्तिकादि विधिबोधित कार्योंके सम्पादन करने अथवा त्याग करनेके लिये वह स्वतन्त्र है। बान्धवोंके मरनेपर उसके लिये शौचाशौचका विचार भी नहीं है। उसे सूतक प्रवृत्त नहीं होता, वह स्नानमात्रसे शुद्ध हो जाता है। जीवच्छ्राद्ध कर लेनेके अनन्तर अपनी पाणिगृहीती भार्यामें अपने द्वारा पुत्रकी उत्पत्ति हो जाय तो उसे अपनी नवजात सन्ततिके समस्त संस्कारोंको सम्पादित करना चाहिये। ऐसा पुत्र ब्रह्मवित्और कन्या सुव्रता अपर्णा पार्वतीकी भाँति हो जाती है, इसमें सन्देह नहीं। जीवच्छ्राद्धकर्ताक कुलमें उत्पन्न हुए लोग तथा पिता-माता भी नरकसे मुक्त हो जाते हैं। जीवच्छ्राद्धकर्ता मातृ-पितृ ऋणसे भी मुक्त हो जाता है। उसके कालकवलित होनेपर उसका दाह कर देना चाहिये अथवा उसे गाड़ देना चाहिये।* जैसे मृत्युके समय अचिन्त्य, अप्रमेयशक्तिसम्पन्न भगवन्नाम मुखसे निकल जाय अथवा मोक्षभूमिमें मृत्यु हो जाय तो उस जीवकी मुक्ति सुनिश्चित हो जाती है, उसकी सद्गतिके लिये श्राद्धादि और्ध्वदैहिक कृत्योंकी अपेक्षा नहीं होती, तथापि शास्त्रबोधित विधिका परिपालन करनेकी बाध्यता होनेके कारण उत्तराधिकारियोंको सम्पूर्ण और्ध्वदैहिक कार्य अवश्य करने चाहिये। उसी प्रकार (दायभाग ग्रहण करनेवाले) पुत्रादिको जीवच्छ्राद्धकर्ताक मरनेपर उसके उद्देश्यसे समस्त और्ध्वदैहिक कृत्योंको करना चाहिये, अन्यथा वे विकर्मरूप अधर्मके भागी होंगे। ऐसा न करनेवालेके प्रति श्रीमद्भागवतमें कहा गया है कि जो अजितेन्द्रिय व्यक्ति शास्त्रबोधित विधि-निषेधके प्रति अज्ञ होनेके कारण वेद- विहित कर्मोंका पालन नहीं करता, वह विकर्मरूप अधर्मसे युक्त हो जाता है। इस कारण वह जन्म-मरणके बन्धनसे मुक्त नहीं होता- नाचरेद् यस्तु वेदोक्तं स्वयमज्ञोऽजितेन्द्रियः। विकर्मणा ह्यधर्मेण मृत्योर्मृत्युमुपैति सः ॥ (श्रीमद्भा० ११।३।४५) व्यक्ति अपनी जीवितावस्थामें अपने कल्याणके सम्पादनमें जब प्रवृत्त होगा तो वह जीवच्छ्राद्ध करनेके लिये अपेक्षित उत्तमोत्तम देश, काल, वित्त तथा कारयिता आचार्य और अन्य अपेक्षित व्यवस्थाओंको अपनी पूरी शक्ति लगाकर सम्पादित करना चाहेगा तथा अपनी पूरी शक्ति एवं सामर्थ्यके अनुसार समस्त क्रियाओंके अविकल अनुष्ठानमें प्रवृत्त होगा। अपनी जीवितावस्थामें और्ध्वदैहिकदान, प्रायश्चित्त और श्राद्धादि कर्मोंके यथावत् अनुष्ठान कर लेनेसे उसे कृतकृत्यताकी प्रतीति होना स्वाभाविक है। ऐसी अवस्थामें निम्नलिखित अभियुक्तोक्तिके आधारपर वह मृत्युरूप महादुःखसे सर्वथा निश्चिन्त होकर प्रिय अतिथिकी भाँति मृत्युकी प्रतीक्षा करते हुए तथा सत्कर्मोंका अनुष्ठान करते हुए जीवनयापन करेगा-





नर कौन है ? मनुष्य किसे कहते है?


नर कौन है?


नित्यानुष्ठाननिरतः सर्वसंस्कारसंस्कृतः ।

वर्णाश्रम- सदाचार-सम्पन्नो 'नर' उच्यते ॥


अर्थात् नित्य कर्म करनेवाला, सब संस्कारों से पुनीत देह, और वर्ण आश्रम, एवं सदाचार से सम्पन्न व्यक्ति ही (उक्त श्लोककी परिभाषा में) नर कहा जाने योग्य है।


यूँ तो जन गणना की पुस्तक में नामाङ्कित करानेवाले अन्यून तीन अर्व नर-मनुष्य-प्रादमी आज संसार में विद्यमान हैं, परन्तु काली स्याही के साथ रजिस्टर की खाना पूरी करने मात्र से कोई व्यक्ति 'नर' प्रमाणित नहीं हो सकता किन्तु वेदादि शास्त्रों में नर की एक विशेष परिभाषा निश्चित की गई है तदनुसार तादृश आचार, विचार, व्यवहार और रहन-सहन रखनेवाला व्यक्ति ही उक्त उपाधि का वास्तविक अधिकारी हो सकता है।


यह बात सर्व विदित है कि संस्कृत देवभाषा का प्रत्येक शब्द यौगिक होने के कारण अपनी मूल धातु के अनुरूप किसी विशिष्ट अर्थ का द्योतक होता है। इस तरह संस्कृत के प्रत्येक शब्द के साथ धर्यवाङ्मय के अनेक तत्व नितरी सुसम्बद्ध

रहते हैं। जैसे—मनुष्य, मानुष, मर्त्य, मनुज, मानव और नर आदि मनुष्य शब्द के सभी पर्यायों में जहाँ मानवता का एक खास संकेत मिलता है यहां उसकी इतिकर्तव्यता का भी सुस्पष्ट आभास दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिये हम यहाँ एक दो शब्दों का दिग्दर्शन कराते हैं।


पहिले 'नर' शब्द को ही लीजिये। यह 'तृ नये' धातु से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है नयनीति सम्पन्न व्यक्ति, अथवा अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि पर नेतृत्व की क्षमता रखने वाला नेता । अब यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि वह नीति क्या है जिससे कि सम्पन्न हो जाने पर कोई व्यक्ति 'नर' बन सकता है और शरीर इंद्रिय आदि क्या हैं और उन पर शासन करने के क्या क्या उपाय किंवा अपाय हैं ? इन सब प्रश्नों का साङ्गोपाङ्ग रहस्य जानने के लिये वेद से लेकर हनुमान चालीसा पर्यन्त समस्त प्रासाहित्य का आलोड़न करना होगा। इस तरह संस्कृत भाषा के किसी भी एक शब्द का अनुसन्धान करने पर समस्त शास्त्र उसी का उपबृंहण जान पड़ेंगे।

इसी प्रकार 'मनुष्य' शब्द भी 'मनु ज्ञाने' और 'सिदु तन्तु सन्ताने' इन दो धातुओं से निष्पन्न माना है। निरुक्तकार यास्काचार्य इसका निर्वचन करते हुए लिखते हैं कि-


'मत्वा कर्माणि सोव्यन्ति इति मनुष्याः (निरुवत 


अर्थात् जो व्यक्ति (मत्वा) मनन विवेकपूर्ण (कर्माणि) = समस्त क्रिया कलाप को (सीव्यन्ति) सीते हैं कटे फटे एक दूसरे से जुदा हुए मानव समाज को विधिवत् सुसंगठित बनाते हैं ये 'मनुष्य' कहे जाते हैं ।

तात्पर्य यह हुआ कि जिस व्यक्ति की समस्त हलचल ज्ञान पर आधारित हो, जो पहिले समझता है और फिर करता है- पहिले तोलता है फिर बोलता है-पहिले सोचता है फिर कदम उठाता है- वही बुद्धिजीवी जन्तु 'मनुष्य' पदवी का अधिकारी है।


तत्तत् कार्य कलाप की औौचित्य किंवा अनौचित्य सीमा को निर्धारित करने वाले मानबिन्दु का ही अपर नाम 'मर्यादा' है । मर्यादा का पालन करने वाला जन्तु ही तादृश आचरण के प्रताप से अपने जन्मजात पाशविक दुर्गुणों से उन्मुक्त हो जाने के कारण 'नर' बन जाता है।

जय सीताराम ।

ईश्वर कौन है ईश्वर कैसा है?



जैसे मानव पिण्ड जड़ तथा स्थूल है और उसमें रहने वाला जीव चेतन और सूक्ष्म है ठीक इसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड जड तथा स्थूल है किन्तु तद् व्यापक परमात्मा चेतन और सूक्ष्म है। अन्तर केवल इतना है कि साढ़े तीन हाथ के मानव पिण्ड में रहने वाले चेतन का नाम 'जीव + आत्मा' है और एक अर्व योजन प्रमाण वाले ब्रह्माण्ड में रहने वाले चेतन का नाम 'परम + आत्मा' है एक के साथ 'जीव' विशेषण लगा है दूसरे के साथ परम' विशेषण लगा है। यदि दोनों विशेषरणों को हटा 'दिया जाए तो 'आत्मा' अण्ड और पिण्ड दोनों में समान है यही विशिष्ट अर्द्धतवाद का मौलिक रहस्य है। इसलिए जो यह पूछता है कि ईश्वर के अस्तित्व में क्या प्रमाण है ? मानो यह


ईश्वर कहाँ रहता है और कैसा है ?




अपनी ही सत्ता में स्वयं संदेह करता है। इसलिये 'ईश्वरसद्भावे किं मानम्' का अण्ड पिण्ड-वाद' सिद्धान्त के अनुसार सीधा उत्तर हुवा कि sexसद्भावे त्वमेव प्रमाणम्' । इसी ढंग से इस सम्बन्ध के अन्यान्य प्रश्नों को क्षण मात्र में समाहित किया जा सकता है, यथा-


ईश्वर कहां रहता है ?


( स श्रोतः प्रोतश्च विभुः प्रजासु )


ईश्वर कहां रहता है ? ऐसा प्रश्न करने वाले को कहो कि


'तुम' कहां रहते हो ? उत्तर में पूर्व प्रदर्शित शङ्का-समाधान के


अनुसार उसे अन्ततो गत्वा यही कहना पड़ेगा कि 'मैं' नामक


मेरा चेतन मेरे इस पिण्ड में सर्वत्र व्यापक है, बस ! उसे भी कह


दो कि जैसे- 'तुम' इस पिण्ड में सर्वत्र हो, ठीक इसी प्रकार


ईश्वर भी इसी ब्रह्माण्ड में सर्वत्र ताने बाने की तरह स्रोतप्रोत है।


ईश्वर कैसा है ?


तुम कैसे हो ?' मैं तो शरीर की दृष्टि से जड़ हूँ और जीव की दृष्टि से चेतन हूँ, अर्थात् मेरा शरीर जड़ है और आत्मा चेतन है। इन दोनों के संघात का नाम 'मैं' हूं। कह दो कि बस ठीक इसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड जड़ है और इस में व्यापक परमात्मा चेतन है। दोनों के संघात का नाम ईश्वर है, 'हरिश्व जगद् जगदेव हरिः ।




इसी प्रकार स्थूल सूक्ष्म, विपरिणामी शाश्वत् अनित्य-नित्य आदि २ समस्त विशेषणों को पिण्ड की भान्ति ब्रह्माण्ड पर और जीव की भान्ति परमात्मा पर घटाया जा सकता है।


ईश्वर दीखता क्यों नहीं ?


( न तत्र चक्षु गच्छति )


'तुम' क्यों नहीं दीखते ? - अर्थात् जैसे तुम्हारा पिण्ड दीखता है परन्तु तद् व्यापक चेतना नहीं दीखता तथापि उसकी सत्ता में कभी सन्देह नहीं होता, ठीक इसी प्रकार जब ब्रह्माण्ड दीखता है, तब तद् व्यापक चेतन के न दीखने पर उसमें सन्देह क्यों ? जैसे पिण्ड की नानाविध चेष्टाओं से तद्गत चेतन का अनुमान होता है ठीक इसी प्रकार ब्रह्माण्ड गत अनेक अमानवीय चमत्कारों द्वारा तद्गत चेतन का सुतरां अनुमान होता है इसी लिये न्यायदर्शन में लिखा है कि-


नानुमीयमानस्य प्रत्यक्षोऽनुपलब्धिरभावहेतुः ।


(न्यायदर्शन ३ । १ ३४)


अर्थात् जो प्रत्यक्ष न दीखता हो परन्तु अमुक कारण से

जिसकी सत्ता का अनुमान किया जा सकता हो उस पदार्थ का अभाव नहीं माना जा सकता ।


ईश्वर का रूप रंग तोल वजन ?


अरूप: सर्वरूपधृक् )


'तुम्हारा रूप रङ्ग तोल बजन है या नहीं ?- जैसे मानव


परमात्मा निराकार है या साकार ?

पिण्ड का रूप रङ्ग तोल वजन सब कुछ है परन्तु तद्गत चेतन का रूप रङ्ग तोल बजन कुछ नहीं, ठोक इसी प्रकार विराट के शरीर भूत इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु का तोल वजन रङ्ग रूप सब कुछ है, परन्तु तद्गत चेतन का रूप रंग तोल वजन कुछ नहीं ।


परमात्मा निराकार है या साकार उभयं वा एतत्प्रजापतिः )


'तुम' निराकार हो या साकार ? - जैसे साकार पिण्ड और निराकार जीव दोनों के संघात का नाम 'तुम' हो, ठीक इसी प्रकार साकार ब्रह्माण्ड और निराकार तदुव्यापक चेतन दोनों के संघात का नाम भगवान् है इनमें केवल अन्तर इतना है कि सर्व साधारण जीव अल्प शक्ति होने के कारण अपने नानाविध रूप बनाने में असमर्थ है परन्तु परमात्मा सर्व-शक्तिमान् होने के कारण जब जैसा चाहे रूप धारण कर सकता है। कदाचित् जीव भी योग साधना द्वारा परमात्मा से नैकट्य स्थापन कर ले तो वह भी लोकान्तर-गमन, परकाय प्रवेश, अनेक शरीर बनाना आदि सिद्धियों का स्वामी वन सकता है- यह हमारे 'पुराण- दिग्दर्शन' में द्रष्टव्य है ।


वस्तुतः 'निराकार' शब्द ही परमात्मा के साकार होने


में प्रबल प्रमाण है, क्योंकि 'निराकार' शब्द का अक्षरार्थ है


कि निर्गत प्राकारो यस्मात् अर्थात्-निकल गया है, पृथक


हो गया है- प्राकार जिससे । 'निरादयः कान्ताद्य पंचम्या


प्र. निर् आदि उपसर्ग क्रान्त आदि अर्थों में पञ्चमी विभक्ति से समस्त हो जाते हैं। इस व्याकरण नियम के अनुसार आकार तभी पृथक हो सकता है जबकि वह पहिले विद्यमान हो। जैसे- पहिले से ही दिगम्बर (नग्न) पुरुष से कपड़े छीनने की बात उपहासास्पद है, ठीक इसी प्रकार यदि परमात्मा में कोई आकार विद्यमान ही नहीं था तो फिर उससे वह जुदा कहाँ से हो गए ? इसलिये परमात्मा पहिले साकार होता है फिर निराकार बनता है। सृष्टि के आदि में ब्रह्माण्ड के ये सब दृष्ट साकार पदार्थ परमात्मा में समाए रहते हैं अतः वह साकार कहाता है, ज्यों ही सृष्टि होने लगती है तो ये सब आकार उससे पृथक हो कर ब्रह्माण्ड रूप में परिणत हो जाते हैं और वह 'दादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि' के अनुसार एक चौथाई में समस्त ब्रह्माण्डों की रचना करके बारह थाने में स्वयं बना रहता है। इसलिये निराकार और साकार का प्रश्न करने वाला व्यक्ति वस्तुतः इन दोनों शब्दों के अक्षरार्थ से भी अनभिज्ञ होता है, अर्थ पुरुष को यह शङ्का ही नहीं हो सकती ।

शम्बूक वध क्यो आवश्यक था ?




भगवान राम ने शम्बूक का वध क्यों किया था?


 ‘ श्राीराम का आचरण इतना शुद्ध, निष्ठापूर्ण और धर्मानुसार था कि उनकी प्रजा को दुख, दरिद्रता, रोग, आलस़्य, असमय मृत्यु जैसे कष्ट छू भी नहीं पाते थे।।

अतः इसी अनुसार रामराज्य की अवधारणा बनी है।

इसी कारण सभी लोग रामराज्य की कामना करते है।

   एक दिन अचानक एक ब्राह्मण रोता-बिलखता उनके

 राजदरबार में आ पहुंचा।

श्रीराम ने ब्राह्मण से जब उसके रोने का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसके तेरह वर्ष के पुत्र की असमय मृत्यु हो गई। यह राम के राज्य में अनोखी और असंभव-सी घटना थी क्योंकि ‘राम-राज्य’ में तो इस तरह का कष्ट किसी को नहीं हो सकता था। दुखी ब्राह्मण ने श्रीराम पर आरोप लगाया कि उनके राज्य में धर्म की हानि हुई है और उसी के चलते उसके पुत्र की असमय मृत्यु हो गई। ब्राह्मण कहता है कि राज्य में धर्म की उपेक्षा और अधर्म का प्रसार होने का फल प्रजा को भुगतना पड़ रहा है और उस पाप का छठा भाग राजा के हिस्से में आता है। इसलिए राज्य में होने वाले पाप के लिए राजा राम उत्तरदायी हैं।


मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से यह आरोप सहन नही होता। वह देवर्षि नारद समेत कुछ दूसरे सिद्ध ऋषियों को बुलाकर इस समस्या पर विचार करते हैं और ब्राह्मण के पुत्र की असमय मृत्यु का कारण पूछते हैं।

नारद के अनुसार, राम-राज्य में बालक की मृत्यु से यह पता चलता है कि राज्य में कोई ऐसा व्यक्ति तपस्या कर रहा है जो नियमानुसार तपस्या करने का अधिकारी नहीं है। चूंकि त्रेता में तपस्या का अधिकार केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय को है, इसलिए इनके अलावा कोई भी दूसरा व्यक्ति तपस्या करता है तो वह अधर्म माना जाएगा और उसके प्रभाव से राजा को अपयश और पाप का भागी बनना पड़ेगा। इसलिए ऐसा अधर्म रोकने का नैतिक दायित्व राजा राम का है। नारद सुझाव देते हैं कि राम अपने राज्य का दौरा कर तुरंत उस व्यक्ति को खोजें।


राम उस अज्ञात दुष्कर्मी को दंड देने के इरादे से अस्त्र-शस्त्र लेकर निकल पड़ते हैं। आखिर में वह दक्षिण में शैवल पर्वत के पास पहुंचते हैं। वहां एक सरोवर के पास सिर नीचे लटकाए एक तापस मिल जाता है। राम उसका परिचय, जाति और तपस्या करने का कारण पूछते हैं। तापस कहता है, 'श्रीराम! मेरा नाम शम्बूक है। मैं शूद्र जाति का हूं लेकिन तपोबल से सशरीर देवलोक जाना चाहता हूं।'


शम्बूक के इतना कहते ही श्रीराम ने तलवार निकाली और शम्बूक का सिर धड़ से अलग कर दिया। देवलोक से फूलों की वर्षा हुई और देवताओं ने राम के इस धर्म-सम्मत कार्य से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान मांगने को कहा। राम ने देवताओं से ब्राह्मण के पुत्र को दोबारा जीवित करने को कहा तो देवताओं ने सहर्ष उनकी बात मान ली। ब्राह्मण का पुत्र जीवित हो उठा। इससे पता लगता है कि देवताओं ने श्रीराम के हाथों शम्बुक की हत्या का पूरा समर्थन किया।



पद्मपुराण (सृष्टिखण्ड अध्याय ३२।८९ तथा उत्तरखण्ड अध्याय २३०।४७) में भी देवताओं के बरदान से द्विज-पुत्र के जीवित होने का उल्लेख है महाभारत शान्तिपर्व में कहा गया है कि

 "श्रूयते शम्बुके शूद्रे हते ब्राह्मणदारकः

जीवितो धर्ममासाद्य रामात् सत्यपराक्रमात् ॥

(महाभारत  (१२।१४९।६२)

इसमें देवताओं के बरदान से नहीं किन्तु राम के धर्म से द्विजपुत्र का पुनर्जीवन होना माना गया है।

आनन्दरामायण के अनुसार मृत बालक के माता-पिता को प्रीतिपूर्वक कहा गया था कि यदि उनका पुत्र पुनर्जीवित न होगा तो उन्हें और लव और कुश मिल जायेंगे । 

ब्राह्मण ही नहअयोध्या में पांच शव और एकत्रित हो गये मे एक क्षत्रिय, एक वैश्य,एक तेली, एक लुहार की पुत्रवधु, एवं एक चमार। राम ने जैसे ही शंबूक को मारा सब जीवित हो गये। 

राम ने पहले शंबूक को बरदान दिया। उसने अपने उद्धार के अतिरिक्त अपनी जाति के लिए सद्गति मांगी। राम मे रामनाम का जप और कीर्तन शूद्रो की सद्गति का उपाय बताया। यह भी कहा कि सूद्र लोग आपस में मिल कर एक दूसरे से मिलते हुए नमस्कार के रूप में राम राम कहेंगे। इससे उनका उद्धार होगा। तुम भी मेरे हाथ से मरकर बैकुण्ठ जाओगे।


वेदादि शास्त्रोक्त कर्म ही धर्म है। यह


" तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।" (गीता १६।२४ )


"चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः ।" ( मीमांसा  दर्पण १।१।१२ )


आदि से स्पष्ट है। तदनुसार चातुवर्ण्यधर्म के विपरीत आचरण अधर्म है। राम ने शम्बूक शुद्र को ही नहीं धर्मविपरीत ब्राह्मण रावण को भी प्राणदण्ड दिया था। अतः उनकी निष्पक्षता स्पष्ट है । धर्म पर चलनेवाले वानरों, भालुओं, गीध, काक तथा कोल, भिल्ल, किरात, निषाद आदि सबका ही आदर किया था। कोई भी कर्म अधिकारानुसार ही पुण्य हो सकता है। अनधिकारी का वेदाध्ययन, यश और तप भी पाप ही होता है। संन्यासी के स्वर्ण, ब्रह्मचारी को ताम्बूल तथा चोर को अभय का दान पाप ही है-.


"यतये काश्चनं दत्त्वा ताम्बूलं ब्रह्मचारिणे । 

चौराय चाभयं दत्वा दातापि नरकं व्रजेत् ॥”

 

एक यातायात सिपाही का अपना काज छोड़कर किसी शिष्ट की रक्षा जैसे अच्छे काज में लगना भी अपराध है । स्वकर्तव्य में निष्ठा ही धर्म है-


"स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि ं लभते नरः ।" ( गीता० १८।४५ )


"स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः ।


विपरीतस्तु दोषः स्यादुभयोरेष निश्चयः ॥” ( पुराणवचन )


यातायात सिपाही के अन्यकार्याभिमुख होने पर यदि मोटर आदि का एक्सीडेन्ट हो जाय तो इसका उत्तरदायित्व सिवा सिपाही के किसके ऊपर होगा ? वह एक मनुष्य को बचाने के लिए अपने कर्तव्य से विमुख होता है तो नियन्त्रण न होने से अनेक एक्सीडेन्ट हो सकते हैं। सैकड़ों शिष्टों का जीवन संकटग्रस्त हो सकता है। अतः स्वधर्मविमुख अवश्य ही दण्डनीय है ।


एक न्यायाधीश के सामने किसी हत्यारे का हत्या का अपराध सिद्ध हो जाने पर न्यायाधीश का कर्तव्य है कि उसे प्राणदण्ड का आदेश दे, फिर भले ही उसके बूढ़े माँ बाप तथा युवती स्त्री एवं दुधमुंहे बालकों का जीवन खतरे में पड़ जाय । यदि शम्बूक के समान कोई स्वास्थ्य अधिकारी ( हेल्थ डिपार्टमेण्ट का अधिकारी ) सफाई का इन्चार्ज अपने पद का चार्ज बिना दिये तपस्या में बैठ जाय और सफाई की गड़बड़ी से प्लेग, कालरा आदि फैलने से ब्राह्मण आदि वर्णों के बालक मर जाये तो स्पष्ट ही इसका उत्तरदायित्व उसी पर है। जो अपना काम छोड़कर तप में बैठा है। हरएक समझदार उसके लिए प्राणदण्ड उचित हो समझेगा । कर्तव्यपालन को उपेक्षा का दुष्परिणाम सर्वप्रसिद्ध ही है । शास्त्रों में तप का विधान चतुर्थ वर्ग के लिए नहीं है। वैदिक चातुर्वर्ण्यधर्म का उल्घंन करने के कारण ही ब्राह्मण रावण और शुद्ध शम्बूक दोनों को दण्ड दिया गया था। कोई भी बुद्धिमान् यह भलीभांति समझ सकता है कि जैसे ब्राह्मण अपना कर्म छोड़कर शूद्र का कर्म करे तो अपराधी होगा वैसे ही शूद्र अपना कर्म छोड़कर ब्राह्मण का कर्म करने पर अपराधी क्यों न होगा ? और जो अपराधी है उसे दण्ड तो मिलेगा ही।

जय जय सीताराम।

पं. राजेश मिश्र "कण"


शिलान्यास विधि Shilanyas Vidhi

 




|| शिलान्यासविधिः ||


शिला स्थापन करने वाला यजमान निर्माणाधीन भूमि के आग्नेय दिशा में खोदे गये भूमि के पश्चिम की ओर बैठकर आचमन प्राणायाम आदि करे। तदनन्तर स्वस्ति वाचन आदि करते हुए संकल्प करे।


देशकालौ संकीर्त्य अमुकगोत्रोऽमुकशाऽहं करिष्यमाणस्यास्य वास्तोः शुभतासिद्धयर्थं निर्विघ्नता गृह-(प्रासाद)-सिद्धयर्थमायुरारोग्यैश्वाभिवृद्ध्यर्थ च वास्तोस्तस्य भूमिपूजनं शिलान्यासञ्च करिष्ये तदङ्गभूतं श्रीगणपत्यादिपूजनञ्च करिष्ये।


गणेश, षोडशमातृका, नवग्रह आदि का पूजन करे।


इसके बाद आचार्य


ॐ अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूमिसंस्थिताः


ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ।।99


इस मंत्र से पीली सरसों चारों ओर छींटकर पंचगव्य से भूमि को पवित्र कर वायुकोण में पांच शिलाओं को स्थापित करे। इसके बाद सर्पाकार वास्तु का आवाहन कर

ध्यान:-

ॐ वास्तोष्पते प्रतिजानीह्यस्मान्स्वावेशोऽदमीवो भवा नः।।


यत्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ।।



षोडशोपचार से पूजा कर दही और भात का बलि दे पुनः नाग की पूजा करे-

ध्‍यान-

ॐ वासुकि धृतराष्ट्रञ्च कर्कोटकधनञ्जयौ ।


तक्षकैरावतौ चैव कालेयमणिभद्रकौ ।।


इससे आठों नागों के लिए पृथक्-पृथक् अथवा एक ही साथ नाम मंत्रों से आवाहन पूजन करें। पुनः धर्म रूप वृष का आवाहन पूजन कर हाथ जोड़कर प्रार्थना करें-

ध्यान-:

ॐ धर्मोसि धर्मदैवत्यवृषरूप नमोस्तु ते ।


सुखं देहि धनं देहि देहि 7 ।।


गृहे गृहे निधिं देहि वृषरूप नमोस्तु ते ।


आयुर्वृद्धिं च धान्यं च आरोग्यं देहि गेहयोः।।


आरोग्यं मम भार्याया पितृमातृसुखं सदा ।


भ्रातृणां परमं सौख्यं पुत्राणां सौख्यमेव च ।।


सर्वस्वं देहि मे विष्णो! गृहे संविशतां प्रभो!।


नवग्रहयुतां भूमिं पालयस्व वरप्रद! ।।


पुनः पञ्चशिलाओं को-


ॐ आपः शुद्धा ब्रह्मरूपाः पावयन्ति जगत्त्रयम् ।


चाभिरद्भिः शिला स्नाप्य स्थापयामि शुभे स्थले ।


यह पढ़कर शुद्ध जल से धो दें। पुनः


ॐ गजाश्वरथ्यावल्मीकसद्भिर्मुद्भिः शिलेष्टकान्


प्रक्षालयामि शद्ध्यर्थं गृहनिर्माणकर्मणि ।।


इसे पढ़कर सप्तमृतिका से प्रक्षालन करें।


पुनः पञ्चगव्य, दही और तीर्थ के जल से धोकर शुद्ध वस्त्र से पोंछ दें और उन शिलाओं का कुंकुम चन्दन से लेपन कर स्वस्तिक चिह्न बनाकर वस्त्र से ढककर मन्त्र पढ़ें-


ॐ नन्दायै नमः

ॐ भद्रायै नमः

ॐ जयायै नमः

ॐ रिक्तायै नमः

ॐ पूर्णायै नमः

उन शिलाओं के आगे इन पांचों कुम्भों (घड़ा) की स्थापना करे-


ॐ पद्माय नमः

ॐ महापद्माय नमः

ॐ शंखाय नमः

ॐ मकराय नमः

ॐ समुद्राय नमः

उसके बाद आचार्य गड्डे की भूमि को लेपकर कछुआ के पीठ के ऊपर स्थित श्वेत वर्ण वाले चार भुजाओं में पद्म, शंख, चक्र और शूल धारण किये भूमि का ध्यान करे।


कूर्माय नमः इति कूर्ममम्

ॐ अनन्ताय नमः इति अनन्तम्

ॐ वराहाय नमः इति वराहम्

इस प्रकार आवाहन, पूजन कर दोनों घुटनों से पृथ्वी का स्पर्श कर जल, दूध, तिल, अक्षत जौ, सरसों और पुष्प अर्घ्य पात्र में रखकर भूमि के के निमित्त मंत्र से अर्घ्य दें-


ॐ हिरण्यगर्भे वसुधे शेषस्योपरि शायिनि ।


उद्धृतासि वराहेण सशैलवनकानना ।।

प्रासादं (गृहं वा) कारयाम्यद्य त्वदूर्ध्न शुभलक्षणम् ।।

गृहाणार्घ्य मया दत्तं प्रसन्ना शुभदा भव ।।;

भूम्यै नमः इदमर्घ्य समर्पयामि ।


पुनः आम्र या पलाश के पत्ते के ऊपर दीपक सहित घी और भात की बलि देकर प्रार्थना करे-

ॐ समुद्रमेखले देवि पर्वतस्तनमण्डले ।

विष्णु-पलि नमस्तुभ्यं शस्त्रपातं क्षमस्व मे ।।

इष्टं मेत्वं प्रयच्छेष्टं त्वामहं शरणं गतः।


पुत्रदारधनायुष्य-धर्मवृद्धिकरी भव ।।


पुनः गड्ढे में तेल डालकर उसके ऊपर सफेद सरसों छोड़े।मन्त्र-


ॐ भूतप्रेतपिशाचाद्या अपक्रामन्तु राक्षसाः।


स्थानादस्माद्वजन्त्वन्यत्स्वीकरोमि भूवं त्विमाम्।।


उसके ऊपर दही लिपटा चावल उड़द की बलि देकर उसके ऊपर 7 पत्ते स्थापित कर एवं उसके ऊपर बारह अंगुलि लोहे की कील गाड़ दे। 

मन्त्र-

ॐ विशन्तु भूतले नागाः लोकपालाश्च सर्वतः।

अस्मिन् स्थानेऽवतिष्ठन्तु आयुर्बलकराः सदा ।।

उसके ऊपर मधु, घी, पारद, सुवर्ण (अथवा रुपया) ढके हुए मुख वाले ताम्र आदि से निर्मित पद्म नामक कुम्भ में पञ्चरत्न रख, चन्दन लगाकर वस्त्र लिपटाकर मध्य में रख दे तथा उस पर नारियल भी रख दे।


इसी प्रकार पूर्व आदि दिशाओं में चार घड़ा स्थापित करे।



पूर्वादि के क्रम से महापद्म 2, शंख 6, मकर 4, समुद्र 5, की पूजा कर कुम्भ के बराबर मिट्टी देकर अक्षत छोड़े। पुनः अच्छे मुहूर्त में सुपूजित ‘पूर्णा’ नामक ईंट स्थापित करे।

मन्त्र-

पूर्णे त्वं सर्वदा भद्रे! सर्वसन्दोहलक्षणे ।

सर्व सम्पूर्णमेवात्र कुरुष्वाङ्गिरसः सुते ।।

तदनन्तर पूर्व दिशा में-

ॐ नन्दे त्वं नन्दिनी पुंसां त्वामत्र स्थापयाम्यहम् ।

अस्मिन् रक्षा त्वया कार्या प्रासाद यत्नतो मम ।।

तदनन्तर दक्षिण दिशा में-

ॐ भद्रे! त्वं सर्वदा भद्रं लोकानां कुरु काश्यपि ।

आयुर्दा कामदा देवि ! सुखदा च सदा भव ।।


पश्चिम दिशा में-

ॐ जये ! त्वं सर्वदा देवि तिष्ठ त्वं स्थापिता मया ।

नित्यं जयाय भूत्यै च स्वामिनो! भव भार्गवि!।।


उत्तर दिशा में-

रिक्ते त्वरिक्तेदोषघ्ने सिद्धिवृद्धिप्रदे शुभे!।

सर्वदा सर्वदोषने तिष्ठास्मिन्मम मन्दिरे ।।


इस मंत्र से स्थापित कर पूर्णादि नाम मन्त्रों से गन्धादि द्वारा पूजा करें।


पुन: चारों ओर दिक्पालों की पूजा कर दीपक के साथ दही, उड़द एवं भात की बलि दे।


विश्वकर्मणे नमः


इस प्रकार आयुध की पूजा कर प्रार्थना करे-


ॐ अज्ञानाज्ज्ञानतो वापि दोषाः स्युश्च यदुद्भवाः।


नाशयन्त्वहितान्सर्वान् विश्वकर्मन्नमोऽस्तु ते ।।


उसके बाद फावड़े की पूजा कर प्रार्थना करे-


ॐ त्वष्ट्रा त्वं निर्मितः पूर्व लोकानां हितकाम्यया ।


पूजितोऽसि खनित्र ! त्वं सिद्धिदो भव नो ध्रुवम् ।।


वाष्पोष्पति, मृत्युञ्जय आदि देवताओं के जप हेतु प्रतिज्ञा संकल्प करे


अद्येत्याधुक्त्वा अनवधिवर्षावच्छिन्नबहुकालपर्यन्तं पुत्रकलत्रारोग्यधनादिसमृद्धिप्राप्तिकामो गृहनिर्माणार्थ कर्त्तव्यशिलास्थापनाङ्गत्वेन वास्तुदेवतामृत्युञ्जयादिप्रसादलाभाय यथासंख्यापरिमितं ब्राह्मणद्वारा जपमहं कारयिष्ये।


वरण सामग्री लेकर-


अद्येत्यादि गृहनिर्माणार्थ कर्तव्यशिलास्थापनांगभूतब्राह्मणद्वारावास्तोष्पतिमृत्युंजयजपं कारयितुमेभिर्वरणद्रव्यैरमुकामुकगोत्रान् अमुकामुकशर्मणः ब्राह्मणान् जापकत्वेन युष्मानहं वृणे ।


तदनन्तर मिष्ठान वितरण करे।


इति शिलान्यासविधिः।




राधा कृष्ण का संबंध क्या है

 

श्रीराम ।
बहुत से लोग राधा को काल्पनिक कहते है। कुछ राधाजी को श्रीकृष्ण की पत्नी मानने से इंकार करते है। कुछ लोग राधा का वृंदावन से संबंध होने पर सशंकित है।

इसलिये अब हम यथापूर्व वेदादि शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा राधाकृष्ण की जुगल जोड़ी का निरूपण करते हैं :-

-

वैदिक-स्वरूप

(क) राधे ! विशाखे ! सुहवानु राधा (ख) इन्द्रं वयमनुराधं हवामहे | ( १२/१५२)

(अथर्व० ११७३)

अर्थात् (क) हे राधे ! हे विशाले! श्री राधाजी हमारे लिये सुखदाविती हों। (ख) हम सब भक्तजन राचासहित श्रीकृष्ण भगवान की स्तुति करते हैं।

पौराणिक - स्वरूप

- (ख) तद्वामांशसमुद्भूतं गौरं तेजः स्फुरत्प्रभम् । लीला ह्यतिप्रिया तस्य तां राधां तु विदुः परे ॥

(क) त्वं ब्रह्म चेयं प्रकृतिस्तटस्था, कालो यदेमां च विदुः प्रधानम् । महान्यदा त्वं जगदङ्करोऽसि, राधा तदेयं सगुणा च माया ॥

(गर्गसंहिता गो० १६ । २५ )

(गर्गसंहिता गो० ९ । २३ )

(ग) परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् । असंख्य ब्रह्माण्डपतिर्गोलोकेशः परात्परः ।।

(गर्गसंहिता गो० १५ ५२-५३ )

(घ) श्रीकृष्णपटराज्ञी या गोलोके राधिकाऽभिघा । त्वद्गृहे सापि संजाता त्वं न जानासि तां पराम् ।।

( गगं० गो० १५ ५६ )

(ङ) राधाकृष्णेति हे गोपा ये जपन्ति पुनः पुनः । चतुष्पदार्थः किं तेषाँ साक्षात्कृष्णोऽपि लभ्यते ॥

( गगं० गो० १५। ७१ )

(च) ये राधिकायां मयि केशवे मनाक्, भेदन पश्यन्ति हि दुग्धशौक्लवत् ।

त एव मे ब्रह्मपदं प्रयान्ति त दहेतु कस्फूर्जितभक्तिलक्षणाः ॥

( ० वृ० १२ । ३२ ) पर्थ - ( क ) [ देवगण स्तुति करते हुए कहते हैं कि ] हे भगवन् !" आप साक्षात् ब्रह्म हैं और श्री राधाजी आपकी तटस्थ प्रकृति हैं। आप काल है यह प्रधान माया है। जब भाप महदादिक गुण होकर जगत् के अंकुर (बीज) होते हो तब यह सगुण माया है । (ख) भगवान् के वाम भाग से उत्पन्न होने वाला जो प्रभायुक्त गौर तेज है वह भगवान् को aata प्रियतमा सीला है जिसे भक्तजन श्रीराधा कहते हैं। (ग) श्रीकृष्ण जी परिपूर्णतम स्वयं भगवान् हैं और अगणित ब्रह्माण्डों के पति एवं गोलोक के सर्वोपरि अधिष्ठाता है। (घ) [ नारदजी कहते हैं, कि है वृषभानो ! ] गोलोक में श्रीकृष्ण भगवान् की 'राधा' नामक जो पटरानी है वही तुम्हारे घर में उत्पन्न हुई है तुम उसका भेद नहीं जानते। (ङ) हे गोपगण ! जो लोग 'राधाकृष्ण' ऐसा जाप करते हैं चार पदार्थों का तो कहना ही क्या है साक्षात् कृष्ण भगवान् भी उनको प्राप्त हो जाते हैं। (च) दूध और उसकी सफेद कान्ति की तरह जो लोग मुझ कृष्ण में और श्री राधिका जी में भेद नहीं देखते हैं अर्थात् एक ही समझते हैं वे ही ज्ञानीजन ब्रह्मपद को प्राप्त होते हैं ।

इस प्रकार वेदादि ग्रन्थों में श्रीकृष्ण भगवान् को ब्रह्म और श्री राधिका जी को विशुद्ध प्रकृति के नाम से स्मरण किया गया है। उपर्युक्त सिद्धान्त के समर्थक सहस्रों प्रमाण आर्ष ग्रन्थों में भरे पड़े पड़े हैं, जो इस लघु कलेवर लेख में उध्दृत करना न केवल असम्भव हैं, अपितु अनावश्यक भी हैं

प्राचीन भाष्यों में राधा और कृष्ण

हमारी पूर्वोक्त स्थापना को पढ़कर कदाचित् किसी महाशय को 'कोरी कल्पना' कहने का अवसर न मिले एतदर्थं हम 'गोपालसहस्रनाम' नामक प्रसिद्ध स्तोत्र के पं० दुर्गादत्त कृत प्राचीनतम संस्कृत भाष्य के कुछ उद्धरण यहां उद्धृत करते हैं जिससे पाठक यह अनुमान कर सकेंगे कि राधा और कृष्ण का प्रकृति और पुरुष के रूप में अनादि काल से उल्लेख विद्यमान है, यथा-

राधयति साधयति — उत्पादनरूपेण सृष्टिकार्याणीति

राधा प्रकृतिः" । कृषिर्भवाचकः शब्दो पश्च निवृति- वाचकः तयोरेवयं परब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ॥

अर्थात् उत्पादन रूप से सृष्टि कार्यों के सम्पादन करने वाली होने से श्रीराधा प्रकृति रूपा हैं तथा 'कृष्' शब्द सत्ता का वाचक है और 'ए' शब्द आनन्द वाचक है। इन दोनों की एकता सत् आनन्द-रूप परब्रह्म 'कृष्ण' शब्द का अर्थ है। इन्ही ब्रह्म और पाक्तिरूपा प्रकृति के रूप में श्रीराधा-कृष्ण के सहस्रनाम 'गोपालसहस्रनाम' में लिखे हैं। गया-

राधारतिसुखोपेतो राधामोहनतत्परः ।

राधावशीकरो राधाहृदयाम्भोजषट्पदः ॥

( दौगिभाष्य) राधाया- उपादानभूतायाः प्रकृत्या: ( प्रकृति- माधित्येति व्यव लोपे पञ्चमी) या रतिः सृष्टिक्रियारूपाक्रीडा तंत्र स्वरूप भूतेनानन्ताख्येनोपेतः । श्रत्र रतिशब्दः सृष्टिक्रियावचनः "स के ने रेमे" इत्यादि बृहदारण्यकश्रुत्या सृष्टि-क्रियाया ब्रह्मणः क्रोडारूपेण प्रतिपादितत्वात् । राधायाः प्रकृत्या यो मोहनो मोहोत्पादको गुणस्तत्र तस्मात् परस्तत्परः । राधायाः प्रकृतेबंशी-करस्तदपोश्वर इत्यर्थ । राधायाः प्रकृतेपद हृदयं हृदयाजित महदहङ्कारादिकार्यं तदेवाम्भोजं कारणसलिलोत्पन्नत्वात् षट्पदो भ्रमर इव तद्रहस्य रूपरसज्ञ इत्यर्थः ।

अर्थात् — श्री गोपाल ( कृष्ण ) जो राधा अर्थात् उत्पादन रूप प्रकृति का आश्रय लेकर जो सृष्टि-क्रिया रूप ( पति) क्रीड़ा उसमें स्वरूपभूत सुख से मुक्त है। अर्थात सांसारिक पदार्थों में जो कुछ सुख है वह परमात्मा का ही है। यहां रति शब्द क्रीडारूप सुष्टिवाचक है, क्योंकि "स वै नैव रेमे इत्यादि वृहदारण्यकश्रुति द्वारा सृष्टिनिया को ब्रह्म की क्रीड़ारूप से प्रतिपादन किया है। राधा प्रकृति का जो मोहन जीवों को मोह में डालने वाला गुण है उससे वे पर है अर्थात् प्राकृतिक पदार्थ उनको मोह में नहीं डाल सकते। वे राधा अर्थात् प्रकृति को वश में रखने वाले है। अर्थात् उसके अधीश्वर हैं।

अब अधिक विस्तार न करते हुए आगे राधा और कृष्ण के संबंध को अधिक स्पष्ट करते है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण सृष्टि खण्ड में इस प्रकार वर्णन है कि
आविभूव कन्येका कृष्णस्य वामपार्श्वतः । धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्षं प्रभोः पदे ॥ तेन राधा समाख्याता पुराविद्भिर्द्विजोत्तम । प्राणाधिष्ठात्री सा देवी कृष्णस्य परमात्मनः ।।

( २५ । २६ । २६ )

अर्थात् परमात्मा कृष्ण से बाएं ब्रज से एक कमनीया स्त्री उत्पन्न

हुई। उसने भगवान् कृष्ण के चरणों को धोकर फूल लाकर अर्घ्य दिया,

विद्वानों ने उसका नाम ( आराधनात् ) राधा कहा है। वह कृष्ण की प्राणादिष्ठात्री देवी थी। प्रत्यत्र कहा है- योगेनात्मा सृष्टिविध द्विधारूपो बभूव सः । पुमांश्च दक्षिणार्द्धाङ्गो वामाङ्गः प्रकृतिः स्मृतः ॥

( ब्रह्म वे० प्रकृ० [सं० आ० १२ श्लो० ६) अर्थात् परमात्मा श्रीकृष्ण सृष्टि रचना के समय दो रूप वाले हो गये । दाहिना आधा अङ्ग पुरुष और बांया अंग प्रकृति रूपा स्त्री हुई। ब्रहावर्त पुराण का यह वर्णन वेद एवं उपनिषदों के द्वारा प्रति- पादित है। जैसे-

स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीय- मैच्छत् स तावानास यथा स्त्रीपुमा सौ संपरिष्वक्तौ
स इममेवात्मानं द्वेधापातयत् ततः पतिश्च पत्नी

चाभवताम् ।

( बृहदारण्यक १।४३ ) अर्थात् उस ब्रह्म ने रमण (सृष्टि उत्पादन रूप खेल) नहीं किया या इस कारण कि वह प्रकेला रमण नहीं करता। उसने दूसरे की इच्छा की। जिस प्रकार परस्पर बालङ्गित स्त्री पुरुष होते हैं, बेसा उसका स्वरूप हो गया। उसने अपने को ही दो भागों में विभक्त कर डाला। वे पति और पत्नी हुवे भगवान् श्रीकृष्ण के वामाङ्ग से श्रीराधा की उत्पत्ति का भाव है कि वे एक से दो अर्थात् पति-पत्नी रूप में हो गये।

मागे प्रकरण को देखिये-

वृषभानोश्च वैश्यस्य सा च कन्या बभूव ह । योनिसम्भवा देवी वायुगर्भा कलावती ॥ सुषुवे मायया वायुं स तत्राविर्बभूव ह । अती द्वादशाब्दे तु दृष्ट्वा तां नवयौवनाम् ॥ सार्धं रायणवैश्येन तत्सम्बन्धं चकार सः । छायां संस्थाप्य तद्गेहे सान्तर्धानमवाप ह || बभूव तस्य वैश्यस्य विवाहश्छायया सह । कृष्ण माता यशोदा या रायणस्तत् सहोदरः ॥ गोलो के गोपकृष्णांशः सम्बन्धात्कृष्णमातुलः ॥ कृष्णेन सह राधायाः पुण्ये वृन्दावने वने । विवाहं कारयामास विधिना जगतां विधिः ॥ ( ब्रह्म बं० [सं० २० ४६ श्लो० ३२ से ४२ )

अर्थात् ब्रजभूमि में अवतार लेने पर वह राधा वषभानु वैश्य की कन्या हुई || २६ ॥ वृषभानु की स्त्री कलावती वायुगर्भा ( जिसके गर्भ में केवल बाबु मात्र थी ) थी उसने वायु प्रसव किया। प्रसव होते ही श्री राधा देवी प्रयोनिजा (गर्भ से उत्पन्न न होने वाली ) प्रकट हो गई। ||३७|| बारह वर्ष व्यतीत होने पर उसके पिता ने उसे नवयुवती होने वाली देख कर रामण वैश्य के साथ उसका सम्बन्ध - सगाई कर  दी ॥ ३८ ॥ किन्तु राधा जी अपने प्रभाव से अपने ही अनुरूप एक 'छाया' नाम की कन्या को उत्पन्न कर और उसे घर में स्थापित कर स्वयं अन्तर्धान हो गई, रायण वैश्य का विवाह उसी 'छाया' नाम की कन्या के साथ हुआ ||३०|| श्रीकृष्ण की धायस्य माता को यशोदा थीं, रागण उनका भाई था। वह गोलोक में गोप कृष्ण का अंश (अर्थात्--- उन कृष्ण के अंश से गोलोक के सृष्टि प्रकरण में जिस प्रकार अन्य अनेक व्यक्तियों की उत्पत्ति हुई थी उसी प्रकार उत्पन्न होने वाला) सखा था। ब्रज में उनकी घाव रूप माता यशोदा का भाई होने के नाते श्रीकृष्ण जी का वह मामा हुधा पवित्र वृन्दावन में श्री ब्रह्मा जी ने कृष्ण जी के साथ श्री राधा जी का विधिपूर्वक दिव्य विवाह कराया ||४०|

उपर के ब्रह्म० पुराण प्रकरण से स्पष्ट है कि रायण वैश्य के साथ दिव्य 'छाया' का विवाह हुआ था और श्रीकृष्ण जी के साथ श्री राधा जी का दिव्य विवाह हुआ। अतः आक्षेपकर्ताओं को राधा जी की श्रीकृष्ण जी की पुत्री, पुत्र वधू व मामी कहना सरासर झूठ है ।

जय जय सीताराम।
माधवाचार्य कृति
पं. राजेश मिश्र "कण"

जीवित श्राद्ध प्रमाण संग्रह,

  प्रमाण-संग्रह (१) जीवच्छ्राद्धकी परिभाषा अपनी जीवितावस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जानेवाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है- ...